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Saturday, October 26, 2013

Dnyaneshwari ||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १८ || Marathi

||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अठरावा ||
मोक्षसंन्यासयोगः |

जयजय देव निर्मळ| निजजनाखिलमंगळ| जन्मजराजलदजाळ| प्रभंजन ||१||
जयजय देव प्रबळ| विदळितामंगळकुळ| निगमागमद्रुमफळ| फलप्रद ||२||
जयजय देव सकल| विगतविषयवत्सल| कलितकाळकौतूहल| कलातीत ||३||
जयजय देव निश्चळ| चलितचित्तपानतुंदिल| जगदुन्मीलनाविरल| केलिप्रिय ||४||
जयजय देव निष्कळ| स्फुरदमंदानंदबहळ| नित्यनिरस्ताखिलमळ| मूळभूत ||५||
जयजय देव स्वप्रभ| जगदंबुदगर्भनभ| भुवनोद्भवारंभस्तंभ| भवध्वंस ||६||
जयजय देव विशुद्ध| विदुदयोद्यानद्विरद| शमदम- मदनमदभेद| दयार्णव ||७||
जयजय देवैकरूप| अतिकृतकंदर्पसर्पदर्प| भक्तभावभुवनदीप| तापापह ||८||
जयजय देव अद्वितीय| परीणतोपरमैकप्रिय| निजजनजित भजनीय| मायागम्य ||९||
जयजय देव श्रीगुरो| अकल्पनाख्यकल्पतरो| स्वसंविद्रुमबीजप्ररो| हणावनी ||१०||
हे काय एकैक ऐसैसें| नानापरीभाषावशें| स्तोत्र करूं तुजोद्देशें| निर्विशेषा ||११||
जिहींं विशेषणीं विशेषिजे| तें दृश्य नव्हे रूप तुझें| हें जाणें मी म्हणौनि लाजें| वानणा इहीं ||१२||
परी मर्यादेचा सागरु| हा तंवचि तया डगरु| जंव न देखे सुधाकरु| उदया आला ||१३||
सोमकांतु निजनिर्झरींं| चंद्रा अर्घ्यादिक न करी| तें तोचि अवधारीं| करवी कीं जी ||१४||
नेणों कैसी वसंतसंगें| अवचितिया वृक्षाचीं अंगें| फुटती तैं हे तयांहि जोगें| धरणें नोहे ? ||१५||
पद्मिनी रविकिरण| लाहे मग लाजें कवण ? | | कां जळें शिवतलें लवण| आंग भुले ||१६||
तैसा तूतें जेथ मी स्मरें| तेथ मीपण मी विसरें| मग जाकळिला ढेंकरें| तृप्तु जैसा ||१७||
मज तुवां जी केलें तैसें| माझें मीपण दवडूनि देशें| स्तुतिमिषेंच पां पिसें| बांधलें वाचे ||१८||
ना येऱ्हवींं तरी आठवीं| राहोनि स्तुति जैं करावी| तैं गुणागुणिया धरावी| सरोभरी कींंं ||१९||
तरी तूं जी एकरसाचें लिंग| केवीं करूं गुणागुणीं विभाग| मोतीं फोडोनि सांधितां चांग| कीं तैसेंचि भलें ||२०||
आणि बाप तूं माय| इहीं बोलीं ना स्तुति होय| डिंभोपाधिक आहे| विटाळु तेथें ||२१||
जी जालेनि पाइकें आलें| तें गोसावीपण केवीं बोलें ? | ऐसें उपाधी उशिटलें| काय वर्णूं ||२२||
जरी आत्मा तूं एकसरा| हेंही म्हणतां दातारा| तरी आंतुल तूं बाहेरा| घापतासी ||२३||
म्हणौनि सत्यचि तुजलागींं| स्तुति न देखों जी जगीं| मौनावांचूनि लेणें आंगीं| सुसीना मा ||२४||
स्तुति कांहीं न बोलणें| पूजा कांहींं न करणें| सन्निधी कांहींंं न होणें| तुझ्या ठायीं ||२५||
तरी जिंतलें जैसें भुली| पिसें आलापु घाली| तैसें वानूं तें माऊली| उपसाहावें तुवां ||२६||
आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी| लावीं माझिये वाग्वृद्धी| जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ||२७||
तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती| नको हें पुढतपुढती| परीसीं लोहा घृष्टी किती| वेळवेळां कीजे गा ||२८||
तंव विनवी ज्ञानदेवो| म्हणे हो कां जी पसावो| तरी अवधान देतु देवो| ग्रंथा आतां ||२९||
जी गीतारत्नप्रासादाचा| कळसु अर्थचिंतामणीचा| सर्व गीतादर्शनाचा| पाढ्ॐ जो ||३०||
लोकीं तरी आथी ऐसें| जे दुरूनि कळसु दिसे| आणी भेटीचि हातवसे| देवतेची तिये ||३१||
तैसेंचि एथही आहे| जे एकेचि येणें अध्यायें| आघवाचि दृष्ट होये| गीतागमु हा ||३२||
मी कळसु याचि कारणें| अठरावा अध्यायो म्हणें| उवाइला बादरायणें| गीताप्रासादा ||३३||
नोहे कळसापरतें कांहीं| प्रासादीं काम नाहीं| तें सांगतसे गीता ही| संपलेपणें ||३४||
व्यासु सहजें सूत्री बळी| तेणें निगमरत्नाचळीं| उपनिषदार्थाची माळी- | माजीं खांडिली ||३५||
तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु| आडऊ निघाला जो अपारु| तो महाभारतप्राकारु| भोंवता केला ||३६||
माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट| दळवाडें झाडूनि चोखट| घडिलें पार्थवैकुंठ- | संवाद कुसरी ||३७||
निवृत्तिसूत्र सोडवणिया| सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया| आवो साधिला मांडणिया| मोक्षरेखेचा ||३८||
ऐसेनि करितां उभारा| पंधरा अध्यायांत पंधरा| भूमि निर्वाळलिया पुरा| प्रासादु जाहला ||३९||
उपरी सोळावा अध्यायो| तो ग्रीवघंटेचा आवो| सप्तदशु तोचि ठावो| पडघाणिये ||४०||
तयाहीवरी अष्टादशु| तो अपैसा मांडला कळसु| उपरि गीतादिकीं व्यासु| ध्वजें लागला ||४१||
म्हणौनि मागील जे अध्याये| ते चढते भूमीचे आये| तयांचें पुरें दाविताहे| आपुल्या आंगीं ||४२||
जालया कामा नाहीं चोरी| ते कळसें होय उजरी| तेवींं अष्टादशु विवरी| साद्यंत गीता ||४३||
ऐसा व्यासें विंदाणियें| गीताप्रासादु सोडवणिये| आणूनि राखिले प्राणिये| नानापरी ||४४||
एक प्रदक्षिणा जपाचिया| बाहेरोनि करिती यया| एक ते श्रवणमिषें छाया| सेविती ययाची ||४५||
एक ते अवधानाचा पुरा| विडापाऊड भीतरां| घेऊनि रिघती गाभारां| अर्थज्ञानाच्या ||४६||
ते निजबोधें उराउरी| भेटती आत्मया श्रीहरी| परी मोक्षप्रासादीं सरी| सर्वांही आथी ||४७||
समर्थाचिये पंक्तिभोजनें| तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें| तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें| मोक्षुचि लाभे ||४८||
ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु| अठरावा अध्याय कळसु विशदु| म्यां म्हणितला हा भेदु| जाणोनियां ||४९||
आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी| तो संबंधु सांगो दिठी| दिसे तैसा ||५०||
का गंगायमुना उदक| वोघबगें वेगळिक| दावी होऊनि एक| पाणीपणें ||५१||
न मोडितां दोन्ही आकार| घडिलें एक शरीर| हें अर्धनारी नटेश्वर- | रूपीं दिसें ||५२||
नाना वाढिली दिवसें| कळा बिंबीं पैसे| परी सिनानें लेवे जैसें| चंद्रीं नाहीं ||५३||
तैसींं सिनानीं चारीं पदें| श्लोक तो श्लोकावच्छेदें| अध्यावो अध्यायभेदें| गमे कीर ||५४||
परी प्रमेयाची उजरी| आनान रूप न धरी| नाना रत्नमणीं दोरी| एकचि जैसी ||५५||
मोतियें मिळोनि बहुवें| एकावळीचा पाडु आहे| परी शोभे रूप होये| एकचि तेथ ||५६||
फुलांफुलसरां लेख चढे| द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे| श्लोक अध्याय तेणें पाडें| जाणावे हे ||५७||
सात शतें श्लोक| अध्यायां अठरांचे लेख| परी देवो बोलिले एक| जें दुजें नाहीं ||५८||
आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये| ग्रंथ व्यक्ति केली आहे| प्रस्तुत तेणें निर्वाहे| निरूपण आइका ||५९||
तरी सतरावा अध्यावो| पावतां पुरता ठावो| जें संपतां श्लोकीं देवो| बोलिले ऐसें ||६०||
अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं. बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं| कर्मे कीजती तितुकींंंं| असंतें होतीं ||६१||
हा ऐकोनि देवाचा बोलु| अर्जुना आला डोलु| म्हणे कर्मनिष्ठां मळु| ठेविला देखों ||६२||
तो अज्ञानांधु तंव बापुडा| ईश्वरुचि न देखे एवढा| तेथ नामचि एक पुढां| कां सुझे तया ||६३||
आणि रजतमें दोन्हीं| गेलियावीण श्रद्धा सानी| ते कां लागे अभिधानीं| ब्रह्माचिये ? ||६४||
मग कोता खेंव देणें| वार्तेवरील धावणें| सांडी पडे खेळणें| नागिणीचें तें ||६५||
तैसीं कर्में दुवाडें| तयां जन्मांतराची कडे| दुर्मेळावे येवढे| कर्मामाजीं ||६६||
ना विपायें हें उजू होये| तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे| येऱ्हवीं येणेंचि जाये| निरयालया ||६७||
कर्मीं हा ठायवरी| आहाती बहुवा अवसरी| आतां कर्मठां कैं वारी| मोक्षाची हे ||६८||
तरी फिटो कर्माचा पांगु| कीजो अवघाचि त्यागु| आदरिजो अव्यंगु| संन्यासु हा ||६९||
कर्मबाधेची कहीं| जेथ भयाची गोठी नाहीं| तें आत्मज्ञान जिहीं| स्वाधीन होय ||७०||
ज्ञानाचें आवाहनमंत्र| जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र| ज्ञान आकर्षितें सूत्र| तंतु जे का ||७१||
ते दोनी संन्यास त्याग| अनुष्ठूनि सुटे जग| तरी हेंचि आतां चांग| व्यक्त पुसों ||७२||
ऐसें म्हणौनि पार्थें| त्यागसंन्यासव्यवस्थे| रूप होआवया जेथें| प्रश्नु केला ||७३||
तेथ प्रत्युत्तरें बोली| श्रीकृष्णें जे चावळिली| तया व्यक्ति जाली| अष्टादशा ||७४||
एवं जन्यजनकभावें| अध्यावो अध्यायातें प्रसवे| आतां ऐका बरवें| पुसिलें जें ||७५||
तरी पंडुकुमरें तेणें| देवाचें सरतें बोलणें| जाणोनि अंतःकरणें| काणी घेतली ||७६||
येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला| तो निश्चितु असे कीर जाहला| परी देवो राहे उगला| तें साहावेना ||७७||
वत्स धालयाही वरी| धेनू न वचावी दुरी| अनन्य प्रीतीची परी| ऐसी आहे ||७८||
तेणें काजेवीणही बोलावें| तें देखीलें तरी पाहावें| भोगितां चाड दुणावे| पढियंतयाठायीं ||७९||
ऐसी प्रेमाची हे जाती| आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती| म्हणौनि करूं लाहे खंती| उगेपणाची ||८०||
आणि संवादाचेनि मिषें| जे अव्यवहारी वस्तु असे | ते भोगिजे कीं जैसें| आरिसां रूप ||८१||
मग संवादु तोही पारुखे| तरी भोगितां भोगणें थोके| हें कां साहवेल सुखें| लांचावलेया ? ||८२||
यालागीं त्याग संन्यास| पुसावयाचें घेऊनि मिस| मग उपलविलें दुस| गीतेंचें तें ||८३||
अठरावा अध्यावो नोहे| हे एकाध्यायी गीताचि आहे| जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ||८४||
तैसी संपतां अवसरीं| गीता आदरविली माघारीं| स्वामी भृत्याचा न करी| संवादु काई ? ||८५||
परी हें असो ऐसें| अर्जुनें पुसिजत असे | म्हणे विनंती विश्वेशें| अवधारिजो ||८६||

