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Wednesday, October 23, 2013

Dnyaneshwari ||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ११ || Marathi


||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अकरावा |
विश्वरूपदर्शनयोगः |

आतां यावरी एकादशीं| कथा आहे दोहीं रसीं| येथ पार्था विश्वरूपेंसीं| होईल भेटी ||१||
जेथ शांताचिया घरा| अद्भुत आला आहे पाहुणेरा| आणि येरांही रसां पांतिकरां| जाहला मानु ||२||
अहो वधुवरांचिये मिळणीं| जैशी वराडियां लुगडीं लेणीं| तैसे देशियेच्या सुखासनीं| मिरविले रस ||३||
परी शांताद्भुत बरवे| जे डोळियांच्या अंजुळीं घ्यावें| जैसे हरिहर प्रेमभावें| आले खेंवा ||४||
ना तरी अंवसेच्या दिवशीं| भेटलीं बिंबें दोनी जैशीं| तेवीं एकवळा रसीं| केला एथ ||५||
मीनले गंगेयमुनेचे ओघ| तैसें रसां जाहलें प्रयाग| म्हणौनि सुस्नात होत जग| आघवें एथ ||६||
माजीं गीता सरस्वती गुप्त| आणि दोनी रस ते ओघ मूर्त| यालागीं त्रिवेणी हे उचित| फावली बापा ||७||
एथ श्रवणाचेनि द्वारें| तीर्थीं रिघतां सोपारें| ज्ञानदेवो म्हणे दातारें| माझेनि केलें ||८||
तीरें संस्कृताचीं गहनें| तोडोनि मऱ्हाठियां शब्दसोपानें| रचिली धर्मनिधानें| श्रीनिवृत्तिदेवें ||९||
म्हणौनि भलतेणें एथ सद्भावें नाहावें| प्रयागमाधव विश्वरूप पहावें| येतुलेनि संसारासि द्यावें| तिळोदक ||१०||
हें असो ऐसें सावयव| एथ सासिन्नले आथी रसभाव| तेथ श्रवणसुखाची राणीव| जोडली जगा ||११||
जेथ शांताद्भुत रोकडे| आणि येरां रसां पडप जोडे| हें अल्पचि परी उघडें| कैवल्य एथ ||१२||
तो हा अकरावा अध्यायो| जो देवाचा आपणपें विसंवता ठावो| परी अर्जुन सदैवांचा रावो| जो एथही पातला ||१३||
एथ अर्जुनचि काय म्हणों पातला| आजि आवडतयाही सुकाळु जाहला| जे गीतार्थु हा आला| मऱ्हाठिये ||१४||
याचिलागीं माझें| विनविलें आइकिजे| तरी अवधान दीजे| सज्जनीं तुम्ही ||१५||
तेवींचि तुम्हां संतांचिये सभे| ऐसी सलगी कीर करूं न लभे| परी मानावें जी तुम्ही लोभें| अपत्या मज ||१६||
अहो पुंसा आपणचि पढविजे| मग पढे तरी माथा तुकिजे| कां करविलेनि चोजें न रिझे| बाळका माय ||१७||
तेवीं मी जें जें बोलें| तें प्रभु तुमचेंचि शिकविलें| म्हणौनि अवधारिजो आपुलें| आपण देवा ||१८||
हें सारस्वताचें गोड| तुम्हींचि लाविलें जी झाड| तरी आतां अवधानामृतें वाड| सिंपोनि कीजे ||१९||
मग हें रसभाव फुलीं फुलेल| नानार्थ फळभारें फळा येईल| तुमचेनि धर्में होईल| सुरवाडु जगा ||२०||
या बोला संत रिझले| म्हणती तोषलों गा भलें केलें| आतां सांगैं जें बोलिलें| अर्जुनें तेथ ||२१||
तंव निवृत्तिदास म्हणे| जी कृष्णार्जुनांचें बोलणें| मी प्राकृत काय सांगों जाणें| परी सांगवा तुम्ही ||२२||
अहो रानींचिया पालेखाइरा| नेवाणें करविले लंकेश्वरा| एकला अर्जुन परी अक्षौहिणी अकरा| न जिणेचि काई ? ||२३||
म्हणौनि समर्थ जें जें करी| तें न हो न ये चराचरीं| तुम्ही संत तयापरी| बोलवा मातें ||२४||
आतां बोलिजतसें आइका| हा गीताभाव निका| जो वैकुंठनायका- | मुखौनि निघाला ||२५||
बाप बाप ग्रंथ गीता| जो वेदीं प्रतिपाद्य देवता| तो श्रीकृष्ण वक्ता| जिये ग्रंथीं ||२६||
तेथिंचे गौरव कैसें वानावें| जें श्रीशंभूचिये मती नागवे| तें आतां नमस्कारिजे जीवेंभावें| हेंचि भलें ||२७||
मग आइका तो किरीटी| घालूनि विश्वरूपीं दिठी| पहिली कैसी गोठी| करिता जाहला ||२८||
हें सर्वही सर्वेश्वरु| ऐसा प्रतीतिगत जो पतिकरु| तो बाहेरी होआवा गोचरु| लोचनांसी ||२९||
हे जिवाआंतुली चाड| परी देवासि सांगतां सांकड| कां जें विश्वरूप गूढ| कैसेनि पुसावें ? ||३०||
म्हणे मागां कवणीं कहीं| जें पढियंतेनें पुसिलें नाहीं| ते सहसा कैसें काई| सांगा म्हणों ? ||३१||
मी जरी सलगीचा चांगु| तरी काय आइसीहूनी अंतरंगु| परी तेही हा प्रसंगु| बिहाली पुसों ||३२||
माझी आवडे तैसी सेवा जाहली| तरी काय होईल गरुडाचिया येतुली ? | परी तोही हें बोली| करीचिना ||३३||
मी काय सनकादिकांहूनि जवळां| परी तयांही नागवेचि हा चाळा| मी आवडेन काय प्रेमळां| गोकुळींचिया ऐसा ? ||३४||
तयांतेंही लेकुरपणें झकविलें| एकाचे गर्भवासही साहिले| परी विश्वरूप हें राहविलें| न दावीच कवणा ||३५||
हा ठायवरी गुज| याचिये अंतरीचें हें निज| केवीं उराउरी मज| पुसों ये पां ? ||३६||
आणि न पुसेंचि जरी म्हणे| तरी विश्वरूप देखिलियाविणें| सुख नोहेचि परी जिणें| तेंही विपायें ||३७||
म्हणौनि आतां पुसों अळुमाळसें| मग करूं देवा आवडे तैसें| येणें प्रवर्तला साध्वसें| पार्थु बोलों ||३८||
परी तेंचि ऐसेनि भावें| जें एका दों उत्तरांसवें| दावी विश्वरूप आघवें| झाडा देउनी ||३९||
अहो वांसरूं देखिलियाचिसाठीं| धेनु खडबडोनि मोहें उठी| मग स्तनामुखाचिये भेटी| काय पान्हा धरे ? ||४०||
पाहा पां तया पांडवाचेनि नांवें| जो कृष्ण रानींही प्रतिपाळूं धावे| तयांतें अर्जुनें जंव पुसावें| तंव साहील काई ? ||४१||
तो सहजेंचि स्नेहाचें अवतरण| आणि येरु स्नेहा घातलें आहे माजवण| ऐसिये मिळवणी वेगळेपण| उरे हेंचि बहु ||४२||
म्हणौनि अर्जुनाचिया बोलासरिसा| देव विश्वरूप होईल आपैसा| तोचि पहिला प्रसंगु ऐसा| ऐकिजे तरी ||४३||

अर्जुन उवाच |
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ||१||

मग पार्थु देवातें म्हणे| जी तुम्ही मजकारणें| वाच्य केलें जें न बोलणें| कृपानिधे ||४४||
जैं महाभूतें ब्रह्मीं आटती| जीव महदादींचे ठाव फिटती| तैं जें देव होऊनि ठाकती| तें विसवणें शेषींचें ||४५||
होतें हृदयाचिये परिवरीं| रोंविलें कृपणाचिये परी| शब्दब्रह्मासही चोरी| जयाची केली ||४६||
तें तुम्हीं आजि आपुलें| मजपुढां हियें फोडिलें| जया अध्यात्मा वोवाळिलें| ऐश्वर्य हरें ||४७||
ते वस्तु मज स्वामी| एकिहेळां दिधली तुम्ही| हें बोलों तरी आम्ही| तुज पावोनि कैंचे ||४८||
परी साचचि महामोहाचिये पुरीं| बुडालेया देखोनि सीसवरी| तुवां आपणपें घालोनि श्रीहरी| मग काढिलें मातें ||४९||
एक तूंवांचूनि कांहीं| विश्वीं दुजियाची भाष नाहीं| कीं आमुचें कर्म पाहीं| जे आम्हीं आथी म्हणों ||५०||
मी जगीं एक अर्जुनु| ऐसा देहीं वाहे अभिमानु| आणि कौरवांतें इयां स्वजनु| आपुलें म्हणें ||५१||
याहीवरी यांतें मी मारीन| म्हणें तेणें पापें कें रिगेन| ऐसें देखत होतों दुःस्वप्न| तों चेवविला प्रभु ||५२||
देवा गंधर्वनगरीची वस्ती| सोडूनि निघालों लक्ष्मीपती| होतों उदकाचिया आर्ती| रोहिणी पीत ||५३||
जी किरडूं तरी कापडाचें| परी लहरी येत होतिया साचें| ऐसें वायां मरतया जीवाचें| श्रेय तुवां घेतलें ||५४||
आपुलें प्रतिबिंब नेणता| सिंह कुहां घालील देखोनि आतां| ऐसा धरिजे तेवीं अनंता| राखिलें मातें ||५५||
एऱ्हवीं माझा तरी येतुलेवरी| एथ निश्चय होता अवधारीं| जें आतांचि सातांही सागरीं| एकत्र मिळिजे ||५६||
हें जगचि आघवें बुडावें| वरी आकाशहि तुटोनि पडावें| परी झुंजणें न घडावें| गोत्रजेशीं मज ||५७||
ऐसिया अहंकाराचिये वाढी| मियां आग्रहजळीं दिधली होती बुडी| चांगचि तूं जवळां एऱ्हवीं काढी| कवणु मातें ||५८||
नाथिलें आपण पां एक मानिलें| आणि नव्हतया नाम गोत्र ठेविलें| थोर पिसें होतें लागलें| परि राखिलें तुम्ही ||५९||
मागां जळत काढिलें जोहरीं| तैं तें देहासीच भय अवधारीं| आतां हे जोहरवाहर दुसरी| चैतन्यासकट ||६०||
दुराग्रह हिरण्याक्षें| माझी बुद्धि वसुंधरा सूदली काखे| मग माहार्णव गवाक्षें| रिघोनि ठेला ||६१||
तेथ तुझेनि गोसावीपणें| एकवेळ बुद्धीचिया ठाया येणें| हें दुसरें वराह होणें| पडिलें तुज ||६२||
ऐसें अपार तुझें केलें| एकी वाचा काय मी बोलें| परी पांचही पालव मोकलिले| मजप्रती ||६३||
तें कांहीं न वचेचि वायां| भलें यश फावलें देवराया| जे साद्यंत माया| निरसिली माझी ||६४||
आजीं आनंदसरोवरींचीं कमळें| तैसे हे तुझे डोळे| आपुलिया प्रसादाचीं राउळें| जयालागीं करिती ||६५||
हां हो तयाही आणि मोहाची भेटी| हे कायसी पाबळी गोठी ? | केउती मृगजळाची वृष्टी| वडवानळेंसीं ? ||६६||
आणि मी तंव दातारा| ये कृपेचिये रिघोनि गाभारां| घेत आहें चारा| ब्रह्मरसाचा ||६७||
तेणें माझा जी मोह जाये| एथ विस्मो कांहीं आहे ? | तरी उद्धरलों कीं तुझे पाये| शिवतले आहाती ||६८||

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया |
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ||२||

पैं कमलायतडोळसा| सूर्यकोटितेजसा| मियां तुजपासोनि महेशा| परिसिलें आजीं ||६९||
इयें भूतें जयापरी होती| अथवा लया हन जैसेनि जाती| ते मजपुढां प्रकृती| विवंचिली देवें ||७०||
आणि प्रकृती कीर उगाणा दिधला| वरि पुरुषाचाही ठावो दाविला| जयाचा महिमा पांघरोनि जाहला| धडौता वेदु ||७१||
जी शब्दराशी वाढे जिये| कां धर्माऐशिया रत्नांतें विये| ते एथिंचे प्रभेचे पाये| वोळगे म्हणौनि ||७२||
ऐसें अगाध माहात्म्य| जें सकळमार्गैकगम्य| जें स्वात्मानुभवरम्य| तें इयापरी दाविलें ||७३||
जैसा केरु फिटलिया आभाळीं| दिठी रिगे सूर्यमंडळीं| कां हातें सारूनि बाबुळीं| जळ देखिजे ||७४||
नातरी उकलतया सापाचे वेढे| जैसें चंदना खेंव देणें घडे| अथवा विवसी पळे मग चढे| निधान हातां ||७५||
तैसी प्रकृती हे आड होती| ते देवेंचि सारोनि परौती| मग परतत्त्व माझिये मती| शेजार केलें ||७६||
म्हणौनि इयेविषयींचा मज देवा| भरंवसा कीर जाहला जीवा| परी आणीक एक हेवा| उपनला असे ||७७||
तो भिडां जरी म्हणों राहों| तरी आना कवणा पुसों जावों| काय तुजवांचोनि ठावो| जाणत आहों आम्ही ? ||७८||
जळचरु जळाचा आभारु धरी| बाळक स्तनपानीं उपरोधु करी| तरी तया जिणया श्रीहरी| आन उपायो असे ? ||७९||
म्हणौनि भीड सांकडी न धरवे| जीवा आवडे तेंही तुजपुढां बोलावें| तंव राहें म्हणितलें देवें| चाड सांगैं ||८०||

एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वमात्मानं परमेश्वर |
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ||३||

मग बोलिला तो किरीटी| म्हणे तुम्हीं केली जे गोठी| तिया प्रतीतीची दिठी| निवाली माझी ||८१||
आतां जयाचेनि संकल्पें| हे लोकपरंपरा होय हारपे| जया ठायातें आपणपें| मी ऐसें म्हणसी ||८२||
तें मुद्दल रूप तुझें| जेथूनि इयें द्विभुजें हन चतुर्भुजें| सुरकार्याचेनि व्याजें| घेवों घेवों येसी ||८३||
पैं जळशयनाचिया अवगणिया| कां मत्स्य कूर्म इया मिरवणिया| खेळु सरलिया तूं गुणिया| सांठविसी जेथ ||८४||
उपनिषदें जें गाती| योगिये हृदयीं रिगोनि पाहाती| जयातें सनकादिक आहाती| पोटाळुनियां ||८५||
ऐसें अगाध जें तुझें| विश्वरूप कानीं ऐकिजे| तें देखावया चित्त माझें| उतावीळ देवा ||८६||
देवें फेडूनियां सांकड| लोभें पुसिली जरी चाड| तरी हेंचि एकीं वाड| आर्तीं जी मज ||८७||
तुझें विश्वरूपपण आघवें| माझिये दिठीसि गोचर होआवें| ऐसी थोर आस जीवें| बांधोनि आहें ||८८||

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो |
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम् ||४||

परी आणीक एक एथ शारङ्गी| तुज विश्वरूपातें देखावयालागीं| पैं योग्यता माझिया आंगीं| असे कीं नाहीं ||८९||
हें आपलें आपण मी नेणें| तें कां नेणसी जरी देव म्हणे| तरी सरोगु काय जाणे| निदान रोगाचें ? ||९०||
आणि जी आर्तीचेनि पडिभरें| आर्तु आपुली ठाकी पैं विसरे| जैसा तान्हेला म्हणे न पुरे| समुद्र मज ||९१||
ऐशा सचाडपणाचिये भुली| न सांभाळवे समस्या आपुली| यालागीं योग्यता जेवीं माउली| बालकाची जाणे ||९२||
तयापरी श्रीजनार्दना| विचारिजो माझी संभावना| मग विश्वरूपदर्शना| उपक्रम कीजे ||९३||
तरी ऐसी ते कृपा करा| एऱ्हवीं नव्हे हें म्हणा अवधारा| वायां पंचमालापें बधिरा| सुख केउतें देणें ? ||९४||
एऱ्हवीं येकले बापियाचे तृषे| मेघ जगापुरतें काय न वर्षे ? | परी जहालीही वृष्टि उपखे| जऱ्ही खडकीं होय ||९५||
चकोरा चंद्रामृत फावलें| येरा आण वाहूनि काय वारिलें ? | परी डोळ्यांवीण पाहलें| वायां जाय ||९६||
म्हणौनि विश्वरूप तूं सहसा| दाविसी कीर हा भरवंसा| कां जे कडाडां आणि गहिंसा- | माजी नीत्य नवा तूं कीं ||९७||
तुझें औदार्य जाणों स्वतंत्र| देतां न म्हणसी पात्रापात्र| पैं कैवल्या ऐसें पवित्र| जें वैरियांही दिधलें ||९८||
मोक्षु दुराराध्यु कीर होय| परी तोही आराधी तुझे पाय| म्हणौनि धाडिसी तेथ जाय| पाइकु जैसा ||९९||
तुवां सनकादिकांचेनि मानें| सायुज्यीं सौरसु दिधला पूतने| जे विषाचेनि स्तनपानें| मारूं आली ||१००||
हां गा राजसूय यागाचिया सभासदीं| देखतां त्रिभुवनाची मांदी| कैसा शतधा दुर्वाक्य शब्दीं| निस्तेजिलासी ||१०१||
ऐशिया अपराधिया शिशुपाळा| आपणपें ठावो दिधला गोपाळा| आणि उत्तानचरणाचिया बाळा |
काय ध्रुवपदीं चाड ? ||१०२||
तो वना आला याचिलागीं| जे बैसावें पितयाचिया उत्संगीं| कीं तो चंद्रसूर्यादिकांपरिस जगीं| श्लाघ्यु केला ||१०३||
ऐसा वनवासिया सकळां| देतां एकचि तूं धसाळा| पुत्रा आळवितां अजामिळा| आपणपें देसी ||१०४||
जेणें उरीं हाणितलासि पांपरा| तयाचा चरणु वाहासी दातारा| अझुनी वैरियांचिया कलेवरा| विसंबसीना ||१०५||
ऐसा अपकारियां तुझा उपकारु| तूं अपात्रींही परी उदारु| दान म्हणौनि दारवंठेकरु| जाहलासी बळीचा ||१०६||
तूंतें आराधी ना आयकें| होती पुंसा बोलावित कौतुकें| तिये वैकुंठीं तुवां गणिके| सुरवाडु केला ||१०७||
ऐसीं पाहूनि वायाणीं मिषें| आपणपें देवों लागसी वानिवसें| तो तूं कां अनारिसें| मजलागीं करिसी ||१०८||
हां गा दुभतयाचेनि पवाडें| जे जगाचें फेडी सांकडें| तिये कामधेनूचे पाडे| काय भुकेले ठाती ? ||१०९||
म्हणौनि मियां जें विनविलें कांहीं| तें देव न दाखविती हें कीर नाहीं| परी देखावयालागीं देईं| पात्रता मज ||११०||
तुझें विश्वरूप आकळे| ऐसे जरी जाणसी माझे डोळे| तरी आर्तीचे डोहळे| पुरवीं देवा ||१११||
ऐसी ठायेंठावो विनंती| जंव करूं सरला सुभद्रापती| तंव तया षड्गुणचक्रवर्ती| साहवेचिना ||११२||
तो कृपापीयूषसजळु| आणि येरु जवळां आला वर्षाकाळु| नाना कृष्ण कोकिळु| अर्जुन वसंतु ||११३||
नातरी चंद्रबिंब वाटोळें| देखोनि क्षीरसागर उचंबळे| तैसा दुणेंही वरी प्रेमबळें| उल्लसितु जाहला ||११४||
मग तिये प्रसन्नतेचेनि आटोपें| गाजोनि म्हणितलें सकृपें| पार्था देख देख अमुपें| स्वरूपें माझीं ||११५||
एक विश्वरूप देखावें| ऐसा मनोरथु केला पांडवें| कीं विश्वरूपमय आघवें| करूनि घातलें ||११६||
बाप उदार देवो अपरिमितु| याचक स्वेच्छा सदोदितु| असे सहस्रवरी देतु| सर्वस्व आपुलें ||११७||
अहो शेषाचेहि डोळे चोरिले| वेद जयालागीं झकविले| लक्ष्मीयेही राहविलें| जिव्हार जें ||११८||
तें आतां प्रकटुनी अनेकधा| करीत विश्वरूपदर्शनाचा धांदा| बाप भाग्या अगाधा| पार्थाचिया ||११९||
जो जागता स्वप्नावस्थे जाये| तो जेवीं स्वप्नींचें आघवें होये| तेवीं अनंत ब्रह्मकटाह आहे| आपणचि जाहला ||१२०||
ते सहसा मुद्रा सोडिली| आणि स्थूळदृष्टीची जवनिका फेडिली| किंबहुना उघडिली| योगऋद्धी ||१२१||
परी हा हें देखेल कीं नाहीं| ऐसी सेचि न करी कांहीं| एकसरां म्हणतसे पाहीं| स्नेहातुर ||१२२||

श्रीभगवानुवाच |
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ||५||

अर्जुना तुवां एक दावा म्हणितलें| आणि तेंचि दावूं तरी काय दाविलें| आतां देखें आघवें भरिलें| माझ्याचि रूपीं ||१२३||
एकें कृशें एकें स्थूळें| एकें ऱ्हस्वें एकें विशाळें| पृथुतरें सरळें| अप्रांतें एकें ||१२४||
एकें अनावरें प्रांजळें| सव्यापारें एकें निश्चळें| उदासीनें स्नेहाळें| तीव्रें एकें ||१२५||
एके घूर्णितें सावधें| असलगें एकें अगाधें| एकें उदारें अतिबद्धें| क्रुद्धें एकें ||१२६||
एकें शांतें सन्मदें| स्तब्धें एकें सानंदें| गर्जितें निःशब्दें| सौम्यें एकें ||१२७||
एकें साभिलाषें विरक्तें| उन्निद्रितें एकें निद्रितें| परितुष्टें एकें आर्तें| प्रसन्नें एकें ||१२८||
एकें अशस्त्रें सशस्त्रें| एकें रौद्रें अतिमित्रें| भयानकें एकें पवित्रें| लयस्थें एकें ||१२९||
एकें जनलीलाविलासें| एकें पालनशीलें लालसें| एकें संहारकें सावेशें| साक्षिभूतें एकें ||१३०||
एवं नानाविधें परी बहुवसें| आणि दिव्यतेजप्रकाशें| तेवींचि एकएका ऐसें| वर्णेंही नव्हे ||१३१||
एकें तातलें साडेपंधरें| तैसीं कपिलवर्णें अपारें| एकें सर्वांगीं जैसें सेंदुरें| डवरलें नभ ||१३२||
एकें सावियाचि चुळुकीं| जैसें ब्रह्मकटाह खचिलें माणिकीं| एकें अरुणोदयासारिखीं| कुंकुमवर्णें ||१३३||
एकें शुद्धस्फटिकसोज्वळें| एकें इंद्रनीळसुनीळें| एकें अंजनवर्णें सकाळें| रक्तवर्णें एकें ||१३४||
एकें लसत्कांचनसम पिंवळीं| एकें नवजलदश्यामळीं| एकें चांपेगौरीं केवळीं| हरितें एकें ||१३५||
एकें तप्तताम्रतांबडीं| एकें श्वेतचंद्र चोखडीं| ऐसीं नानावर्णें रूपडीं| देखें माझीं ||१३६||
हे जैसे कां आनान वर्ण| तैसें आकृतींही अनारिसेपण| लाजा कंदर्प रिघाला शरण| तैसीं सुंदरें एकें ||१३७||
एकें अतिलावण्यसाकारें| एकें स्निग्धवपु मनोहरें| शृंगारश्रियेचीं भांडारें| उघडिली जैसीं ||१३८||
एकें पीनावयवमांसाळें| एकें शुष्कें अति विक्राळें| एकें दीर्घकंठें विताळें| विकटें एकें ||१३९||
एवं नानाविधाकृती| इयां पाहतां पारु नाहीं सुभद्रापती| ययांच्या एकेकीं अंगप्रांतीं| देख पां जग ||१४०||

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ||६||

जेथ उन्मीलन होत आहे दिठी| तेथ पसरती आदित्यांचिया सृष्टी| पुढती निमीलनीं मिठीं| देत आहाती ||१४१||
वदनींचिया वाफेसवें| होत ज्वाळामय आघवें| जेथ पावकादिक पावे| समूह वसूंचा ||१४२||
आणि भ्रूलतांचे शेवट| कोपें मिळों पाहतीं एकवट| तेथ रुद्रगणांचे संघाट| अवतरत देखें ||१४३||
पैं सौम्यतेचा बोलावा| मिती नेणिजे अश्विनौदेवां| श्रोत्रीं होती पांडवा| अनेक वायु ||१४४||
यापरी एकेकाचिये लीळे| जन्मती सुरसिद्धांचीं कुळें| ऐसीं अपारें आणि विशाळें| रूपें इयें पाहीं ||१४५||
जयांतें सांगावया वेद बोबडे| पहावया काळाचेंही आयुष्य थोकडें| धातयाही परी न सांपडे| ठाव जयांचा ||१४६||
जयांतें देवत्रयी कधीं नायके| तियें इयें प्रत्यक्ष देख अनेकें| भोगीं आश्चर्याची कवतिकें| महासिद्धी ||१४७||

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दृष्टुमिच्छसि ||७||

इया मूर्तीचिया किरीटी| रोममूळीं देखें पां सृष्टी| सुरतरुतळवटीं| तृणांकुर जैसे ||१४८||
चंडवाताचेनि प्रकाशें| उडत परमाणु दिसती जैसे| भ्रमत ब्रह्मकटाह तैसें| अवयवसंधीं ||१४९||
एथ एकैकाचिया प्रदेशीं| विश्व देख विस्तारेंशी| आणि विश्वाही परौतें मानसीं| जरी देखावें वर्ते ||१५०||
तरी इयेही विषयींचें कांहीं| एथ सर्वथा सांकडें नाहीं| सुखें आवडे तें माझिया देहीं| देखसी तूं ||१५१||
ऐसें विश्वमूर्ती तेणें| बोलिलें कारुण्यपूर्णें| तंव देखत आहे कीं नाहीं न म्हणे| निवांतुचि येरु ||१५२||
एथ कां पां हा उगला ? | म्हणौनि श्रीकृष्णें जंव पाहिला| तंव आर्तीचें लेणें लेइला| तैसाचि आहे ||१५३||

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ||८||

मग म्हणें उत्कंठे वोहट न पडे| अझुनी सुखाची सोय न सांपडे| परी दाविलें तें फुडें| नाकळेचि यया ||१५४||
हे बोलोनि देवो हांसिले| हांसोनि देखणियातें म्हणितलें| आम्हीं विश्वरूप तरी दाविलें| परी न देखसीच तूं ||१५५||
यया बोला येरें विचक्षणें| म्हणितलें हां जी कवणासी तें उणें ? | तुम्ही बकाकरवीं चांदिणें| चरऊं पहा मा ||१५६||
हां हो उटोनियां आरिसा| आंधळिया द्ॐ बैसा| बहिरियापुढें हृषीकेशा| गाणीव करा ||१५७||
मकरंदकणाचा चारा| जाणतां घालूनि दर्दुरा| वायां धाडा शारङ्गधरा| कोपा कवणा ||१५८||
जें अतींद्रिय म्हणौनि व्यवस्थिलें| केवळ ज्ञानदृष्टीचिया भागा फिटलें| तें तुम्हीं चर्मचक्षूंपुढें सूदलें| मी कैसेनि देखें ||१५९||
परी हें तुमचें उणें न बोलावें| मीचि साहें तेंचि बरवें| एथ आथि म्हणितलें देवें| मानूं बापा ||१६०||
साच विश्वरूप जरी आम्ही दावावें| तरी आधीं देखावया सामर्थ्य कीं द्यावें| परी बोलत बोलत प्रेमभावें |
धसाळ गेलों ||१६१||
काय जाहलें न वाहतां भुई पेरिजे| तरी तो वेलु विलया जाइजे| तरी आतां माझें निजरूप देखिजे |
तें दृष्टी देवों तुज ||१६२||
मग तिया दृष्टी पांडवा| आमुचा ऐश्वर्ययोगु आघवा| देखोनियां अनुभवा| माजिवडा करीं ||१६३||
ऐसें तेणें वेदांतवेद्यें| सकळ लोक आद्यें| बोलिलें आराध्यें| जगाचेनि ||१६४||