अर्जुन उवाच |
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ||१||

हां जी संन्यासु आणि त्यागु| इयां दोहीं एक अर्थीं लागु| जैसा सांघातु आणि संघु| संघातेंचि बोलिजे ||८७||
तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें| त्यागुचि बोलिजतु असे| | आमचेनि तंव मानसें| जाणिजे हेंचि ||८८||
ना कांहीं आथी अर्थभेदु| तो देवो करोतु विशदु| तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु| भिन्नचि पैं ||८९||
तरी अर्जुना तुझ्या मनीं| त्याग संन्यास दोनी| एकार्थ गमलें हें मानीं| मीही साच ||९०||
इहीं दोहीं कीर शब्दीं| त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी| परी कारण एथ भेदीं| येतुलेंचि ||९१||
जें निपटूनि कर्म सांडिजे| तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे| आणि फलमात्र का त्यजिजे| तो त्यागु गा ||९२||
तरी कोणा कर्माचें फळ| सांडिजे कोण कर्म केवळ| हेंही सांगों विवळ| चित्त दे पां ||९३||
तरी आपैसीं दांगें डोंगर| झाडें डाळती अपार| तैसें लांबे राजागर| नुठिती ते ||९४||
न पेरितां सैंघ तृणें| उठती तैसें साळीचें होणें| नाहीं गा राबाउणें| जियापरी ||९५||
कां अंग जाहलें सहजें| परी लेणें उद्यमें कीजे| नदी आपैसी आपादिजे| विहिरी जेवीं ||९६||
तैसें नित्य नैमित्तिक| कर्म होय स्वाभाविक| परी न कामितां कामिक| न निफजे जें ||९७||

श्रीभगवानुवाच |
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||२||

कां कामनेचेनि दळवाडें| जें उभारावया घडे| अश्वमेधादिक फुडे| याग जेथ ||९८||
वापी कूप आराम| अग्रहारें हन महाग्राम| आणीकही नाना संभ्रम| व्रतांचे ते ||९९||
ऐसें इष्टापूर्त सकळ| जया कामना एक मूळ| जें केलें भोगवी फळ| बांधोनियां ||१००||
देहाचिया गांवा अलिया| जन्ममृत्यूचिया सोहळिया| ना म्हणों नये धनंजया| जियापरी ||१०१||
का ललाटींचें लिहिलें| न मोडे गा कांहीं केलें| काळेगोरेपण धुतलें| फिटों नेणे ||१०२||
केलें काम्य कर्म तैसें| फळ भोगावया धरणें बैसे| न फेडितां ऋण जैसें| वोसंडीना ||१०३||
कां कामनाही न करितां| अवसांत घडे पंडुसुता| तरी वायकांडें न झुंजतां| लागे जैसें ||१०४||
गूळ नेणतां तोंडीं| घातला देचि गोडी| आगी मानूनि राखोंडी| चेपिला पोळी ||१०५||
काम्यकर्मी हें एक| सामर्थ्य आथी स्वाभाविक| म्हणौनि नको कौतुक| मुमुक्षु एथ ||१०६||
किंबहुना पार्था ऐसें| जें काम्य कर्म गा असे | तें त्यजिजे विष जैसें| वोकूनियां ||१०७||
मग तया त्यागातें जगीं| संन्यासु ऐसया भंगीं| बोलिजे अंतरंगीं| सर्वद्रष्टा ||१०८||
हें काम्य कर्म सांडणें| तें कामनेतेंचि उपडणें| द्रव्यत्यागें दवडणें| भय जैसें ||१०९||
आणि सोमसूर्यग्रहणें| येऊनि करविती पार्वणें| का मातापितरमरणें| अंकित जे दिवस ||११०||
अथवा अतिथी हन पावे| हें ऐसैसें पडे जैं करावें| तैं तें कर्म जाणावें| नौमित्तिक गा ||१११||
वार्षिया क्षोमे गगन| वसंतें दुणावे वन| देहा श्रृंगारी यौवन- | दशा जैसी ||११२||
का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें| एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ||११३||
तैसें नित्य जें का कर्म| तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम| एथ उंचावे तेणें नाम| नैमित्तिक होय ||११४||
आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं| जें कां करणीय प्रतिदिनीं| परी दृष्टि जैसी लोचनीं| अधिक नोहे ||११५||
कां नापादितां गती| चरणीं जैसी आथी| नातरी ते दीप्ती| दीपबिंबीं ||११६||
वासु नेदितां जैसे| चंदनीं सौरभ्य असे | अधिकाराचे तैसें| रूपचि जें ||११७||
नित्य कर्म ऐसें जनीं| पार्था बोलिजे तें मानीं| एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं| दाविलीं तुज ||११८||
हेंचि नित्य नैमित्तिक| अनुष्ठेय आवश्यक| म्हणौनि म्हणोंं पाहती एक| वांझ ययातें ||११९||
परी भोजनीं जैसें होये| तृप्ति लाहे भूक जाये| तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे| सर्वांगीं फळ ||१२०||
कीड आगिठां पडे| तरी मळु तुटे वानी चढे| यया कर्मा तया सांगडें| फळ जाणावें ||१२१||
जे प्रत्यवाय तंव गळे| स्वाधिकार बहुवें उजळे| तेथ हातोफळिया मिळे| सद्गतीसी ||१२२||
येवढेवरी ढिसाळ| नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ| परी तें त्यजिजे मूळ| नक्षत्रीं जैसें ||१२३||
लता पिके आघवी| तंव च्यूत बांधे पालवीं| मग हात न लावित माधवीं| सोडूनि घाली ||१२४||
तैसी नोलांडितां कर्मरेखा| चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका| पाठीं फळा कीजे अशेखा| वांताचे वानी ||१२५||
यया कर्म फळत्यागातें| त्यागु म्हणती पैं जाणते| एवं त्याग संन्यास तूतें| परीसविले ||१२६||
हा संन्यासु जैं संभवे| तैं काम्य बाधूं न पावे| निषिद्ध तंव स्वभावें| निषेधें गेलें ||१२७||
आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे| शिर लोटलिया जैसें| येर आंग ||१२८||
मग सस्य फळपाकांत| तैसें निमालिया कर्मजात| आत्मज्ञान गिंवसीत| अपैसें ये ||१२९||
ऐसिया निगुती दोनी| त्याग संन्यास अनुष्ठानीं| पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ||१३०||
नातरी हे निगुती चुके| मग त्यागु कीजे हाततुकें| तैं कांहीं न त्यजे अधिकें| गोंवींचि पडे ||१३१||
जें औषध व्याधी अनोळख| तें घेतलिया परतें विख| कां अन्न न मानितां भूक| मारी ना काय ? ||१३२||
म्हणौनि त्याज्य जें नोहे| तेथ त्यागातें न सुवावें| त्याज्यालागीं नोहावें| लोभापर ||१३३||
चुकलिया त्यागाचें वेझें| केला सर्वत्यागुही होय वोझें| न देखती सर्वत्र दुजें| वीतराग ते ||१३४||