संजय उवाच |
एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ||९||

पैं कौरवकुलचक्रवर्ती| मज हाचि विस्मयो पुढतपुढती| जे श्रियेहूनि त्रिजगतीं| सदैव असे कवणी ? ||१६५||
ना तरी खुणेचें वानावयालागीं| श्रुतीवांचूनि दावा पां जगीं| ना सेवकपण तरी आंगीं| शेषाच्याचि आथी ||१६६||
हां हो जयाचेनि सोसें| शिणत आठही पहार योगी जैसे| अनुसरलें गरुडाऐसें| कवण आहे ? ||१६७||
परी तें आघवेंचि एकीकडे ठेलें| सापें कृष्णसुख एकंदरें जाहलें| जिये दिवूनि जन्मले| पांडव हे ||१६८||
परी पांचांही आंतु अर्जुना| श्रीकृष्ण सावियाचि जाहला अधीना| कामुक कां जैसा अंगना| आपैता कीजे ||१६९||
पढविलें पाखरूं ऐसें न बोले| यापरी क्रीडामृगही तैसा न चले| कैसें दैव एथें सुरवाडलें| तें जाणों न ये ||१७०||
आजि हें परब्रह्म सगळें| भोगावया सदैव याचेचि डोळे| कैसे वाचेनि हन लळे| पाळीत असे ||१७१||
हा कोपे कीं निवांतु साहे| हा रुसे तरी बुझावीत जाये| नवल पिसें लागलें आहे| पार्थाचें देवा ||१७२||
एऱ्हवीं विषय जिणोनि जन्मले| जे शुकादिक दादुले| ते विषयोचि वानितां जाहले| भाट ययाचें ||१७३||
हा योगियांचें समाधिधन| कीं होऊनि ठेले पार्थाआधीन| यालागीं विस्मयो माझें मन| करीतसे राया ||१७४||
तेवींचि संजय म्हणे कायसा| विस्मयो एथें कौरवेशा| श्रीकृष्णें स्वीकारिजे तया ऐसा| भाग्योदय होय ||१७५||
म्हणौनि तो देवांचा रावो| म्हणे पार्थाते तुज दृष्टि देवों| जया विश्वरूपाचा ठावो| देखसी तूं ||१७६||
ऐसी श्रीमुखौनि अक्षरें| निघती ना जंव एकसरें| तंव अविद्येचे आंधारें| जावोंचि लागे ||१७७||
तीं अक्षरें नव्हती देखा| ब्रह्मसाम्राज्यदीपिका| अर्जुनालागीं चित्कळिका| उजळलिया श्रीकृष्णें ||१७८||
मग दिव्यचक्षुप्रकाशु प्रगटला| तया ज्ञानदृष्टी फांटा फुटला| ययापरी दाविता जाहला| ऐश्वर्य आपुलें ||१७९||
हे अवतार जे सकळ| ते जिये समुद्रींचे कां कल्लोळ| विश्व हें मृगजळ| जया रश्मीस्तव दिसे ||१८०||
जिये अनादिभूमिके निटे| चराचर हें चित्र उमटे| आपणपें श्रीवैकुंठें| दाविलें तया ||१८१||
मागां बाळपणीं येणें श्रीपती| जैं एक वेळ खादली होती माती| तैं कोपोनियां हातीं| यशोदां धरिला ||१८२||
मग भेणें भेणें जैसें| मुखीं झाडा द्यावयाचेनि मिसें| चवदाही भुवनें सावकाशें| दाविलीं तिये ||१८३||
ना तरी मधुवनीं ध्रुवासि केलें| जैसें कपोल शंखें शिवतलें| आणि वेदांचियेही मतीं ठेलें| तें लागला बोलों ||१८४||
तैसा अनुग्रहो पैं राया| श्रीहरी केला धनंजया| आतां कवणेकडेही माया| ऐसी भाष नेणेंचि तो ||१८५||
एकसरें ऐश्वर्यतेजें पाहलें| तया चमत्काराचें एकार्णव जाहलें| चित्त समाजीं बुडोनि ठेलें| विस्मयाचिया ||१८६||
जैसा आब्रह्म पूर्णोदकीं| पव्हे मार्कंडेय एकाकीं| तैसा विश्वरूप कौतुकीं| पार्थु लोळे ||१८७||
म्हणे केवढें गगन एथ होतें| तें कवणें नेलें पां केउतें| तीं चराचर महाभूतें| काय जाहलीं ? ||१८८||
दिशांचे ठावही हारपले| आधोर्ध्व काय नेणों जाहले| चेइलिया स्वप्न तैसे गेले| लोकाकार ||१८९||
नाना सूर्यतेजप्रतापें| सचंद्र तारांगण जैसें लोपे| तैसीं गिळिलीं विश्वरूपें| प्रपंचरचना ||१९०||
तेव्हां मनासी मनपण न स्फुरे| बुद्धि आपणपें न सांवरें| इंद्रियांचे रश्मी माघारे| हृदयवरी भरले ||१९१||
तेथ ताटस्थ्या ताटस्थ्य पडिलें| टकासी टक लागले| जैसें मोहनास्त्र घातलें| विचारजातां ||१९२||
तैसा विस्मितु पाहे कोडें| तंव पुढां होतें चतुर्भुज रूपडें| तेंचि नानारूप चहूंकडे| मांडोनि ठेलें ||१९३||
जैसें वर्षाकाळींचे मेघौडे| कां महाप्रळयींचें तेज वाढे| तैसें आपणावीण कवणीकडे| नेदीचि उरों ||१९४||
प्रथम स्वरूपसमाधान| पावोनि ठेला अर्जुन| सवेचि उघडी लोचन| तंव विश्वरूप देखें ||१९५||
इहींचि दोहीं डोळां| पाहावें विश्वरूपा सकळा| तो श्रीकृष्णें सोहळा| पुरविला ऐसा ||१९६||

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||१०||

मग तेथ सैंघ देखे वदनें| जैसी रमानायकाचीं राजभुवनें| नाना प्रगटलीं निधानें| लावण्यश्रियेचीं ||१९७||
कीं आनंदाची वनें सासिन्नलीं| जैसी सौंदर्या राणीव जोडली| तैसीं मनोहरें देखिलीं| हरीचीं वक्त्रें ||१९८||
तयांही माजीं एकैकें| सावियाचि भयानकें| काळरात्रीचीं कटकें| उठवलीं जैसीं ||१९९||
कीं मृत्यूसीचि मुखें जाहलीं| हो कां जें भयाचीं दुर्गें पन्नासिलीं| कीं महाकुंडें उघडलीं| प्रळयानळाचीं ||२००||
तैसीं अद्भुतें भयासुरें| तेथ वदनें देखिलीं वीरें| आणिकें असाधारणें साळंकारें| सौम्यें बहुतें ||२०१||
पैं ज्ञानदृष्टीचेनि अवलोकें| परी वदनांचा शेवटु न टके| मग लोचन तें कवतिकें| लागला पाहों ||२०२||
तंव नानावर्णें कमळवनें| विकासिलीं तैसे अर्जुनें| डोळे देखिले पालिंगनें| आदित्यांचीं ||२०३||
तेथेंचि कृष्णमेघांचिया दाटी- | माजीं कल्पांत विजूंचिया स्फुटी| तैसिया वन्हि पिंगळा दिठी| भ्रूभंगातळीं ||२०४||
हें एकैक आश्चर्य पाहतां| तिये एकेचि रूपीं पंडुसुता| दर्शनाची अनेकता| प्रतिफळली ||२०५||
मग म्हणे चरण ते कवणेकडे| केउते मुकुट कें दोर्दंडें| ऐसी वाढविताहे कोडें| चाड देखावयाची ||२०६||
तेथ भाग्यनिधि पार्था| कां विफलत्व होईल मनोरथा| काय पिनाकपाणीचिया भातां| वायकांडीं आहाती ? ||२०७||
ना तरी चतुराननाचिये वाचे| काय आहाती लटिकिया अक्षरांचे साचे ? | म्हणौनि साद्यंतपण अपारांचे| देखिलें तेणें ||२०८||
जयाची सोय वेदां नाकळे| तयाचे सकळावयव एकेचि वेळे| अर्जुनाचे दोन्ही डोळे| भोगिते जाहले ||२०९||
चरणौनि मुकुटवरी| देखत विश्वरूपाची थोरी| जे नाना रत्न अळंकारीं| मिरवत असे ||२१०||
परब्रह्म आपुलेनि आंगें| ल्यावया आपणचि जाहला अनेगें| तियें लेणीं मी सांगें| काइसयासारिखीं ||२११||
जिये प्रभेचिये झळाळा| उजाळु चंद्रादित्यमंडळा| जे महातेजाचा जिव्हाळा| जेणें विश्व प्रगटे ||२१२||
तो दिव्यतेज शृंगारु| कोणाचिये मतीसी होय गोचरु| देव आपणपेंचि लेइले ऐसें वीरु| देखत असे ||२१३||
मग तेथेंचि ज्ञानाचिया डोळां| पहात करपल्लवां जंव सरळा| तंव तोडित कल्पांतींचिया ज्वाळा |
तैसीं शस्त्रें झळकत देखे ||२१४||
आपण आंग आपण अलंकार| आपण हात आपण हतियार| आपण जीव आपण शरीर| देखें चराचर कोंदलें देवें ||२१५||
जयाचिया किरणांचे निखरपणें| नक्षत्रांचे होत फुटाणे| तेजें खिरडला वन्हि म्हणे| समुद्रीं रिघों ||२१६||
मग कालकूटकल्लोळीं कवळिलें| नाना महाविजूंचें दांग उमटलें| तैसे अपार कर देखिले| उदितायुधीं ||२१७||

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||११||

कीं भेणें तेथूनि काढिली दिठी| मग कंठमुगुट पहातसे किरीटी| तंव सुरतरूची सृष्टी| जयांपासोनि कां जाहली ||२१८||
जिये महासिद्धींचीं मूळपीठें| शिणली कमळा जेथ वावटे| तैसीं कुसुमें अति चोखटें| तुरंबिलीं देखिलीं ||२१९||
मुगुटावरी स्तबक| ठायीं ठायीं पूजाबंध अनेक| कंठीं रुळताति अलौकिक| माळादंड ||२२०||
स्वर्गें सूर्यतेज वेढिलें| जैसें पंधरेनें मेरूतें मढिलें| तैसें नितंबावरी गाढिलें| पीतांबरु झळके ||२२१||
श्रीमहादेवो कापुरें उटिला| कां कैलासु पारजें डवरिला| नाना क्षीरोदकें पांघरविला| क्षीरार्णवो जैसा ||२२२||
जैसी चंद्रमयाची घडी उपलविली| मग गगनाकरवीं बुंथी घेवविली| तैसीं चंदनपिंजरी देखिली| सर्वांगीं तेणें ||२२३||
जेणें स्वप्रकाशा कांतीं चढे| ब्रह्मानंदाचा निदाघु मोडे| जयाचेनि सौरभ्यें जीवित जोडे| वेदवतीये ||२२४||
जयाचे निर्लेप अनुलेपु करी| जे अनंगुही सर्वांगीं धरी| तया सुगंधाची थोरी| कवण वानी ? ||२२५||
ऐसी एकैक शृंगारशोभा| पाहतां अर्जुन जातसें क्षोभा| तेवींचि देवो बैसला कीं उभा| का शयालु हें नेणवें ||२२६||
बाहेर दिठी उघडोनि पाहे| तंव आघवें मूर्तिमय देखत आहे| मग आतां न पाहें म्हणौनि उगा राहे |
तरी आंतुही तैसेंचि ||२२७||
अनावरें मुखें समोर देखे| तयाभेणें पाठीमोरा जंव ठाके| तंव तयाहीकडे श्रीमुखें| करचरण तैसेचि ||२२८||
अहो पाहतां कीर प्रतिभासे| एथ नवलावो काय असे ? | परि न पाहतांही दिसे| चोज आइका ||२२९||
कैसें अनुग्रहाचें करणें| पार्थाचें पाहणें आणि न पाहणें| तयाही सकट नारायणें| व्यापूनि घेतलें ||२३०||
म्हणौनि आश्चर्याच्या पुरीं एकीं| पडिला ठायेठाव थडीं ठाकी| तंव चमत्काराचिया आणिकीं| महार्णवीं पडे ||२३१||
तैसा अर्जुनु असाधारणें| आपुलिया दर्शनाचेनि विंदाणें| कवळूनि घेतला तेणें| अनंतरूपें ||२३२||
तो विश्वतोमुख स्वभावें| आणि तेचि दावावयालागीं पांडवें| प्रार्थिला आतां आघवें| होऊनि ठेला ||२३३||
आणि दीपें कां सूर्यें प्रगटे| अथवा निमुटलिया देखावेंचि खुंटे| तैसी दिठी नव्हे जे वैकुंठें| दिधली आहे ||२३४||
म्हणौनि किरीटीसि दोहीं परी| तें देखणें देखें अंधारी| हें संजयो हस्तिनापुरीं| सांगतसे राया ||२३५||
म्हणे किंबहुना अवधारिलें| पार्थें विश्वरूप देखिलें| नाना आभरणीं भरलें| विश्वतोमुख ||२३६||

दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ||१२||

तिये अंगप्रभेचा देवा| नवलावो काइसया ऐसा सांगावा| कल्पांतीं एकुचि मेळावा| द्वादशादित्यांचा होय ||२३७||
तैसे ते दिव्यसूर्य सहस्रवरी| जरी उदयजती कां एकेचि अवसरीं| तऱ्ही तया तेजाची थोरी| उपमूं नये ||२३८||
आघवयाचि विजूंचा मेळावा कीजे| आणि प्रळयाग्नीची सर्व सामग्री आणिजे| तेवींचि दशकुही मेळविजे |
महातेजांचा ||२३९||
तऱ्ही तिये अंगप्रभेचेनि पाडें| हें तेज कांहीं कांहीं होईल थोडें| आणि तया ऐसें कीर चोखडें| त्रिशुद्धी नोहे ||२४०||
ऐसें महात्म्य या श्रीहरीचें सहज| फांकतसे सर्वांगीचें तेज| तें मुनिकृपा जी मज| दृष्ट जाहलें ||२४१||

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नम् प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तदा ||१३||

आणि तिये विश्वरूपीं एकीकडे| जग आघवें आपुलेनि पवाडें| जैसे महोदधीमाजीं बुडबुडे| सिनानें दिसती ||२४२||
कां आकाशीं गंधर्वनगर| भूतळीं पिपीलिका बांधे घर| नाना मेरुवरी सपूर| परमाणु बैसले ||२४३||
विश्व आघवेंचि तयापरी| तया देवचक्रवर्तीचिया शरीरीं| अर्जुन तिये अवसरीं| देखता जाहला ||२४४||

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताज़्जलिरभाषत ||१४||

तेथ एक विश्व एक आपण| ऐसें अळुमाळ होतें जें दुजेपण| तेंही आटोनि गेलें अंतःकरण| विरालें सहसा ||२४५||
आंतु आनंदा चेइरें जाहलें| बाहेरि गात्रांचें बळ हारपोनि गेलें| आपाद पां गुंतलें| पुलकांचलें ||२४६||
वार्षिये प्रथमदशे| वोहळलया शैलांचें सर्वांग जैसें| विरूढे कोमलांकुरीं तैसे| रोमांच जाहले ||२४७||
शिवतला चंद्रकरीं| सोमकांतु द्रावो धरी| तैसिया स्वेदकणिका शरीरीं| दाटलिया ||२४८||
माजीं सापडलेनि अलिकुळें| जळावरी कमळकळिका जेवीं आंदोळे| तेवीं आंतुलिया सुखोर्मीचेनि बळें| बाहेरि कांपे ||२४९||
कर्पूरकर्दळीचीं गर्भपुटें| उकलतां कापुराचेनि कोंदाटें| पुलिका गळती तेवीं थेंबुटें| नेत्रौनि पडती ||२५०||
उदयलेनि सुधाकरें| जैसा भरलाचि समुद्र भरे| तैसा वेळोवेळां उर्मिभरें| उचंबळत असे ||२५१||
ऐसा सात्त्विकांही आठां भावां| परस्परें वर्ततसे हेवा| तेथ ब्रह्मानंदाची जीवा| राणीव फावली ||२५२||
तैसाचि तया सुखानुभवापाठीं| केला द्वैताचा सांभाळु दिठी| मग उसासौनि किरीटी| वास पाहिली ||२५३||
तेथ बैसला होता जिया सवा| तियाचिया कडे मस्तक खालविला देवा| जोडूनि करसंपुट बरवा| बोलतु असे ||२५४||

अर्जुन उवाच |
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ मृषींश्चसर्वानुरगांश्च दिव्यान् ||१५||

म्हणे जयजयाजी स्वामी| नवल कृपा केली तुम्हीं| जें हें विश्वरूप कीं आम्हीं| प्राकृत देखों ||२५५||
परि साचचि भलें केलें गोसाविया| मज परितोषु जाहला साविया| जी देखलासि जो इया| सृष्टीसी तूं आश्रयो ||२५६||
देवा मंदराचेनि अंगलगें| ठायीं ठायीं श्वापदांचीं दांगें| तैसीं इयें तुझ्या देहीं अनेगें| देखतसें भुवनें ||२५७||
अहो आकाशचिये खोळे| दिसती ग्रहगणांचीं कुळें| कां महावृक्षीं अविसाळें| पक्षिजातीचीं ||२५८||
तयापरी श्रीहरी| तुझिया विश्वात्मकीं इये शरीरीं| स्वर्गु देखतसें अवधारीं| सुरगणेंसीं ||२५९||
प्रभु महाभूतांचें पंचक| येथ देखत आहे अनेक| आणि भूतग्राम एकेक| भूतसृष्टीचें ||२६०||
जी सत्यलोकु तुजमाजीं आहे| देखिला चतुराननु हा नोहे ? | आणि येरीकडे जंव पाहें| तंव कैलासुही दिसे ||२६१||
श्रीमहादेव भवानियेशीं| तुझ्या दिसतसे एके अंशीं| आणि तूंतेंही गा हृषीकेशी| तुजमाजीं देखे ||२६२||
पैं कश्यपादि ऋषिकुळें| इयें तुझिया स्वरूपीं सकळें| देखतसें पाताळें| पन्नगेंशीं ||२६३||
किंबहुना त्रैलोक्यपती| तुझिया एकेकाचि अवयवाचिये भिंती| इयें चतुर्दशभुवनें चित्राकृती| अंकुरलीं जाणों ||२६४||
आणि तेथिंचे जे जे लोक| ते चित्ररचना जी अनेक| ऐसें देखतसे अलोकिक| गांभीर्य तुझें ||२६५||

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनंतरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूपम् ||१६||

त्या दिव्यचक्षूंचेनि पैसें| चहुंकडे जंव पाहात असें| तंव दोर्दंडीं कां जैसें| आकाश कोंभैलें ||२६६||
तैसे एकचि निरंतर| देवा देखत असें तुझे कर| करीत आघवेचि व्यापार| एकेचि काळीं ||२६७||
मग महाशून्याचेनि पैसारें| उघडलीं ब्रह्मकटाहाचीं भांडारें| तैसीं देखतसें अपारें| उदरें तुझीं ||२६८||
जी सहस्रशीर्षयाचें देखिलें| कोडीवरी होताति एकीवेळें| कीं परब्रह्मचि वदनफळें| मोडोनि आलें ||२६९||
तैसीं वक्त्रें जी जेउतीं तेउतीं| तुझीं देखितसे विश्वमूर्ती| आणि तयाचिपरी नेत्रपंक्ती| अनेका सैंघ ||२७०||
हें असो स्वर्ग पाताळ| कीं भूमी दिशा अंतराळ| हे विवक्षा ठेली सकळ| मूर्तिमय देखतसें ||२७१||
हें तुजवीण एकादियाकडे| परमाणूहि एतुला कोडें| अवकाशु पाहतसें परि न सांपडे| ऐसें व्यापिलें तुवां ||२७२||
इये नानापरी अपरिमितें| जेतुलीं साठविलीं होतीं महाभूतें| तेतुलाहि पवाडु तुवां अनंतें| कोंदला देखतसें ||२७३||
ऐसा कवणें ठायाहूनि तूं आलासी| एथ बैसलासि कीं उभा आहासि| आणि कवणिये मायेचिये पोटीं होतासी |
तुझें ठाण केवढें ||२७४||
तुझें रूप वय कैसें| तुजपैलीकडे काय असे| तूं काइसयावरी आहासि ऐसें| पाहिलें मियां ||२७५||
तंव देखिलें जी आघवेंचि| तरि आतां तुज ठावो तूंचि| तूं कवणाचा नव्हेसि ऐसाचि| अनादि आयता ||२७६||
तूं उभा ना बैठा| दिघडु ना खुजटा| तुज तळीं वरी वैकुंठा| तूंचि आहासी ||२७७||
तूं रूपें आपणयांचि ऐसा| देवा तुझी तूंचि वयसा| पाठीं पोट परेशा| तुझें तूं गा ||२७८||
किंबहुना आतां| तुझें तूंचि आघवें अनंता| हें पुढत पुढती पाहतां| देखिलें मियां ||२७९||
परि या तुझिया रूपाआंतु| जी उणीव एक असे देखतु| जे आदि मध्य अंतु| तिन्हीं नाहीं ||२८०||
एऱ्हवीं गिंवसिलें आघवां ठायीं| परि सोय न लाहेचि कहीं| म्हणौनि त्रिशुद्धी हे नाहीं| तिन्ही एथ ||२८१||
एवं आदिमध्यांतरहिता| तूं विश्वेश्वरा अपरिमिता| देखिलासि जी तत्त्वतां| विश्वरूपा ||२८२||
तुज महामूर्तीचिया आंगी| उमटलिया पृथक् मूर्ती अनेगी| लेइलासी वानेपरींची आंगीं| ऐसा आवडतु आहासी ||२८३||
नाना पृथक् मूर्ती तिया द्रुमवल्ली| तुझिया स्वरूपमहाचळीं| दिव्यालंकार फुलीं फळीं| सासिन्नलिया ||२८४||
हो कां जे महोदधीं तूं देवा| जाहलासि तरंगमूर्ती हेलावा| कीं तूं एक वृक्षु बरवा| मूर्तिफळीं फळलासी ||२८५||
जी भूतीं भूतळ मांडिलें| जैसें नक्षत्रीं गगन गुढलें| तैसें मूर्तिमय भरलें| देखतसें तुझें रूप ||२८६||
जी एकेकीच्या अंगप्रांतीं| होय जाय हें त्रिजगती| एवढियाही तुझ्या आंगीं मूर्ती| कीं रोमा जालिया ||२८७||
ऐसा पवाडु मांडूनि विश्वाचा| तूं कवण पां एथ कोणाचा| हें पाहिलें तंव आमुचा| सारथी तोचि तूं ||२८८||
तरी मज पाहतां मुकुंदा| तूं ऐसाचि व्यापकु सर्वदा| मग भक्तानुग्रहें तया मुग्धा| रूपातें धरिसी ||२८९||
कैसें चहूं भुजांचें सांवळें| पाहतां वोल्हावती मन डोळे| खेंव देऊं जाइजे तरी आकळे| दोहींचि बाहीं ||२९०||
ऐसी मूर्ति कोडिसवाणी कृपा| करूनि होसी ना विश्वरूपा| कीं अमुचियाचि दिठी सलेपा| जें सामान्यत्वें देखिती ||२९१||
तरी आतां दिठीचा विटाळु गेला| तुवां सहजें दिव्यचक्षू केला| म्हणौनि यथारूपें देखवला| महिमा तुझा ||२९२||
परी मकरतुंडामागिलेकडे| तोचि होतासि तूं एवढें| रूप जाहलासि हें फुडें| वोळखिलें मियां ||२९३||

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् |
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||१७||

नोहे तोचि हा शिरीं ? | मुकुट लेइलासि श्रीहरी| परी आतांचें तेज आणि थोरी| नवल कीं बहु हें ||२९४||
तेंचि हें वरिलियेचि हातीं| चक्र परिजितया आयती| सांवरितासि विश्वमूर्ती| ते न मोडे खूण ||२९५||
येरीकडे तेचि हे नोहे गदा| आणि तळिलिया दोनी भुजा निरायुधा| वागोरे सांवरावया गोविंदा| संसरिलिया ||२९६||
आणि तेणेंचि वेगें सहसा| माझिया मनोरथासरिसा| जाहलासि विश्वरूपा विश्वेशा| म्हणौनि जाणें ||२९७||
परी कायसें बा हें चोज| विस्मयो करावयाहि पाडू नाहीं मज| चित्त होऊनि जातसें निर्बुज| आश्चर्यें येणें ||२९८||
हें एथ आथि कां येथ नाहीं| ऐसें श्वसोंही नये कांहीं| नवल अंगप्रभेची नवाई| कैसी कोंदलीं सैंघ ||२९९||
एथ अग्नीचीही दिठी करपत| सूर्य खद्योतु तैसा हारपत| ऐसें तीव्रपण अद्भुत| तेजाचें यया ||३००||
हो कां महातेजाचिया महार्णवीं| बुडोनि गेली सृष्टी आघवी| कीं युगांतविजूंच्या पालवीं| झांकलें गगन ||३०१||
नातरी संहारतेजाचिया ज्वाळा| तोडोनि माचू बांधला अंतराळां| आतां दिव्य ज्ञानाचिया डोळां| पाहवेना ||३०२||
उजाळु अधिकाधिक बहुवसु| धडाडीत आहे अतिदाहसु| पडत दिव्यचक्षुंसही त्रासु| न्याहाळितां ||३०३||
हो कां जे महाप्रळयींचा भडाडु| होता काळाग्निरुद्राचिया ठायीं गूढु| तो तृतीयनयनाचा मढू| फुटला जैसा ||३०४||
तैसें पसरलेनि प्रकाशें| सैंघ पांचवनिया ज्वाळांचे वळसे| पडतां ब्रह्मकटाह कोळिसे| होत आहाती ||३०५||
ऐसा अद्भुत तेजोराशी| जन्मा नवल म्यां देखिलासी| नाहीं व्याप्ती आणि कांतीसी| पारु जी तुझिये ||३०६||

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||१८||

देवा तूं अक्षर| औटाविये मात्रेसि पर| श्रुती जयाचें घर| गिंवसीत आहाती ||३०७||
जें आकाराचें आयतन| जें विश्वनिक्षेपैकनिधान| तें अव्यय तूं गहन| अविनाश जी ||३०८||
तूं धर्माचा वोलावा| अनादिसिद्ध तूं नित्य नवा| जाणें मी सदतिसावा| पुरुष विशेष तूं ||३०९||

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यं अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ||१९||

तूं आदिमध्यांतरहितु| स्वसामर्थ्यें तूं अनंतु| विश्वबाहु अपरिमितु| विश्वचरण तूं ||३१०||
पैं चंद्र चंडांशु डोळां| दावितासि कोपप्रसाद लीळा| एकां रुससी तमाचिया डोळां| एकां पाळितोसि कृपादृष्टी ||३११||
जी एवंविधा तूंतें| मी देखतसें हें निरुतें| पेटलें प्रळयाग्नीचें उजितें| तैसें वक्त्र हें तुझें ||३१२||
वणिवेनि पेटले पर्वत| कवळूनि ज्वाळांचे उभड उठत| तैसी चाटीत दाढा दांत| जीभ लोळे ||३१३||
इये वदनींचिया उबा| आणि जी सर्वांगकांतीचिया प्रभा| विश्व तातलें अति क्षोभा| जात आहे ||३१४||

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः |
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||२०||

कां जे द्यौर्लोक आणि पाताळ| पृथिवी आणि अंतराळ| अथवा दशदिशा समाकुळ| दिशाचक्र ||३१५||
हें आघवेंचि तुंवा एकें| भरलें देखत आहे कौतुकें| परि गगनाहीसकट भयानकें| आप्लविजे जेवीं ||३१६||
नातरी अद्भुतरसाचिया कल्लोळीं| जाहली चवदाही भुवनांसि कडियाळीं| तैसें आश्चर्यचि मग मी आकळीं |
काय एक ? ||३१७||
नावरे व्याप्ती हे असाधारण| न साहवे रूपाचें उग्रपण| सुख दूरी गेलें परि प्राण| विपायें धरीजे ||३१८||
देवा ऐसें देखोनि तूंतें| नेणों कैसें आलें भयाचें भरितें| आतां दुःखकल्लोळीं झळंबतें| तिन्हीं भुवनें ||३१९||
एऱ्हवीं तुज महात्मयाचें देखणें| तरि भयदुःखासि कां मेळवणें ? | परि हें सुख नव्हेचि जेणें गुणें| तें जाणवत आहे मज ||३२०||
जंव तुझें रूप नोहे दिठें| तंव जगासि संसारिक गोमटें| आतां देखिलासि तरी विषयविटें| उपनला त्रासु ||३२१||
तेवींचि तुज देखिलियासाठीं| काय सहसा तुज देवों येईल मिठी| आणि नेदीं तरी शोकसंकटीं| राहों केवीं ? ||३२२||
म्हणौनि मागां सरों तंव संसारु| आडवीत येतसे अनिवारु| आणि पुढां तूं तंव अनावरु| न येसि घेवों ||३२३||
ऐसा माझारलिया सांकडां| बापुड्या त्रैलोक्याचा होतसे हुरडा| हा ध्वनि जी फुडा| चोजवला मज ||३२४||
जैसा आरंबळला आगीं| तो समुद्रा ये निवावयालागीं| तंव कल्लोळपाणियाचिया तरंगीं| आगळा बिहे ||३२५||
तैसें या जगासि जाहलें| तूंतें देखोनि तळमळित ठेलें| यामाजीं पैल भले| ज्ञानशूरांचे मेळावे ||३२६||

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां सुतिभिः पुष्कलाभिः ||२१||

हे तुझेनि आंगिकें तेजें| जाळूनि सर्व कर्मांचीं बीजें| मिळत तुज आंतु सहजें| सद्भावेसीं ||३२७||
आणिक एक सावियाचि भयभीरु| सर्वस्वें धरूनि तुझी मोहरु| तुज प्रार्थिताति करु| जोडोनियां ||३२८||
देवा अविद्यार्णवीं पडिलों| जी विषयवागुरें आंतुडलों| स्वर्गसंसाराचिया सांकडलों| दोहीं भागीं ||३२९||
ऐसें आमुचें सोडवणें| तुजवांचोनि कीजेल कवणें ? | तुज शरण गा सर्वप्राणें| म्हणत देवा ||३३०||
आणि महर्षी अथवा सिद्ध| कां विद्याधरसमूह विविध| हे बोलत तुज स्वस्तिवाद| करिती स्तवन ||३३१||

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोश्मपाश्च |
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ||२२||

हे रुद्रादित्यांचे मेळावे| वसु हन साध्य आघवे| अश्विनौ देव विश्वेदेव विभवें| वायुही हे जी ||३३२||
अवधारा पितर हन गंधर्व| पैल यक्षरक्षोगण सर्व| जी महेंद्रमुख्य देव| कां सिद्धादिक ||३३३||
हे आघवेचि आपुलालिया लोकीं| सोत्कंठित अवलोकीं| हे महामूर्ती दैविकी| पाहात आहाती ||३३४||
मग पाहात पाहात प्रतिक्षणीं| विस्मित होऊनि अंतःकरणीं| करित निजमुकटीं वोवाळणी| प्रभुजी तुज ||३३५||
ते जय जय घोष कलरवें| स्वर्ग गाजविताती आघवे| ठेवित ललाटावरी बरवे| करसंपुट ||३३६||
तिये विनयद्रुमाचिये आरवीं| सुरवाडली सात्त्विकांची माधवी| म्हणौनि करसंपुटपल्लवीं| तूं होतासि फळ ||३३७||

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् |
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम् ||२३||

जी लोचनां भाग्य उदेलें| मना सुखाचें सुयाणें पाहलें| जे अगाध तुझें देखिलें| विश्वरूप इहीं ||३३८||
हें लोकत्रयव्यापक रूपडें| पाहतां देवांही वचक पडे| याचें सन्मुखपण जोडें| भलतयाकडुनी ||३३९||
ऐसें एकचि परी विचित्रें| आणि भयानकें वक्त्रें| बहुलोचन हे सशस्त्रें| अनंतभुजा ||३४०||
अनंत चारु बाहु चरण| बहूदर आणि नानावर्ण| कैसें प्रतिवदनीं मातलेपण| आवेशाचें ||३४१||
हो कां महाकल्पाचिया अंतीं| तवकलेनि यमें जेउततेउतीं| प्रळयाग्नीचीं उजितीं| आंबुखिलीं जैसीं ||३४२||
नातरी संहारत्रिपुरारीचीं यंत्रें| कीं प्रळयभैरवाचीं क्षेत्रें| नाना युगांतशक्तीचीं पात्रें| भूतखिचा वोढविलीं ||३४३||
तैसीं जियेतियेकडे| तुझीं वक्त्रें जीं प्रचंडें| न समाती दरीमाजीं सिंव्हाडे| तैसे दशन दिसती रागीट ||३४४||
जैसें काळरात्रीचेनि अंधारें| उल्हासत निघतीं संहारखेंचरें| तैसिया वदनीं प्रळयरुधिरें| काटलिया दाढा ||३४५||
हें असो काळें अवंतिलें रण| कां सर्व संहारें मातलें मरण| तैसें अतिभिंगुळवाणेंपण| वदनीं तुझिये ||३४६||
हे बापुडी लोकसृष्टी| मोटकीये विपाइली दिठी| आणि दुःखकालिंदीचिया तटीं| झाड होऊनि ठेली ||३४७||
तुज महामृत्यूचिया सागरीं| आतां हे त्रैलोक्य जीविताची तरी| शोकदुर्वातलहरी| आंदोळत असे ||३४८||
एथ कोपोनि जरी वैकुंठें| ऐसें हन म्हणिपैल अवचटें| जें तुज लोकांचें काई वाटे ? | तूं ध्यानसुख हें भोगीं ||३४९||
तरी जी लोकांचें कीर साधारण| वायां आड सूतसे वोडण| केवीं सहसा म्हणे प्राण| माझेचि कांपती ||३५०||
ज्या मज संहाररुद्र वासिपे| ज्या मजभेणें मृत्यु लपे| तो मी एथें अहाळबाहळीं कांपें| ऐसें तुवां केलें ||३५१||
परि नवल बापा हे महामारी| इया नाम विश्वरूप जरी| हे भ्यासुरपणें हारी| भयासि आणी ||३५२||