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||३||

एकां फळाभिलाष न ठके| ते कर्मांते म्हणती बंधकें| जैसें आपण नग्न भांडकें| जगातें म्हणे ||१३५||
कां जिव्हालंपट रोगिया| अन्नें दूषी धनंजया| आंगा न रुसे कोढिया| मासियां कोपे ||१३६||
तैसे फळकाम दुर्बळ| म्हणती कर्मचि किडाळ| मग निर्णयो देती केवळ| त्यजावें ऐसा ||१३७||
एक म्हणती यागादिक| करावेंचि आवश्यक| जे यावांचूनि शोधक| आन नसे ||१३८||
मनशुद्धीच्या मार्गीं| जैं विजयी व्हावें वेगीं| तैं कर्म सबळालागीं | आळसु न कीजे ||१३९||
भांगार आथी शोधावें| तरी आगी जेवी नुबगावें| कां दर्पणालागीं सांचावें| अधिक रज ||१४०||
नाना वस्त्रें चोख होआवीं| ऐसें आथी जरी जीवीं| तरी संवदणी न मनावी| मलिन जैसी ||१४१||
तैसीं कर्में क्लेशकारें| म्हणौनि न न्यावीं अव्हेरें| कां अन्नलाभें अरुवारें| रांधितिये उणें ||१४२||
इहीं इहीं गा शब्दीं| एक कर्मीं बांधिती बुद्धी| ऐसा त्यागु विसंवादीं| पडोनि ठेला ||१४३||
तरी विसंवादु तो फिटे| त्यागाचा निश्चयो भेटे| तैसें बोलों गोमटें| अवधान देईं ||१४४||

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम |
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ||४||

तरी त्यागु एथें पांडवा| त्रिविधु पैं जाणावा| तया त्रिविधाही बरवा| विभाग करूं ||१४५||
त्यागाचे तीन्ही प्रकार| कीजती जरी गोचर| तरी तूं इत्यर्थाचें सार| इतुलें जाण ||१४६||
मज सर्वज्ञाचिये बुद्धी| जें अलोट माने त्रिशुद्धी| निश्चयतत्व तें आधीं| अवधारीं पां ||१४७||
तरी आपुलिये सोडवणें| जो मुमुक्षु जागों म्हणे| तया सर्वस्वें करणें| हेंचि एक ||१४८||

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||५||

जियें यज्ञदानतपादिकें| इयें कर्में आवश्यकें| तियें न सांडावीं पांथिकें| पाउलें जैसीं ||१४९||
हारपलें न देखिजे| तंव तयाचा मागु न सांडिजे| कां तृप्त न होतां न लोटिजे| भाणें जेवीं ||१५०||
नाव थडी न पवतां| न खांडिजे केळी न फळतां| कां ठेविलें न दिसतां| दीपु जैसा ||१५१||
तैसी आत्मज्ञानविखीं| जंव निश्चिती नाहीं निकी| तंव नोहावें यागादिकीं| उदासीन ||१५२||
तरी स्वाधिकारानुरुपें| तियें यज्ञदानें तपें| अनुष्ठावींचि साक्षेपें| अधिकेंवर ||१५३||
जें चालणें वेगावत जाये| तो वेगु बैसावयाचि होये| तैसा कर्मातिशयो आहे| नैष्कर्म्यालागीं ||१५४||
अधिकें जंव जंव औषधी| सेवनेची मांडी बांधी| तंव तंव मुकिजे व्याधी| तयाचिये ||१५५||
तैसीं कर्में हातोपातीं| जैं कीजती यथानिगुती| तैं रजतमें झडती| झाडा देऊनी ||१५६||
कां पाठोवाटीं पुटें| भांगारा खारु देणें घटे| तैं कीड झडकरी तुटे| निर्व्याजु होय ||१५७||
तैसें निष्ठा केलें कर्म| तें झाडी करूनि रजतम| सत्वशुद्धीचें धाम| डोळां दावी ||१५८||
म्हणौनियां धनंजया| सत्वशुद्धी गिंवसितया| तीर्थांचिया सावाया| आलीं कर्में ||१५९||
तीर्थें बाह्यमळु क्षाळे| कर्में अभ्यंतर उजळे| एवं तीर्थें जाण निर्मळें| सत्कर्मेॅहि ||१६०||
तृषार्ता मरुदेशीं| झळे अमृतें वोळलीं जैसींं| कीं अंधालागीं डोळ्यांसी| सूर्यु आला ||१६१||
बुडतया नदीच धाविन्नली| पडतया पृथ्वीच कळवळिली| निमतया मृत्यूनें दिधली| आयुष्यवृद्धी ||१६२||
तैसें कर्में कर्मबद्धता| मुमुक्षु सोडविले पंडुसुता| जैसा रसरीति मरतां| राखिला विषें ||१६३||
तैसीं एके हातवटिया| कर्में कीजती धनंजया| बंधकेंचि सोडवावया| मुख्यें होती ||१६४||
आतां तेचि हातवटी| तुज सांगों गोमटी| जया कर्मातें किरीटी| कर्मचि रुसे ||१६५||

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||६||

तरी महायागप्रमुखें| कर्मे निफजतांही अचुकें| कर्तेपणाचें न ठाके| फुंजणें आंगीं ||१६६||
जो मोलें तीर्था जाये| तया मी यात्रा करितु आहे| ऐसिये श्लाघ्यतेचा नोहे| तोषु जेवीं ||१६७||
कां मुद्रा समर्थाचिया| जो एकवटु झोंबे राया| तो मी जिणता ऐसिया| न येचि गर्वा ||१६८||
जो कासें लागोनि तरे| तया पोहती ऊर्मी नुरे| पुरोहितु नाविष्करे| दातेपणें ||१६९||
तैसें कर्तृत्व अहंकारें| नेघोनि यथा अवसरें| कृत्यजातांचें मोहरें| सारीजती ||१७०||
केल्या कर्मा पांडवा| जो आथी फळाचा यावा| तया मोहरा हों नेदावा| मनोरथु ||१७१||
आधींचि फळीं आस तुटिया| कर्मे आरंभावीं धनंजया| परावें बाळ धाया| पाहिजे जैसें ||१७२||
पिंपरुवांचिया आशा| न शिंपिजे पिंपळु जैसा| तैसिया फळनिराशा| कीजती कर्में ||१७३||
सांडूनि दुधाची टकळी| गोंवारी गांवधेनु वेंटाळी| किंबहुना कर्मफळीं| तैसें कीजे ||१७४||
ऐसी हे हातवटी| घेऊनि जे क्रिया उठी| आपणा आपुलिया गांठी| लाहेची तो ||१७५||
म्हणौनि फळीं लागु| सांडोनि देहसंगु| कर्में करावीं हा चांगु| निरोपु माझा ||१७६||
जो जीवबंधेएं शिणला| सुटके जाचे आपला| तेणें पुढतपुढतीं या बोला| आन न कीजे ||१७७||

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते |
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ||७||

नातरी आंधाराचेनि रोखें| जैसीं डोळां रोंविजती नखें| तैसा कर्मद्वेषें अशेखें| कर्मेंचि सांडी ||१७८||
तयाचें जें कर्म सांडणें| तें तामस पैं मी म्हणें| शिसाराचे रागें लोटणें| शिरचि जैसें ||१७९||
हां गा मार्गु दुवाडु होये| तरी निस्तरितील पाये| कीं तेचि खांडणें आहे| मार्गापराधें ||१८०||
भुकेलियापुढें अन्न| हो कां भलतैसें उन्ह| तरी बुद्धी न घेतां लंघन| भाणें पापरां हल्या ||१८१||
तैसा कर्माचा बाधु कर्में| निस्तरीजे करितेनि वर्में| हे तामसु नेणें भ्रमें| माजविला ||१८२||
कीं स्वभावें आलें विभागा| तें कर्मचि वोसंडी पैं गा| तरी झणें आतळा त्यागा| तामसा तया ||१८३||

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८||

अथवा स्वाधिकारु बुझे| आपले विहितही सुजे| परी करितया उमजे| निबरपणा ||१८४||
जे कर्माची ऐलीकड| नावेक दिसे दुवाड| जे वाहतिये वेळे जड| शिदोरी जैसी ||१८५||
जैसा निंब जिभे कडवटु| हिरडा पहिलें तुरटु| तैसा कर्मा ऐल शेवटु| खणुवाळा होय ||१८६||
कां धेनु दुवाड शिंग| शेवंतीये अडव आंग| भोजनसुख महाग| पाकु करितां ||१८७||
तैसें पुढतपुढती कर्म | आरंभींच अति विषम| म्हणौनि तो तें श्रम| करितां मानी ||१८८||
येऱ्हवीं विहितत्वें मांडी| परी घालितां असुरवाडीं| तेथ पोळला ऐसा सांडी| आदरिलेंही ||१८९||
म्हणे वस्तु देहासारिखी| आली बहुतीं भाग्यविशेखीं| मा जाचूं कां कर्मादिकीं| पापिया जैसा ? ||१९०||
केलें कर्मीं जे द्यावें| तें झणें मज होआवें| आजि भोगूं ना कां बरवे| हातींचे भोग ? ||१९१||
ऐसा शरीराचिया क्लेशा| भेणें कर्में वीरेशा| सांडी तो परीयेसा| राजसु त्यागु ||१९२||
येऱ्हवीं तेथही कर्म सांडे| परी तया त्यागफळ न जोडे| जैसें उतलें आगीं पडे| तें नलगेचि होमा ||१९३||
कां बुडोनि प्राण गेले| ते अर्धोदकीं निमाले| हें म्हणों नये जाहलें| दुर्मरणचि ||१९४||
तैसें देहाचेनि लोभें| जेणें कर्मा पाणी सुभे| तेणें साच न लभे| त्यागाचें फळ ||१९५||
किंबहुना आपुलें| जैं ज्ञान होय उदया आलें| तैं नक्षत्रातें पाहलें| गिळी जैसें ||१९६||
तैशा सकारण क्रिया| हारपती धनंजया| तो कर्मत्यागु ये जया| मोक्षफळासी ||१९७||
तें मोक्षफळ अज्ञाना| त्यागिया नाहीं अर्जुना| म्हणौनि तो त्यागु न माना| राजसु जो ||१९८||
तरी कोणे पां एथ त्यागें| तें मोक्षफळ घर रिघे| हेंही आइक प्रसंगे| बोलिजेल ||१९९||