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ||२४||

ठेलीं महाकाळेंसि हटेंतटें| तैसी कितीएकें मुखें रागिटें| इहीं वाढोनियां धाकुटें| आकाश केलें ||३५३||
गगनाचेंनि वाडपणें नाकळे| त्रिभुवनींचियाही वारिया न वेंटाळे| ययाचेनि वाफा आगी जळे| कैसें धडाडीत असे ||३५४||
तेवींचि एकसारिखें एक नोहे| एथ वर्णावर्णाचा भेदु आहे| हो कां जें प्रळयीं सावावो लाहे| वन्ह्ं ययाचा ||३५५||
जयाचिये आंगींची दीप्ती येवढी| जे त्रैलोक्य कीजे राखोंडी| कीं तयाही तोंडें आणि तोंडीं| दांत दाढा ||३५६||
कैसा वारया धनुर्वात चढला| समुद्र कीं महापुरीं पडिला| विषाग्नि मारा प्रवर्तला| वडवानळासी ||३५७||
हळाहळ आगी पियालें| नवल मरण मारा प्रवर्तलें| तैसें संहारतेजा या जाहलें| वदन देखा ||३५८||
परी कोणें मानें विशाळ| जैसें तुटलिया अंतराळ| आकाशासि कव्हळ| पडोनि ठेलें ||३५९||
नातरी काखे सूनि वसुंधरी| जैं हिरण्याक्षु रिगाला विवरीं| तैं उघडले हाटकेश्वरीं| जेवीं पाताळकुहर ||३६०||
तैसा वक्त्रांचा विकाशु| माजीं जिव्हांचा आगळाचि आवेशु| विश्व न पुरे म्हणौनि घांसु| न भरीचि कोंडें ||३६१||
आणि पाताळव्याळांचिया फूत्कारीं| गरळज्वाळा लागती अंबरीं| तैसी पसरलिये वदनदरी- | माजीं हे जिव्हा ||३६२||
काढूनि प्रळयविजूंचीं जुंबाडें| जैसें पन्नासिलें गगनाचे हुडे| तैसे आवाळुवांवरी आंकडे| धगधगीत दाढांचे ||३६३||
आणि ललाटपटाचिये खोळे| कैसें भयातें भेडविताती डोळे| हो कां जे महामृत्यूचे उमाळे| कडवसां राहिले ||३६४||
ऐसें वाऊनि भयाचें भोज| एथ काय निपजवूं पाहातोसि काज| तें नेणों परी मज| मरणभय आलें ||३६५||
देवा विश्वरूप पहावयाचे डोहळे| केले तिये पावलों प्रतिफळें| बापा देखिलासि आतां डोळे| निवावे तैसे निवाले ||३६६||
अहो देहो पार्थिव कीर जाये| ययाची काकुळती कवणा आहे| परि आतां चैतन्य माझें विपायें| वांचे कीं न वांचे ||३६७||
एऱ्हवीं भयास्तव आंग कांपे| नावेक आगळें तरी मन तापे| अथवा बुद्धिही वासिपे| अभिमानु विसरिजे ||३६८||
परी येतुलियाही वेगळा| जो केवळ आनंदैककळा| तया अंतरात्मयाही निश्चळा| शियारी आली ||३६९||
बाप साक्षात्काराचा वेधु| कैसा देशधडी केला बोधु| हा गुरुशिष्यसंबंधु| विपायें नांदे ||३७०||
देवा तुझ्या ये दर्शनीं| जें वैकल्य उपजलें आहे अंतःकरणीं| तें सावरावयालागीं गंवसणी| धैर्याची करितसें ||३७१||
तंव माझेनि नामें धैर्य हारपलें| कीं तयाहीवरी विश्वरूपदर्शन जाहलें| हें असो परि मज भलें आतुडविलें |
उपदेशा इया ||३७२||
जीव विसंवावयाचिया चाडा| सैंघ धांवाधांवी करितसे बापुडा| परि सोयही कवणेंकडां| न लभे एथ ||३७३||
ऐसें विश्वरूपाचिया महामारी| जीवित्व गेलें आहें चराचरीं| जी न बोलें तरि काय करीं| कैसेनि राहें ? ||३७४||

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि |
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ||२५||

पैं अखंड डोळ्यांपुढें| फुटलें जैसें महाभयाचें भांडें| तैशीं तुझीं मुखें वितंडें| पसरलीं देखें ||३७५||
असो दांत दाढांची दाटी| न झांकवे मा दों दों वोठीं| सैंघ प्रळयशस्त्रांचिया दाट कांटी| लागलिया जैशा ||३७६||
जैसें तक्षका विष भरलें| हो कां जे काळरात्रीं भूत संचरलें| कीं आग्नेयास्त्र परजिलें| वज्राग्नि जैसें ||३७७||
तैशीं तुझीं वक्त्रें प्रचंडें| वरि आवेश हा बाहेरी वोसंडे| आले मरणरसाचे लोंढे| आम्हांवरी ||३७८||
संहारसमयींचा चंडानिळु| आणि महाकल्पांत प्रळयानळु| या दोहीं जैं होय मेळु| तैं काय एक न जळे ? ||३७९||
तैसीं संहारकें तुझीं मुखें| देखोनि धीरु कां आम्हां पारुखे ? | आतां भुललों मी दिशा न देखें| आपणपें नेणें ||३८०||
मोटकें विश्वरूप डोळां देखिलें| आणि सुखाचें अवर्षण पडिलें| आतां जापाणीं जापाणीं आपुलें| अस्ताव्यस्त हें ||३८१||
ऐसें करिसी म्हणौनि जरी जाणें| तरी हे गोष्टी सांगावीं कां मी म्हणें| आतां एक वेळ वांचवी जी प्राणें |
या स्वरूपप्रळयापासोनि ||३८२||
जरी तूं गोसावी आमुचा अनंता| तरी सुईं वोडण माझिया जीविता| सांटवीं पसारा हा मागुता| महामारीचा ||३८३||
आइकें सकळ देवांचिया परदेवते| तुवां चैतन्यें गा विश्व वसतें| तें विसरलासी हें उपरतें| संहारूं आदरिलें ||३८४||
म्हणौनि वेगीं प्रसन्न होईं देवराया| संहरीं संहरीं आपुली माया| काढीं मातें महाभया- | पासोनियां ||३८५||
हा ठायवरी पुढतपुढतीं| तूंतें म्हणिजे बहुवा काकुळती| ऐसा मी विश्वमूर्ती| भेडका जाहलों ||३८६||
जैं अमरावतीये आला धाडा| तैं म्यां एकलेनि केला उवेडा| जो मी काळाचियाही तोंडा| वासिपु न धरीं ||३८७||
परी तया आंतुल नव्हे हें देवा| एथ मृत्यूसही करूनि चढावा| तुवां आमुचाचि घोटू भरावा| या सकळ विश्वेंसीं ||३८८||
कैसा नव्हता प्रळयाचा वेळु| गोखा तूंचि मिनलासि काळु| बापुडा हा त्रिभुवनगोळु| अल्पायु जाहला ||३८९||
अहा भाग्या विपरीता| विघ्न उठिलें शांत करितां| कटाकटा विश्व गेलें आतां| तूं लागलासि ग्रासूं ||३९०||
हें नव्हे मा रोकडें| सैंघ पसरूनियां तोंडें| कवळितासि चहूंकडे| सैन्यें इयें ||३९१||

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः |
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ||२६||

नोहेति ? हे कौरवकुळींचे वीर| आंधळिया धृतराष्ट्राचे कुमर| हे गेले गेले सहपरिवार| तुझिया वदनीं ||३९२||
आणि जे जे यांचेनि सावायें| आले देशोदेशींचे राये| तयांचें सांगावया जावों न लाहे| ऐसें सरकटित आहासी ||३९३||
मदमुखाचिया संघटा| घेत आहासि घटघटां| आरणीं हन थाटा| देतासि मिठी ||३९४||
जंत्रावरिचील मार| पदातींचे मोगर| मुखाआंत भार| हारपताति मा ||३९५||
कृतांताचिया जावळी| जें एकचि विश्वातें गिळी| तियें कोटीवरी सगळीं| गिळितासि शस्त्रें ||३९६||
चतुरंगा परिवारा| संजोडियां रहंवरां| दांत न लाविसी मा परमेश्वरा| कसा तुष्टलासि बरवा ||३९७||
हां गा भीष्माऐसा कवणु| सत्यशौर्यनिपुणु| तोही आणि ब्राह्मण द्रोणु| ग्रासिलासि कटकटा ||३९८||
अहा सहस्रकराचा कुमरु| एथ गेला गेला कर्णवीरु| आणि आमुचिया आघवयांचा केरु| फेडिला देखें ||३९९||
कटकटा धातया| कैसें जाहलें अनुग्रहा यया| मियां प्रार्थूनि जगा बापुडिया| आणिलें मरण ||४००||
मागां थोडिया बहुवा उपपत्ती| येणें सांगितलिया विभूती| तैसा नसेचि मा पुढती| बैसलों पुसों ||४०१||
म्हणौनि भोग्य तें त्रिशुद्धी न चुके| आणि बुद्धिही होणारासारिखी ठाके| माझ्या कपाळीं पिटावें लोकें |
तें लोटेल कांह्यां ||४०२||
पूर्वीं अमृतही हातां आलें| परी देव नसतीचि उगले| मग काळकूट उठविलें| शेवटीं जैसें ||४०३||
परी तें एकबगीं थोडें| केलिया प्रतिकारामाजिवडें| आणि तिये अवसरीचें तें सांकडें| निस्तरविलें शंभू ||४०४||
आतां हा जळतां वारा कें वेंटाळे ? | कोणा हे विषा भरलें गगन गिळे ? | महाकाळेंसि कें खेळें ? | आंगवत असे ||४०५||
ऐसा अर्जुन दुःखें शिणतु| शोचित असे जिवाआंतु| परी न देखें तो प्रस्तुतु| अभिप्राय देवाचा ||४०६||
जे मी मारिता हे कौरव मरते| ऐसेनि वेंटाळिला होता मोहें बहुतें| तो फेडावयालागीं अनंतें| हें दाखविलें निज ||४०७||
अरे कोण्ही कोणातें न मारी| एथ मीचि हो सर्व संहारीं| हें विश्वरूपव्याजें हरी| प्रकटित असे ||४०८||
परी वायांचि व्याकुलता| ते न चोजवेचि पंडुसुता| मग अहा कंपु नव्हता| वाढवित असे ||४०९||

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि |
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ||२७||

तेथ म्हणे पाहा हो एके वेळे| सासिकवचेंसि दोन्ही दळें| वदनीं गेलीं आभाळें| गगनीं कां जैसीं ||४१०||
कां महाकल्पाचिया शेवटीं| जैं कृतांतु कोपला होय सृष्टी| तैं एकविसांही स्वर्गां मिठी| पाताळासकट दे ||४११||
नातरी उदासीनें दैवें| संचकाचीं वैभवें| जेथींचीं तेथ स्वभावें| विलया जाती ||४१२||
तैसीं सासिन्नलीं सैन्यें एकवटें| इये मुखीं जाहलीं प्रविष्टें| परी एकही तोंडौनि न सुटे| कैसें कर्म देखा ||४१३||
अशोकाचे अंगवसे| चघळिले कऱ्हेनि जैसे| लोक वक्त्रामाजीं तैसे| वायां गेले ||४१४||
परि सिसाळें मुकुटेंसीं| पडिली दाढांचे सांडसीं| पीठ होत कैसीं| दिसत आहाती ||४१५||
तियें रत्नें दांतांचिये सवडीं| कूट लागलें जिभेच्या बुडीं| कांहीं कांहीं आगरडीं| द्रंष्ट्रांचीं माखलीं ||४१६||
हो कां जे विश्वरूपें काळें| ग्रासिलीं लोकांचीं शरीरें बळें| परि जीवित्व देहींचीं सिसाळें| अवश्य कीं राखिलीं ||४१७||
तैसीं शरीरामाजीं चोखडीं| इयें उत्तमांगें होतीं फुडीं| म्हणौनि महाकाळाचियाही तोंडीं| परि उरलीं शेखीं ||४१८||
मग म्हणे हें काई| जन्मलयां आन मोहरचि नाहीं| जग आपैसेंचि वदनडोहीं| संचारताहे ||४१९||
यया आपेंआप आघविया सृष्टी| लागलिया आहाति वदनाच्या वाटीं| आणि हा जेथिंचिया तेथ मिठी| देतसे उगला ||४२०||
ब्रह्मादिक समस्त| उंचा मुखामाजीं धांवत| येर सामान्य हे भरत| ऐलीच वदनीं ||४२१||
आणीकही भूतजात| तें उपजलेचि ठायीं ग्रासित| परि याचिया मुखा निभ्रांत| न सुटेचि कांहीं ||४२२||

यथा नदीनाम् बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति |
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ||२८||

जैसे महानदीचे वोघ| वहिले ठाकिती समुद्राचें आंग| तैसें आघवाचिकडूनि जग| प्रवेशत मुखीं ||४२३||
आयुष्यपंथें प्राणिगणी| करोनि अहोरात्रांची मोवणी| वेगें वक्त्रामिळणीं| साधिजत आहाती ||४२४||

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः |
तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ||२९||

जळतया गिरीच्या गवखा- | माजीं घापती पतंगाचिया झाका| तैसे समग्र लोक देखा| इये वदनीं पडती ||४२५||
परि जेतुलें येथ प्रवेशलें| तें तातलिया लोहें पाणीचि पां गिळिलें| वहवटींहि पुसिलें| नामरूप तयांचें ||४२६||

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वद्भिः |
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ||३०||

आणि येतुलाही आरोगण| करितां भुके नाहीं उणेपण| कैसें दीपन असाधारण| उदयलें यया ||४२७||
जैसा रोगिया ज्वराहूनि उठिला| का भणगा दुकाळु पाहला| तैसा जिभांचा लळलळाटु देखिला| आवाळुवें चाटितां ||४२८||
तैसें आहाराचे नांवें कांहीं| तोंडापासूनि उरलेंचि नाहीं| कैसी समसमीत नवाई| भुकेलेपणाची ||४२९||
काय सागराचा घोंटु भरावा ? | कीं पर्वताचा घांसु करावा ? | ब्रह्मकटाहो घालावा| आघवाचि दाढे ||४३०||
दिशा सगळियाचि गिळाविया| चांदिणिया चाटूनि घ्याविया| ऐसें वर्तत आहे साविया| लोलुप्य बा तुझें ||४३१||
जैसा भोगीं कामु वाढे| कां इंधनें आगीसि हाकाक चढे| तैसी खातखातांचि तोंडें| खाखांतें ठेलीं ||४३२||
कैसें एकचि केवढें पसरलें| त्रिभुवन जिव्हाग्रीं आहे टेकलें| जैसें कां कवीठ घातलें| वडवानळीं ||४३३||
ऐसीं अपार वदनें| आतां येतुलीं कैंचीं त्रिभुवनें| कां आहारु न मिळतां येणें मानें| वाढविलीं सैंघ ||४३४||
अगा हा लोकु बापुडा| जाहला वदनज्वाळां वरपडा| जैसी वणवेयाचिया वेढां| सांपडती मृगें ||४३५||
आतां तैसें यां विश्वा जाहालें| देव नव्हे हें कर्म आलें| कां जग चळचळां पांगिलें| काळजाळें ||४३६||
आतां इये अंगप्रभेचिये वागुरे| कोणीकडूनि निगिजैल चराचरें| हीं वक्त्रें नोहेती जोहारें| वोडवलीं जगा ||४३७||
आगी आपुलेनि दाहकपणें| कैसेनि पोळिजे तें नेणे| परी जया लागे तया प्राणें| सुटिकाची नाहीं ||४३८||
नातरी माझेनि तिखटपणें| कैसें निवटे हें शस्त्र कायि जाणें| कां आपुलियां मारा नेणें| विष जैसें ||४३९||
तैसी तुज कांहीं| आपुलिया उग्रपणाची सेचि नाहीं| परी ऐलीकडिले मुखीं खाई| हो सरली जगाची ||४४०||
अगा आत्मा तूं एकु| सकळ विश्वव्यापकु| तरी कां आम्हां अंतकु| तैसा वोडवलासी ? ||४४१||
तरी मियां सांडिली जीवित्वाची चाड| आणि तुवांही न धरावी भीड| मनीं आहे तें उघड| बोल पां सुखें ||४४२||
किती वाढविसी या उग्ररूपा| आंगींचें भगवंतपण आठवीं बापा| नाहीं तरी कृपा| मजपुरती पाही ||४४३||

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुमिच्छामिभवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ||३१||

तरी एक वेळ वेदवेद्या| जी त्रिभुवनैक आद्या| विनवणी विश्ववंद्या| आइकें माझी ||४४४||
ऐसें बोलोनि वीरें| चरण नमस्कारिलें शिरें| मग म्हणें तरी सर्वेश्वरें| अवधारिजो ||४४५||
मियां होआवया समाधान| जी पुसिलें विश्वरूपध्यान| आणि एकेंचि काळें त्रिभुवन| गिळितुचि उठिलासी ||४४६||
तरी तूं कोण कां येतुलीं| इयें भ्यासुरें मुखें कां मेळविलीं| आघवियाचि करीं परिजिलीं| शस्त्रें कांह्या ||४४७||
जी जंव तंव रागीटपणें| वाढोनि गगना आणितोसि उणें| कां डोळे करूनि भिंगुळवाणे| भेडसावीत आहासी ||४४८||
एथ कृतांतेंसि देवा| कासया किजतसे हेवा| हा आपुला तुवां सांगावा| अभिप्राय मज ||४४९||
या बोला म्हणे अनंतु| मी कोण हें आहासी पुसतु| आणि कायिसयालागीं असे वाढतु| उग्रतेसी ||४५०||

श्रीभगवानुवाच |
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः |
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||३२||

तरी मी काळु गा हें फुडें| लोक संहारावयालागीं वाढें| सैंघ पसरिलीं आहातीं तोंडें| आतां ग्रासीन हें आघवें ||४५१||
एथ अर्जुन म्हणे कटकटा| उबगिलों मागिल्या संकटा| म्हणौनि आळविला तंव वोखटा| उवाइला हा ||४५२||
तेवींचि कठिण बोलें आसतुटी| अर्जुन होईल हिंपुटी| म्हणौनि सवेंचि म्हणे किरीटी| परि आन एक असे ||४५३||
तरी आतांचिये संहारवाहरे| तुम्हीं पांडव असा बाहिरे| तेथ जातजातां धनुर्धरें| सांवरिले प्राण ||४५४||
होता मरणमहामारीं गेला| तो मागुता सावधु जाहला| मग लागला बोला| चित्त देऊं ||४५५||
ऐसें म्हणिजत आहे देवें| अर्जुना तुम्ही माझें हें जाणावें| येर जाण मी आघवें| सरलों ग्रासूं ||४५६||
वज्रानळीं प्रचंडीं| जैसी घापे लोणियाची उंडी| तैसें जग हें माझिया तोंडीं| तुवां देखिलें जें ||४५७||
तरी तयामाझारीं कांहीं| भरंवसेनि उणें नाहीं| इये वायांचि सैन्यें पाहीं| बरवतें आहाती ||४५८||
ऐसा चतुरंगाचिया संपदा| करित महाकाळेंसीं स्पर्धा| वांटिवेचिया मदा| वघळले जे ||४५९||
हे जे मिळोनियां मेळे| कुंथती वीरवृत्तीचेनि बळें| यमावरी गजदळें| वाखाणिजताती ||४६०||
म्हणती सृष्टीवरी सृष्टी करूं| आण वाहूनि मृत्यूतें मारूं| आणि जगाचा भरूं| घोंटु यया ||४६१||
पृथ्वी सगळीचि गिळूं| आकाश वरिच्यावरी जाळूं| कां बाणवरी खिळूं| वारयातें ||४६२||
बोल हतियेराहूनि तिखट| दिसती अग्निपरिस दासट| मारकपणें काळकूट| महुर म्हणत ||४६३||
तरी हे गंधर्वनगरींचे उमाळे| जाण पोकळीचे पेंडवळें| अगा चित्रीव फळें| वीर हे देखें ||४६४||
हां गा मृगजळाचा पूर आला| दळ नव्हे कापडाचा साप केला| इया शृंगारूनियां खाला| मांडिलिया पैं ||४६५||

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||३३||

येर चेष्टवितें जें बळ| तें मागांचि मियां ग्रासिलें सकळ| आतां कोल्हारिचे वेताळ| तैसे निर्जीव हे आहाती ||४६६||
हालविती दोरी तुटली| तरी तियें खांबावरील बाहुलीं| भलतेणें लोटिलीं| उलथोनि पडती ||४६७||
तैसा सैन्याचा यया बगा| मोडतां वेळू न लगेल पैं गा| म्हणौनि उठीं उठीं वेगां| शाहाणा होईं ||४६८||
तुवां गोग्रहणाचेनि अवसरें| घातलें मोहनास्त्र एकसरें| मग विराटाचेनि महाभेडें उत्तरें| आसडूनि नागाविलें ||४६९||
आतां हें त्याहूनि निपटारें जहालें| निवटीं आयितें रण पडिलें| घेईं यश रिपु जिंतिले| एकलेनि अर्जुनें ||४७०||
आणि कोरडें यशचि नोहे| समग्र राज्यही आलें आहे| तूं निमित्तमात्रचि होयें| सव्यसाची ||४७१||

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णां तथान्यानपि योधवीरान् |
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ||३४||

द्रोणाचा पाडु न करीं| भीष्माचें भय न धरीं| कैसेनि कर्णावरी| परजूं हें न म्हण ||४७२||
कोण उपायो जयद्रथा कीजे| हें न चिंतूं चित्त तुझें| आणिकही आथि जे जे| नावाणिगे वीर ||४७३||
तेही एक एक आघवें| चित्रींचे सिंहाडे मानावे| जैसे वोलेनि हातें घ्यावें| पुसोनियां ||४७४||
यावरी पांडवा| काइसा युद्धाचा मेळावा ? | हा आभासु गा आघवा| येर ग्रासिलें मियां ||४७५||
जेव्हां तुवां देखिले| हे माझिया वदनीं पडिले| तेव्हांचि यांचें आयुष्य सरलें| आतां रितीं सोपें ||४७६||
म्हणौनि वहिला उठीं| मियां मारिले तूं निवटीं| न रिगे शोकसंकटीं| नाथिलिया ||४७७||
आपणचि आडखिळा कीजे| तो कौतुकें जैसा विंधोनि पाडिजे| तैसें देखें गा तुझें| निमित्त आहे ||४७८||
बापा विरुद्ध जें जाहलें| तें उपजतांचि वाघें नेलें| आतां राज्येंशीं संचलें| यश तूं भोगीं ||४७९||
सावियाचि उतत होते दायाद| आणि बळिये जगीं दुर्मद| ते वधिले विशद| सायासु न लागतां ||४८०||
ऐसिया इया गोष्टी| विश्वाच्या वाक्पटीं| लिहूनि घाली किरीटी| जगामाजीं ||४८१||

संजय उवाच |
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी |
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ||३५||

ऐसी आघवीचि हे कथा| तया अपूर्ण मनोरथा| संजयो सांगे कुरुनाथा| ज्ञानदेवो म्हणे ||४८२||
मग सत्यलोकौनि गंगाजळ| सुटलिया वाजत खळाळ| तैशी वाचा विशाळ| बोलतां तया ||४८३||
नातरी महामेघांचे उमाळे| घडघडीत एके वेळे| कां घुमघुमिला मंदराचळें| क्षीराब्धी जैसा ||४८४||
तैसें गंभीरें महानादें| हें वाक्य विश्वकंदें| बोलिलें अगाधें| अनंतरूपें ||४८५||
तें अर्जुनें मोटकें ऐकिलें| आणि सुख कीं भय दुणावलें| हें नेणों परि कांपिन्नलें| सर्वांग तयाचें ||४८६||
सखोलपणें वळली मोट| आणि तैसेचि जोडले करसंपुट| वेळोवेळां ललाट| चरणीं ठेवी ||४८७||
तेवींचि कांहीं बोलों जाये| तंव गळा बुजालाचि ठाये| हें सुख कीं भय होये| हें विचारा तुम्हीं ||४८८||
परि तेव्हां देवाचेनि बोलें| अर्जुना हें ऐसें जाहलें| मियां पदांवरूनि देखिलें| श्लोकींचिया ||४८९||
मग तैसाचि भेणभेण| पुढती जोहारूनि चरण| मग म्हणे जी आपण| ऐसें बोलिलेती ||४९०||

अर्जुन उवाच |
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ||३६||

ना तरी अर्जुना मी काळु| आणि ग्रासिजे तो माझा खेळु| हा बोलु तुझा कीर अढळु| मानूं आम्ही ||४९१||
परि तुवां जी काळें| आजि स्थितीचिये वेळे| ग्रासिजे हें न मिळे| विचारासी ||४९२||
कैसेनि आंगींचें तारुण्य काढावें ? | कैचें नव्हे तें वार्धक्य आणावें ? | म्हणौनि करूं म्हणसी तें नव्हे| बहुतकरुनी ||४९३||
हां जी चौपाहारी न भरतां| कोणेही वेळे श्रीअनंता| काय माध्यान्हीं सविता| मावळतु आहे ? ||४९४||
पैं तुज अखंडिता काळा| तिन्ही आहाती जी वेळा| त्या तिन्ही परी सबळा| आपुलालिया समयीं ||४९५||
जे वेळीं हों लागे उत्पत्ती| ते वेळीं स्थिति प्रळयो हारपती| आणि स्थितिकाळीं न मिरविती| उत्पत्ति प्रळयो ||४९६||
पाठीं प्रळयाचिये वेळे| उत्पत्ति स्थिति मावळे| हें कायसेनही न ढळे| अनादि ऐसें ||४९७||
म्हणौनि आजि तंव भरें भोगें| स्थिति वर्तिजत आहे जगें| एथ ग्रसिसी तूं हें न लगे| माझ्या जीवीं ||४९८||
तंव संकेतें देव बोले| अगा या दोन्ही सैन्यांसीचि मरण पुरलें| तें प्रत्यक्षचि तुज दाविलें| येर यथाकाळें जाण ||४९९||
हा संकेतु जंव अनंता| वेळु लागला बोलतां| तंव अर्जुनें लोकु मागुता| देखिला यथास्थिति ||५००||
मग म्हणतसे देवा| तूं सूत्रीं विश्वलाघवा| जग आला मा आघवा| पूर्वस्थिति पुढती ||५०१||
परी पडिलिया दुःखसागरीं| तूं काढिसी कां जयापरी| ते कीर्ति तुझी श्रीहरी| आठवित असे ||५०२||
कीर्ति आठवितां वेळोवेळां| भोगितसें महासुखाचा सोहळा| तेथ हर्षामृतकल्लोळा| वरी लोळत आहें ||५०३||
देवा जियालेपणें जग| धरी तुझ्या ठायीं अनुराग| आणि दुष्टां तयां भंग| अधिकाधिक ||५०४||
पैं त्रिभुवनींचिया राक्षसां| महाभय तूं हृषीकेशा| म्हणौनि पळताती दाही दिशां| पैलीकडे ||५०५||
येथ सुर नर सिद्ध किन्नर| किंबहुना चराचर| ते तुज देखोनि हर्षनिर्भर| नमस्कारित असती ||५०६||

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ||३७||

एथ गा कवणा कारणा| राक्षस हे नारायणा| न लगतीचि चरणा| पळते जाहले ||५०७||
आणि हें काय तूंतें पुसावें| येतुलें आम्हांसिही जाणवे| तरी सूर्योदयीं राहावें| कैसेनि तमें ? ||५०८||
जी तूं प्रकाशाचा आगरु| आणि जाहला आम्हासि गोचरू| म्हणौनिया निशाचरां केरु| फिटला सहजें ||५०९||
हें येतुले दिवस आम्हां| कांहीं नेणवेचि श्रीरामा| आतां देखतसों महिमा| गंभीर तुझा ||५१०||
जेथूनि नाना सृष्टींचिया वोळी| पसरती भूतग्रामाचिया वेली| तया महद्ब्रह्मातें व्याली| दैविकी इच्छा ||५११||
देवो निःसीम तत्त्व सदोदितु| देवो निःसीम गुण अनंतु| देवो निःसीम साम्य सततु| नरेंद्र देवांचा ||५१२||
जी तूं त्रिजगतिये वोलावा| अक्षर तूं सदाशिवा| तूंचि सदसत् देवा| तयाही अतीत तें तूं ||५१३||

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||३८||

तूं प्रकृतिपुरुषांचिया आदी| जी महत्तत्वां तूंचि अवधी| स्वयें तूं अनादि| पुरातनु ||५१४||
तूं सकळ विश्वजीवन| जीवांसि तूंचि निधान| भूतभविष्याचें ज्ञान| तुझ्याचि हातीं ||५१५||
जी श्रुतीचियां लोचनां| स्वरूपसुख तूंचि अभिन्ना| त्रिभुवनाचिया आयतना| आयतन तूं ||५१६||
म्हणौनि जी परम| तूंतें म्हणिजे महाधाम| कल्पांतीं महद्ब्रह्म| तुजमाजीं रिगे ||५१७||
किंबहुना तुवां देवें| विश्व विस्तारिलें आहे आघवें| तरि अनंतरूपा वानावें| कवणें तूंतें ||५१८||

वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तुसहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||३९||


नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||४०||

जी काय एक तूं नव्हसी| कवणे ठायीं नससी| हें असो जैसा आहासी| तैसिया नमो ||५१९||
वायु तूं अनंता| यम तूं नियमिता| प्राणिगणीं वसता| अग्नि तो तूं ||५२०||
वरुण तूं सोम| स्रष्टा तूं ब्रह्म| पितामहाचाही परम| आदि जनक तूं ||५२१||
आणिकही जें जें कांहीं| रूप आथि अथवा नाहीं| तया नमो तुज तैसयाही| जगन्नाथा ||५२२||
ऐसें सानुरागें चित्तें| नमन केलें पंडुसुतें| मग पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२३||
पाठीं तिये साद्यंते| न्याहाळी श्रीमूर्तीतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२४||
पाहतां पाहतां प्रांतें| समाधान पावे चित्तें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२५||
इये चराचरीं जीं भूतें| सर्वत्र देखे तयांतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२६||
ऐसीं रूपें तियें अद्भुतें| आश्चर्यें स्फुरती अनंतें| तंव तंव नमस्ते| नमस्तेचि म्हणे ||५२७||
आणिक स्तुतिही नाठवे| आणि निवांतुही न बैसवे| नेणें कैसा प्रेमभावें| गाजोंचि लागे ||५२८||
किंबहुना इयापरी| नमन केलें सहस्रवरी| कीं पुढती म्हणे श्रीहरी| तुज सन्मुखा नमो ||५२९||
देवासि पाठी पोट आथि कीं नाहीं| येणें उपयोगु आम्हां काई| तरि तुज पाठिमोरेयाही| नमो स्वामी ||५३०||
उभा माझिये पाठीसीं| म्हणौनि पाठीमोरें म्हणावें तुम्हांसी| सन्मुख विन्मुख जगेंसीं| न घडें तुज ||५३१||
आतां वेगळालिया अवयवां| नेणें रूप करूं देवा| म्हणौनि नमो तुज सर्वा| सर्वात्मका ||५३२||
जी अनंतबळसंभ्रमा| तुज नमो अमित विक्रमा| सकळकाळीं समा| सर्वरूपा ||५३३||
आघविया आकाशीं जैसें| अवकाशचि होऊनि आकाश असे| तूं सर्वपणें तैसें| पातलासि सर्व ||५३४||
किंबहुना केवळ| सर्व हें तूंचि निखिळ| परी क्षीरार्णवीं कल्लोळ| पयाचे जैसे ||५३५||
म्हणौनिया देवा| तूं वेगळा नव्हसी सर्वां| हें आलें मज सद्भावा| आतां तूंचि सर्व ||५३६||

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ||४१||

परि ऐसिया तूतें स्वामी| कहींच नेणों जी आम्ही| म्हणौनि सोयरे संबंधधर्मीं| राहाटलों तुजसीं ||५३७||
अहा थोर वाउर जाहलें| अमृतें संमार्जन म्यां केलें| वारिकें घेऊनि दिधलें| कामधेनूतें ||५३८||
परिसाचा खडवाचि जोडला| कीं फोडोनि आम्ही गाडोरा घातला| कल्पतरू तोडोनि केला| कूंप शेता ||५३९||
चिंतामणीची खाणी लागली| तेणें करें वोढाळें वोल्हांडिली| तैसी तुझी जवळिक धाडिली| सांगातीपणें ||५४०||
हें आजिचेंचि पाहें पां रोकडें| कवण झुंज हें केवढें| एथ परब्रह्म तूं उघडें| सारथी केलासी ||५४१||
यया कौरवांचिया घरा| शिष्टाई धाडिलासि दातारा| ऐसा वणिजेसाठीं जागेश्वरा| विकलासि आम्हीं ||५४२||
तूं योगियांचें समाधिसुख| कैसा जाणेचिना मी मूर्ख| उपरोधु जी सन्मुख| तुजसीं करूं ||५४३||

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ||४२||

तूं या विश्वाची अनादि आदी| बैससी जिये सभासदीं| तेथें सोयरीकीचिया संबंधीं| रळीं बोलों ||५४४||
विपायें राउळा येवों| तरि तुझेनि अंगें मानु पावों| न मानिसी तरी जावों| रुसोनि सलगी ||५४५||
पायां लागोनि बुझावणी| तुझ्या ठायीं शारङ्गपाणी| पाहिजे ऐशी करणी| बहु केली आम्हीं ||५४६||
सजणपणाचिया वाटा| तुजपुढें बैसें उफराटा| हा पाडु काय वैकुंठा ? | परि चुकलों आम्हीं ||५४७||
देवेंसि कोलकाठी धरूं| आखाडा झोंबीलोंबी करूं| सारी खेळतां आविष्करूं| निकरेंही भांडों ||५४८||
चांग तें उराउरीं मागों| देवासि कीं बुद्धि सांगों| तेवींचि म्हणों काय लागों| तुझें आम्ही ||५४९||
ऐसा अपराधु हा आहे| जो त्रिभुवनीं न समाये| जी नेणतांचि कीं पाये| शिवतिले तुझे ||५५०||
देवो बोनयाच्या अवसरीं| लोभें कीर आठवण करी| परी माझा निसुग गर्व अवधारीं| जे फुगूनचि बैसें ||५५१||
देवाचिया भोगायतनीं| खेळतां आशंकेना मनीं| जी रिगोनियां शयनीं| सरिसा पहुडें ||५५२||
' कृष्ण म्हणौनि हाकारिजे| यादवपणें तूंतें लेखिजे| आपली आण घालिजे| जातां तुज ||५५३||
मज एकासनीं बैसणें| कां तुझा बोलु न मानणें| हें वोतटीचेनि दाटपणें| बहुत घडलें ||५५४||
म्हणौनि काय काय आतां| निवेदिजेल अनंता| मी राशि आहें समस्तां| अपराधांचि ||५५५||
यालागीं पुढां अथवा पाठीं| जियें राहटलों बहुवें वोखटीं| तियें मायेचिया परी पोटीं| सामावीं प्रभो ||५५६||
जी कोण्ही एके वेळे| सरिता घेऊन येती खडुळें| तियें सामाविजेति सिंधुजळें| आन उपायो नाहीं ||५५७||
तैसी प्रीती कां प्रमादें| देवेंसीं मज विरुद्धें| बोलविलीं तियें मुकुंदें| उपसाहावीं जी ||५५८||
आणि देवाचेनि क्षमत्वें क्षमा| आधारु जाली आहे या भूतग्रामा| म्हणौनि जी पुरुषोत्तमा| विनवूं तें थोडें ||५५९||
तरी आतां अप्रमेया| मज शरणागता आपुलिया| क्षमा कीजो जी यया| अपराधांसि ||५६०||

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभावः ||४३||

जी जाणितलें मियां साचें| महिमान आतां देवाचें| जे देवो होय चराचराचें| जन्मस्थान ||५६१||
हरिहरादि समस्तां| देवा तूं परम देवता| वेदांतेंही पढविता| आदिगुरु तूं ||५६२||
गंभीर तूं श्रीरामा| नाना भूतैकसमा| सकळगुणीं अप्रतिमा| अद्वितीया ||५६३||
तुजसी नाहीं सरिसें| हें प्रतिपादनचि कायसें ? | तुवां जालेनि आकाशें| सामाविलें जग ||५६४||
तया तुझेनि पाडें दुजें| ऐसें बोलतांचि लाजिजे| तेथ अधिकाची कीजे| गोठी केवीं ||५६५||
म्हणौनि त्रिभुवनीं तूं एकु| तुजसरिखा ना अधिकु| तुझा महिमा अलौकिकु| नेणिजे वानूं ||५६६||

तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ||४४||

ऐसें अर्जुनें म्हणितलें| मग पुढती दंडवत घातलें| तेथें सात्त्विकाचें आलें| भरतें तया ||५६७||
मग म्हणतसे प्रसीद प्रसीद| वाचा होतसे सद्गद| काढी जी अपराध- | समुद्रौनि मातें ||५६८||
तुज विश्वसुहृदातें कहीं| सोयरेपणें न मनूंचि पाहीं| तुज विईश्वेश्वराचिया ठायीं| ऐश्वर्य केलें ||५६९||
तूं वर्णनीय परी लोभें| मातें वर्णिसी पां सभे| तरि मियां वल्गिजे क्षोभें| अधिकाधिक ||५७०||
आतां ऐसिया अपराधां| मर्यादा नाहीं मुकुंदा| म्हणौनि रक्ष रक्ष प्रमादा| पासोनियां ||५७१||
जी हेंचि विनवावयालागीं| कैंची योग्यता माझिया आंगीं| परी अपत्य जैसें सलगी| बापेंसीं बोले ||५७२||
पुत्राचे अपराध| जरी जाहले अगाध| तरी पिता साहे निर्द्वंद्व| तैसें साहिजो जी ||५७३||
सख्याचें उद्धत| सखा साहे निवांत| तैसें तुवां समस्त| साहिजो जी ||५७४||
प्रियाचिया ठायीं सन्मान| प्रिय न पाहें सर्वथा जाण| तेवीं उच्छिष्ट काढिलें आपण| ते क्षमा कीजो जी ||५७५||
नातरी प्राणाचें सोयरें भेटे| मग जीवें भूतलीं जियें संकटें| तियें निवेदितां न वाटे| संकोचु कांहीं ||५७६||
कां उखितें आंगें जीवें| आपणपें दिधलें जिया मनोभावें| तिया कांतु मिनलिया न राहवें| हृदय जेवीं ||५७७||
तयापरी जी मियां| हें विनविलें तुमतें गोसाविया| आणि कांहीं एक म्हणावया| कारण असे ||५७८||

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे |
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ||४५||

तरी देवेंसीं सलगी केली| जे विश्वरूपाची आळी घेतली| ते मायबापें पुरविली| स्नेहाळाचेनि ||५७९||
सुरतरूंची झाडें| आंगणीं लावावीं कोडें| देयावें कामधेनुचें पाडें| खेळावया ||५८०||
मियां नक्षत्रीं डाव पाडावा| चंद्र चेंडुवालागीं आणावा| हा छंदु सिद्धी नेला आघवा| माउलिये तुवां ||५८१||
जिया अमृतलेशालागीं सायास| तयाचा पाऊस केला चारी मास| पृथ्वी वाहून चासेचास| चिंतामणी पेरिले ||५८२||
ऐसा कृतकृत्य केला स्वामी| बहुवे लळा पाळिला तुम्हीं| दाविलें जें हरब्रह्मीं| नायकिजे कानीं ||५८३||
मा देखावयाची केउती गोठी| जयाची उपनिषदां नाहीं भेटी| ते जिव्हारींची गांठी| मजलागीं सोडिली ||५८४||
जी कल्पादीलागोनि| आजिची घडी धरुनी| माझीं जेतुलीं होउनी| गेलीं जन्में ||५८५||
तयां आघवियांचि आंतु| घरडोळी घेऊनि असें पाहतु| परि ही देखिली ऐकिली मातु| आतुडेचिना ||५८६||
बुद्धीचें जाणणें| कहीं न वचेचि याचेनि आंगणें| हे सादही अंतःकरणें| करवेचिना ||५८७||
तेथा डोळ्यां देखी होआवी| ही गोठीचि कायसया करावी| किंबहुना पूर्वीं| दृष्ट ना श्रुत ||५८८||
तें हें विश्वरूप आपुलें| तुम्हीं मज डोळां दाविलें| तरी माझें मन झालें| हृष्ट देवा ||५८९||
परि आतां ऐसी चाड जीवीं| जे तुजसीं गोठी करावी| जवळीक हे भोगावी| आलिंगावासी ||५९०||
ते याचि रूपीं करूं म्हणिजे| तरि कोणे एके मुखेंसी चावळिजे| आणि कवणा खेंव देईजे| तुज लेख नाहीं ||५९१||
म्हणौनि वारियासवें धावणें| न ठके गगना खेंव देणें| जळकेली खेळणें| समुद्रीं केउतें ? ||५९२||
यालागीं जी देवा| एथिंचें भय उपजतसे जीवा| म्हणौनि येतुला लळा पाळावा| जे पुरे हें आतां ||५९३||
पैं चराचर विनोदें पाहिजे| मग तेणें सुखें घरीं राहिजे| तैसें चतुर्भुज रूप तुझें| तो विसांवा आम्हां ||५९४||
आम्हीं योगजात अभ्यासावें| तेणें याचि अनुभवा यावें| शास्त्रांतें आलोडावें| परि सिद्धांतु तो हाचि ||५९५||
आम्हीं यजनें किजती सकळें| परि तियें फळावीं येणेंचि फळें| तीर्थें होतु सकळें| याचिलागीं ||५९६||
आणीकही कांहीं जें जें| दान पुण्य आम्हीं कीजे| तया फळीं फळ तुझें| चतुर्भुज रूप ||५९७||
ऐसी तेथिंची जीवा आवडी| म्हणौनि तेंचि देखावया लवडसवडी| वर्तत असे ते सांकडी| फेडीजे वेगीं ||५९८||
अगा जीवींचें जाणतेया| सकळ विश्ववसवितेया| प्रसन्न होईं पूजितया| देवांचिया देवा ||५९९||

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव |
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ||४६||

कैसें नीलोत्पलातें रांवित| आकाशाही रंगु लावित| तेजाची वोज दावित| इंद्रनीळा ||६००||
जैसा परिमळ जाहला मरगजा| कां आनंदासि निघालिया भुजा| ज्याचे जानुवरी मकरध्वजा| जोडली बरव ||६०१||
मस्तकीं मुकुटातें ठेविलें| कीं मुकुटा मुकुट मस्तक झालें| शृंगारा लेणें लाधलें| आंगाचेनि जया ||६०२||
इंद्रधनुष्याचिये आडणी| माजीं मेघ गगनरंगणीं| तैसें आवरिलें शारङ्गपाणी| वैजयंतिया ||६०३||
आतां कवणी ते उदार गदा| असुरां देत कैवल्य पदा| कैसें चक्र हन गोविंदा| सौम्यतेजें मिरवे ||६०४||
किंबहुना स्वामी| तें देखावया उत्कंठित पां मी| म्हणौनि आतां तुम्हीं| तैसया होआवें ||६०५||
हे विश्वरूपाचे सोहळे| भोगूनि निवाले जी डोळे| आतां होताति आंधले| कृष्णमूर्तीलागीं ||६०६||
तें साकार कृष्णरूपडें| वांचूनि पाहों नावडे| तें न देखतां थोडें| मानिताती हे ||६०७||
आम्हां भोगमोक्षाचिया ठायीं| श्रीमूर्तीवांचूनि नाहीं| म्हणौनि तैसाचि साकारु होईं| हें सांवरीं आतां ||६०८||

श्रीभगवानुवाच |
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् |
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ||४७||

या अर्जुनाचिया बोला| विश्वरूपा विस्मयो जाहला| म्हणे ऐसा नाहीं देखिला| धसाळ कोणी ||६०९||
कोण हे वस्तु पावला आहासी| तया लाभाचा तोषु न घेसी| मा भेणें काय नेणों बोलसी| हेकाडु ऐसा ||६१०||
आम्हीं सावियाचि जैं प्रसन्न होणें| तैं आंगचिवरी म्हणें देणें| वांचोनि जीव असे वेंचणें| कवणासि गा ||६११||
तें हें तुझिये चाडे| आजि जिवाचेंचि दळवाडें| कामऊनियां येवढें| रचिलें ध्यान ||६१२||
ऐसी काय नेणों तुझिये आवडी| जाहली प्रसन्नता आमुची वेडी| म्हणौनि गौप्याचीही गुढी| उभविली जगीं ||६१३||
तें हें अपारां अपार| स्वरूप माझें परात्पर| एथूनि ते अवतार| कृष्णादिक ||६१४||
हें ज्ञानतेजाचें निखिळ| विश्वात्मक केवळ| अनंत हे अढळ| आद्य सकळां ||६१५||
हें तुजवांचोनि अर्जुना| पूर्वीं श्रुत दृष्ट नाहीं आना| जे जोगें नव्हे साधना| म्हणौनियां ||६१६||

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः |
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ||४८||

याची सोय पातले| आणि वेदीं मौनचि घेतलें| याज्ञिकी माघौते आले| स्वर्गौनियां ||६१७||
साधकीं देखिला आयासु| म्हणौनि वाळिला योगाभ्यासु| आणि अध्ययनें सौरसु| नाहीं एथ ||६१८||
सीगेचीं सत्कर्मे| धाविन्नलीं संभ्रमें| तिहीं बहुतेकीं श्रमें| सत्यलोकु ठाकिला ||६१९||
तपीं ऐश्वर्य देखिलें| आणि उग्रपण उभयांचि सांडिलें| एक तपसाधन जें ठेलें| अपारांतरें ||६२०||
तें हें तुवां अनायासें| विश्वरूप देखिलें जैसें| इये मनुष्यलोकीं तैसें| न फवेचि कवणा ||६२१||
आजि ध्यानसंपत्तीलागीं| तूंचि एकु आथिला जगीं| हें परम भाग्य आंगीं| विरंचीही नाहीं ||६२२||

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् |
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ||४९||

म्हणौनि विश्वरूपलाभें श्लाघ| एथिचें भय नेघ नेघ| हें वांचूनि अन्य चांग| न मनीं कांहीं ||६२३||
हां गा समुद्र अमृताचा भरला| आणि अवसांत वरपडा जाहला| मग कोणीही आथि वोसंडिला| बुडिजैल म्हणौनि ? ||६२४||
नातरी सोनयाचा डोंगरु| येसणा न चले हा थोरु| ऐसें म्हणौनि अव्हेरु| करणें घडे ? ||६२५||
दैवें चिंतामणी लेईजे| कीं हें ओझें म्हणौनि सांडिजे ? | कामधेनु दवडिजे| न पोसवे म्हणौनि ? ||६२६||
चंद्रमा आलिया घरा| म्हणिजे निगे करितोसि उबारा| पडिसायि पाडितोसि दिनकरा| परता सर ||६२७||
तैसें ऐश्वर्य हें महातेज| आजि हातां आलें आहे सहज| कीं एथ तुज गजबज| होआवी कां ? ||६२८||
परि नेणसीच गांवढिया| काय कोपों आतां धनंजया| आंग सांडोनि छाया| आलिंगितोसि मा ? ||६२९||
हें नव्हे जो मी साचें| एथ मन करूनियां काचें| प्रेम धरिसी अवगणियेचें| चतुर्भुज जें ||६३०||
तरि अझुनिवरी पार्था| सांडीं सांडीं हे व्यवस्था| इयेविषयीं आस्था| करिसी झणें ||६३१||
हें रूप जरी घोर| विकृति आणि थोर| तरी कृतनिश्चयाचें घर| हेंचि करीं ||६३२||
कृपण चित्तवृत्ति जैसी| रोंवोनि घालीं ठेवयापासीं| मग नुसधेनि देहेंसीं| आपण असे ||६३३||
कां अजातपक्षिया जवळा| जीव बैसवूनि अविसाळां| पक्षिणी अंतराळा- | माजीं जाय ||६३४||
नाना गाय चरे डोंगरीं| परि चित्त बांधिलें वत्सें घरीं| प्रेम एथिंचें करीं| स्थानपती ||६३५||
येरें वरिचिलेनि चित्तें| बाह्य सख्य सुखापुरतें| भोगिजो कां श्रीमूर्तींतें| चतुर्भुज ||६३६||
परि पुढतपुढती पांडवा| हा एक बोलु न विसरावा| जे इये रूपींहूनि सद्भावा| नेदावें निघों ||६३७||
हें कहीं नव्हतेंचि देखिलें| म्हणौनि भय जें तुज उपजलें| तें सांडीं एथ संचलें| असों दे प्रेम ||६३८||
आतां करूं तुजयासारखें| ऐसें म्हणितलें विश्वतोमुखें| तरि मागील रूप सुखें| न्याहाळीं पां तूं ||६३९||

संजय उवाच |
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः |
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ||५०||

ऐसें वाक्य बोलतखेंवो| मागुता मनुष्य जाहला देवो| हें ना परि नवलावो| आवडीचा तिये ||६४०||
श्रीकृष्णचि कैवल्य उघडें| वरि सर्वस्व विश्वरूपायेवढें| हातीं दिधलें कीं नावडे| अर्जुनासि ||६४१||
वस्तु घेऊनि वाळिजे| जैसें रत्नासि दूषण ठेविजे| नातरी कन्या पाहूनियां म्हणिजे| मना न ये हे ||६४२||
तया विश्वरूपायेवढी दशा| करितां प्रीतीचा वाढू कैसा| सेल दीधलीसे उपदेशा| किरीटीसिं देवें ||६४३||
मोडोनि भांगाराचा रवा| लेणें घडिलें आपलिया सवा| मग नावडे जरी जीवा| तरी आटिजे पुढती ||६४४||
तैसें शिष्याचिये प्रीती जाहलें| कृष्णत्व होतें तें विश्वरूप केलें| तें मना नयेचि मग आणिलें| कृष्णपण मागुतें ||६४५||
हा ठाववरी शिष्याची निकसी| सहातें गुरु आहाती कवणे देशीं ? | परि नेणिजे आवडी कैशी| संजयो म्हणे ||६४६||
मग विश्वरूप व्यापुनि भोंवतें| जें दिव्य तेज प्रगटलें होतें| तेंचि सामावलें मागुतें| कृष्णरूपीं तये ||६४७||
जैसें त्वंपद हें आघवें| तत्पदीं सामावे| अथवा द्रुमाकारु सांठवे| बीजकणिके जेवीं ||६४८||
नातरी स्वप्नसंभ्रमु जैसा| गिळी चेइली जीवदशा| श्रीकृष्णें योगु हा तैसा| संहारिला तो ||६४९||
जैसी प्रभा हारपली बिंबीं| कीं जळदसंपत्ती नभीं| नाना भरतें सिंधुगर्भीं| रिगालें राया ||६५०||
हो कां जे कृष्णाकृतीचिये मोडी| होती विश्वरूपपटाची घडी| ते अर्जुनाचिये आवडी| उकलूनि दाविली ||६५१||
तंव परिमाणा रंगु| तेणें देखिलें साविया चांगु| तेथ ग्राहकीये नव्हेचि लागु| म्हणौनि घडी केली पुढती ||६५२||
तैसें वाढीचेनि बहुवसपणें| रूपें विश्व जिंतिलें जेणें| तें सौम्य कोडिसवाणें| साकार जाहलें ||६५३||
किंबहुना अनंतें| धरिलें धाकुटपण मागुतें| परि आश्वासिलें पार्थातें| बिहालियासी ||६५४||
जो स्वप्नीं स्वर्गा गेला| तो अवसांत जैसा चेइला| तैसा विस्मयो जाहला| किरीटीसी ||६५५||
नातरी गुरुकृपेसवें| वोसरलेया प्रपंचज्ञान आघवें| स्फुरे तत्त्व तेवीं पांडवें| श्रीमूर्ति देखिली ||६५६||
तया पांडवा ऐसें चित्तीं| आड विश्वरूपाची जवनिका होती| ते फिटोनि गेली परौती| हें भलें जाहलें ||६५७||
काय काळातें जिणोनि आला| कीं महावातु मागां सांडिला| आपुलिया बाही उतरला| सातही सिंधु ||६५८||
ऐसा संतोष बहु चित्तें| घेइजत असे पंडुसुतें| विश्वरूपापाठीं कृष्णातें| देखोनियां ||६५९||
मग सूर्याचिया अस्तमानीं| मागुती तारा उगवती गगनीं| तैसी देखों लागला अवनीं| लोकांसहित ||६६०||
पाहे तंव तेंचि कुरुक्षेत्र| तैसेंचि देखे दोहीं भागीं गोत्र| वीर वर्षताती शस्त्रास्त्र| संघाटवरी ||६६१||
तया बाणांचिया मांडवाआंतु| तैसाचि रथु देखे निवांतु| धुरे बैसला लक्ष्मीकांतु| आपण तळीं ||६६२||

अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन |
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृउतिं गतः ||५१||

एवं मागील जैसें तैसें| तेणें देखिलें वीरविलासें| मग म्हणे जियालों ऐसें| जाहलें आतां ||६६३||
बुद्धीतें सांडोनि ज्ञान| भेणें वळघलें रान| अहंकारेंसी मन| देशोधडी जाहलें ||६६४||
इंद्रियें प्रवृत्ती भुललीं| वाचा प्राणा चुकली| ऐसें आपांपरी होती जाली| शरीरग्रामीं ||६६५||
तियें आघवींचि मागुतीं| जिवंत भेटलीं प्रकृती| आतां जिताणें श्रीमूर्ती| जाहलें मियां ||६६६||
ऐसें सुख जीवीं घेतलें| मग श्रीकृष्णातें म्हणितलें| मियां तुमचें रूप देखिलें| मानुष हें ||६६७||
हें रूप दाखवणें देवराया| कीं मज अपत्या चुकलिया| बुझावोनि तुवां माया| स्तनपान दिधलें ||६६८||
जी विश्वरूपाचिया सागरीं| होतों तरंग मवित वांवेवरी| तो इये निजमूर्तीच्या तीरीं| निगालों आतां ||६६९||
आइकें द्वारकापुरसुहाडा| मज सुकतिया जी झाडा| हे भेटी नव्हे बहुडा| मेघाचा केला ||६७०||
जी सावियाची तृषा फुटला| तया मज अमृतसिंधु हा भेटला| आतां जिणयाचा जाहला| भरंवसा मज ||६७१||
माझिया हृदयरंगणीं| होताहे हरिखलतांची लावणी| सुखेंसीं बुझावणी| जाहली मज ||६७२||

श्रीभगवानुवाच |
सुदुदर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम |
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शकाङ्क्षिणः ||५२||

यया पार्थाचिया बोलासवें| हें काय म्हणितलें देवें| तुवां प्रेम ठेवूनि यावें| विश्वरूपीं कीं ||६७३||
मग इये श्रीमूर्ती| भेटावें सडिया आयती| ते शिकवण सुभद्रापती| विसरलासि मा ||६७४||
अगा आंधळिया अर्जुना| हाता आलिया मेरूही होय साना| ऐसा आथी मना| चुकीचा भावो ||६७५||
तरी विश्वात्मक रूपडें| जें दाविलें आम्ही तुजपुढें| तें शंभूही परि न जोडे| तपें करितां ||६७६||
आणि अष्टांगादिसंकटीं| योगी शिणताति किरीटी| परि अवसरु नाहीं भेटी| जयाचिये ||६७७||
तें विश्वरूप एकादे वेळ| कैसेनि देखों अळुमाळ| ऐसें स्मरतां काळ| जातसे देवां ||६७८||
आशेचिये अंजुळी| ठेऊनि हृदयाचिया निडळीं| चातक निराळीं| लागले जैसे ||६७९||
तैसे उत्कंठा निर्भर| होऊनियां सुरवर| घोकीत आठही पाहार| भेटी जयाची ||६८०||
परि विश्वरूपासारिखें| स्वप्नींही कोण्ही न देखे| तें प्रत्यक्ष तुवां सुखें| देखिलें हें ||६८१||

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्यं एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ||५३||

पैं उपायांसि वाटा| न वाहती एथ सुभटा| साहीसहित वोहटा| वाहिला वेदीं ||६८२||
मज विश्वरूपाचिया मोहरा| चालावया धनुर्धरा| तपांचियाही संभारा| नव्हेचि लागु ||६८३||
आणि दानादि कीर कानडें| मी यज्ञींही तैसा न सांपडें| जैसेनि कां सुरवाडें| देखिला तुवां ||६८४||
तैसा मी एकीचि परि| आंतुडें गा अवधारीं| जरी भक्ति येऊनि वरी| चित्तातें गा ||६८५||

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||५४||

परि तेचि भक्ति ऐसी| पर्जन्याची सुटिका जैसी| धरावांचूनि अनारिसी| गतीचि नेणें ||६८६||
कां सकळ जळसंपत्ती| घेऊनि समुद्रातें गिंवसिती| गंगा जैसी अनन्यगती| मिळालीचि मिळे ||६८७||
तैसें सर्वभावसंभारें| न धरत प्रेम एकसरें| मजमाजीं संचरे| मीचि होऊनि ||६८८||
आणि तेवींचि मी ऐसा| थडिये माझारीं सरिसा| क्षीराब्धि कां जैसा| क्षीराचाचि ||६८९||
तैसें मजलागुनि मुंगीवरी| किंबहुना चराचरीं| भजनासि कां दुसरी| परीचि नाहीं ||६९०||
तयाचि क्षणासवें| एवंविध मी जाणवें| जाणितला तरी स्वभावें| दृष्टही होय ||६९१||
मग इंधनीं अग्नि उद्दीपें| आणि इंधन हें भाष हारपे| तें अग्निचि होऊनि आरोपें| मूर्त जेवीं ||६९२||
कां उदय न कीजे तेजाकारें| तंव गगनचि होऊनि असे आंधारें| मग उदईलिया एकसरें| प्रकाशु होय ||६९३||
तैसें माझिये साक्षात्कारीं| सरे अहंकाराची वारी| अहंकारलोपीं अवधारीं| द्वैत जाय ||६९४||
मग मी तो हें आघवें| एक मीचि आथी स्वभावें| किंबहुना सामावे| समरसें तो ||६९५||

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||५५||

ॐ इति श्रीमद्भग्वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगोनाम एकादशोऽध्यायः ||११अ ||

जो मजचि एकालागीं| कर्में वाहातसे आंगीं| जया मीवांचोनि जगीं| गोमटें नाहीं ||६९६||
दृष्टादृष्ट सकळ| जयाचें मीचि केवळ| जेणें जिणयाचें फळ| मजचि नाम ठेविलें ||६९७||
मग भूतें हे भाष विसरला| जे दिठी मीचि आहें सूदला| म्हणौनि निर्वैर जाहला| सर्वत्र भजे ||६९८||
ऐसा जो भक्तु होये| तयाचें त्रिधातुक हें जैं जाये| तैं मीचि होउनि ठायें| पांडवा गा ||६९९||
ऐसें जगदुदरदोंदिलें| तेणें करुणारसरसाळें| संजयो म्हणे बोलिलें| श्रीकृष्णदेवें ||७००||
ययावरी तो पंडुकुमरु| जाहला आनंदसंपदा थोरु| आणि कृष्णचरणचतुरु| एक तो जगीं ||७०१||
तेणें देवाचिया दोनही मूर्ती| निकिया न्याहाळिलिया चित्तीं| तंव विश्वरूपाहूनि कृष्णाकृतीं| देखिला लाभु ||७०२||
परि तयाचिये जाणिवे| मानु न कीजेचि देवें| जें व्यापकाहूनि नव्हे| एकदेशी ||७०३||
हेंचि समर्थावयालागीं| एक दोन चांगी| उपपत्ती शारङ्गी| दाविता जाहला ||७०४||
तिया ऐकोनि सुभद्राकांतु| चित्तीं आहे म्हणतु| तरि होय बरवें दोन्हीं आंतु| तें पुढती पुसों ||७०५||
ऐसा आलोचु करूनि जीवीं| आतां पुसती वोज बरवी| आदरील ते परिसावी| पुढें कथा ||७०६||
प्रांजळ ओंवीप्रबंधें| गोष्टी सांगिजेल विनोदें| तें परिसा आनंदें| ज्ञानदेवो म्हणे ||७०७||
भरोनि सद्भावाची अंजुळी| मियां वोंवियाफुलें मोकळीं| अर्पिलीं अंघ्रियुगुलीं| विश्वरूपाच्या ||७०८||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां एकादशोऽध्यायः ||