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||९||

तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें| जें वांटिया आलें स्वभावें| तें आचरे विधिगौरवें| शृंगारोनि ||२००||
परी हें मी करितु असें| ऐसा आठवु त्यजी मानसें| तैसेचि पाणी दे आशे| फळाचिये ||२०१||
पैं अवज्ञा आणि कामना| मातेच्या ठायीं अर्जुना| केलिया दोनी पतना| कारण होती ||२०२||
तरी दोनीं यें त्यजावीं| मग माताची ते भजावी| वांचूनि मुखालागीं वाळावी| गायचि सगळी ? ||२०३||
आवडतियेही फळीं| असारें साली आंठोळीं| त्यासाठीं अवगळी| फळातें कोण्ही ? ||२०४||
तैसा कर्तृत्वाचा मदु| आणि कर्मफळाचा आस्वादु| या दोहींचें नांव बंधु| कर्माचा कीं ||२०५||
तरी या दोहींच्या विखीं| जैसा बापु नातळे लेंकीं | तैसा हों न शके दुःखी| विहिता क्रिया ||२०६||
हा तो त्याग तरुवरु| जो गा मोक्षफळें ये थोरु| सात्विक ऐसा डगरु| यासींच जगीं ||२०७||
आतां जाळूनि बीज जैसें| झाडा कीजे निर्वंशें| फळ त्यागूनि कर्म तैसें| त्यजिलें जेणें ||२०८||
लोह लागतखेंवो परीसीं| धातूची गंधिकाळिमा जैसी| जाती रजतमें तैसीं| तुटलीं दोन्ही ||२०९||
मग सत्वें चोखाळें| उघडती आत्मबोधाचे डोळे| तेथ मृगांबु सांजवेळे| होय जैसें ||२१०||
तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां| असतु विश्वाभासु हा येवढा| तो न देखे कवणीकडां| आकाश जैसें ||२११||

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ||१०||

म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें| अलंकृतें कुशलाकुशलें| तियें व्योमाआंगीं आभाळें| जिरालीं जैसीं ||२१२||
तैसीं तयाचिये दिठी| कर्में चोखाळलीं किरीटी. म्हणौनि सुखदुःखीं उठी| पडेना तो ||२१३||
तेणें शुभकर्म जाणावें| मग तें हर्षें करावें| कां अशुभालागीं होआवें| द्वेषिया ना ||२१४||
तरी इयाविषयींचा कांहीं| तया एकुही संदेहो नाहीं| जैसा स्वप्नाच्या ठायीं| जागिन्नलिया ||२१५||
म्हणौनि कर्म आणि कर्ता| या द्वैतभावाची वार्ता| नेणें तो पंडुसुता| सात्विक त्यागु ||२१६||
ऐसेनि कर्में पार्था| त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा | अधिकें बांधिती अन्यथा| सांडिलीं तरी ||२१७||

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||११||

आणि हां गा सव्यसाची| मूर्ति लाहोनि देहाची| खंती करिती कर्माची| ते गांवढे गा ||२१८||
मृत्तिकेचा वीटु| घेऊनि काय करील घटु ? | केउता ताथु पटु| सांडील तो ? ||२१९||
तेवींचि वन्हित्व आंगीं| आणि उबे उबगणें आगी| कीं तो दीपु प्रभेलागीं| द्वेषु करील काई ? ||२२०||
हिंगु त्रासिला घाणी| तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? | द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ||२२१||
तैसा शरीराचेनि आभासें| नांदतु जंव असे | तंव कर्मत्यागाचें पिसें| काइसें तरी ? ||२२२||
आपण लाविजे टिळा| म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा| मा घाली फेडी निडळा| कां करूं ये गा ? ||२२३||
तैसें विहित स्वयें आदरिलें| म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें| परी कर्मचि देह आतलें| तें कां सांडील गा ? ||२२४||
जें श्वासोच्छ्वासवरी| होत निजेलियाहीवरी| कांहीं न करणेंयाचि परी| होती जयाची ||२२५||
या शरीराचेनि मिसकें| कर्मची लागलें असिकें| जितां मेलया न ठाके| इया रीती ||२२६||
यया कर्मातें सांडिती परी| एकीचि ते अवधारीं| जे करितां न जाइजे हारीं| फळशेचिये ||२२७||
कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे| तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें| तेथ रज्जुज्ञानें लोपे| व्याळशंका ||२२८||
तेणें आत्मबोधें तैसें| अविद्येसीं कर्म नाशे| पार्था त्यजिजे जैं ऐसें| तैं त्यजिलें होय ||२२९||
म्हणौनि इयापरी जगीं| कर्में करितां मानूं त्यागी| येर मुर्छने नांव रोगी| विसांवा जैसा ||२३०||
तैसा कर्मीं शिणे एकीं| तो विसांवो पाहे आणिकीं| दांडेयाचे घाय बुकी| धाडणें जैसें ||२३१||
परी हें असो पुढती| तोचि त्यागी त्रिजगतीं| जेणें फळत्यागें निष्कृती| नेलें कर्म ||२३२||

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ||१२||

येऱ्हवीं तरी धनंजया| त्रिविधा कर्मफळा गा यया| समर्थ ते कीं भोगावया| जे न सांडितीचि आशा ||२३३||
आपणचि विऊनि दुहिता| कीं न मम म्हणे पिता| तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता| जांवई शिरके ||२३४||
विषाचे आगरही वाहती| तें विकितां सुखें लाभे जिती| येर निमालें जे घेती| वेंचोनि मोलें ||२३५||
तैसें कर्ता कर्म करू| अकर्ता फळाशा न धरू| एथ न शके आवरूं| दोहींतें कर्म ||२३६||
वाटे पिकलिया रुखाचें| फळ अपेक्षी तयाचें| तेवीं साधारण कर्माचें| फळ घे तया ||२३७||
परी करूनि फळ नेघे| तो जगाच्या कामीं न रिघे| जे त्रिविध जग अवघें| कर्मफळ हें ||२३८||
देव मनुष्य स्थावर| यया नांव जगडंबर| आणि हे तंव तिन्ही प्रकार| कर्मफळांचे ||२३९||
तेंचि एक गा अनिष्ट| एक तें केवळ इष्ट| आणि एक इष्टानिष्ट| त्रिविध ऐसें ||२४०||
परी विषयमंतीं बुद्धी| आंगीं सूनि अविधी| प्रवर्तती जे निषिद्धीं| कुव्यापारीं ||२४१||
तेथ कृमि कीट लोष्ट| हे देह लाहती निकृष्ट| तया नाम तें अनिष्ट| कर्मफळ ||२४२||
कां स्वधर्मा मानु देतां| स्वाधिकारु पुढां सूतां| सुकृत कीजे पुसतां| आम्नायातें ||२४३||
तैं इंद्रादिक देवांचीं| देहें लाहिजती सव्यसाची| तया कर्मफळा इष्टाची| प्रसिद्धि गा ||२४४||
आणि गोड आंबट मिळे| तेथ रसांतर फरसाळें| उठी दोंही वेगळें| दोहीं जिणतें ||२४५||
रेचकुचि योगवशें| होय स्तंभावयादोषें| तेवीं सत्यासत्य समरसें| सत्यासत्यचि जिणिजे ||२४६||
म्हणौनि समभागें शुभाशुभें| मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें. तेणें मनुष्यत्व लाभे| तें मिश्र फळ ||२४७||
ऐसें त्रिविध यया भागीं| कर्मफळ मांडलेसें जगीं| हें न सांडी तयां भोगीं| जें सूदले आशा ||२४८||
जेथें जिव्हेचा हातु फांटे| तंव जेवितां वाटे गोमटें| मग परीणामीं शेवटें| अवश्य मरण ||२४९||
संवचोरमैत्री चांग| जंव न पविजे तें दांग| सामान्या भली आंग| न शिवे तंव ||२५०||
तैसीं कर्में करितां शरीरीं| लाहती महत्त्वाची फरारी| पाठीं निधनीं एकसरी| पावती फळें ||२५१||
तैसा समर्थु आणि ऋणिया| मागों आला बाइणिया| न लोटे तैसा प्राणिया| पडे तो भोगु ||२५२||
मग कणिसौनि कणु झडे| तो विरूढला कणिसा चढे| पुढती भूमी पडे| पुढती उठी ||२५३||
तैसें भोगीं जें फळ होय| तें फळांतरें वीत जाय| चालतां पावो पाय| जिणिजे जैसा ||२५४||
उताराचिये सांगडी| ठाके ते ऐलीच थडी| तेवीं न मुकीजती वोढी| भोग्याचिये ||२५५||
पैं साध्यसाधनप्रकारें| फळभोगु तो पसरे| एवं गोंविले संसारें| अत्यागी ते ||२५६||
येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें| त्याचि नाम जैसें सुकणें| तैसें कर्ममिषें न करणें| केलें जिहीं ||२५७||
बीजचि वरोसि वेंचे| तेथ वाढती कुळवाडी खांचे| तेवीं फळत्यागें कर्माचें| सारिलें काम ||२५८||
ते सत्वशुद्धि साहाकारें| गुरुकृपामृततुषारें| सासिन्नलेनि बोधें वोसरे| द्वैतदैन्य ||२५९||
तेव्हां जगदाभासमिषें| स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे| एथ भोक्ता भोग्य आपैसें| निमालें हें ||२६०||
घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा| संन्यासु जयां वीरेशा| तेचि फलभोग सोसा| मुकले गा ||२६१||
आणि येणें कीर संन्यासें| जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे| तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? ||२६२||
पडोनि गेलिया भिंती| चित्रांची केवळ होय माती| कां पाहालेया राती| आंधारें उरे ? ||२६३||
जैं रूपचि नाहीं उभें| तैं साउली काह्याची शोभे ? | दर्पणेवीण बिंबें| वदन कें पां ? ||२६४||
फिटलिया निद्रेचा ठावो| कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? | मग साच का वावो| कोण म्हणे ? ||२६५||
तैसें गा संन्यासें येणें| मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें| मा तियेचें कार्य कोणें| घेपे दीजे ? ||२६६||
म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं| कर्माची गोठी कीजेल ख़ई | परी अविद्या आपुलाम् देहीं| आहे जै कां ||२६७||
जैं कर्तेपणाचेनि थांवें| आत्मा शुभाशुभीं धांवें| दृष्टि भेदाचिये राणिवे| रचलीसे जैं ||२६८||
तैं तरी गा सुवर्मा| बिजावळी आत्मया कर्मा| अपाडें जैसी पश्चिमा| पूर्वेसि कां ||२६९||
नातरी आकाशा का आभाळा| सूर्या आणि मृगजळा| बिजावळी भूतळा| वायूसि जैसी ||२७०||
पांघरौनि नईचें उदक| असे नईचिमाजीं खडक| परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ||२७१||
हो कां उदकाजवळी| परी सिनानीचि ते बाबुळी| काय संगास्तव काजळी| दीपु म्हणों ये ? ||२७२||
जरी चंद्रीं जाला कलंकु| तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु| आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु| अपाडु जेतुला ||२७३||
नाना वाटा वाटे जातया| वोघा वोघीं वाहातया| आरसा आरसां पाहातया| अपाडु जेतुला ||२७४||
पार्था गा तेतुलेनि मानें| आत्मेंनिसीं कर्म सिनें| परी घेवविजे अज्ञानें| तें कीर ऐसें ||२७५||
विकाशें रवीतें उपजवी| द्रुती अलीकरवी भोगवी| ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ||२७६||
पुढतपुढती आत्मक्रिया| अन्यकारणकाचि तैशिया| करूं पांचांही तयां| कारणां रूप ||२७७||