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||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अकरावा |
विश्वरूपदर्शनयोगः |

आतां यावरी एकादशीं| कथा आहे दोहीं रसीं| येथ पार्था विश्वरूपेंसीं| होईल भेटी ||१||
जेथ शांताचिया घरा| अद्भुत आला आहे पाहुणेरा| आणि येरांही रसां पांतिकरां| जाहला मानु ||२||
अहो वधुवरांचिये मिळणीं| जैशी वराडियां लुगडीं लेणीं| तैसे देशियेच्या सुखासनीं| मिरविले रस ||३||
परी शांताद्भुत बरवे| जे डोळियांच्या अंजुळीं घ्यावें| जैसे हरिहर प्रेमभावें| आले खेंवा ||४||
ना तरी अंवसेच्या दिवशीं| भेटलीं बिंबें दोनी जैशीं| तेवीं एकवळा रसीं| केला एथ ||५||
मीनले गंगेयमुनेचे ओघ| तैसें रसां जाहलें प्रयाग| म्हणौनि सुस्नात होत जग| आघवें एथ ||६||
माजीं गीता सरस्वती गुप्त| आणि दोनी रस ते ओघ मूर्त| यालागीं त्रिवेणी हे उचित| फावली बापा ||७||
एथ श्रवणाचेनि द्वारें| तीर्थीं रिघतां सोपारें| ज्ञानदेवो म्हणे दातारें| माझेनि केलें ||८||
तीरें संस्कृताचीं गहनें| तोडोनि मऱ्हाठियां शब्दसोपानें| रचिली धर्मनिधानें| श्रीनिवृत्तिदेवें ||९||
म्हणौनि भलतेणें एथ सद्भावें नाहावें| प्रयागमाधव विश्वरूप पहावें| येतुलेनि संसारासि द्यावें| तिळोदक ||१०||
हें असो ऐसें सावयव| एथ सासिन्नले आथी रसभाव| तेथ श्रवणसुखाची राणीव| जोडली जगा ||११||
जेथ शांताद्भुत रोकडे| आणि येरां रसां पडप जोडे| हें अल्पचि परी उघडें| कैवल्य एथ ||१२||
तो हा अकरावा अध्यायो| जो देवाचा आपणपें विसंवता ठावो| परी अर्जुन सदैवांचा रावो| जो एथही पातला ||१३||
एथ अर्जुनचि काय म्हणों पातला| आजि आवडतयाही सुकाळु जाहला| जे गीतार्थु हा आला| मऱ्हाठिये ||१४||
याचिलागीं माझें| विनविलें आइकिजे| तरी अवधान दीजे| सज्जनीं तुम्ही ||१५||
तेवींचि तुम्हां संतांचिये सभे| ऐसी सलगी कीर करूं न लभे| परी मानावें जी तुम्ही लोभें| अपत्या मज ||१६||
अहो पुंसा आपणचि पढविजे| मग पढे तरी माथा तुकिजे| कां करविलेनि चोजें न रिझे| बाळका माय ||१७||
तेवीं मी जें जें बोलें| तें प्रभु तुमचेंचि शिकविलें| म्हणौनि अवधारिजो आपुलें| आपण देवा ||१८||
हें सारस्वताचें गोड| तुम्हींचि लाविलें जी झाड| तरी आतां अवधानामृतें वाड| सिंपोनि कीजे ||१९||
मग हें रसभाव फुलीं फुलेल| नानार्थ फळभारें फळा येईल| तुमचेनि धर्में होईल| सुरवाडु जगा ||२०||
या बोला संत रिझले| म्हणती तोषलों गा भलें केलें| आतां सांगैं जें बोलिलें| अर्जुनें तेथ ||२१||
तंव निवृत्तिदास म्हणे| जी कृष्णार्जुनांचें बोलणें| मी प्राकृत काय सांगों जाणें| परी सांगवा तुम्ही ||२२||
अहो रानींचिया पालेखाइरा| नेवाणें करविले लंकेश्वरा| एकला अर्जुन परी अक्षौहिणी अकरा| न जिणेचि काई ? ||२३||
म्हणौनि समर्थ जें जें करी| तें न हो न ये चराचरीं| तुम्ही संत तयापरी| बोलवा मातें ||२४||
आतां बोलिजतसें आइका| हा गीताभाव निका| जो वैकुंठनायका- | मुखौनि निघाला ||२५||
बाप बाप ग्रंथ गीता| जो वेदीं प्रतिपाद्य देवता| तो श्रीकृष्ण वक्ता| जिये ग्रंथीं ||२६||
तेथिंचे गौरव कैसें वानावें| जें श्रीशंभूचिये मती नागवे| तें आतां नमस्कारिजे जीवेंभावें| हेंचि भलें ||२७||
मग आइका तो किरीटी| घालूनि विश्वरूपीं दिठी| पहिली कैसी गोठी| करिता जाहला ||२८||
हें सर्वही सर्वेश्वरु| ऐसा प्रतीतिगत जो पतिकरु| तो बाहेरी होआवा गोचरु| लोचनांसी ||२९||
हे जिवाआंतुली चाड| परी देवासि सांगतां सांकड| कां जें विश्वरूप गूढ| कैसेनि पुसावें ? ||३०||
म्हणे मागां कवणीं कहीं| जें पढियंतेनें पुसिलें नाहीं| ते सहसा कैसें काई| सांगा म्हणों ? ||३१||
मी जरी सलगीचा चांगु| तरी काय आइसीहूनी अंतरंगु| परी तेही हा प्रसंगु| बिहाली पुसों ||३२||
माझी आवडे तैसी सेवा जाहली| तरी काय होईल गरुडाचिया येतुली ? | परी तोही हें बोली| करीचिना ||३३||
मी काय सनकादिकांहूनि जवळां| परी तयांही नागवेचि हा चाळा| मी आवडेन काय प्रेमळां| गोकुळींचिया ऐसा ? ||३४||
तयांतेंही लेकुरपणें झकविलें| एकाचे गर्भवासही साहिले| परी विश्वरूप हें राहविलें| न दावीच कवणा ||३५||
हा ठायवरी गुज| याचिये अंतरीचें हें निज| केवीं उराउरी मज| पुसों ये पां ? ||३६||
आणि न पुसेंचि जरी म्हणे| तरी विश्वरूप देखिलियाविणें| सुख नोहेचि परी जिणें| तेंही विपायें ||३७||
म्हणौनि आतां पुसों अळुमाळसें| मग करूं देवा आवडे तैसें| येणें प्रवर्तला साध्वसें| पार्थु बोलों ||३८||
परी तेंचि ऐसेनि भावें| जें एका दों उत्तरांसवें| दावी विश्वरूप आघवें| झाडा देउनी ||३९||
अहो वांसरूं देखिलियाचिसाठीं| धेनु खडबडोनि मोहें उठी| मग स्तनामुखाचिये भेटी| काय पान्हा धरे ? ||४०||
पाहा पां तया पांडवाचेनि नांवें| जो कृष्ण रानींही प्रतिपाळूं धावे| तयांतें अर्जुनें जंव पुसावें| तंव साहील काई ? ||४१||
तो सहजेंचि स्नेहाचें अवतरण| आणि येरु स्नेहा घातलें आहे माजवण| ऐसिये मिळवणी वेगळेपण| उरे हेंचि बहु ||४२||
म्हणौनि अर्जुनाचिया बोलासरिसा| देव विश्वरूप होईल आपैसा| तोचि पहिला प्रसंगु ऐसा| ऐकिजे तरी ||४३||

अर्जुन उवाच |
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ||१||

मग पार्थु देवातें म्हणे| जी तुम्ही मजकारणें| वाच्य केलें जें न बोलणें| कृपानिधे ||४४||
जैं महाभूतें ब्रह्मीं आटती| जीव महदादींचे ठाव फिटती| तैं जें देव होऊनि ठाकती| तें विसवणें शेषींचें ||४५||
होतें हृदयाचिये परिवरीं| रोंविलें कृपणाचिये परी| शब्दब्रह्मासही चोरी| जयाची केली ||४६||
तें तुम्हीं आजि आपुलें| मजपुढां हियें फोडिलें| जया अध्यात्मा वोवाळिलें| ऐश्वर्य हरें ||४७||
ते वस्तु मज स्वामी| एकिहेळां दिधली तुम्ही| हें बोलों तरी आम्ही| तुज पावोनि कैंचे ||४८||
परी साचचि महामोहाचिये पुरीं| बुडालेया देखोनि सीसवरी| तुवां आपणपें घालोनि श्रीहरी| मग काढिलें मातें ||४९||
एक तूंवांचूनि कांहीं| विश्वीं दुजियाची भाष नाहीं| कीं आमुचें कर्म पाहीं| जे आम्हीं आथी म्हणों ||५०||
मी जगीं एक अर्जुनु| ऐसा देहीं वाहे अभिमानु| आणि कौरवांतें इयां स्वजनु| आपुलें म्हणें ||५१||
याहीवरी यांतें मी मारीन| म्हणें तेणें पापें कें रिगेन| ऐसें देखत होतों दुःस्वप्न| तों चेवविला प्रभु ||५२||
देवा गंधर्वनगरीची वस्ती| सोडूनि निघालों लक्ष्मीपती| होतों उदकाचिया आर्ती| रोहिणी पीत ||५३||
जी किरडूं तरी कापडाचें| परी लहरी येत होतिया साचें| ऐसें वायां मरतया जीवाचें| श्रेय तुवां घेतलें ||५४||
आपुलें प्रतिबिंब नेणता| सिंह कुहां घालील देखोनि आतां| ऐसा धरिजे तेवीं अनंता| राखिलें मातें ||५५||
एऱ्हवीं माझा तरी येतुलेवरी| एथ निश्चय होता अवधारीं| जें आतांचि सातांही सागरीं| एकत्र मिळिजे ||५६||
हें जगचि आघवें बुडावें| वरी आकाशहि तुटोनि पडावें| परी झुंजणें न घडावें| गोत्रजेशीं मज ||५७||
ऐसिया अहंकाराचिये वाढी| मियां आग्रहजळीं दिधली होती बुडी| चांगचि तूं जवळां एऱ्हवीं काढी| कवणु मातें ||५८||
नाथिलें आपण पां एक मानिलें| आणि नव्हतया नाम गोत्र ठेविलें| थोर पिसें होतें लागलें| परि राखिलें तुम्ही ||५९||
मागां जळत काढिलें जोहरीं| तैं तें देहासीच भय अवधारीं| आतां हे जोहरवाहर दुसरी| चैतन्यासकट ||६०||
दुराग्रह हिरण्याक्षें| माझी बुद्धि वसुंधरा सूदली काखे| मग माहार्णव गवाक्षें| रिघोनि ठेला ||६१||
तेथ तुझेनि गोसावीपणें| एकवेळ बुद्धीचिया ठाया येणें| हें दुसरें वराह होणें| पडिलें तुज ||६२||
ऐसें अपार तुझें केलें| एकी वाचा काय मी बोलें| परी पांचही पालव मोकलिले| मजप्रती ||६३||
तें कांहीं न वचेचि वायां| भलें यश फावलें देवराया| जे साद्यंत माया| निरसिली माझी ||६४||
आजीं आनंदसरोवरींचीं कमळें| तैसे हे तुझे डोळे| आपुलिया प्रसादाचीं राउळें| जयालागीं करिती ||६५||
हां हो तयाही आणि मोहाची भेटी| हे कायसी पाबळी गोठी ? | केउती मृगजळाची वृष्टी| वडवानळेंसीं ? ||६६||
आणि मी तंव दातारा| ये कृपेचिये रिघोनि गाभारां| घेत आहें चारा| ब्रह्मरसाचा ||६७||
तेणें माझा जी मोह जाये| एथ विस्मो कांहीं आहे ? | तरी उद्धरलों कीं तुझे पाये| शिवतले आहाती ||६८||

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया |
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ||२||

पैं कमलायतडोळसा| सूर्यकोटितेजसा| मियां तुजपासोनि महेशा| परिसिलें आजीं ||६९||
इयें भूतें जयापरी होती| अथवा लया हन जैसेनि जाती| ते मजपुढां प्रकृती| विवंचिली देवें ||७०||
आणि प्रकृती कीर उगाणा दिधला| वरि पुरुषाचाही ठावो दाविला| जयाचा महिमा पांघरोनि जाहला| धडौता वेदु ||७१||
जी शब्दराशी वाढे जिये| कां धर्माऐशिया रत्नांतें विये| ते एथिंचे प्रभेचे पाये| वोळगे म्हणौनि ||७२||
ऐसें अगाध माहात्म्य| जें सकळमार्गैकगम्य| जें स्वात्मानुभवरम्य| तें इयापरी दाविलें ||७३||
जैसा केरु फिटलिया आभाळीं| दिठी रिगे सूर्यमंडळीं| कां हातें सारूनि बाबुळीं| जळ देखिजे ||७४||
नातरी उकलतया सापाचे वेढे| जैसें चंदना खेंव देणें घडे| अथवा विवसी पळे मग चढे| निधान हातां ||७५||
तैसी प्रकृती हे आड होती| ते देवेंचि सारोनि परौती| मग परतत्त्व माझिये मती| शेजार केलें ||७६||
म्हणौनि इयेविषयींचा मज देवा| भरंवसा कीर जाहला जीवा| परी आणीक एक हेवा| उपनला असे ||७७||
तो भिडां जरी म्हणों राहों| तरी आना कवणा पुसों जावों| काय तुजवांचोनि ठावो| जाणत आहों आम्ही ? ||७८||
जळचरु जळाचा आभारु धरी| बाळक स्तनपानीं उपरोधु करी| तरी तया जिणया श्रीहरी| आन उपायो असे ? ||७९||
म्हणौनि भीड सांकडी न धरवे| जीवा आवडे तेंही तुजपुढां बोलावें| तंव राहें म्हणितलें देवें| चाड सांगैं ||८०||

एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वमात्मानं परमेश्वर |
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ||३||

मग बोलिला तो किरीटी| म्हणे तुम्हीं केली जे गोठी| तिया प्रतीतीची दिठी| निवाली माझी ||८१||
आतां जयाचेनि संकल्पें| हे लोकपरंपरा होय हारपे| जया ठायातें आपणपें| मी ऐसें म्हणसी ||८२||
तें मुद्दल रूप तुझें| जेथूनि इयें द्विभुजें हन चतुर्भुजें| सुरकार्याचेनि व्याजें| घेवों घेवों येसी ||८३||
पैं जळशयनाचिया अवगणिया| कां मत्स्य कूर्म इया मिरवणिया| खेळु सरलिया तूं गुणिया| सांठविसी जेथ ||८४||
उपनिषदें जें गाती| योगिये हृदयीं रिगोनि पाहाती| जयातें सनकादिक आहाती| पोटाळुनियां ||८५||
ऐसें अगाध जें तुझें| विश्वरूप कानीं ऐकिजे| तें देखावया चित्त माझें| उतावीळ देवा ||८६||
देवें फेडूनियां सांकड| लोभें पुसिली जरी चाड| तरी हेंचि एकीं वाड| आर्तीं जी मज ||८७||
तुझें विश्वरूपपण आघवें| माझिये दिठीसि गोचर होआवें| ऐसी थोर आस जीवें| बांधोनि आहें ||८८||

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो |
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम् ||४||

परी आणीक एक एथ शारङ्गी| तुज विश्वरूपातें देखावयालागीं| पैं योग्यता माझिया आंगीं| असे कीं नाहीं ||८९||
हें आपलें आपण मी नेणें| तें कां नेणसी जरी देव म्हणे| तरी सरोगु काय जाणे| निदान रोगाचें ? ||९०||
आणि जी आर्तीचेनि पडिभरें| आर्तु आपुली ठाकी पैं विसरे| जैसा तान्हेला म्हणे न पुरे| समुद्र मज ||९१||
ऐशा सचाडपणाचिये भुली| न सांभाळवे समस्या आपुली| यालागीं योग्यता जेवीं माउली| बालकाची जाणे ||९२||
तयापरी श्रीजनार्दना| विचारिजो माझी संभावना| मग विश्वरूपदर्शना| उपक्रम कीजे ||९३||
तरी ऐसी ते कृपा करा| एऱ्हवीं नव्हे हें म्हणा अवधारा| वायां पंचमालापें बधिरा| सुख केउतें देणें ? ||९४||
एऱ्हवीं येकले बापियाचे तृषे| मेघ जगापुरतें काय न वर्षे ? | परी जहालीही वृष्टि उपखे| जऱ्ही खडकीं होय ||९५||
चकोरा चंद्रामृत फावलें| येरा आण वाहूनि काय वारिलें ? | परी डोळ्यांवीण पाहलें| वायां जाय ||९६||
म्हणौनि विश्वरूप तूं सहसा| दाविसी कीर हा भरवंसा| कां जे कडाडां आणि गहिंसा- | माजी नीत्य नवा तूं कीं ||९७||
तुझें औदार्य जाणों स्वतंत्र| देतां न म्हणसी पात्रापात्र| पैं कैवल्या ऐसें पवित्र| जें वैरियांही दिधलें ||९८||
मोक्षु दुराराध्यु कीर होय| परी तोही आराधी तुझे पाय| म्हणौनि धाडिसी तेथ जाय| पाइकु जैसा ||९९||
तुवां सनकादिकांचेनि मानें| सायुज्यीं सौरसु दिधला पूतने| जे विषाचेनि स्तनपानें| मारूं आली ||१००||
हां गा राजसूय यागाचिया सभासदीं| देखतां त्रिभुवनाची मांदी| कैसा शतधा दुर्वाक्य शब्दीं| निस्तेजिलासी ||१०१||
ऐशिया अपराधिया शिशुपाळा| आपणपें ठावो दिधला गोपाळा| आणि उत्तानचरणाचिया बाळा |
काय ध्रुवपदीं चाड ? ||१०२||
तो वना आला याचिलागीं| जे बैसावें पितयाचिया उत्संगीं| कीं तो चंद्रसूर्यादिकांपरिस जगीं| श्लाघ्यु केला ||१०३||
ऐसा वनवासिया सकळां| देतां एकचि तूं धसाळा| पुत्रा आळवितां अजामिळा| आपणपें देसी ||१०४||
जेणें उरीं हाणितलासि पांपरा| तयाचा चरणु वाहासी दातारा| अझुनी वैरियांचिया कलेवरा| विसंबसीना ||१०५||
ऐसा अपकारियां तुझा उपकारु| तूं अपात्रींही परी उदारु| दान म्हणौनि दारवंठेकरु| जाहलासी बळीचा ||१०६||
तूंतें आराधी ना आयकें| होती पुंसा बोलावित कौतुकें| तिये वैकुंठीं तुवां गणिके| सुरवाडु केला ||१०७||
ऐसीं पाहूनि वायाणीं मिषें| आपणपें देवों लागसी वानिवसें| तो तूं कां अनारिसें| मजलागीं करिसी ||१०८||
हां गा दुभतयाचेनि पवाडें| जे जगाचें फेडी सांकडें| तिये कामधेनूचे पाडे| काय भुकेले ठाती ? ||१०९||
म्हणौनि मियां जें विनविलें कांहीं| तें देव न दाखविती हें कीर नाहीं| परी देखावयालागीं देईं| पात्रता मज ||११०||
तुझें विश्वरूप आकळे| ऐसे जरी जाणसी माझे डोळे| तरी आर्तीचे डोहळे| पुरवीं देवा ||१११||
ऐसी ठायेंठावो विनंती| जंव करूं सरला सुभद्रापती| तंव तया षड्गुणचक्रवर्ती| साहवेचिना ||११२||
तो कृपापीयूषसजळु| आणि येरु जवळां आला वर्षाकाळु| नाना कृष्ण कोकिळु| अर्जुन वसंतु ||११३||
नातरी चंद्रबिंब वाटोळें| देखोनि क्षीरसागर उचंबळे| तैसा दुणेंही वरी प्रेमबळें| उल्लसितु जाहला ||११४||
मग तिये प्रसन्नतेचेनि आटोपें| गाजोनि म्हणितलें सकृपें| पार्था देख देख अमुपें| स्वरूपें माझीं ||११५||
एक विश्वरूप देखावें| ऐसा मनोरथु केला पांडवें| कीं विश्वरूपमय आघवें| करूनि घातलें ||११६||
बाप उदार देवो अपरिमितु| याचक स्वेच्छा सदोदितु| असे सहस्रवरी देतु| सर्वस्व आपुलें ||११७||
अहो शेषाचेहि डोळे चोरिले| वेद जयालागीं झकविले| लक्ष्मीयेही राहविलें| जिव्हार जें ||११८||
तें आतां प्रकटुनी अनेकधा| करीत विश्वरूपदर्शनाचा धांदा| बाप भाग्या अगाधा| पार्थाचिया ||११९||
जो जागता स्वप्नावस्थे जाये| तो जेवीं स्वप्नींचें आघवें होये| तेवीं अनंत ब्रह्मकटाह आहे| आपणचि जाहला ||१२०||
ते सहसा मुद्रा सोडिली| आणि स्थूळदृष्टीची जवनिका फेडिली| किंबहुना उघडिली| योगऋद्धी ||१२१||
परी हा हें देखेल कीं नाहीं| ऐसी सेचि न करी कांहीं| एकसरां म्हणतसे पाहीं| स्नेहातुर ||१२२||

श्रीभगवानुवाच |
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ||५||

अर्जुना तुवां एक दावा म्हणितलें| आणि तेंचि दावूं तरी काय दाविलें| आतां देखें आघवें भरिलें| माझ्याचि रूपीं ||१२३||
एकें कृशें एकें स्थूळें| एकें ऱ्हस्वें एकें विशाळें| पृथुतरें सरळें| अप्रांतें एकें ||१२४||
एकें अनावरें प्रांजळें| सव्यापारें एकें निश्चळें| उदासीनें स्नेहाळें| तीव्रें एकें ||१२५||
एके घूर्णितें सावधें| असलगें एकें अगाधें| एकें उदारें अतिबद्धें| क्रुद्धें एकें ||१२६||
एकें शांतें सन्मदें| स्तब्धें एकें सानंदें| गर्जितें निःशब्दें| सौम्यें एकें ||१२७||
एकें साभिलाषें विरक्तें| उन्निद्रितें एकें निद्रितें| परितुष्टें एकें आर्तें| प्रसन्नें एकें ||१२८||
एकें अशस्त्रें सशस्त्रें| एकें रौद्रें अतिमित्रें| भयानकें एकें पवित्रें| लयस्थें एकें ||१२९||
एकें जनलीलाविलासें| एकें पालनशीलें लालसें| एकें संहारकें सावेशें| साक्षिभूतें एकें ||१३०||
एवं नानाविधें परी बहुवसें| आणि दिव्यतेजप्रकाशें| तेवींचि एकएका ऐसें| वर्णेंही नव्हे ||१३१||
एकें तातलें साडेपंधरें| तैसीं कपिलवर्णें अपारें| एकें सर्वांगीं जैसें सेंदुरें| डवरलें नभ ||१३२||
एकें सावियाचि चुळुकीं| जैसें ब्रह्मकटाह खचिलें माणिकीं| एकें अरुणोदयासारिखीं| कुंकुमवर्णें ||१३३||
एकें शुद्धस्फटिकसोज्वळें| एकें इंद्रनीळसुनीळें| एकें अंजनवर्णें सकाळें| रक्तवर्णें एकें ||१३४||
एकें लसत्कांचनसम पिंवळीं| एकें नवजलदश्यामळीं| एकें चांपेगौरीं केवळीं| हरितें एकें ||१३५||
एकें तप्तताम्रतांबडीं| एकें श्वेतचंद्र चोखडीं| ऐसीं नानावर्णें रूपडीं| देखें माझीं ||१३६||
हे जैसे कां आनान वर्ण| तैसें आकृतींही अनारिसेपण| लाजा कंदर्प रिघाला शरण| तैसीं सुंदरें एकें ||१३७||
एकें अतिलावण्यसाकारें| एकें स्निग्धवपु मनोहरें| शृंगारश्रियेचीं भांडारें| उघडिली जैसीं ||१३८||
एकें पीनावयवमांसाळें| एकें शुष्कें अति विक्राळें| एकें दीर्घकंठें विताळें| विकटें एकें ||१३९||
एवं नानाविधाकृती| इयां पाहतां पारु नाहीं सुभद्रापती| ययांच्या एकेकीं अंगप्रांतीं| देख पां जग ||१४०||

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ||६||

जेथ उन्मीलन होत आहे दिठी| तेथ पसरती आदित्यांचिया सृष्टी| पुढती निमीलनीं मिठीं| देत आहाती ||१४१||
वदनींचिया वाफेसवें| होत ज्वाळामय आघवें| जेथ पावकादिक पावे| समूह वसूंचा ||१४२||
आणि भ्रूलतांचे शेवट| कोपें मिळों पाहतीं एकवट| तेथ रुद्रगणांचे संघाट| अवतरत देखें ||१४३||
पैं सौम्यतेचा बोलावा| मिती नेणिजे अश्विनौदेवां| श्रोत्रीं होती पांडवा| अनेक वायु ||१४४||
यापरी एकेकाचिये लीळे| जन्मती सुरसिद्धांचीं कुळें| ऐसीं अपारें आणि विशाळें| रूपें इयें पाहीं ||१४५||
जयांतें सांगावया वेद बोबडे| पहावया काळाचेंही आयुष्य थोकडें| धातयाही परी न सांपडे| ठाव जयांचा ||१४६||
जयांतें देवत्रयी कधीं नायके| तियें इयें प्रत्यक्ष देख अनेकें| भोगीं आश्चर्याची कवतिकें| महासिद्धी ||१४७||

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दृष्टुमिच्छसि ||७||

इया मूर्तीचिया किरीटी| रोममूळीं देखें पां सृष्टी| सुरतरुतळवटीं| तृणांकुर जैसे ||१४८||
चंडवाताचेनि प्रकाशें| उडत परमाणु दिसती जैसे| भ्रमत ब्रह्मकटाह तैसें| अवयवसंधीं ||१४९||
एथ एकैकाचिया प्रदेशीं| विश्व देख विस्तारेंशी| आणि विश्वाही परौतें मानसीं| जरी देखावें वर्ते ||१५०||
तरी इयेही विषयींचें कांहीं| एथ सर्वथा सांकडें नाहीं| सुखें आवडे तें माझिया देहीं| देखसी तूं ||१५१||
ऐसें विश्वमूर्ती तेणें| बोलिलें कारुण्यपूर्णें| तंव देखत आहे कीं नाहीं न म्हणे| निवांतुचि येरु ||१५२||
एथ कां पां हा उगला ? | म्हणौनि श्रीकृष्णें जंव पाहिला| तंव आर्तीचें लेणें लेइला| तैसाचि आहे ||१५३||

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ||८||

मग म्हणें उत्कंठे वोहट न पडे| अझुनी सुखाची सोय न सांपडे| परी दाविलें तें फुडें| नाकळेचि यया ||१५४||
हे बोलोनि देवो हांसिले| हांसोनि देखणियातें म्हणितलें| आम्हीं विश्वरूप तरी दाविलें| परी न देखसीच तूं ||१५५||
यया बोला येरें विचक्षणें| म्हणितलें हां जी कवणासी तें उणें ? | तुम्ही बकाकरवीं चांदिणें| चरऊं पहा मा ||१५६||
हां हो उटोनियां आरिसा| आंधळिया द्ॐ बैसा| बहिरियापुढें हृषीकेशा| गाणीव करा ||१५७||
मकरंदकणाचा चारा| जाणतां घालूनि दर्दुरा| वायां धाडा शारङ्गधरा| कोपा कवणा ||१५८||
जें अतींद्रिय म्हणौनि व्यवस्थिलें| केवळ ज्ञानदृष्टीचिया भागा फिटलें| तें तुम्हीं चर्मचक्षूंपुढें सूदलें| मी कैसेनि देखें ||१५९||
परी हें तुमचें उणें न बोलावें| मीचि साहें तेंचि बरवें| एथ आथि म्हणितलें देवें| मानूं बापा ||१६०||
साच विश्वरूप जरी आम्ही दावावें| तरी आधीं देखावया सामर्थ्य कीं द्यावें| परी बोलत बोलत प्रेमभावें |
धसाळ गेलों ||१६१||
काय जाहलें न वाहतां भुई पेरिजे| तरी तो वेलु विलया जाइजे| तरी आतां माझें निजरूप देखिजे |
तें दृष्टी देवों तुज ||१६२||
मग तिया दृष्टी पांडवा| आमुचा ऐश्वर्ययोगु आघवा| देखोनियां अनुभवा| माजिवडा करीं ||१६३||
ऐसें तेणें वेदांतवेद्यें| सकळ लोक आद्यें| बोलिलें आराध्यें| जगाचेनि ||१६४||

संजय उवाच |
एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ||९||

पैं कौरवकुलचक्रवर्ती| मज हाचि विस्मयो पुढतपुढती| जे श्रियेहूनि त्रिजगतीं| सदैव असे कवणी ? ||१६५||
ना तरी खुणेचें वानावयालागीं| श्रुतीवांचूनि दावा पां जगीं| ना सेवकपण तरी आंगीं| शेषाच्याचि आथी ||१६६||
हां हो जयाचेनि सोसें| शिणत आठही पहार योगी जैसे| अनुसरलें गरुडाऐसें| कवण आहे ? ||१६७||
परी तें आघवेंचि एकीकडे ठेलें| सापें कृष्णसुख एकंदरें जाहलें| जिये दिवूनि जन्मले| पांडव हे ||१६८||
परी पांचांही आंतु अर्जुना| श्रीकृष्ण सावियाचि जाहला अधीना| कामुक कां जैसा अंगना| आपैता कीजे ||१६९||
पढविलें पाखरूं ऐसें न बोले| यापरी क्रीडामृगही तैसा न चले| कैसें दैव एथें सुरवाडलें| तें जाणों न ये ||१७०||
आजि हें परब्रह्म सगळें| भोगावया सदैव याचेचि डोळे| कैसे वाचेनि हन लळे| पाळीत असे ||१७१||
हा कोपे कीं निवांतु साहे| हा रुसे तरी बुझावीत जाये| नवल पिसें लागलें आहे| पार्थाचें देवा ||१७२||
एऱ्हवीं विषय जिणोनि जन्मले| जे शुकादिक दादुले| ते विषयोचि वानितां जाहले| भाट ययाचें ||१७३||
हा योगियांचें समाधिधन| कीं होऊनि ठेले पार्थाआधीन| यालागीं विस्मयो माझें मन| करीतसे राया ||१७४||
तेवींचि संजय म्हणे कायसा| विस्मयो एथें कौरवेशा| श्रीकृष्णें स्वीकारिजे तया ऐसा| भाग्योदय होय ||१७५||
म्हणौनि तो देवांचा रावो| म्हणे पार्थाते तुज दृष्टि देवों| जया विश्वरूपाचा ठावो| देखसी तूं ||१७६||
ऐसी श्रीमुखौनि अक्षरें| निघती ना जंव एकसरें| तंव अविद्येचे आंधारें| जावोंचि लागे ||१७७||
तीं अक्षरें नव्हती देखा| ब्रह्मसाम्राज्यदीपिका| अर्जुनालागीं चित्कळिका| उजळलिया श्रीकृष्णें ||१७८||
मग दिव्यचक्षुप्रकाशु प्रगटला| तया ज्ञानदृष्टी फांटा फुटला| ययापरी दाविता जाहला| ऐश्वर्य आपुलें ||१७९||
हे अवतार जे सकळ| ते जिये समुद्रींचे कां कल्लोळ| विश्व हें मृगजळ| जया रश्मीस्तव दिसे ||१८०||
जिये अनादिभूमिके निटे| चराचर हें चित्र उमटे| आपणपें श्रीवैकुंठें| दाविलें तया ||१८१||
मागां बाळपणीं येणें श्रीपती| जैं एक वेळ खादली होती माती| तैं कोपोनियां हातीं| यशोदां धरिला ||१८२||
मग भेणें भेणें जैसें| मुखीं झाडा द्यावयाचेनि मिसें| चवदाही भुवनें सावकाशें| दाविलीं तिये ||१८३||
ना तरी मधुवनीं ध्रुवासि केलें| जैसें कपोल शंखें शिवतलें| आणि वेदांचियेही मतीं ठेलें| तें लागला बोलों ||१८४||
तैसा अनुग्रहो पैं राया| श्रीहरी केला धनंजया| आतां कवणेकडेही माया| ऐसी भाष नेणेंचि तो ||१८५||
एकसरें ऐश्वर्यतेजें पाहलें| तया चमत्काराचें एकार्णव जाहलें| चित्त समाजीं बुडोनि ठेलें| विस्मयाचिया ||१८६||
जैसा आब्रह्म पूर्णोदकीं| पव्हे मार्कंडेय एकाकीं| तैसा विश्वरूप कौतुकीं| पार्थु लोळे ||१८७||
म्हणे केवढें गगन एथ होतें| तें कवणें नेलें पां केउतें| तीं चराचर महाभूतें| काय जाहलीं ? ||१८८||
दिशांचे ठावही हारपले| आधोर्ध्व काय नेणों जाहले| चेइलिया स्वप्न तैसे गेले| लोकाकार ||१८९||
नाना सूर्यतेजप्रतापें| सचंद्र तारांगण जैसें लोपे| तैसीं गिळिलीं विश्वरूपें| प्रपंचरचना ||१९०||
तेव्हां मनासी मनपण न स्फुरे| बुद्धि आपणपें न सांवरें| इंद्रियांचे रश्मी माघारे| हृदयवरी भरले ||१९१||
तेथ ताटस्थ्या ताटस्थ्य पडिलें| टकासी टक लागले| जैसें मोहनास्त्र घातलें| विचारजातां ||१९२||
तैसा विस्मितु पाहे कोडें| तंव पुढां होतें चतुर्भुज रूपडें| तेंचि नानारूप चहूंकडे| मांडोनि ठेलें ||१९३||
जैसें वर्षाकाळींचे मेघौडे| कां महाप्रळयींचें तेज वाढे| तैसें आपणावीण कवणीकडे| नेदीचि उरों ||१९४||
प्रथम स्वरूपसमाधान| पावोनि ठेला अर्जुन| सवेचि उघडी लोचन| तंव विश्वरूप देखें ||१९५||
इहींचि दोहीं डोळां| पाहावें विश्वरूपा सकळा| तो श्रीकृष्णें सोहळा| पुरविला ऐसा ||१९६||

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||१०||

मग तेथ सैंघ देखे वदनें| जैसी रमानायकाचीं राजभुवनें| नाना प्रगटलीं निधानें| लावण्यश्रियेचीं ||१९७||
कीं आनंदाची वनें सासिन्नलीं| जैसी सौंदर्या राणीव जोडली| तैसीं मनोहरें देखिलीं| हरीचीं वक्त्रें ||१९८||
तयांही माजीं एकैकें| सावियाचि भयानकें| काळरात्रीचीं कटकें| उठवलीं जैसीं ||१९९||
कीं मृत्यूसीचि मुखें जाहलीं| हो कां जें भयाचीं दुर्गें पन्नासिलीं| कीं महाकुंडें उघडलीं| प्रळयानळाचीं ||२००||
तैसीं अद्भुतें भयासुरें| तेथ वदनें देखिलीं वीरें| आणिकें असाधारणें साळंकारें| सौम्यें बहुतें ||२०१||
पैं ज्ञानदृष्टीचेनि अवलोकें| परी वदनांचा शेवटु न टके| मग लोचन तें कवतिकें| लागला पाहों ||२०२||
तंव नानावर्णें कमळवनें| विकासिलीं तैसे अर्जुनें| डोळे देखिले पालिंगनें| आदित्यांचीं ||२०३||
तेथेंचि कृष्णमेघांचिया दाटी- | माजीं कल्पांत विजूंचिया स्फुटी| तैसिया वन्हि पिंगळा दिठी| भ्रूभंगातळीं ||२०४||
हें एकैक आश्चर्य पाहतां| तिये एकेचि रूपीं पंडुसुता| दर्शनाची अनेकता| प्रतिफळली ||२०५||
मग म्हणे चरण ते कवणेकडे| केउते मुकुट कें दोर्दंडें| ऐसी वाढविताहे कोडें| चाड देखावयाची ||२०६||
तेथ भाग्यनिधि पार्था| कां विफलत्व होईल मनोरथा| काय पिनाकपाणीचिया भातां| वायकांडीं आहाती ? ||२०७||
ना तरी चतुराननाचिये वाचे| काय आहाती लटिकिया अक्षरांचे साचे ? | म्हणौनि साद्यंतपण अपारांचे| देखिलें तेणें ||२०८||
जयाची सोय वेदां नाकळे| तयाचे सकळावयव एकेचि वेळे| अर्जुनाचे दोन्ही डोळे| भोगिते जाहले ||२०९||
चरणौनि मुकुटवरी| देखत विश्वरूपाची थोरी| जे नाना रत्न अळंकारीं| मिरवत असे ||२१०||
परब्रह्म आपुलेनि आंगें| ल्यावया आपणचि जाहला अनेगें| तियें लेणीं मी सांगें| काइसयासारिखीं ||२११||
जिये प्रभेचिये झळाळा| उजाळु चंद्रादित्यमंडळा| जे महातेजाचा जिव्हाळा| जेणें विश्व प्रगटे ||२१२||
तो दिव्यतेज शृंगारु| कोणाचिये मतीसी होय गोचरु| देव आपणपेंचि लेइले ऐसें वीरु| देखत असे ||२१३||
मग तेथेंचि ज्ञानाचिया डोळां| पहात करपल्लवां जंव सरळा| तंव तोडित कल्पांतींचिया ज्वाळा |
तैसीं शस्त्रें झळकत देखे ||२१४||
आपण आंग आपण अलंकार| आपण हात आपण हतियार| आपण जीव आपण शरीर| देखें चराचर कोंदलें देवें ||२१५||
जयाचिया किरणांचे निखरपणें| नक्षत्रांचे होत फुटाणे| तेजें खिरडला वन्हि म्हणे| समुद्रीं रिघों ||२१६||
मग कालकूटकल्लोळीं कवळिलें| नाना महाविजूंचें दांग उमटलें| तैसे अपार कर देखिले| उदितायुधीं ||२१७||

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||११||

कीं भेणें तेथूनि काढिली दिठी| मग कंठमुगुट पहातसे किरीटी| तंव सुरतरूची सृष्टी| जयांपासोनि कां जाहली ||२१८||
जिये महासिद्धींचीं मूळपीठें| शिणली कमळा जेथ वावटे| तैसीं कुसुमें अति चोखटें| तुरंबिलीं देखिलीं ||२१९||
मुगुटावरी स्तबक| ठायीं ठायीं पूजाबंध अनेक| कंठीं रुळताति अलौकिक| माळादंड ||२२०||
स्वर्गें सूर्यतेज वेढिलें| जैसें पंधरेनें मेरूतें मढिलें| तैसें नितंबावरी गाढिलें| पीतांबरु झळके ||२२१||
श्रीमहादेवो कापुरें उटिला| कां कैलासु पारजें डवरिला| नाना क्षीरोदकें पांघरविला| क्षीरार्णवो जैसा ||२२२||
जैसी चंद्रमयाची घडी उपलविली| मग गगनाकरवीं बुंथी घेवविली| तैसीं चंदनपिंजरी देखिली| सर्वांगीं तेणें ||२२३||
जेणें स्वप्रकाशा कांतीं चढे| ब्रह्मानंदाचा निदाघु मोडे| जयाचेनि सौरभ्यें जीवित जोडे| वेदवतीये ||२२४||
जयाचे निर्लेप अनुलेपु करी| जे अनंगुही सर्वांगीं धरी| तया सुगंधाची थोरी| कवण वानी ? ||२२५||
ऐसी एकैक शृंगारशोभा| पाहतां अर्जुन जातसें क्षोभा| तेवींचि देवो बैसला कीं उभा| का शयालु हें नेणवें ||२२६||
बाहेर दिठी उघडोनि पाहे| तंव आघवें मूर्तिमय देखत आहे| मग आतां न पाहें म्हणौनि उगा राहे |
तरी आंतुही तैसेंचि ||२२७||
अनावरें मुखें समोर देखे| तयाभेणें पाठीमोरा जंव ठाके| तंव तयाहीकडे श्रीमुखें| करचरण तैसेचि ||२२८||
अहो पाहतां कीर प्रतिभासे| एथ नवलावो काय असे ? | परि न पाहतांही दिसे| चोज आइका ||२२९||
कैसें अनुग्रहाचें करणें| पार्थाचें पाहणें आणि न पाहणें| तयाही सकट नारायणें| व्यापूनि घेतलें ||२३०||
म्हणौनि आश्चर्याच्या पुरीं एकीं| पडिला ठायेठाव थडीं ठाकी| तंव चमत्काराचिया आणिकीं| महार्णवीं पडे ||२३१||
तैसा अर्जुनु असाधारणें| आपुलिया दर्शनाचेनि विंदाणें| कवळूनि घेतला तेणें| अनंतरूपें ||२३२||
तो विश्वतोमुख स्वभावें| आणि तेचि दावावयालागीं पांडवें| प्रार्थिला आतां आघवें| होऊनि ठेला ||२३३||
आणि दीपें कां सूर्यें प्रगटे| अथवा निमुटलिया देखावेंचि खुंटे| तैसी दिठी नव्हे जे वैकुंठें| दिधली आहे ||२३४||
म्हणौनि किरीटीसि दोहीं परी| तें देखणें देखें अंधारी| हें संजयो हस्तिनापुरीं| सांगतसे राया ||२३५||
म्हणे किंबहुना अवधारिलें| पार्थें विश्वरूप देखिलें| नाना आभरणीं भरलें| विश्वतोमुख ||२३६||

दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ||१२||

तिये अंगप्रभेचा देवा| नवलावो काइसया ऐसा सांगावा| कल्पांतीं एकुचि मेळावा| द्वादशादित्यांचा होय ||२३७||
तैसे ते दिव्यसूर्य सहस्रवरी| जरी उदयजती कां एकेचि अवसरीं| तऱ्ही तया तेजाची थोरी| उपमूं नये ||२३८||
आघवयाचि विजूंचा मेळावा कीजे| आणि प्रळयाग्नीची सर्व सामग्री आणिजे| तेवींचि दशकुही मेळविजे |
महातेजांचा ||२३९||
तऱ्ही तिये अंगप्रभेचेनि पाडें| हें तेज कांहीं कांहीं होईल थोडें| आणि तया ऐसें कीर चोखडें| त्रिशुद्धी नोहे ||२४०||
ऐसें महात्म्य या श्रीहरीचें सहज| फांकतसे सर्वांगीचें तेज| तें मुनिकृपा जी मज| दृष्ट जाहलें ||२४१||

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नम् प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तदा ||१३||

आणि तिये विश्वरूपीं एकीकडे| जग आघवें आपुलेनि पवाडें| जैसे महोदधीमाजीं बुडबुडे| सिनानें दिसती ||२४२||
कां आकाशीं गंधर्वनगर| भूतळीं पिपीलिका बांधे घर| नाना मेरुवरी सपूर| परमाणु बैसले ||२४३||
विश्व आघवेंचि तयापरी| तया देवचक्रवर्तीचिया शरीरीं| अर्जुन तिये अवसरीं| देखता जाहला ||२४४||

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताज़्जलिरभाषत ||१४||

तेथ एक विश्व एक आपण| ऐसें अळुमाळ होतें जें दुजेपण| तेंही आटोनि गेलें अंतःकरण| विरालें सहसा ||२४५||
आंतु आनंदा चेइरें जाहलें| बाहेरि गात्रांचें बळ हारपोनि गेलें| आपाद पां गुंतलें| पुलकांचलें ||२४६||
वार्षिये प्रथमदशे| वोहळलया शैलांचें सर्वांग जैसें| विरूढे कोमलांकुरीं तैसे| रोमांच जाहले ||२४७||
शिवतला चंद्रकरीं| सोमकांतु द्रावो धरी| तैसिया स्वेदकणिका शरीरीं| दाटलिया ||२४८||
माजीं सापडलेनि अलिकुळें| जळावरी कमळकळिका जेवीं आंदोळे| तेवीं आंतुलिया सुखोर्मीचेनि बळें| बाहेरि कांपे ||२४९||
कर्पूरकर्दळीचीं गर्भपुटें| उकलतां कापुराचेनि कोंदाटें| पुलिका गळती तेवीं थेंबुटें| नेत्रौनि पडती ||२५०||
उदयलेनि सुधाकरें| जैसा भरलाचि समुद्र भरे| तैसा वेळोवेळां उर्मिभरें| उचंबळत असे ||२५१||
ऐसा सात्त्विकांही आठां भावां| परस्परें वर्ततसे हेवा| तेथ ब्रह्मानंदाची जीवा| राणीव फावली ||२५२||
तैसाचि तया सुखानुभवापाठीं| केला द्वैताचा सांभाळु दिठी| मग उसासौनि किरीटी| वास पाहिली ||२५३||
तेथ बैसला होता जिया सवा| तियाचिया कडे मस्तक खालविला देवा| जोडूनि करसंपुट बरवा| बोलतु असे ||२५४||

अर्जुन उवाच |
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ मृषींश्चसर्वानुरगांश्च दिव्यान् ||१५||

म्हणे जयजयाजी स्वामी| नवल कृपा केली तुम्हीं| जें हें विश्वरूप कीं आम्हीं| प्राकृत देखों ||२५५||
परि साचचि भलें केलें गोसाविया| मज परितोषु जाहला साविया| जी देखलासि जो इया| सृष्टीसी तूं आश्रयो ||२५६||
देवा मंदराचेनि अंगलगें| ठायीं ठायीं श्वापदांचीं दांगें| तैसीं इयें तुझ्या देहीं अनेगें| देखतसें भुवनें ||२५७||
अहो आकाशचिये खोळे| दिसती ग्रहगणांचीं कुळें| कां महावृक्षीं अविसाळें| पक्षिजातीचीं ||२५८||
तयापरी श्रीहरी| तुझिया विश्वात्मकीं इये शरीरीं| स्वर्गु देखतसें अवधारीं| सुरगणेंसीं ||२५९||
प्रभु महाभूतांचें पंचक| येथ देखत आहे अनेक| आणि भूतग्राम एकेक| भूतसृष्टीचें ||२६०||
जी सत्यलोकु तुजमाजीं आहे| देखिला चतुराननु हा नोहे ? | आणि येरीकडे जंव पाहें| तंव कैलासुही दिसे ||२६१||
श्रीमहादेव भवानियेशीं| तुझ्या दिसतसे एके अंशीं| आणि तूंतेंही गा हृषीकेशी| तुजमाजीं देखे ||२६२||
पैं कश्यपादि ऋषिकुळें| इयें तुझिया स्वरूपीं सकळें| देखतसें पाताळें| पन्नगेंशीं ||२६३||
किंबहुना त्रैलोक्यपती| तुझिया एकेकाचि अवयवाचिये भिंती| इयें चतुर्दशभुवनें चित्राकृती| अंकुरलीं जाणों ||२६४||
आणि तेथिंचे जे जे लोक| ते चित्ररचना जी अनेक| ऐसें देखतसे अलोकिक| गांभीर्य तुझें ||२६५||

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनंतरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूपम् ||१६||

त्या दिव्यचक्षूंचेनि पैसें| चहुंकडे जंव पाहात असें| तंव दोर्दंडीं कां जैसें| आकाश कोंभैलें ||२६६||
तैसे एकचि निरंतर| देवा देखत असें तुझे कर| करीत आघवेचि व्यापार| एकेचि काळीं ||२६७||
मग महाशून्याचेनि पैसारें| उघडलीं ब्रह्मकटाहाचीं भांडारें| तैसीं देखतसें अपारें| उदरें तुझीं ||२६८||
जी सहस्रशीर्षयाचें देखिलें| कोडीवरी होताति एकीवेळें| कीं परब्रह्मचि वदनफळें| मोडोनि आलें ||२६९||
तैसीं वक्त्रें जी जेउतीं तेउतीं| तुझीं देखितसे विश्वमूर्ती| आणि तयाचिपरी नेत्रपंक्ती| अनेका सैंघ ||२७०||
हें असो स्वर्ग पाताळ| कीं भूमी दिशा अंतराळ| हे विवक्षा ठेली सकळ| मूर्तिमय देखतसें ||२७१||
हें तुजवीण एकादियाकडे| परमाणूहि एतुला कोडें| अवकाशु पाहतसें परि न सांपडे| ऐसें व्यापिलें तुवां ||२७२||
इये नानापरी अपरिमितें| जेतुलीं साठविलीं होतीं महाभूतें| तेतुलाहि पवाडु तुवां अनंतें| कोंदला देखतसें ||२७३||
ऐसा कवणें ठायाहूनि तूं आलासी| एथ बैसलासि कीं उभा आहासि| आणि कवणिये मायेचिये पोटीं होतासी |
तुझें ठाण केवढें ||२७४||
तुझें रूप वय कैसें| तुजपैलीकडे काय असे| तूं काइसयावरी आहासि ऐसें| पाहिलें मियां ||२७५||
तंव देखिलें जी आघवेंचि| तरि आतां तुज ठावो तूंचि| तूं कवणाचा नव्हेसि ऐसाचि| अनादि आयता ||२७६||
तूं उभा ना बैठा| दिघडु ना खुजटा| तुज तळीं वरी वैकुंठा| तूंचि आहासी ||२७७||
तूं रूपें आपणयांचि ऐसा| देवा तुझी तूंचि वयसा| पाठीं पोट परेशा| तुझें तूं गा ||२७८||
किंबहुना आतां| तुझें तूंचि आघवें अनंता| हें पुढत पुढती पाहतां| देखिलें मियां ||२७९||
परि या तुझिया रूपाआंतु| जी उणीव एक असे देखतु| जे आदि मध्य अंतु| तिन्हीं नाहीं ||२८०||
एऱ्हवीं गिंवसिलें आघवां ठायीं| परि सोय न लाहेचि कहीं| म्हणौनि त्रिशुद्धी हे नाहीं| तिन्ही एथ ||२८१||
एवं आदिमध्यांतरहिता| तूं विश्वेश्वरा अपरिमिता| देखिलासि जी तत्त्वतां| विश्वरूपा ||२८२||
तुज महामूर्तीचिया आंगी| उमटलिया पृथक् मूर्ती अनेगी| लेइलासी वानेपरींची आंगीं| ऐसा आवडतु आहासी ||२८३||
नाना पृथक् मूर्ती तिया द्रुमवल्ली| तुझिया स्वरूपमहाचळीं| दिव्यालंकार फुलीं फळीं| सासिन्नलिया ||२८४||
हो कां जे महोदधीं तूं देवा| जाहलासि तरंगमूर्ती हेलावा| कीं तूं एक वृक्षु बरवा| मूर्तिफळीं फळलासी ||२८५||
जी भूतीं भूतळ मांडिलें| जैसें नक्षत्रीं गगन गुढलें| तैसें मूर्तिमय भरलें| देखतसें तुझें रूप ||२८६||
जी एकेकीच्या अंगप्रांतीं| होय जाय हें त्रिजगती| एवढियाही तुझ्या आंगीं मूर्ती| कीं रोमा जालिया ||२८७||
ऐसा पवाडु मांडूनि विश्वाचा| तूं कवण पां एथ कोणाचा| हें पाहिलें तंव आमुचा| सारथी तोचि तूं ||२८८||
तरी मज पाहतां मुकुंदा| तूं ऐसाचि व्यापकु सर्वदा| मग भक्तानुग्रहें तया मुग्धा| रूपातें धरिसी ||२८९||
कैसें चहूं भुजांचें सांवळें| पाहतां वोल्हावती मन डोळे| खेंव देऊं जाइजे तरी आकळे| दोहींचि बाहीं ||२९०||
ऐसी मूर्ति कोडिसवाणी कृपा| करूनि होसी ना विश्वरूपा| कीं अमुचियाचि दिठी सलेपा| जें सामान्यत्वें देखिती ||२९१||
तरी आतां दिठीचा विटाळु गेला| तुवां सहजें दिव्यचक्षू केला| म्हणौनि यथारूपें देखवला| महिमा तुझा ||२९२||
परी मकरतुंडामागिलेकडे| तोचि होतासि तूं एवढें| रूप जाहलासि हें फुडें| वोळखिलें मियां ||२९३||

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् |
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||१७||

नोहे तोचि हा शिरीं ? | मुकुट लेइलासि श्रीहरी| परी आतांचें तेज आणि थोरी| नवल कीं बहु हें ||२९४||
तेंचि हें वरिलियेचि हातीं| चक्र परिजितया आयती| सांवरितासि विश्वमूर्ती| ते न मोडे खूण ||२९५||
येरीकडे तेचि हे नोहे गदा| आणि तळिलिया दोनी भुजा निरायुधा| वागोरे सांवरावया गोविंदा| संसरिलिया ||२९६||
आणि तेणेंचि वेगें सहसा| माझिया मनोरथासरिसा| जाहलासि विश्वरूपा विश्वेशा| म्हणौनि जाणें ||२९७||
परी कायसें बा हें चोज| विस्मयो करावयाहि पाडू नाहीं मज| चित्त होऊनि जातसें निर्बुज| आश्चर्यें येणें ||२९८||
हें एथ आथि कां येथ नाहीं| ऐसें श्वसोंही नये कांहीं| नवल अंगप्रभेची नवाई| कैसी कोंदलीं सैंघ ||२९९||
एथ अग्नीचीही दिठी करपत| सूर्य खद्योतु तैसा हारपत| ऐसें तीव्रपण अद्भुत| तेजाचें यया ||३००||
हो कां महातेजाचिया महार्णवीं| बुडोनि गेली सृष्टी आघवी| कीं युगांतविजूंच्या पालवीं| झांकलें गगन ||३०१||
नातरी संहारतेजाचिया ज्वाळा| तोडोनि माचू बांधला अंतराळां| आतां दिव्य ज्ञानाचिया डोळां| पाहवेना ||३०२||
उजाळु अधिकाधिक बहुवसु| धडाडीत आहे अतिदाहसु| पडत दिव्यचक्षुंसही त्रासु| न्याहाळितां ||३०३||
हो कां जे महाप्रळयींचा भडाडु| होता काळाग्निरुद्राचिया ठायीं गूढु| तो तृतीयनयनाचा मढू| फुटला जैसा ||३०४||
तैसें पसरलेनि प्रकाशें| सैंघ पांचवनिया ज्वाळांचे वळसे| पडतां ब्रह्मकटाह कोळिसे| होत आहाती ||३०५||
ऐसा अद्भुत तेजोराशी| जन्मा नवल म्यां देखिलासी| नाहीं व्याप्ती आणि कांतीसी| पारु जी तुझिये ||३०६||

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||१८||

देवा तूं अक्षर| औटाविये मात्रेसि पर| श्रुती जयाचें घर| गिंवसीत आहाती ||३०७||
जें आकाराचें आयतन| जें विश्वनिक्षेपैकनिधान| तें अव्यय तूं गहन| अविनाश जी ||३०८||
तूं धर्माचा वोलावा| अनादिसिद्ध तूं नित्य नवा| जाणें मी सदतिसावा| पुरुष विशेष तूं ||३०९||

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यं अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ||१९||

तूं आदिमध्यांतरहितु| स्वसामर्थ्यें तूं अनंतु| विश्वबाहु अपरिमितु| विश्वचरण तूं ||३१०||
पैं चंद्र चंडांशु डोळां| दावितासि कोपप्रसाद लीळा| एकां रुससी तमाचिया डोळां| एकां पाळितोसि कृपादृष्टी ||३११||
जी एवंविधा तूंतें| मी देखतसें हें निरुतें| पेटलें प्रळयाग्नीचें उजितें| तैसें वक्त्र हें तुझें ||३१२||
वणिवेनि पेटले पर्वत| कवळूनि ज्वाळांचे उभड उठत| तैसी चाटीत दाढा दांत| जीभ लोळे ||३१३||
इये वदनींचिया उबा| आणि जी सर्वांगकांतीचिया प्रभा| विश्व तातलें अति क्षोभा| जात आहे ||३१४||

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः |
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||२०||

कां जे द्यौर्लोक आणि पाताळ| पृथिवी आणि अंतराळ| अथवा दशदिशा समाकुळ| दिशाचक्र ||३१५||
हें आघवेंचि तुंवा एकें| भरलें देखत आहे कौतुकें| परि गगनाहीसकट भयानकें| आप्लविजे जेवीं ||३१६||
नातरी अद्भुतरसाचिया कल्लोळीं| जाहली चवदाही भुवनांसि कडियाळीं| तैसें आश्चर्यचि मग मी आकळीं |
काय एक ? ||३१७||
नावरे व्याप्ती हे असाधारण| न साहवे रूपाचें उग्रपण| सुख दूरी गेलें परि प्राण| विपायें धरीजे ||३१८||
देवा ऐसें देखोनि तूंतें| नेणों कैसें आलें भयाचें भरितें| आतां दुःखकल्लोळीं झळंबतें| तिन्हीं भुवनें ||३१९||
एऱ्हवीं तुज महात्मयाचें देखणें| तरि भयदुःखासि कां मेळवणें ? | परि हें सुख नव्हेचि जेणें गुणें| तें जाणवत आहे मज ||३२०||
जंव तुझें रूप नोहे दिठें| तंव जगासि संसारिक गोमटें| आतां देखिलासि तरी विषयविटें| उपनला त्रासु ||३२१||
तेवींचि तुज देखिलियासाठीं| काय सहसा तुज देवों येईल मिठी| आणि नेदीं तरी शोकसंकटीं| राहों केवीं ? ||३२२||
म्हणौनि मागां सरों तंव संसारु| आडवीत येतसे अनिवारु| आणि पुढां तूं तंव अनावरु| न येसि घेवों ||३२३||
ऐसा माझारलिया सांकडां| बापुड्या त्रैलोक्याचा होतसे हुरडा| हा ध्वनि जी फुडा| चोजवला मज ||३२४||
जैसा आरंबळला आगीं| तो समुद्रा ये निवावयालागीं| तंव कल्लोळपाणियाचिया तरंगीं| आगळा बिहे ||३२५||
तैसें या जगासि जाहलें| तूंतें देखोनि तळमळित ठेलें| यामाजीं पैल भले| ज्ञानशूरांचे मेळावे ||३२६||

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां सुतिभिः पुष्कलाभिः ||२१||

हे तुझेनि आंगिकें तेजें| जाळूनि सर्व कर्मांचीं बीजें| मिळत तुज आंतु सहजें| सद्भावेसीं ||३२७||
आणिक एक सावियाचि भयभीरु| सर्वस्वें धरूनि तुझी मोहरु| तुज प्रार्थिताति करु| जोडोनियां ||३२८||
देवा अविद्यार्णवीं पडिलों| जी विषयवागुरें आंतुडलों| स्वर्गसंसाराचिया सांकडलों| दोहीं भागीं ||३२९||
ऐसें आमुचें सोडवणें| तुजवांचोनि कीजेल कवणें ? | तुज शरण गा सर्वप्राणें| म्हणत देवा ||३३०||
आणि महर्षी अथवा सिद्ध| कां विद्याधरसमूह विविध| हे बोलत तुज स्वस्तिवाद| करिती स्तवन ||३३१||

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोश्मपाश्च |
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ||२२||

हे रुद्रादित्यांचे मेळावे| वसु हन साध्य आघवे| अश्विनौ देव विश्वेदेव विभवें| वायुही हे जी ||३३२||
अवधारा पितर हन गंधर्व| पैल यक्षरक्षोगण सर्व| जी महेंद्रमुख्य देव| कां सिद्धादिक ||३३३||
हे आघवेचि आपुलालिया लोकीं| सोत्कंठित अवलोकीं| हे महामूर्ती दैविकी| पाहात आहाती ||३३४||
मग पाहात पाहात प्रतिक्षणीं| विस्मित होऊनि अंतःकरणीं| करित निजमुकटीं वोवाळणी| प्रभुजी तुज ||३३५||
ते जय जय घोष कलरवें| स्वर्ग गाजविताती आघवे| ठेवित ललाटावरी बरवे| करसंपुट ||३३६||
तिये विनयद्रुमाचिये आरवीं| सुरवाडली सात्त्विकांची माधवी| म्हणौनि करसंपुटपल्लवीं| तूं होतासि फळ ||३३७||

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् |
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम् ||२३||

जी लोचनां भाग्य उदेलें| मना सुखाचें सुयाणें पाहलें| जे अगाध तुझें देखिलें| विश्वरूप इहीं ||३३८||
हें लोकत्रयव्यापक रूपडें| पाहतां देवांही वचक पडे| याचें सन्मुखपण जोडें| भलतयाकडुनी ||३३९||
ऐसें एकचि परी विचित्रें| आणि भयानकें वक्त्रें| बहुलोचन हे सशस्त्रें| अनंतभुजा ||३४०||
अनंत चारु बाहु चरण| बहूदर आणि नानावर्ण| कैसें प्रतिवदनीं मातलेपण| आवेशाचें ||३४१||
हो कां महाकल्पाचिया अंतीं| तवकलेनि यमें जेउततेउतीं| प्रळयाग्नीचीं उजितीं| आंबुखिलीं जैसीं ||३४२||
नातरी संहारत्रिपुरारीचीं यंत्रें| कीं प्रळयभैरवाचीं क्षेत्रें| नाना युगांतशक्तीचीं पात्रें| भूतखिचा वोढविलीं ||३४३||
तैसीं जियेतियेकडे| तुझीं वक्त्रें जीं प्रचंडें| न समाती दरीमाजीं सिंव्हाडे| तैसे दशन दिसती रागीट ||३४४||
जैसें काळरात्रीचेनि अंधारें| उल्हासत निघतीं संहारखेंचरें| तैसिया वदनीं प्रळयरुधिरें| काटलिया दाढा ||३४५||
हें असो काळें अवंतिलें रण| कां सर्व संहारें मातलें मरण| तैसें अतिभिंगुळवाणेंपण| वदनीं तुझिये ||३४६||
हे बापुडी लोकसृष्टी| मोटकीये विपाइली दिठी| आणि दुःखकालिंदीचिया तटीं| झाड होऊनि ठेली ||३४७||
तुज महामृत्यूचिया सागरीं| आतां हे त्रैलोक्य जीविताची तरी| शोकदुर्वातलहरी| आंदोळत असे ||३४८||
एथ कोपोनि जरी वैकुंठें| ऐसें हन म्हणिपैल अवचटें| जें तुज लोकांचें काई वाटे ? | तूं ध्यानसुख हें भोगीं ||३४९||
तरी जी लोकांचें कीर साधारण| वायां आड सूतसे वोडण| केवीं सहसा म्हणे प्राण| माझेचि कांपती ||३५०||
ज्या मज संहाररुद्र वासिपे| ज्या मजभेणें मृत्यु लपे| तो मी एथें अहाळबाहळीं कांपें| ऐसें तुवां केलें ||३५१||
परि नवल बापा हे महामारी| इया नाम विश्वरूप जरी| हे भ्यासुरपणें हारी| भयासि आणी ||३५२||