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||१३||

आणि पांचही कारणें तियें| तूंही जाणसील विपायें| जें शास्त्रें उभऊनी बाहे| बोलती तयांते ||२७८||
वेदरायाचिया राजधानीं| सांख्यवेदांताच्या भुवनीं| निरूपणाच्या निशाणध्वनीं| गर्जती जियें ||२७९||
जें सर्वकर्मसिद्धीलागीं| इयेंचि मुद्दलें हो जगीं| तेथ न सुवावा अभंगीं| आत्मराजु ||२८०||
ह्या बोलाचि डांगुरटी| तियें प्रसिद्धीचि आली किरीटी| म्हणौनि तुझ्या हन कर्णपुटीं| वसों हें काज ||२८१||
आणि मुखांतरीं आइकिजे| तैसें कायसें हें ओझें| मी चिद्रत्न तुझें | असतां हातीं ||२८२||
दर्पणु पुढां मांडलेया| कां लोकांचियां डोळयां| मानु द्यावा पहावया| आपुलें निकें ||२८३||
भक्त जैसेनि जेथ पाहे| तेथ तें तेंचि होत जाये| तो मी तुझें जाहालों आहें| खेळणें आजी ||२८४||
ऐसें हें प्रीतीचेनि वेगें| देवो बोलतां से नेघे| तंव आनंदामाजीं आंगें| विरतसे येरु ||२८५||
चांदिणियाचा पडिभरु| होतां सोमकांताचा डोंगरु| विघरोनि सरोवरु| हों पाहे जैसा ||२८६||
तैसें सुख आणि अनुभूती| या भावांची मोडूनि भिंती| आतलें अर्जुनाकृति| सुखचि जेथ ||२८७||
तेथ समर्थु म्हणौनि देवा| अवकाशु जाहला आठवा| मग बुडतयाचा धांवा| जीवें केला ||२८८||
अर्जुना येसणें धेंडें| प्रज्ञा पसरेंसीं बुडे| आलें भरतें एवढें| तें काढूनि पुढती ||२८९||
देवो म्हणे हां गा पार्था| तूं आपणपें देख सर्वथा| तंव श्वासूनि येरें माथा| तुकियेला ||२९०||
म्हणे जाणसी दातारा| मी तुजशीं व्यक्तिशेजारा| उबगला आजी एकाहारा| येवों पाहें ||२९१||
तयाही हा ऐसा| लोभें देतसां जरी लालसा| तरी कां जी घालीतसां| आड आड जीवा ? ||२९२||
तेथ श्रीकृष्ण म्हणती निकें| अद्यापि नाहीं मा ठाऊकें| वेडया चंद्रा आणि चंद्रिके| न मिळणें आहे ? ||२९३||
आणि हाही बोलोनि भावो| तुज द्ॐ आम्ही भिवों| जे रुसतां बांधे थांवो| तें प्रेम गा हें ||२९४||
एथ एकमेकांचिये खुणें| विसंवादु तंवचि जिणें| म्हणौनि असो हें बोलणें| इयेविषयींचें ||२९५||
मग कैशी कैशी ते आतां | बोलत होतों पंडुसुता| सर्व कर्मा भिन्नता| आत्मेनिसीं ||२९६||
तंव अर्जुन म्हणे देवें| माझिये मनींचेंचि स्वभावें| प्रस्ताविलें बरवें| प्रमेय तें जी ||२९७||
जें सकळ कर्माचें बीज| कारणपंचक तुज| सांगेन ऐसी पैज| घेतली कां ||२९८||
आणि आत्मया एथ कांहीं| सर्वथा लागु नाहीं| हें पुढारलासि ते देईं| लाहाणें माझें ||२९९||
यया बोला विश्वेशें| म्हणितलें तोषें बहुवसे| इयेविषयीं धरणें बैसे. ऐसें कें जोडे ? ||३००||
तरी अर्जुना निरूपिजेल| तें कीर भाषेआंतुल| परी मेचु ये होईजेल| ऋणिया तुज ||३०१||
तंव अर्जुन म्हणे देवो| काई विसरले मागील भावो ? | इये गोंठीस कीं राखत आहों| मीतूंपण जी ? ||३०२||
एथ श्रीकृष्ण म्हणती हो कां| आतां अवधानाचा पसरु निका| करूनियां आइका| पुढारलों तें ||३०३||
तरी सत्यचि गा धनुर्धरा| सर्वकर्मांचा उभारा| होतसे बहिरबाहिरा| करणीं पांचें ||३०४||
आणि पांच कारण दळवाडें| जिहीं कर्माकारु मांडे| ते हेतुस्तव घडे| पांच आथी ||३०५||
येर आत्मतत्त्व उदासीन| तें ना हेतु ना उपादान| ना ते अंगें करी संवाहन| कर्मसिद्धीचें ||३०६||
तेथ शुभाशुभीं अंशीं| निफजती कर्में ऐसीं| राती दिवो आकाशीं| जियापरी ||३०७||
तोय तेज धूमु| ययां वायूसीं संगमु| जालिया होय अभ्रागमु| व्योम तें नेणें ||३०८||
नाना काष्ठीं नाव मिळे| ते नावाडेनि चळे| चालविजे अनिळें| उदक तें साक्षी ||३०९||
कां कवणे एकें पिंडे| वेंचितां अवतरे भांडें| मग भवंडीजे दंडें| भ्रमे चक्र ||३१०||
आणि कर्तृत्व कुलालाचें| तेथ काय तें पृथ्वीयेचें| आधारावांचूनि वेंचे| विचारीं पां ||३११||
हेंहि असो लोकांचिया| राहाटी होतां आघविया| कोण काम सवितया| आंगा आलें ? ||३१२||
तैसें पांचहेतुमिळणीं| पांचेंचि इहीं कारणीं| कीजे कर्मलतांची लावणी| आत्मा सिना ||३१३||
आतां तेंचि वेगळालीं| पांचही विवंचूं गा भलीं| तुकोनि घेतलीं| मोतियें जैसीं ||३१४||