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ||२४||

ठेलीं महाकाळेंसि हटेंतटें| तैसी कितीएकें मुखें रागिटें| इहीं वाढोनियां धाकुटें| आकाश केलें ||३५३||
गगनाचेंनि वाडपणें नाकळे| त्रिभुवनींचियाही वारिया न वेंटाळे| ययाचेनि वाफा आगी जळे| कैसें धडाडीत असे ||३५४||
तेवींचि एकसारिखें एक नोहे| एथ वर्णावर्णाचा भेदु आहे| हो कां जें प्रळयीं सावावो लाहे| वन्ह्ं ययाचा ||३५५||
जयाचिये आंगींची दीप्ती येवढी| जे त्रैलोक्य कीजे राखोंडी| कीं तयाही तोंडें आणि तोंडीं| दांत दाढा ||३५६||
कैसा वारया धनुर्वात चढला| समुद्र कीं महापुरीं पडिला| विषाग्नि मारा प्रवर्तला| वडवानळासी ||३५७||
हळाहळ आगी पियालें| नवल मरण मारा प्रवर्तलें| तैसें संहारतेजा या जाहलें| वदन देखा ||३५८||
परी कोणें मानें विशाळ| जैसें तुटलिया अंतराळ| आकाशासि कव्हळ| पडोनि ठेलें ||३५९||
नातरी काखे सूनि वसुंधरी| जैं हिरण्याक्षु रिगाला विवरीं| तैं उघडले हाटकेश्वरीं| जेवीं पाताळकुहर ||३६०||
तैसा वक्त्रांचा विकाशु| माजीं जिव्हांचा आगळाचि आवेशु| विश्व न पुरे म्हणौनि घांसु| न भरीचि कोंडें ||३६१||
आणि पाताळव्याळांचिया फूत्कारीं| गरळज्वाळा लागती अंबरीं| तैसी पसरलिये वदनदरी- | माजीं हे जिव्हा ||३६२||
काढूनि प्रळयविजूंचीं जुंबाडें| जैसें पन्नासिलें गगनाचे हुडे| तैसे आवाळुवांवरी आंकडे| धगधगीत दाढांचे ||३६३||
आणि ललाटपटाचिये खोळे| कैसें भयातें भेडविताती डोळे| हो कां जे महामृत्यूचे उमाळे| कडवसां राहिले ||३६४||
ऐसें वाऊनि भयाचें भोज| एथ काय निपजवूं पाहातोसि काज| तें नेणों परी मज| मरणभय आलें ||३६५||
देवा विश्वरूप पहावयाचे डोहळे| केले तिये पावलों प्रतिफळें| बापा देखिलासि आतां डोळे| निवावे तैसे निवाले ||३६६||
अहो देहो पार्थिव कीर जाये| ययाची काकुळती कवणा आहे| परि आतां चैतन्य माझें विपायें| वांचे कीं न वांचे ||३६७||
एऱ्हवीं भयास्तव आंग कांपे| नावेक आगळें तरी मन तापे| अथवा बुद्धिही वासिपे| अभिमानु विसरिजे ||३६८||
परी येतुलियाही वेगळा| जो केवळ आनंदैककळा| तया अंतरात्मयाही निश्चळा| शियारी आली ||३६९||
बाप साक्षात्काराचा वेधु| कैसा देशधडी केला बोधु| हा गुरुशिष्यसंबंधु| विपायें नांदे ||३७०||
देवा तुझ्या ये दर्शनीं| जें वैकल्य उपजलें आहे अंतःकरणीं| तें सावरावयालागीं गंवसणी| धैर्याची करितसें ||३७१||
तंव माझेनि नामें धैर्य हारपलें| कीं तयाहीवरी विश्वरूपदर्शन जाहलें| हें असो परि मज भलें आतुडविलें |
उपदेशा इया ||३७२||
जीव विसंवावयाचिया चाडा| सैंघ धांवाधांवी करितसे बापुडा| परि सोयही कवणेंकडां| न लभे एथ ||३७३||
ऐसें विश्वरूपाचिया महामारी| जीवित्व गेलें आहें चराचरीं| जी न बोलें तरि काय करीं| कैसेनि राहें ? ||३७४||

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि |
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ||२५||

पैं अखंड डोळ्यांपुढें| फुटलें जैसें महाभयाचें भांडें| तैशीं तुझीं मुखें वितंडें| पसरलीं देखें ||३७५||
असो दांत दाढांची दाटी| न झांकवे मा दों दों वोठीं| सैंघ प्रळयशस्त्रांचिया दाट कांटी| लागलिया जैशा ||३७६||
जैसें तक्षका विष भरलें| हो कां जे काळरात्रीं भूत संचरलें| कीं आग्नेयास्त्र परजिलें| वज्राग्नि जैसें ||३७७||
तैशीं तुझीं वक्त्रें प्रचंडें| वरि आवेश हा बाहेरी वोसंडे| आले मरणरसाचे लोंढे| आम्हांवरी ||३७८||
संहारसमयींचा चंडानिळु| आणि महाकल्पांत प्रळयानळु| या दोहीं जैं होय मेळु| तैं काय एक न जळे ? ||३७९||
तैसीं संहारकें तुझीं मुखें| देखोनि धीरु कां आम्हां पारुखे ? | आतां भुललों मी दिशा न देखें| आपणपें नेणें ||३८०||
मोटकें विश्वरूप डोळां देखिलें| आणि सुखाचें अवर्षण पडिलें| आतां जापाणीं जापाणीं आपुलें| अस्ताव्यस्त हें ||३८१||
ऐसें करिसी म्हणौनि जरी जाणें| तरी हे गोष्टी सांगावीं कां मी म्हणें| आतां एक वेळ वांचवी जी प्राणें |
या स्वरूपप्रळयापासोनि ||३८२||
जरी तूं गोसावी आमुचा अनंता| तरी सुईं वोडण माझिया जीविता| सांटवीं पसारा हा मागुता| महामारीचा ||३८३||
आइकें सकळ देवांचिया परदेवते| तुवां चैतन्यें गा विश्व वसतें| तें विसरलासी हें उपरतें| संहारूं आदरिलें ||३८४||
म्हणौनि वेगीं प्रसन्न होईं देवराया| संहरीं संहरीं आपुली माया| काढीं मातें महाभया- | पासोनियां ||३८५||
हा ठायवरी पुढतपुढतीं| तूंतें म्हणिजे बहुवा काकुळती| ऐसा मी विश्वमूर्ती| भेडका जाहलों ||३८६||
जैं अमरावतीये आला धाडा| तैं म्यां एकलेनि केला उवेडा| जो मी काळाचियाही तोंडा| वासिपु न धरीं ||३८७||
परी तया आंतुल नव्हे हें देवा| एथ मृत्यूसही करूनि चढावा| तुवां आमुचाचि घोटू भरावा| या सकळ विश्वेंसीं ||३८८||
कैसा नव्हता प्रळयाचा वेळु| गोखा तूंचि मिनलासि काळु| बापुडा हा त्रिभुवनगोळु| अल्पायु जाहला ||३८९||
अहा भाग्या विपरीता| विघ्न उठिलें शांत करितां| कटाकटा विश्व गेलें आतां| तूं लागलासि ग्रासूं ||३९०||
हें नव्हे मा रोकडें| सैंघ पसरूनियां तोंडें| कवळितासि चहूंकडे| सैन्यें इयें ||३९१||

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः |
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ||२६||

नोहेति ? हे कौरवकुळींचे वीर| आंधळिया धृतराष्ट्राचे कुमर| हे गेले गेले सहपरिवार| तुझिया वदनीं ||३९२||
आणि जे जे यांचेनि सावायें| आले देशोदेशींचे राये| तयांचें सांगावया जावों न लाहे| ऐसें सरकटित आहासी ||३९३||
मदमुखाचिया संघटा| घेत आहासि घटघटां| आरणीं हन थाटा| देतासि मिठी ||३९४||
जंत्रावरिचील मार| पदातींचे मोगर| मुखाआंत भार| हारपताति मा ||३९५||
कृतांताचिया जावळी| जें एकचि विश्वातें गिळी| तियें कोटीवरी सगळीं| गिळितासि शस्त्रें ||३९६||
चतुरंगा परिवारा| संजोडियां रहंवरां| दांत न लाविसी मा परमेश्वरा| कसा तुष्टलासि बरवा ||३९७||
हां गा भीष्माऐसा कवणु| सत्यशौर्यनिपुणु| तोही आणि ब्राह्मण द्रोणु| ग्रासिलासि कटकटा ||३९८||
अहा सहस्रकराचा कुमरु| एथ गेला गेला कर्णवीरु| आणि आमुचिया आघवयांचा केरु| फेडिला देखें ||३९९||
कटकटा धातया| कैसें जाहलें अनुग्रहा यया| मियां प्रार्थूनि जगा बापुडिया| आणिलें मरण ||४००||
मागां थोडिया बहुवा उपपत्ती| येणें सांगितलिया विभूती| तैसा नसेचि मा पुढती| बैसलों पुसों ||४०१||
म्हणौनि भोग्य तें त्रिशुद्धी न चुके| आणि बुद्धिही होणारासारिखी ठाके| माझ्या कपाळीं पिटावें लोकें |
तें लोटेल कांह्यां ||४०२||
पूर्वीं अमृतही हातां आलें| परी देव नसतीचि उगले| मग काळकूट उठविलें| शेवटीं जैसें ||४०३||
परी तें एकबगीं थोडें| केलिया प्रतिकारामाजिवडें| आणि तिये अवसरीचें तें सांकडें| निस्तरविलें शंभू ||४०४||
आतां हा जळतां वारा कें वेंटाळे ? | कोणा हे विषा भरलें गगन गिळे ? | महाकाळेंसि कें खेळें ? | आंगवत असे ||४०५||
ऐसा अर्जुन दुःखें शिणतु| शोचित असे जिवाआंतु| परी न देखें तो प्रस्तुतु| अभिप्राय देवाचा ||४०६||
जे मी मारिता हे कौरव मरते| ऐसेनि वेंटाळिला होता मोहें बहुतें| तो फेडावयालागीं अनंतें| हें दाखविलें निज ||४०७||
अरे कोण्ही कोणातें न मारी| एथ मीचि हो सर्व संहारीं| हें विश्वरूपव्याजें हरी| प्रकटित असे ||४०८||
परी वायांचि व्याकुलता| ते न चोजवेचि पंडुसुता| मग अहा कंपु नव्हता| वाढवित असे ||४०९||

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि |
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ||२७||

तेथ म्हणे पाहा हो एके वेळे| सासिकवचेंसि दोन्ही दळें| वदनीं गेलीं आभाळें| गगनीं कां जैसीं ||४१०||
कां महाकल्पाचिया शेवटीं| जैं कृतांतु कोपला होय सृष्टी| तैं एकविसांही स्वर्गां मिठी| पाताळासकट दे ||४११||
नातरी उदासीनें दैवें| संचकाचीं वैभवें| जेथींचीं तेथ स्वभावें| विलया जाती ||४१२||
तैसीं सासिन्नलीं सैन्यें एकवटें| इये मुखीं जाहलीं प्रविष्टें| परी एकही तोंडौनि न सुटे| कैसें कर्म देखा ||४१३||
अशोकाचे अंगवसे| चघळिले कऱ्हेनि जैसे| लोक वक्त्रामाजीं तैसे| वायां गेले ||४१४||
परि सिसाळें मुकुटेंसीं| पडिली दाढांचे सांडसीं| पीठ होत कैसीं| दिसत आहाती ||४१५||
तियें रत्नें दांतांचिये सवडीं| कूट लागलें जिभेच्या बुडीं| कांहीं कांहीं आगरडीं| द्रंष्ट्रांचीं माखलीं ||४१६||
हो कां जे विश्वरूपें काळें| ग्रासिलीं लोकांचीं शरीरें बळें| परि जीवित्व देहींचीं सिसाळें| अवश्य कीं राखिलीं ||४१७||
तैसीं शरीरामाजीं चोखडीं| इयें उत्तमांगें होतीं फुडीं| म्हणौनि महाकाळाचियाही तोंडीं| परि उरलीं शेखीं ||४१८||
मग म्हणे हें काई| जन्मलयां आन मोहरचि नाहीं| जग आपैसेंचि वदनडोहीं| संचारताहे ||४१९||
यया आपेंआप आघविया सृष्टी| लागलिया आहाति वदनाच्या वाटीं| आणि हा जेथिंचिया तेथ मिठी| देतसे उगला ||४२०||
ब्रह्मादिक समस्त| उंचा मुखामाजीं धांवत| येर सामान्य हे भरत| ऐलीच वदनीं ||४२१||
आणीकही भूतजात| तें उपजलेचि ठायीं ग्रासित| परि याचिया मुखा निभ्रांत| न सुटेचि कांहीं ||४२२||

यथा नदीनाम् बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति |
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ||२८||

जैसे महानदीचे वोघ| वहिले ठाकिती समुद्राचें आंग| तैसें आघवाचिकडूनि जग| प्रवेशत मुखीं ||४२३||
आयुष्यपंथें प्राणिगणी| करोनि अहोरात्रांची मोवणी| वेगें वक्त्रामिळणीं| साधिजत आहाती ||४२४||

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः |
तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ||२९||

जळतया गिरीच्या गवखा- | माजीं घापती पतंगाचिया झाका| तैसे समग्र लोक देखा| इये वदनीं पडती ||४२५||
परि जेतुलें येथ प्रवेशलें| तें तातलिया लोहें पाणीचि पां गिळिलें| वहवटींहि पुसिलें| नामरूप तयांचें ||४२६||

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वद्भिः |
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ||३०||

आणि येतुलाही आरोगण| करितां भुके नाहीं उणेपण| कैसें दीपन असाधारण| उदयलें यया ||४२७||
जैसा रोगिया ज्वराहूनि उठिला| का भणगा दुकाळु पाहला| तैसा जिभांचा लळलळाटु देखिला| आवाळुवें चाटितां ||४२८||
तैसें आहाराचे नांवें कांहीं| तोंडापासूनि उरलेंचि नाहीं| कैसी समसमीत नवाई| भुकेलेपणाची ||४२९||
काय सागराचा घोंटु भरावा ? | कीं पर्वताचा घांसु करावा ? | ब्रह्मकटाहो घालावा| आघवाचि दाढे ||४३०||
दिशा सगळियाचि गिळाविया| चांदिणिया चाटूनि घ्याविया| ऐसें वर्तत आहे साविया| लोलुप्य बा तुझें ||४३१||
जैसा भोगीं कामु वाढे| कां इंधनें आगीसि हाकाक चढे| तैसी खातखातांचि तोंडें| खाखांतें ठेलीं ||४३२||
कैसें एकचि केवढें पसरलें| त्रिभुवन जिव्हाग्रीं आहे टेकलें| जैसें कां कवीठ घातलें| वडवानळीं ||४३३||
ऐसीं अपार वदनें| आतां येतुलीं कैंचीं त्रिभुवनें| कां आहारु न मिळतां येणें मानें| वाढविलीं सैंघ ||४३४||
अगा हा लोकु बापुडा| जाहला वदनज्वाळां वरपडा| जैसी वणवेयाचिया वेढां| सांपडती मृगें ||४३५||
आतां तैसें यां विश्वा जाहालें| देव नव्हे हें कर्म आलें| कां जग चळचळां पांगिलें| काळजाळें ||४३६||
आतां इये अंगप्रभेचिये वागुरे| कोणीकडूनि निगिजैल चराचरें| हीं वक्त्रें नोहेती जोहारें| वोडवलीं जगा ||४३७||
आगी आपुलेनि दाहकपणें| कैसेनि पोळिजे तें नेणे| परी जया लागे तया प्राणें| सुटिकाची नाहीं ||४३८||
नातरी माझेनि तिखटपणें| कैसें निवटे हें शस्त्र कायि जाणें| कां आपुलियां मारा नेणें| विष जैसें ||४३९||
तैसी तुज कांहीं| आपुलिया उग्रपणाची सेचि नाहीं| परी ऐलीकडिले मुखीं खाई| हो सरली जगाची ||४४०||
अगा आत्मा तूं एकु| सकळ विश्वव्यापकु| तरी कां आम्हां अंतकु| तैसा वोडवलासी ? ||४४१||
तरी मियां सांडिली जीवित्वाची चाड| आणि तुवांही न धरावी भीड| मनीं आहे तें उघड| बोल पां सुखें ||४४२||
किती वाढविसी या उग्ररूपा| आंगींचें भगवंतपण आठवीं बापा| नाहीं तरी कृपा| मजपुरती पाही ||४४३||

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुमिच्छामिभवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ||३१||

तरी एक वेळ वेदवेद्या| जी त्रिभुवनैक आद्या| विनवणी विश्ववंद्या| आइकें माझी ||४४४||
ऐसें बोलोनि वीरें| चरण नमस्कारिलें शिरें| मग म्हणें तरी सर्वेश्वरें| अवधारिजो ||४४५||
मियां होआवया समाधान| जी पुसिलें विश्वरूपध्यान| आणि एकेंचि काळें त्रिभुवन| गिळितुचि उठिलासी ||४४६||
तरी तूं कोण कां येतुलीं| इयें भ्यासुरें मुखें कां मेळविलीं| आघवियाचि करीं परिजिलीं| शस्त्रें कांह्या ||४४७||
जी जंव तंव रागीटपणें| वाढोनि गगना आणितोसि उणें| कां डोळे करूनि भिंगुळवाणे| भेडसावीत आहासी ||४४८||
एथ कृतांतेंसि देवा| कासया किजतसे हेवा| हा आपुला तुवां सांगावा| अभिप्राय मज ||४४९||
या बोला म्हणे अनंतु| मी कोण हें आहासी पुसतु| आणि कायिसयालागीं असे वाढतु| उग्रतेसी ||४५०||

श्रीभगवानुवाच |
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः |
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||३२||

तरी मी काळु गा हें फुडें| लोक संहारावयालागीं वाढें| सैंघ पसरिलीं आहातीं तोंडें| आतां ग्रासीन हें आघवें ||४५१||
एथ अर्जुन म्हणे कटकटा| उबगिलों मागिल्या संकटा| म्हणौनि आळविला तंव वोखटा| उवाइला हा ||४५२||
तेवींचि कठिण बोलें आसतुटी| अर्जुन होईल हिंपुटी| म्हणौनि सवेंचि म्हणे किरीटी| परि आन एक असे ||४५३||
तरी आतांचिये संहारवाहरे| तुम्हीं पांडव असा बाहिरे| तेथ जातजातां धनुर्धरें| सांवरिले प्राण ||४५४||
होता मरणमहामारीं गेला| तो मागुता सावधु जाहला| मग लागला बोला| चित्त देऊं ||४५५||
ऐसें म्हणिजत आहे देवें| अर्जुना तुम्ही माझें हें जाणावें| येर जाण मी आघवें| सरलों ग्रासूं ||४५६||
वज्रानळीं प्रचंडीं| जैसी घापे लोणियाची उंडी| तैसें जग हें माझिया तोंडीं| तुवां देखिलें जें ||४५७||
तरी तयामाझारीं कांहीं| भरंवसेनि उणें नाहीं| इये वायांचि सैन्यें पाहीं| बरवतें आहाती ||४५८||
ऐसा चतुरंगाचिया संपदा| करित महाकाळेंसीं स्पर्धा| वांटिवेचिया मदा| वघळले जे ||४५९||
हे जे मिळोनियां मेळे| कुंथती वीरवृत्तीचेनि बळें| यमावरी गजदळें| वाखाणिजताती ||४६०||
म्हणती सृष्टीवरी सृष्टी करूं| आण वाहूनि मृत्यूतें मारूं| आणि जगाचा भरूं| घोंटु यया ||४६१||
पृथ्वी सगळीचि गिळूं| आकाश वरिच्यावरी जाळूं| कां बाणवरी खिळूं| वारयातें ||४६२||
बोल हतियेराहूनि तिखट| दिसती अग्निपरिस दासट| मारकपणें काळकूट| महुर म्हणत ||४६३||
तरी हे गंधर्वनगरींचे उमाळे| जाण पोकळीचे पेंडवळें| अगा चित्रीव फळें| वीर हे देखें ||४६४||
हां गा मृगजळाचा पूर आला| दळ नव्हे कापडाचा साप केला| इया शृंगारूनियां खाला| मांडिलिया पैं ||४६५||

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||३३||

येर चेष्टवितें जें बळ| तें मागांचि मियां ग्रासिलें सकळ| आतां कोल्हारिचे वेताळ| तैसे निर्जीव हे आहाती ||४६६||
हालविती दोरी तुटली| तरी तियें खांबावरील बाहुलीं| भलतेणें लोटिलीं| उलथोनि पडती ||४६७||
तैसा सैन्याचा यया बगा| मोडतां वेळू न लगेल पैं गा| म्हणौनि उठीं उठीं वेगां| शाहाणा होईं ||४६८||
तुवां गोग्रहणाचेनि अवसरें| घातलें मोहनास्त्र एकसरें| मग विराटाचेनि महाभेडें उत्तरें| आसडूनि नागाविलें ||४६९||
आतां हें त्याहूनि निपटारें जहालें| निवटीं आयितें रण पडिलें| घेईं यश रिपु जिंतिले| एकलेनि अर्जुनें ||४७०||
आणि कोरडें यशचि नोहे| समग्र राज्यही आलें आहे| तूं निमित्तमात्रचि होयें| सव्यसाची ||४७१||

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णां तथान्यानपि योधवीरान् |
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ||३४||

द्रोणाचा पाडु न करीं| भीष्माचें भय न धरीं| कैसेनि कर्णावरी| परजूं हें न म्हण ||४७२||
कोण उपायो जयद्रथा कीजे| हें न चिंतूं चित्त तुझें| आणिकही आथि जे जे| नावाणिगे वीर ||४७३||
तेही एक एक आघवें| चित्रींचे सिंहाडे मानावे| जैसे वोलेनि हातें घ्यावें| पुसोनियां ||४७४||
यावरी पांडवा| काइसा युद्धाचा मेळावा ? | हा आभासु गा आघवा| येर ग्रासिलें मियां ||४७५||
जेव्हां तुवां देखिले| हे माझिया वदनीं पडिले| तेव्हांचि यांचें आयुष्य सरलें| आतां रितीं सोपें ||४७६||
म्हणौनि वहिला उठीं| मियां मारिले तूं निवटीं| न रिगे शोकसंकटीं| नाथिलिया ||४७७||
आपणचि आडखिळा कीजे| तो कौतुकें जैसा विंधोनि पाडिजे| तैसें देखें गा तुझें| निमित्त आहे ||४७८||
बापा विरुद्ध जें जाहलें| तें उपजतांचि वाघें नेलें| आतां राज्येंशीं संचलें| यश तूं भोगीं ||४७९||
सावियाचि उतत होते दायाद| आणि बळिये जगीं दुर्मद| ते वधिले विशद| सायासु न लागतां ||४८०||
ऐसिया इया गोष्टी| विश्वाच्या वाक्पटीं| लिहूनि घाली किरीटी| जगामाजीं ||४८१||

संजय उवाच |
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी |
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ||३५||

ऐसी आघवीचि हे कथा| तया अपूर्ण मनोरथा| संजयो सांगे कुरुनाथा| ज्ञानदेवो म्हणे ||४८२||
मग सत्यलोकौनि गंगाजळ| सुटलिया वाजत खळाळ| तैशी वाचा विशाळ| बोलतां तया ||४८३||
नातरी महामेघांचे उमाळे| घडघडीत एके वेळे| कां घुमघुमिला मंदराचळें| क्षीराब्धी जैसा ||४८४||
तैसें गंभीरें महानादें| हें वाक्य विश्वकंदें| बोलिलें अगाधें| अनंतरूपें ||४८५||
तें अर्जुनें मोटकें ऐकिलें| आणि सुख कीं भय दुणावलें| हें नेणों परि कांपिन्नलें| सर्वांग तयाचें ||४८६||
सखोलपणें वळली मोट| आणि तैसेचि जोडले करसंपुट| वेळोवेळां ललाट| चरणीं ठेवी ||४८७||
तेवींचि कांहीं बोलों जाये| तंव गळा बुजालाचि ठाये| हें सुख कीं भय होये| हें विचारा तुम्हीं ||४८८||
परि तेव्हां देवाचेनि बोलें| अर्जुना हें ऐसें जाहलें| मियां पदांवरूनि देखिलें| श्लोकींचिया ||४८९||
मग तैसाचि भेणभेण| पुढती जोहारूनि चरण| मग म्हणे जी आपण| ऐसें बोलिलेती ||४९०||

अर्जुन उवाच |
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ||३६||

ना तरी अर्जुना मी काळु| आणि ग्रासिजे तो माझा खेळु| हा बोलु तुझा कीर अढळु| मानूं आम्ही ||४९१||
परि तुवां जी काळें| आजि स्थितीचिये वेळे| ग्रासिजे हें न मिळे| विचारासी ||४९२||
कैसेनि आंगींचें तारुण्य काढावें ? | कैचें नव्हे तें वार्धक्य आणावें ? | म्हणौनि करूं म्हणसी तें नव्हे| बहुतकरुनी ||४९३||
हां जी चौपाहारी न भरतां| कोणेही वेळे श्रीअनंता| काय माध्यान्हीं सविता| मावळतु आहे ? ||४९४||
पैं तुज अखंडिता काळा| तिन्ही आहाती जी वेळा| त्या तिन्ही परी सबळा| आपुलालिया समयीं ||४९५||
जे वेळीं हों लागे उत्पत्ती| ते वेळीं स्थिति प्रळयो हारपती| आणि स्थितिकाळीं न मिरविती| उत्पत्ति प्रळयो ||४९६||
पाठीं प्रळयाचिये वेळे| उत्पत्ति स्थिति मावळे| हें कायसेनही न ढळे| अनादि ऐसें ||४९७||
म्हणौनि आजि तंव भरें भोगें| स्थिति वर्तिजत आहे जगें| एथ ग्रसिसी तूं हें न लगे| माझ्या जीवीं ||४९८||
तंव संकेतें देव बोले| अगा या दोन्ही सैन्यांसीचि मरण पुरलें| तें प्रत्यक्षचि तुज दाविलें| येर यथाकाळें जाण ||४९९||
हा संकेतु जंव अनंता| वेळु लागला बोलतां| तंव अर्जुनें लोकु मागुता| देखिला यथास्थिति ||५००||
मग म्हणतसे देवा| तूं सूत्रीं विश्वलाघवा| जग आला मा आघवा| पूर्वस्थिति पुढती ||५०१||
परी पडिलिया दुःखसागरीं| तूं काढिसी कां जयापरी| ते कीर्ति तुझी श्रीहरी| आठवित असे ||५०२||
कीर्ति आठवितां वेळोवेळां| भोगितसें महासुखाचा सोहळा| तेथ हर्षामृतकल्लोळा| वरी लोळत आहें ||५०३||
देवा जियालेपणें जग| धरी तुझ्या ठायीं अनुराग| आणि दुष्टां तयां भंग| अधिकाधिक ||५०४||
पैं त्रिभुवनींचिया राक्षसां| महाभय तूं हृषीकेशा| म्हणौनि पळताती दाही दिशां| पैलीकडे ||५०५||
येथ सुर नर सिद्ध किन्नर| किंबहुना चराचर| ते तुज देखोनि हर्षनिर्भर| नमस्कारित असती ||५०६||

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ||३७||

एथ गा कवणा कारणा| राक्षस हे नारायणा| न लगतीचि चरणा| पळते जाहले ||५०७||
आणि हें काय तूंतें पुसावें| येतुलें आम्हांसिही जाणवे| तरी सूर्योदयीं राहावें| कैसेनि तमें ? ||५०८||
जी तूं प्रकाशाचा आगरु| आणि जाहला आम्हासि गोचरू| म्हणौनिया निशाचरां केरु| फिटला सहजें ||५०९||
हें येतुले दिवस आम्हां| कांहीं नेणवेचि श्रीरामा| आतां देखतसों महिमा| गंभीर तुझा ||५१०||
जेथूनि नाना सृष्टींचिया वोळी| पसरती भूतग्रामाचिया वेली| तया महद्ब्रह्मातें व्याली| दैविकी इच्छा ||५११||
देवो निःसीम तत्त्व सदोदितु| देवो निःसीम गुण अनंतु| देवो निःसीम साम्य सततु| नरेंद्र देवांचा ||५१२||
जी तूं त्रिजगतिये वोलावा| अक्षर तूं सदाशिवा| तूंचि सदसत् देवा| तयाही अतीत तें तूं ||५१३||

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||३८||

तूं प्रकृतिपुरुषांचिया आदी| जी महत्तत्वां तूंचि अवधी| स्वयें तूं अनादि| पुरातनु ||५१४||
तूं सकळ विश्वजीवन| जीवांसि तूंचि निधान| भूतभविष्याचें ज्ञान| तुझ्याचि हातीं ||५१५||
जी श्रुतीचियां लोचनां| स्वरूपसुख तूंचि अभिन्ना| त्रिभुवनाचिया आयतना| आयतन तूं ||५१६||
म्हणौनि जी परम| तूंतें म्हणिजे महाधाम| कल्पांतीं महद्ब्रह्म| तुजमाजीं रिगे ||५१७||
किंबहुना तुवां देवें| विश्व विस्तारिलें आहे आघवें| तरि अनंतरूपा वानावें| कवणें तूंतें ||५१८||

वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तुसहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||३९||


नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||४०||

जी काय एक तूं नव्हसी| कवणे ठायीं नससी| हें असो जैसा आहासी| तैसिया नमो ||५१९||
वायु तूं अनंता| यम तूं नियमिता| प्राणिगणीं वसता| अग्नि तो तूं ||५२०||
वरुण तूं सोम| स्रष्टा तूं ब्रह्म| पितामहाचाही परम| आदि जनक तूं ||५२१||
आणिकही जें जें कांहीं| रूप आथि अथवा नाहीं| तया नमो तुज तैसयाही| जगन्नाथा ||५२२||
ऐसें सानुरागें चित्तें| नमन केलें पंडुसुतें| मग पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२३||
पाठीं तिये साद्यंते| न्याहाळी श्रीमूर्तीतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२४||
पाहतां पाहतां प्रांतें| समाधान पावे चित्तें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२५||
इये चराचरीं जीं भूतें| सर्वत्र देखे तयांतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२६||
ऐसीं रूपें तियें अद्भुतें| आश्चर्यें स्फुरती अनंतें| तंव तंव नमस्ते| नमस्तेचि म्हणे ||५२७||
आणिक स्तुतिही नाठवे| आणि निवांतुही न बैसवे| नेणें कैसा प्रेमभावें| गाजोंचि लागे ||५२८||
किंबहुना इयापरी| नमन केलें सहस्रवरी| कीं पुढती म्हणे श्रीहरी| तुज सन्मुखा नमो ||५२९||
देवासि पाठी पोट आथि कीं नाहीं| येणें उपयोगु आम्हां काई| तरि तुज पाठिमोरेयाही| नमो स्वामी ||५३०||
उभा माझिये पाठीसीं| म्हणौनि पाठीमोरें म्हणावें तुम्हांसी| सन्मुख विन्मुख जगेंसीं| न घडें तुज ||५३१||
आतां वेगळालिया अवयवां| नेणें रूप करूं देवा| म्हणौनि नमो तुज सर्वा| सर्वात्मका ||५३२||
जी अनंतबळसंभ्रमा| तुज नमो अमित विक्रमा| सकळकाळीं समा| सर्वरूपा ||५३३||
आघविया आकाशीं जैसें| अवकाशचि होऊनि आकाश असे| तूं सर्वपणें तैसें| पातलासि सर्व ||५३४||
किंबहुना केवळ| सर्व हें तूंचि निखिळ| परी क्षीरार्णवीं कल्लोळ| पयाचे जैसे ||५३५||
म्हणौनिया देवा| तूं वेगळा नव्हसी सर्वां| हें आलें मज सद्भावा| आतां तूंचि सर्व ||५३६||

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ||४१||

परि ऐसिया तूतें स्वामी| कहींच नेणों जी आम्ही| म्हणौनि सोयरे संबंधधर्मीं| राहाटलों तुजसीं ||५३७||
अहा थोर वाउर जाहलें| अमृतें संमार्जन म्यां केलें| वारिकें घेऊनि दिधलें| कामधेनूतें ||५३८||
परिसाचा खडवाचि जोडला| कीं फोडोनि आम्ही गाडोरा घातला| कल्पतरू तोडोनि केला| कूंप शेता ||५३९||
चिंतामणीची खाणी लागली| तेणें करें वोढाळें वोल्हांडिली| तैसी तुझी जवळिक धाडिली| सांगातीपणें ||५४०||
हें आजिचेंचि पाहें पां रोकडें| कवण झुंज हें केवढें| एथ परब्रह्म तूं उघडें| सारथी केलासी ||५४१||
यया कौरवांचिया घरा| शिष्टाई धाडिलासि दातारा| ऐसा वणिजेसाठीं जागेश्वरा| विकलासि आम्हीं ||५४२||
तूं योगियांचें समाधिसुख| कैसा जाणेचिना मी मूर्ख| उपरोधु जी सन्मुख| तुजसीं करूं ||५४३||

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ||४२||

तूं या विश्वाची अनादि आदी| बैससी जिये सभासदीं| तेथें सोयरीकीचिया संबंधीं| रळीं बोलों ||५४४||
विपायें राउळा येवों| तरि तुझेनि अंगें मानु पावों| न मानिसी तरी जावों| रुसोनि सलगी ||५४५||
पायां लागोनि बुझावणी| तुझ्या ठायीं शारङ्गपाणी| पाहिजे ऐशी करणी| बहु केली आम्हीं ||५४६||
सजणपणाचिया वाटा| तुजपुढें बैसें उफराटा| हा पाडु काय वैकुंठा ? | परि चुकलों आम्हीं ||५४७||
देवेंसि कोलकाठी धरूं| आखाडा झोंबीलोंबी करूं| सारी खेळतां आविष्करूं| निकरेंही भांडों ||५४८||
चांग तें उराउरीं मागों| देवासि कीं बुद्धि सांगों| तेवींचि म्हणों काय लागों| तुझें आम्ही ||५४९||
ऐसा अपराधु हा आहे| जो त्रिभुवनीं न समाये| जी नेणतांचि कीं पाये| शिवतिले तुझे ||५५०||
देवो बोनयाच्या अवसरीं| लोभें कीर आठवण करी| परी माझा निसुग गर्व अवधारीं| जे फुगूनचि बैसें ||५५१||
देवाचिया भोगायतनीं| खेळतां आशंकेना मनीं| जी रिगोनियां शयनीं| सरिसा पहुडें ||५५२||
' कृष्ण म्हणौनि हाकारिजे| यादवपणें तूंतें लेखिजे| आपली आण घालिजे| जातां तुज ||५५३||
मज एकासनीं बैसणें| कां तुझा बोलु न मानणें| हें वोतटीचेनि दाटपणें| बहुत घडलें ||५५४||
म्हणौनि काय काय आतां| निवेदिजेल अनंता| मी राशि आहें समस्तां| अपराधांचि ||५५५||
यालागीं पुढां अथवा पाठीं| जियें राहटलों बहुवें वोखटीं| तियें मायेचिया परी पोटीं| सामावीं प्रभो ||५५६||
जी कोण्ही एके वेळे| सरिता घेऊन येती खडुळें| तियें सामाविजेति सिंधुजळें| आन उपायो नाहीं ||५५७||
तैसी प्रीती कां प्रमादें| देवेंसीं मज विरुद्धें| बोलविलीं तियें मुकुंदें| उपसाहावीं जी ||५५८||
आणि देवाचेनि क्षमत्वें क्षमा| आधारु जाली आहे या भूतग्रामा| म्हणौनि जी पुरुषोत्तमा| विनवूं तें थोडें ||५५९||
तरी आतां अप्रमेया| मज शरणागता आपुलिया| क्षमा कीजो जी यया| अपराधांसि ||५६०||

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभावः ||४३||

जी जाणितलें मियां साचें| महिमान आतां देवाचें| जे देवो होय चराचराचें| जन्मस्थान ||५६१||
हरिहरादि समस्तां| देवा तूं परम देवता| वेदांतेंही पढविता| आदिगुरु तूं ||५६२||
गंभीर तूं श्रीरामा| नाना भूतैकसमा| सकळगुणीं अप्रतिमा| अद्वितीया ||५६३||
तुजसी नाहीं सरिसें| हें प्रतिपादनचि कायसें ? | तुवां जालेनि आकाशें| सामाविलें जग ||५६४||
तया तुझेनि पाडें दुजें| ऐसें बोलतांचि लाजिजे| तेथ अधिकाची कीजे| गोठी केवीं ||५६५||
म्हणौनि त्रिभुवनीं तूं एकु| तुजसरिखा ना अधिकु| तुझा महिमा अलौकिकु| नेणिजे वानूं ||५६६||

तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ||४४||

ऐसें अर्जुनें म्हणितलें| मग पुढती दंडवत घातलें| तेथें सात्त्विकाचें आलें| भरतें तया ||५६७||
मग म्हणतसे प्रसीद प्रसीद| वाचा होतसे सद्गद| काढी जी अपराध- | समुद्रौनि मातें ||५६८||
तुज विश्वसुहृदातें कहीं| सोयरेपणें न मनूंचि पाहीं| तुज विईश्वेश्वराचिया ठायीं| ऐश्वर्य केलें ||५६९||
तूं वर्णनीय परी लोभें| मातें वर्णिसी पां सभे| तरि मियां वल्गिजे क्षोभें| अधिकाधिक ||५७०||
आतां ऐसिया अपराधां| मर्यादा नाहीं मुकुंदा| म्हणौनि रक्ष रक्ष प्रमादा| पासोनियां ||५७१||
जी हेंचि विनवावयालागीं| कैंची योग्यता माझिया आंगीं| परी अपत्य जैसें सलगी| बापेंसीं बोले ||५७२||
पुत्राचे अपराध| जरी जाहले अगाध| तरी पिता साहे निर्द्वंद्व| तैसें साहिजो जी ||५७३||
सख्याचें उद्धत| सखा साहे निवांत| तैसें तुवां समस्त| साहिजो जी ||५७४||
प्रियाचिया ठायीं सन्मान| प्रिय न पाहें सर्वथा जाण| तेवीं उच्छिष्ट काढिलें आपण| ते क्षमा कीजो जी ||५७५||
नातरी प्राणाचें सोयरें भेटे| मग जीवें भूतलीं जियें संकटें| तियें निवेदितां न वाटे| संकोचु कांहीं ||५७६||
कां उखितें आंगें जीवें| आपणपें दिधलें जिया मनोभावें| तिया कांतु मिनलिया न राहवें| हृदय जेवीं ||५७७||
तयापरी जी मियां| हें विनविलें तुमतें गोसाविया| आणि कांहीं एक म्हणावया| कारण असे ||५७८||

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे |
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ||४५||

तरी देवेंसीं सलगी केली| जे विश्वरूपाची आळी घेतली| ते मायबापें पुरविली| स्नेहाळाचेनि ||५७९||
सुरतरूंची झाडें| आंगणीं लावावीं कोडें| देयावें कामधेनुचें पाडें| खेळावया ||५८०||
मियां नक्षत्रीं डाव पाडावा| चंद्र चेंडुवालागीं आणावा| हा छंदु सिद्धी नेला आघवा| माउलिये तुवां ||५८१||
जिया अमृतलेशालागीं सायास| तयाचा पाऊस केला चारी मास| पृथ्वी वाहून चासेचास| चिंतामणी पेरिले ||५८२||
ऐसा कृतकृत्य केला स्वामी| बहुवे लळा पाळिला तुम्हीं| दाविलें जें हरब्रह्मीं| नायकिजे कानीं ||५८३||
मा देखावयाची केउती गोठी| जयाची उपनिषदां नाहीं भेटी| ते जिव्हारींची गांठी| मजलागीं सोडिली ||५८४||
जी कल्पादीलागोनि| आजिची घडी धरुनी| माझीं जेतुलीं होउनी| गेलीं जन्में ||५८५||
तयां आघवियांचि आंतु| घरडोळी घेऊनि असें पाहतु| परि ही देखिली ऐकिली मातु| आतुडेचिना ||५८६||
बुद्धीचें जाणणें| कहीं न वचेचि याचेनि आंगणें| हे सादही अंतःकरणें| करवेचिना ||५८७||
तेथा डोळ्यां देखी होआवी| ही गोठीचि कायसया करावी| किंबहुना पूर्वीं| दृष्ट ना श्रुत ||५८८||
तें हें विश्वरूप आपुलें| तुम्हीं मज डोळां दाविलें| तरी माझें मन झालें| हृष्ट देवा ||५८९||
परि आतां ऐसी चाड जीवीं| जे तुजसीं गोठी करावी| जवळीक हे भोगावी| आलिंगावासी ||५९०||
ते याचि रूपीं करूं म्हणिजे| तरि कोणे एके मुखेंसी चावळिजे| आणि कवणा खेंव देईजे| तुज लेख नाहीं ||५९१||
म्हणौनि वारियासवें धावणें| न ठके गगना खेंव देणें| जळकेली खेळणें| समुद्रीं केउतें ? ||५९२||
यालागीं जी देवा| एथिंचें भय उपजतसे जीवा| म्हणौनि येतुला लळा पाळावा| जे पुरे हें आतां ||५९३||
पैं चराचर विनोदें पाहिजे| मग तेणें सुखें घरीं राहिजे| तैसें चतुर्भुज रूप तुझें| तो विसांवा आम्हां ||५९४||
आम्हीं योगजात अभ्यासावें| तेणें याचि अनुभवा यावें| शास्त्रांतें आलोडावें| परि सिद्धांतु तो हाचि ||५९५||
आम्हीं यजनें किजती सकळें| परि तियें फळावीं येणेंचि फळें| तीर्थें होतु सकळें| याचिलागीं ||५९६||
आणीकही कांहीं जें जें| दान पुण्य आम्हीं कीजे| तया फळीं फळ तुझें| चतुर्भुज रूप ||५९७||
ऐसी तेथिंची जीवा आवडी| म्हणौनि तेंचि देखावया लवडसवडी| वर्तत असे ते सांकडी| फेडीजे वेगीं ||५९८||
अगा जीवींचें जाणतेया| सकळ विश्ववसवितेया| प्रसन्न होईं पूजितया| देवांचिया देवा ||५९९||

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव |
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ||४६||

कैसें नीलोत्पलातें रांवित| आकाशाही रंगु लावित| तेजाची वोज दावित| इंद्रनीळा ||६००||
जैसा परिमळ जाहला मरगजा| कां आनंदासि निघालिया भुजा| ज्याचे जानुवरी मकरध्वजा| जोडली बरव ||६०१||
मस्तकीं मुकुटातें ठेविलें| कीं मुकुटा मुकुट मस्तक झालें| शृंगारा लेणें लाधलें| आंगाचेनि जया ||६०२||
इंद्रधनुष्याचिये आडणी| माजीं मेघ गगनरंगणीं| तैसें आवरिलें शारङ्गपाणी| वैजयंतिया ||६०३||
आतां कवणी ते उदार गदा| असुरां देत कैवल्य पदा| कैसें चक्र हन गोविंदा| सौम्यतेजें मिरवे ||६०४||
किंबहुना स्वामी| तें देखावया उत्कंठित पां मी| म्हणौनि आतां तुम्हीं| तैसया होआवें ||६०५||
हे विश्वरूपाचे सोहळे| भोगूनि निवाले जी डोळे| आतां होताति आंधले| कृष्णमूर्तीलागीं ||६०६||
तें साकार कृष्णरूपडें| वांचूनि पाहों नावडे| तें न देखतां थोडें| मानिताती हे ||६०७||
आम्हां भोगमोक्षाचिया ठायीं| श्रीमूर्तीवांचूनि नाहीं| म्हणौनि तैसाचि साकारु होईं| हें सांवरीं आतां ||६०८||

श्रीभगवानुवाच |
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् |
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ||४७||

या अर्जुनाचिया बोला| विश्वरूपा विस्मयो जाहला| म्हणे ऐसा नाहीं देखिला| धसाळ कोणी ||६०९||
कोण हे वस्तु पावला आहासी| तया लाभाचा तोषु न घेसी| मा भेणें काय नेणों बोलसी| हेकाडु ऐसा ||६१०||
आम्हीं सावियाचि जैं प्रसन्न होणें| तैं आंगचिवरी म्हणें देणें| वांचोनि जीव असे वेंचणें| कवणासि गा ||६११||
तें हें तुझिये चाडे| आजि जिवाचेंचि दळवाडें| कामऊनियां येवढें| रचिलें ध्यान ||६१२||
ऐसी काय नेणों तुझिये आवडी| जाहली प्रसन्नता आमुची वेडी| म्हणौनि गौप्याचीही गुढी| उभविली जगीं ||६१३||
तें हें अपारां अपार| स्वरूप माझें परात्पर| एथूनि ते अवतार| कृष्णादिक ||६१४||
हें ज्ञानतेजाचें निखिळ| विश्वात्मक केवळ| अनंत हे अढळ| आद्य सकळां ||६१५||
हें तुजवांचोनि अर्जुना| पूर्वीं श्रुत दृष्ट नाहीं आना| जे जोगें नव्हे साधना| म्हणौनियां ||६१६||

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः |
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ||४८||

याची सोय पातले| आणि वेदीं मौनचि घेतलें| याज्ञिकी माघौते आले| स्वर्गौनियां ||६१७||
साधकीं देखिला आयासु| म्हणौनि वाळिला योगाभ्यासु| आणि अध्ययनें सौरसु| नाहीं एथ ||६१८||
सीगेचीं सत्कर्मे| धाविन्नलीं संभ्रमें| तिहीं बहुतेकीं श्रमें| सत्यलोकु ठाकिला ||६१९||
तपीं ऐश्वर्य देखिलें| आणि उग्रपण उभयांचि सांडिलें| एक तपसाधन जें ठेलें| अपारांतरें ||६२०||
तें हें तुवां अनायासें| विश्वरूप देखिलें जैसें| इये मनुष्यलोकीं तैसें| न फवेचि कवणा ||६२१||
आजि ध्यानसंपत्तीलागीं| तूंचि एकु आथिला जगीं| हें परम भाग्य आंगीं| विरंचीही नाहीं ||६२२||

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् |
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ||४९||

म्हणौनि विश्वरूपलाभें श्लाघ| एथिचें भय नेघ नेघ| हें वांचूनि अन्य चांग| न मनीं कांहीं ||६२३||
हां गा समुद्र अमृताचा भरला| आणि अवसांत वरपडा जाहला| मग कोणीही आथि वोसंडिला| बुडिजैल म्हणौनि ? ||६२४||
नातरी सोनयाचा डोंगरु| येसणा न चले हा थोरु| ऐसें म्हणौनि अव्हेरु| करणें घडे ? ||६२५||
दैवें चिंतामणी लेईजे| कीं हें ओझें म्हणौनि सांडिजे ? | कामधेनु दवडिजे| न पोसवे म्हणौनि ? ||६२६||
चंद्रमा आलिया घरा| म्हणिजे निगे करितोसि उबारा| पडिसायि पाडितोसि दिनकरा| परता सर ||६२७||
तैसें ऐश्वर्य हें महातेज| आजि हातां आलें आहे सहज| कीं एथ तुज गजबज| होआवी कां ? ||६२८||
परि नेणसीच गांवढिया| काय कोपों आतां धनंजया| आंग सांडोनि छाया| आलिंगितोसि मा ? ||६२९||
हें नव्हे जो मी साचें| एथ मन करूनियां काचें| प्रेम धरिसी अवगणियेचें| चतुर्भुज जें ||६३०||
तरि अझुनिवरी पार्था| सांडीं सांडीं हे व्यवस्था| इयेविषयीं आस्था| करिसी झणें ||६३१||
हें रूप जरी घोर| विकृति आणि थोर| तरी कृतनिश्चयाचें घर| हेंचि करीं ||६३२||
कृपण चित्तवृत्ति जैसी| रोंवोनि घालीं ठेवयापासीं| मग नुसधेनि देहेंसीं| आपण असे ||६३३||
कां अजातपक्षिया जवळा| जीव बैसवूनि अविसाळां| पक्षिणी अंतराळा- | माजीं जाय ||६३४||
नाना गाय चरे डोंगरीं| परि चित्त बांधिलें वत्सें घरीं| प्रेम एथिंचें करीं| स्थानपती ||६३५||
येरें वरिचिलेनि चित्तें| बाह्य सख्य सुखापुरतें| भोगिजो कां श्रीमूर्तींतें| चतुर्भुज ||६३६||
परि पुढतपुढती पांडवा| हा एक बोलु न विसरावा| जे इये रूपींहूनि सद्भावा| नेदावें निघों ||६३७||
हें कहीं नव्हतेंचि देखिलें| म्हणौनि भय जें तुज उपजलें| तें सांडीं एथ संचलें| असों दे प्रेम ||६३८||
आतां करूं तुजयासारखें| ऐसें म्हणितलें विश्वतोमुखें| तरि मागील रूप सुखें| न्याहाळीं पां तूं ||६३९||

संजय उवाच |
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः |
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ||५०||

ऐसें वाक्य बोलतखेंवो| मागुता मनुष्य जाहला देवो| हें ना परि नवलावो| आवडीचा तिये ||६४०||
श्रीकृष्णचि कैवल्य उघडें| वरि सर्वस्व विश्वरूपायेवढें| हातीं दिधलें कीं नावडे| अर्जुनासि ||६४१||
वस्तु घेऊनि वाळिजे| जैसें रत्नासि दूषण ठेविजे| नातरी कन्या पाहूनियां म्हणिजे| मना न ये हे ||६४२||
तया विश्वरूपायेवढी दशा| करितां प्रीतीचा वाढू कैसा| सेल दीधलीसे उपदेशा| किरीटीसिं देवें ||६४३||
मोडोनि भांगाराचा रवा| लेणें घडिलें आपलिया सवा| मग नावडे जरी जीवा| तरी आटिजे पुढती ||६४४||
तैसें शिष्याचिये प्रीती जाहलें| कृष्णत्व होतें तें विश्वरूप केलें| तें मना नयेचि मग आणिलें| कृष्णपण मागुतें ||६४५||
हा ठाववरी शिष्याची निकसी| सहातें गुरु आहाती कवणे देशीं ? | परि नेणिजे आवडी कैशी| संजयो म्हणे ||६४६||
मग विश्वरूप व्यापुनि भोंवतें| जें दिव्य तेज प्रगटलें होतें| तेंचि सामावलें मागुतें| कृष्णरूपीं तये ||६४७||
जैसें त्वंपद हें आघवें| तत्पदीं सामावे| अथवा द्रुमाकारु सांठवे| बीजकणिके जेवीं ||६४८||
नातरी स्वप्नसंभ्रमु जैसा| गिळी चेइली जीवदशा| श्रीकृष्णें योगु हा तैसा| संहारिला तो ||६४९||
जैसी प्रभा हारपली बिंबीं| कीं जळदसंपत्ती नभीं| नाना भरतें सिंधुगर्भीं| रिगालें राया ||६५०||
हो कां जे कृष्णाकृतीचिये मोडी| होती विश्वरूपपटाची घडी| ते अर्जुनाचिये आवडी| उकलूनि दाविली ||६५१||
तंव परिमाणा रंगु| तेणें देखिलें साविया चांगु| तेथ ग्राहकीये नव्हेचि लागु| म्हणौनि घडी केली पुढती ||६५२||
तैसें वाढीचेनि बहुवसपणें| रूपें विश्व जिंतिलें जेणें| तें सौम्य कोडिसवाणें| साकार जाहलें ||६५३||
किंबहुना अनंतें| धरिलें धाकुटपण मागुतें| परि आश्वासिलें पार्थातें| बिहालियासी ||६५४||
जो स्वप्नीं स्वर्गा गेला| तो अवसांत जैसा चेइला| तैसा विस्मयो जाहला| किरीटीसी ||६५५||
नातरी गुरुकृपेसवें| वोसरलेया प्रपंचज्ञान आघवें| स्फुरे तत्त्व तेवीं पांडवें| श्रीमूर्ति देखिली ||६५६||
तया पांडवा ऐसें चित्तीं| आड विश्वरूपाची जवनिका होती| ते फिटोनि गेली परौती| हें भलें जाहलें ||६५७||
काय काळातें जिणोनि आला| कीं महावातु मागां सांडिला| आपुलिया बाही उतरला| सातही सिंधु ||६५८||
ऐसा संतोष बहु चित्तें| घेइजत असे पंडुसुतें| विश्वरूपापाठीं कृष्णातें| देखोनियां ||६५९||
मग सूर्याचिया अस्तमानीं| मागुती तारा उगवती गगनीं| तैसी देखों लागला अवनीं| लोकांसहित ||६६०||
पाहे तंव तेंचि कुरुक्षेत्र| तैसेंचि देखे दोहीं भागीं गोत्र| वीर वर्षताती शस्त्रास्त्र| संघाटवरी ||६६१||
तया बाणांचिया मांडवाआंतु| तैसाचि रथु देखे निवांतु| धुरे बैसला लक्ष्मीकांतु| आपण तळीं ||६६२||

अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन |
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृउतिं गतः ||५१||

एवं मागील जैसें तैसें| तेणें देखिलें वीरविलासें| मग म्हणे जियालों ऐसें| जाहलें आतां ||६६३||
बुद्धीतें सांडोनि ज्ञान| भेणें वळघलें रान| अहंकारेंसी मन| देशोधडी जाहलें ||६६४||
इंद्रियें प्रवृत्ती भुललीं| वाचा प्राणा चुकली| ऐसें आपांपरी होती जाली| शरीरग्रामीं ||६६५||
तियें आघवींचि मागुतीं| जिवंत भेटलीं प्रकृती| आतां जिताणें श्रीमूर्ती| जाहलें मियां ||६६६||
ऐसें सुख जीवीं घेतलें| मग श्रीकृष्णातें म्हणितलें| मियां तुमचें रूप देखिलें| मानुष हें ||६६७||
हें रूप दाखवणें देवराया| कीं मज अपत्या चुकलिया| बुझावोनि तुवां माया| स्तनपान दिधलें ||६६८||
जी विश्वरूपाचिया सागरीं| होतों तरंग मवित वांवेवरी| तो इये निजमूर्तीच्या तीरीं| निगालों आतां ||६६९||
आइकें द्वारकापुरसुहाडा| मज सुकतिया जी झाडा| हे भेटी नव्हे बहुडा| मेघाचा केला ||६७०||
जी सावियाची तृषा फुटला| तया मज अमृतसिंधु हा भेटला| आतां जिणयाचा जाहला| भरंवसा मज ||६७१||
माझिया हृदयरंगणीं| होताहे हरिखलतांची लावणी| सुखेंसीं बुझावणी| जाहली मज ||६७२||

श्रीभगवानुवाच |
सुदुदर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम |
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शकाङ्क्षिणः ||५२||

यया पार्थाचिया बोलासवें| हें काय म्हणितलें देवें| तुवां प्रेम ठेवूनि यावें| विश्वरूपीं कीं ||६७३||
मग इये श्रीमूर्ती| भेटावें सडिया आयती| ते शिकवण सुभद्रापती| विसरलासि मा ||६७४||
अगा आंधळिया अर्जुना| हाता आलिया मेरूही होय साना| ऐसा आथी मना| चुकीचा भावो ||६७५||
तरी विश्वात्मक रूपडें| जें दाविलें आम्ही तुजपुढें| तें शंभूही परि न जोडे| तपें करितां ||६७६||
आणि अष्टांगादिसंकटीं| योगी शिणताति किरीटी| परि अवसरु नाहीं भेटी| जयाचिये ||६७७||
तें विश्वरूप एकादे वेळ| कैसेनि देखों अळुमाळ| ऐसें स्मरतां काळ| जातसे देवां ||६७८||
आशेचिये अंजुळी| ठेऊनि हृदयाचिया निडळीं| चातक निराळीं| लागले जैसे ||६७९||
तैसे उत्कंठा निर्भर| होऊनियां सुरवर| घोकीत आठही पाहार| भेटी जयाची ||६८०||
परि विश्वरूपासारिखें| स्वप्नींही कोण्ही न देखे| तें प्रत्यक्ष तुवां सुखें| देखिलें हें ||६८१||

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्यं एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ||५३||

पैं उपायांसि वाटा| न वाहती एथ सुभटा| साहीसहित वोहटा| वाहिला वेदीं ||६८२||
मज विश्वरूपाचिया मोहरा| चालावया धनुर्धरा| तपांचियाही संभारा| नव्हेचि लागु ||६८३||
आणि दानादि कीर कानडें| मी यज्ञींही तैसा न सांपडें| जैसेनि कां सुरवाडें| देखिला तुवां ||६८४||
तैसा मी एकीचि परि| आंतुडें गा अवधारीं| जरी भक्ति येऊनि वरी| चित्तातें गा ||६८५||

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||५४||

परि तेचि भक्ति ऐसी| पर्जन्याची सुटिका जैसी| धरावांचूनि अनारिसी| गतीचि नेणें ||६८६||
कां सकळ जळसंपत्ती| घेऊनि समुद्रातें गिंवसिती| गंगा जैसी अनन्यगती| मिळालीचि मिळे ||६८७||
तैसें सर्वभावसंभारें| न धरत प्रेम एकसरें| मजमाजीं संचरे| मीचि होऊनि ||६८८||
आणि तेवींचि मी ऐसा| थडिये माझारीं सरिसा| क्षीराब्धि कां जैसा| क्षीराचाचि ||६८९||
तैसें मजलागुनि मुंगीवरी| किंबहुना चराचरीं| भजनासि कां दुसरी| परीचि नाहीं ||६९०||
तयाचि क्षणासवें| एवंविध मी जाणवें| जाणितला तरी स्वभावें| दृष्टही होय ||६९१||
मग इंधनीं अग्नि उद्दीपें| आणि इंधन हें भाष हारपे| तें अग्निचि होऊनि आरोपें| मूर्त जेवीं ||६९२||
कां उदय न कीजे तेजाकारें| तंव गगनचि होऊनि असे आंधारें| मग उदईलिया एकसरें| प्रकाशु होय ||६९३||
तैसें माझिये साक्षात्कारीं| सरे अहंकाराची वारी| अहंकारलोपीं अवधारीं| द्वैत जाय ||६९४||
मग मी तो हें आघवें| एक मीचि आथी स्वभावें| किंबहुना सामावे| समरसें तो ||६९५||

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||५५||

ॐ इति श्रीमद्भग्वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगोनाम एकादशोऽध्यायः ||११अ ||

जो मजचि एकालागीं| कर्में वाहातसे आंगीं| जया मीवांचोनि जगीं| गोमटें नाहीं ||६९६||
दृष्टादृष्ट सकळ| जयाचें मीचि केवळ| जेणें जिणयाचें फळ| मजचि नाम ठेविलें ||६९७||
मग भूतें हे भाष विसरला| जे दिठी मीचि आहें सूदला| म्हणौनि निर्वैर जाहला| सर्वत्र भजे ||६९८||
ऐसा जो भक्तु होये| तयाचें त्रिधातुक हें जैं जाये| तैं मीचि होउनि ठायें| पांडवा गा ||६९९||
ऐसें जगदुदरदोंदिलें| तेणें करुणारसरसाळें| संजयो म्हणे बोलिलें| श्रीकृष्णदेवें ||७००||
ययावरी तो पंडुकुमरु| जाहला आनंदसंपदा थोरु| आणि कृष्णचरणचतुरु| एक तो जगीं ||७०१||
तेणें देवाचिया दोनही मूर्ती| निकिया न्याहाळिलिया चित्तीं| तंव विश्वरूपाहूनि कृष्णाकृतीं| देखिला लाभु ||७०२||
परि तयाचिये जाणिवे| मानु न कीजेचि देवें| जें व्यापकाहूनि नव्हे| एकदेशी ||७०३||
हेंचि समर्थावयालागीं| एक दोन चांगी| उपपत्ती शारङ्गी| दाविता जाहला ||७०४||
तिया ऐकोनि सुभद्राकांतु| चित्तीं आहे म्हणतु| तरि होय बरवें दोन्हीं आंतु| तें पुढती पुसों ||७०५||
ऐसा आलोचु करूनि जीवीं| आतां पुसती वोज बरवी| आदरील ते परिसावी| पुढें कथा ||७०६||
प्रांजळ ओंवीप्रबंधें| गोष्टी सांगिजेल विनोदें| तें परिसा आनंदें| ज्ञानदेवो म्हणे ||७०७||
भरोनि सद्भावाची अंजुळी| मियां वोंवियाफुलें मोकळीं| अर्पिलीं अंघ्रियुगुलीं| विश्वरूपाच्या ||७०८||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां एकादशोऽध्यायः ||
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