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||१४||

तैसीं यथा लक्षणें| आइकें कर्म- कारणें| तरी देह हें मी म्हणें| पहिलें एथ ||३१५||
ययातें अधिष्ठान ऐसें| म्हणिजे तें याचि उद्देशें| जे स्वभोग्येंसीं वसे| भोक्ता येथ ||३१६||
इंद्रियांच्या दाहें हातीं| जाचोनियां दिवोराती| सुखदुःखें प्रकृती| जोडीजती जियें ||३१७||
तियें भोगावया पुरुखा| आन ठावोचि नाहीं देखा| म्हणौनि अधिष्ठानभाखा| बोलिजे देह ||३१८||
हें चोविसांही तत्वांचें| कुटुंबघर वस्तीचें| तुटे बंधमोक्षाचें| गुंथाडे एथ ||३१९||
किंबहुना अवस्थात्रया| हें अधिष्ठान धनंजया| म्हणौनि देहा यया| हेंचि नाम ||३२०||
आणि कर्ता हें दुजें| कर्माचें कारण जाणिजे| प्रतिबिंब म्हणिजे| चैतन्याचें जें ||३२१||
आकाशचि वर्षे नीर| तें तळवटीं बांधे नाडर| मग बिंबोनि तदाकार| होय जेवीं ||३२२||
कां निद्राभरें बहुवें| राया आपणपें ठाउवें नव्हे| मग स्वप्नींचिये सामावे| रंकपणीं ||३२३||
तैसें आपुलेनि विसरें| चैतन्यचि देहाकारें| आभासोनि आविष्करें| देहपणें जें ||३२४||
जया विसराच्या देशीं| प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी| जेणें भाष केली देहेंसी| आघवाविषयीं ||३२५||
प्रकृति करी कर्में| तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें| येथ कर्ता येणें नामें| बोलिजे जीवु ||३२६||
मग पातेयांच्या केशीं| एकीच उठी दिठी जैसी| मोकळी चवरी ऐसी| चिरीव गमे ||३२७||
कां घराआंतुल एकु| दीपाचा तो अवलोकु| गवाक्षभेदें अनेकु| आवडे जेवीं ||३२८||
कां एकुचि पुरुषु जैसा| अनुसरत नवां रसां| नवविधु ऐसा| आवडों लागे ||३२९||
तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें| श्रोत्रादिभेदें येणें| बाहेरी इंद्रियपणें| फांके जें कां ||३३०||
तें पृथग्विध करण| कर्माचें इया कारण| तिसरें गा जाण| नृपनंदना ||३३१||
आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं| निघालिया वोघाचिया मिळणी| होय नदी नद पाणी| एकचि जेवीं ||३३२||
तैसी क्रियाशक्ति पवनीं| असे जे अनपायिनी| ते पडिली नानास्थानीं| नाना होय ||३३३||
जैं वाचे करी येणें| तैं तेंचि होय बोलणें| हाता आली तरी घेणें| देणें होय ||३३४||
अगा चरणाच्या ठायीं| तरी गति तेचि पाहीं| अधोद्वारीं दोहीं| क्षरणें तेचि ||३३५||
कंदौनि हृदयवरी| प्रणवाची उजरी| करितां तेचि शरीरीं| प्राणु म्हणिजे ||३३६||
मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा| पुढती तेचि शक्ति पैं गा| उदानु ऐसिया लिंगा| पात्र जाहली ||३३७||
अधोरंध्राचेनि वाहें| अपानु हें नाम लाहे| व्यापकपणें होये| व्यानु तेचि ||३३८||
आरोगिलेनि रसें| शरीर भरी सरिसें| आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ||३३९||
ऐसिया इया राहटीं| मग तेचि क्रिया पाठीं| समान ऐसी किरीटी| बोलिजे गा ||३४०||
आणि जांभई शिंक ढेंकर| ऐसैसा होतसे व्यापार| नाग कूर्म कृकर| इत्यादि होय ||३४१||
एवं वायूची हे चेष्टा| एकीचि परी सुभटा| वर्तनास्तव पालटा| येतसे जे ||३४२||
तें भेदली वृत्तिपंथें| वायुशक्ति गा एथें| कर्मकारण चौथें| ऐसें जाण ||३४३||
आणि ऋतु बरवा शारदु| शारदीं पुढती चांदु| चंद्री जैसा संबंधु| पूर्णिमेचा ||३४४||
कां वसंतीं बरवा आरामु| आरामींही प्रियसंगमु | संगमीं आगमु. उपचारांचा ||३४५||
नाना कमळीं पांडवा| विकासु जैसा बरवा| विकासींही यावा| परागाचा ||३४६||
वाचे बरवें कवित्व| कवित्वीं बरवें रसिकत्व| रसिकत्वीं परतत्व| स्पर्शु जैसा ||३४७||
तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं| बुद्धिचि एकली बरवी| बुद्धिही बरव नवी| इंद्रियप्रौढी ||३४८||
इंद्रियप्रौढीमंडळा| शृंगारु एकुचि निर्मळा| जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा| देवतांचा जो ||३४९||
म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें| इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें| सूर्यादिकां कां आहे| सुरांचें वृंद ||३५०||
तें देववृंद बरवें| कर्मकारण पांचवें| अर्जुना एथ जाणावें| देवो म्हणे ||३५१||
एवं माने तुझिये आयणी| तैसी कर्मजातांची हे खाणी| पंचविध आकर्णीं| निरूपिली ||३५२||
आतां हेचि खाणी वाढे| मग कर्माची सृष्टि घडे| जिहीं ते हेतुही उघडे| द्ॐ पांचै ||३५३||

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||१५||

तरी अवसांत आली माधवी| ते हेतु होय नवपल्लवीं| पल्लव पुष्पपुंज दावी| पुष्प फळातें ||३५४||
कां वार्षिये आणिजे मेघु| मेघें वृष्टिप्रसंगु| वृष्टीस्तव भोगु| सस्यसुखाचा ||३५५||
नातरी प्राची अरुणातें विये| अरुणें सूर्योदयो होये| सूर्यें सगळा पाहे| दिवो जैसा ||३५६||
तैसें मन हेतु पांडवा| होय कर्मसंकल्पभावा| तो संकल्पु लावी दिवा| वाचेचा गा ||३५७||
मग वाचेचा तो दिवटा| दावी कृत्यजातांचिया वाटा| तेव्हां कर्ता रिगे कामठां | कर्तृत्वाच्या ||३५८||
तेथ शरीरादिक दळवाडें| शरीरादिकां हेतुचि घडे| लोहकाम लोखंडें| निर्वाळिजे जैसें ||३५९||
कां तांथुवाचा ताणा| तांथु घालितां वैरणा| तो तंतुचि विचक्षणा| होय पटु ||३६०||
तैसें मनवाचादेहाचें| कर्म मनादि हेतुचि रचे| रत्नीं घडे रत्नाचें| दळवाडें जेवीं ||३६१||
एथ शरीरादिकें कारणें| तेंचि हेतु केवीं हें कोणें| अपेक्षिजे तरी तेणें| अवधारिजो ||३६२||
आइका सूर्याचिया प्रकाशा| हेतु कारण सूर्युचि जैसा| कां ऊंसाचें कांडें ऊंसा| वाढी हेतु ||३६३||
नाना वाग्देवता वानावी| तैं वाचाचि लागे कामवावी| कां वेदां वेदेंचि बोलावी| प्रतिष्ठा जेवीं ||३६४||
तैसें कर्मा शरीरादिकें| कारण हें कीर ठाउकें| परी हेंचि हेतु न चुके| हेंही एथ ||३६५||
आणि देहादिकीं कारणीं| देहादि हेतु मिळणीं| होय जया उभारणी| कर्मजातां ||३६६||
तें शास्त्रार्थेंं मानिलेया| मार्गा अनुसरे धनंजया| तरी न्याय तो न्याया| हेतु होय ||३६७||
जैसा पर्जन्योदकाचा लोटु| विपायें धरी साळीचा पाटु| तो जिरे परी अचाटु| उपयोगु आथी ||३६८||
कां रोषें निघालें अवचटें| पडिलें द्वारकेचिया वाटे | तें शिणे परी सुनाटें| न वचिती पदें ||३६९||
तैसें हेतुकारण मेळें| उठी कर्म जें आंधळें| तें शास्त्राचें लाहे डोळे| तैं न्याय म्हणिपे ||३७०||
ना दूध वाढिता ठावो पावे| तंव उतोनि जाय स्वभावें| तोही वेंचु परी नव्हे| वेंचिलें तें ||३७१||
तैसें शास्त्रसाह्येंवीण| केलें नोहे जरी अकारण| तरी लागो कां नागवण| दानलेखीं ||३७२||
अगा बावन्ना वर्णांपरता| कोण मंत्रु आहे पंडुसुता| कां बावन्नही नुच्चारितां| जीवु आथी ? ||३७३||
परी मंत्राची कडसणी| जंव नेणिजे कोदंडपाणी| तंव उच्चारफळ वाणी| न पवे जेवीं ||३७४||
तेवीं कारणहेतुयोगें| जें बिसाट कर्म निगे| तें शास्त्राचिये न लगे| कांसे जंव ||३७५||
कर्म होतचि असे तेव्हांही| परी तें होणें नव्हे पाहीं| तो अन्यायो गा अन्यायीं| हेतु होय ||३७६||

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ||१६||

एवं पंचकारणा कर्मा| पांचही हेतु हे सुमहिमा| आतां एथें पाहें पां आत्मा| सांपडला असे ? ||३७७||
भानु न होनि रूपें जैसीं| चक्षुरूपातें प्रकाशी| आत्मा न होनि कर्में तैसीं| प्रकटित असे गा ||३७८||
पैं प्रतिबिंब आरिसा| दोन्ही न होनि वीरेशा| दोहींतें प्रकाशी जैसा| न्याहाळिता तो ||३७९||
कां अहोरात्र सविता| न होनि करी पंडुसुता| तैसा आत्मा कर्मकर्ता| न होनि दावी ||३८०||
परी देहाहंमान भुली| जयाची बुद्धि देहींचि आतली| तया आत्मविषयीं जाली| मध्यरात्री गा ||३८१||
जेणें चैतन्या ईश्वरा ब्रह्मा| देहचि केलें परमसीमा| तया आत्मा कर्ता हे प्रमा| अलोट उपजे ||३८२||
आत्माचि कर्मकर्ता| हाही निश्चयो नाहीं तत्वतां| देहोचि मी कर्मकर्ता| मानितो साचे ||३८३||
जे आत्मा मी कर्मातीतु| सर्वकर्मसाक्षिभूतु| हे आपुली कहीं मातु| नायकेचि कानीं ||३८४||
म्हणौनि उमपा आत्मयातें| देहचिवरी मविजे एथें| विचित्र काई रात्रि दिवसातें| डुडुळ न करी ? ||३८५||
पैं जेणें आकाशींचा कहीं| सत्य सूर्यु देखिला नाहीं| तो थिल्लरींचें बिंब काई| मानू न लाहे ? ||३८६||
थिल्लराचेनि जालेपणें| सूर्यासि आणी होणें| त्याच्या नाशीं नाशणें| कंपें कंपू ||३८७||
आणि निद्रिस्ता चेवो नये| तंव स्वप्न साच हों लाहे| रज्जु नेणतां सापा बिहे| विस्मो कवण ? ||३८८||
जंव कवळ आथि डोळां| तंव चंद्रु देखावा कींं पिंवळा| काय मृगींहीं मृगजळा| भाळावें नाहीं ? ||३८९||
तैसा शास्त्रगुरूचेनि नांवे| जो वाराही टेंकों नेदी सिवें| केवळ मौढ्याचेनिचि जीवें| जियाला जो ||३९०||
तेणें देहात्मदृष्टीमुळें| आत्मया घापे देहाचें जाळें| जैसा अभ्राचा वेगु कोल्हें| चंद्रीं मानीं ||३९१||
मग तया मानणयासाठीं| देहबंदीशाळे किरीटी| कर्माच्या वज्रगांठी| कळासे तो ||३९२||
पाहे पां बद्ध भावना दृढा| नळियेवरी तो बापुडा| काय मोकळेयाही पायाचा चवडा| न ठकेचि पुंसा ||३९३||
म्हणौनि निर्मळा आत्मस्वरूपीं| तो प्रकृतीचें केलें आरोपी| तो कल्पकोडीच्या मापीं| मवीचि कर्में ||३९४||
आता कर्मामाजीं असे | परी तयातें कर्म न स्पर्शे| वडवानळातें जैसें| समुद्रोदक ||३९५||
तैसेंनि वेगळेपणें| जयाचें कर्मीं असणें| तो कीर वोळखावा कवणें| तरी सांगो ||३९६||
जे मुक्तातें निर्धारितां| लाभे आपलीच मुक्तता| जैसी दीपें दिसें पाहतां| आपली वस्तु ||३९७||
नातरी दर्पणु जंव उटिजे| तंव आपणपयां आपण भेटिजे| कां तोय पावतां तोय होईजे| लवणें जेंवीं ||३९८||
हें असो परतोनि मागुतें| प्रतिबिंब पाहे बिंबातें| तंव पाहणें जाउनी आयितें| बिंबचि होय ||३९९||
तैसें हारपलें आपणपें पावे| तैं संतांतें पाहतां गिंवसावें| म्हणौनि वानावे ऐकावे| तेचि सदा ||४००||
परी कर्मीं असोनि कर्में | जो नावरे समेंविषमें| चर्मचक्षूंचेनि चामें| दृष्टि जैसी ||४०१||
तैसा सोडवला जो आहे| तयाचें रूप आतां पाहें| उपपत्तीची बाहे| उभऊनि सांगों ||४०२||

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ||१७||

तरी अविद्येचिया निदा| विश्वस्वप्नाचा हा धांदा| भोगीत होता प्रबुद्धा| अनादि जो ||४०३||
तो महावाक्याचेनि नांवें| गुरुकृपेचेनि थांवें| माथां हातु ठेविला नव्हे| थापटिला जैसा ||४०४||
तैसा विश्वस्वप्नेंसीं माया| नीद सांडूनि धनंजया| सहसा चेइला अद्वया- | नंदपणें जो ||४०५||
तेव्हां मृगजळाचे पूर| दिसते एक निरंतर| हारपती कां चंद्रकर| फांकतां जैसे ||४०६||
कां बाळत्व निघोनि जाय| तैं बागुला नाहीं त्राय| पैं जळालिया इंधन न होय| इंधन जेवीं ||४०७||
नाना चेवो आलिया पाठीं| तैं स्वप्न न दिसे दिठी| तैसी अहं ममता किरीटी| नुरेचि तया ||४०८||
मग सूर्यु आंधारालागीं| रिघो कां भलते सुरंगीं| परी तो तयाच्या भागीं| नाहींचि जैसा ||४०९||
तैसा आत्मत्वें वेष्टिला होये| तो जया जया दृश्यातें पाहें| तें दृष्य द्रष्टेपणेंसीं होत जाये| तयाचेंचि रूप ||४१०||
जैसा वन्हि जया लागे| तें वन्हिचि जालिया आंगें| दाह्यदाहकविभागें| सांडिजे तें ||४११||
तैसा कर्माकारा दुजेया| तो कर्तेपणाचा आत्मया| आळु आला तो गेलिया| कांहीं बाहीं जें उरे ||४१२||
तिये आत्मस्थितीचा जो रावो| मग तो देहीं इये जाणेल ठावो ? | काय प्रलयांबूचा उन्नाहो| वोघु मानी ? ||४१३||
तैसी ते पूर्ण अहंता| काई देहपणें पंडुसुता| आवरे काई सविता| बिंबें धरिला ? ||४१४||
पैं मथूनि लोणी घेपे| तें मागुती ताकीं घापे| तरी तें अलिप्तपणें सिंपे| तेणेंसी काई ? ||४१५||
नाना काष्ठौनि वीरेशा| वेगळा केलिया हुताशा| राहे काष्ठाचिया मांदुसा| कोंडलेपणें ? ||४१६||
कां रात्रीचिया उदराआंतु| निघाला जो हा भास्वतु| तो रात्री ऐसी मातु| ऐके कायी ? ||४१७||
तैसें वेद्य वेदकपणेंसी| पडिलें कां जयाचे ग्रासीं| तया देह मी ऐसी| अहंता कैंची ? ||४१८||
आणि आकाशें जेथें जेथुनी| जाइजे तेथ असे भरोनी| म्हणौनि ठेलें कोंदोनी| आपेंआप ||४१९||
तैसें जें तेणें करावें| तो तेंचि आहे स्वभावें| मा कोणें कर्मीं वेष्टावें| कर्तेपणें ? ||४२०||
नुरेचि गगनावीण ठावो| नोहेचि समुद्रा प्रवाहो| नुठीचि ध्रुवा जावों| तैसें जाहालें ||४२१||
ऐसेनि अहंकृतिभावो| जयाचा बोधीं जाहला वावो| तऱ्ही देहा जंव निर्वाहो| तंव आथी कर्में ||४२२||
वारा जरी वाजोनि वोसरे| तरी तो डोल रुखीं उरे| कां सेंदें द्रुति राहे कापुरें| वेंचलेनी ||४२३||
कां सरलेया गीताचा समारंभु| न वचे राहवलेपणाचा क्षोभु| भूमी लोळोनि गेलिया अंबु| वोल थारे ||४२४||
अगा मावळलेनि अर्कें| संध्येचिये भूमिके| ज्योतिदीप्ति कौतुकें| दिसे जैसी ||४२५||
पैं लक्ष भेदिलियाहीवरी| बाण धांवेचि तंववरी| जंव भरली आथी उरी| बळाची ते ||४२६||
नाना चक्रीं भांडें जालें| तें कुलालें परतें नेलें| परी भ्रमेंचि तें मागिले| भोवंडिलेपणें ||४२७||
तैसा देहाभिमानु गेलिया| देह जेणें स्वभावें धनंजया. जालें तें अपैसया| चेष्टवीच तें ||४२८||
संकल्पेंवीण स्वप्न| न लावितां दांगीचें बन| न रचितां गंधर्वभुवन| उठी जैसें ||४२९||
आत्मयाचेनि उद्यमेंवीण| तैसें देहादिपंचकारण| होय आपणयां आपण| क्रियाजात ||४३०||
पैं प्राचीनसंस्कारवशें| पांचही कारणें सहेतुकें| कामवीजती गा अनेकें| कर्माकारें ||४३१||
तया कर्मामाजीं मग| संहरो आघवें जग| अथवा नवें चांग| अनुकरो ||४३२||
परी कुमुद कैसेनि सुके| कैसें तें कमळ फांके| हीं दोन्ही रवी न देखे| जयापरी ||४३३||
कां वीजु वर्षोनि आभाळ| ठिकरिया आतो भूतळ| अथवा करूं शाड्वळ| प्रसन्नावृष्टी ||४३४||
तरी तया दोहींतें जैसें| नेणिजेचि कां आकाशें| तैसा देहींच जो असे | विदेहदृष्टी ||४३५||
तो देहादिकीं चेष्टीं| घडतां मोडतां हे सृष्टी| न देखे स्वप्न दृष्टी| चेइला जैसा ||४३६||
येऱ्हवीं चामाचे डोळेवरी| जे देखती देहचिवरी| ते कीर तो व्यापारी| ऐसेंचि मानिती ||४३७||
कां तृणाचा बाहुला| जो आगरामेरें ठेविला| तो साचचि राखता कोल्हा| मानिजे ना ? ||४३८||
पिसेंं नेसलें कां नागवें| हें लोकीं येऊनि जाणावें| ठाणोरियांचें मवावें| आणिकीं घाय ||४३९||
कां महासतीचे भोग| देखे कीर सकळ जग| परी ते आगी ना आंग| ना लोकु देखे ||४४०||
तैसा स्वस्वरूपें उठिला| जो दृश्येंसी द्रष्टा आटला| तो नेणें काय राहटला| इंद्रियग्रामु ||४४१||
अगा थोरीं कल्लोळीं कल्लोळ साने| लोपतां तिरींचेनि जनें| एकीं एक गिळिलें हें मनें| मानिजे जऱ्ही ||४४२||
तऱ्ही उदकाप्रति पाहीं| कोण ग्रसितसे काई| तैसें पूर्णा दुजें नाहीं| जें तो मारी ||४४३||
सुवर्णाचिया चंडिका| सुवर्णशूळेंचि देखा| सुवर्णाचिया महिखा| नाशु केला ||४४४||
तो देवलवसिया कडा| व्यवहारु गमला फुडा| वांचूनि शूळ महिष चामुंडा| सुवर्णचि तें ||४४५||
पैं चित्रींचें जळ हुतांशु| तो दृष्टीचाचि आभासु| पटीं आगी वोलांशु| दोन्ही नाहीं ||४४६||
मुक्ताचें देह तैसें | हालत संस्कारवशें | तें देखोनि लोक पिसे | कर्ता म्हणती ||४४७||
आणि तयां करणेया आंतु| घडो तिहीं लोकां घातु| परी तेणें केला हे मातु| बोलों नये ||४४८||
अगा अंधारुचि देखावा तेजें| मग तो फेडी हें बोलिजे| | तैसें ज्ञानिया नाहीं दुजें| जें तो मारी ||४४९||
म्हणौनि तयाचि बुद्धी| नेणे पापपुण्याची गंधी| गंगा मीनलिया नदी| विटाळु जैसा ||४५०||
आगीसी आगी झगटलिया| काय पोळे धनंजया| | कीं शस्त्र रुपे आपणया| आपणचि ||४५१||
तैसें आपणपयापरतें| जो नेणें क्रियाजातातें| तेथ काय लिंपवी बुद्धीतें| तयाचिये ||४५२||
म्हणौनि कार्य कर्ता क्रिया| हें स्वरूपचि जाहलें जया| नाहीं शरीरादिकीं तया| कर्मी बंधु ||४५३||
जे कर्ता जीव विंदाणीं| काढूनि पांचही खाणी| घडित आहे करणीं| आउतीं दाहें ||४५४||
तेथ न्यावो आणि अन्यावो| हा द्विविधु साधूनि आवो| उभविता न लवी खेंवो| कर्मभुवनें ||४५५||
या थोराडा कीर कामा| विरजा नोहे आत्मा| परी म्हणसी हन उपक्रमा| हातु लावी ||४५६||
तो साक्षी चिद्रूपु| कर्मप्रवृत्तीचा संकल्पु| उठी तो कां निरोपु| आपणचि दे ? ||४५७||
तरी कर्मप्रवृत्तीहीलागीं| तया आयासु नाहीं आंगीं| जे प्रवृत्तीचेही उळिगीं| लोकुचि आथी ||४५८||
म्हणौनि आत्मयाचें केवळ| जो रूपचि जाहला निखिळ| तया नाहीं बंदिशाळ| कर्माचि हे ||४५९||
परी अज्ञानाच्या पटीं| अन्यथा ज्ञानाचें चित्र उठी| तेथ चितारणी हे त्रिपुटी| प्रसिद्ध जे कां ||४६०||

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ||१८||

जें ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय| हें जगाचें बीज त्रय| ते कर्माची निःसंदेह| प्रवृत्ति जाण ||४६१||
आतां ययाचि गा त्रया| व्यक्ति वेगळालिया| आइकें धनंजया| करूं रूप ||४६२||
तरी जीवसूर्यबिंबाचे| रश्मी श्रोत्रादिकें पांचें| धांवोनि विषयपद्माचे| फोडिती मढ ||४६३||
कीं जीवनृपाचे वारु उपलाणें| घेऊनि इंद्रियांचीं केकाणें| विषयदेशींचें नागवणें| आणीत जे ||४६४||
हें असो इहीं इंद्रियीं राहाटे| जें सुखदुःखेंसीं जीवा भेटे| तें सुषुप्तिकालीं वोहटे| जेथ ज्ञान ||४६५||
तया जीवा नांव ज्ञाता| आणि जें हें सांगितलें आतां| तेंचि एथ पंडुसुता| ज्ञान जाण ||४६६||
जें अविद्येचिये पोटीं| उपजतखेंवो किरीटी| आपणयातें वांटी| तिहीं ठायीं ||४६७||
आपुलिये धांवे पुढां| घालूनि ज्ञेयाचा गुंडा| उभारी मागिलीकडां| ज्ञातृत्वातें ||४६८||
मग ज्ञातया ज्ञेया दोघां| तो नांदणुकेचा बगा| माजीं जालेनि पैं गा| वाहे जेणें ||४६९||
ठाकूनि ज्ञेयाची शिंव| पुरे जयाची धांव| सकळ पदार्थां नांव| सूतसे जें ||४७०||
तें गा सामान्य ज्ञान| या बोअला नाहीं आन| ज्ञेयाचेंही चिन्ह| आइक आतां ||४७१||
तरी शब्दु स्पर्शु| रूप गंध रसु| हा पंचविध आभासु| ज्ञेयाचा तो ||४७२||
जैसें एकेचि चूतफळें| इंद्रियां वेगवेगळे| रसें वर्णें परीमळें| भेटिजे स्पर्शें ||४७३||
तैसें ज्ञेय तरी एकसरें| परी ज्ञान इंद्रियद्वारें| घे म्हणौनि प्रकारें| पांचें जालें ||४७४||
आणि समुद्रीं वोघाचें जाणें| सरे लाणीपासीं धावणें| कां फळीं सरे वाढणें| सस्याचें जेवीं ||४७५||
तैसें इंद्रियांच्या वाहवटीं| धांवतया ज्ञाना जेथ ठी| होय तें गा किरीटी| विषय ज्ञेय ||४७६||
एवं ज्ञातया ज्ञाना ज्ञेया| तिहीं रूप केलें धनंजया| हे त्रिविध सर्व क्रिया- | प्रवृत्ति जाण ||४७७||
जे शब्दादि विषय| हें पंचविध जें ज्ञेय| तेंचि प्रिय कां अप्रिय| एकेपरीचें ||४७८||
ज्ञान मोटकें ज्ञातया| दावी ना जंव धनंजया| तंव स्वीकारा कीं त्यजावया| प्रवर्तेचि तो ||४७९||
परी मीनातें देखोनि बकु| जैसा निधानातें रंकु| कां स्त्री देखोनि कामुकु| प्रवृत्ति धरी ||४८०||
जैसें खालारां धांवे पाणी| भ्रमर पुष्पाचिये घाणीं| नाना सुटला सांजवणीं| वत्सुचि पां ||४८१||
अगा स्वर्गींची उर्वशी | ऐकोनि जेंवी माणुसीं| वराता लावीजती आकाशीं| यागांचिया ||४८२||
पैं पारिवा जैसा किरीटी| चढला नभाचिये पोटीं| पारवी देखोनि लोटी| आंगचि सगळें ||४८३||
हें ना घनगर्जनासरिसा| मयूर वोवांडे आकाशा| ज्ञाता ज्ञेय देखोनि तैसा| धांवचि घे ||४८४||
म्हणौनि ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता| हे त्रिविध गा पंडुसुता| होयचि कर्मा समस्तां| प्रवृत्ति येथ ||४८५||
परी तेंचि ज्ञेय विपायें| जरी ज्ञातयातें प्रिय होये| तरी भोगावया न साहे| क्षणही विलंबु ||४८६||
नातरी अवचटें| तेंचि विरुद्ध होऊनि भेटे| तरी युगांत वाटे| सांडावया ||४८७||
व्याळा कां हारा| वरपडा जालेया नरा| हरिखु आणि दरारा| सरिसाचि उठी ||४८८||
तैसें ज्ञेय प्रियाप्रियें| देखिलेनि ज्ञातया होये| मग त्याग स्वीकारीं वाहे| व्यापारातें ||४८९||
तेथ रागी प्रतिमल्लाचा| गोसांवी सर्वदळाचा| रथु सांडूनि पायांचा| होय जैसा ||४९०||
तैसें ज्ञातेपणें जें असे | तें ये कर्ता ऐसिये दशे| जेवितें बैसलें जैसें| रंधन करूं ||४९१||
कां भंवरेंचि केला मळा| वरकलुचि जाला अंकसाळा| नाना देवो रिगाला देऊळा- | चिया कामा ||४९२||
तैसा ज्ञेयाचिया हांवा| ज्ञाता इंद्रियांचा मेळावा| राहाटवी तेथ पांडवा| कर्ता होय ||४९३||
आणि आपण होउनी कर्ता| ज्ञाना आणी करणता| तेथें ज्ञेयचि स्वभावतां| कार्य होय ||४९४||
ऐसा ज्ञानाचिये निजगति| पालटु पडे गा सुमति| डोळ्याची शोभा रातीं| पालटे जैसी ||४९५||
कां अदृष्ट जालिया उदासु| पालटे श्रीमंताचा विलासु| पुनिवेपाठीं शीतांशु| पालटे जैसा ||४९६||
तैसा चाळितां करणें| ज्ञाता वेष्टिजे कर्तेपणें| तेथींचीं तियें लक्षणें| ऐक आतां ||४९७||
तरी बुद्धि आणि मन| चित्त अहंकार हन| हें चतुर्विध चिन्ह| अंतःकरणाचें ||४९८||
बाह्य त्वचा श्रवण| चक्षु रसना घ्राण| हें पंचविध जाण| इंद्रियें गा ||४९९||
तेथ आंतुले तंव करणें| कर्ता कर्तव्या घे उमाणें| मग तैं जरी जाणें| सुखा येतें ||५००||
तरी बाहेरीलें तियेंही| चक्षुरादिकें दाहाही| उठौनि लवलाहीं| व्यापारा सूये ||५०१||
मग तो इंद्रियकदंंबु| करविजे तंव राबु| जंव कर्तव्याचा लाभु| हातासि ये ||५०२||
ना तें कर्तव्य जरी दुःखें| फळेल ऐसें देखे| तो लावी त्यागमुखें| तियें दाहाही ||५०३||
मग फिटे दुःखाचा ठावो| तंव राहाटवी रात्रिदिवो| विकणवातें कां रावो| जयापरी ||५०४||
तैसेनि त्याग स्वीकारीं| वाहातां इंद्रियांची धुरी| ज्ञातयातें अवधारीं| कर्ता म्हणिपे ||५०५||
आणि कर्तयाच्या सर्व कर्मीं| आउतांचिया परी क्षमी| म्हणौनि इंद्रियांतें आम्ही| करणें म्हणों ||५०६||
आणि हेचि करणेंवरी| कर्ता क्रिया ज्या उभारी| तिया व्यापे तें अवधारीं| कर्म एथ ||५०७||
सोनाराचिया बुद्धि लेणें| व्यापे चंद्रकरीं चांदणें| कां व्यापे वेल्हाळपणें| वेली जैसी ||५०८||
नाना प्रभा व्यापे प्रकाशु| गोडिया इक्षुरसु| हें असो अवकाशु| आकाशीं जैसा ||५०९||
तैसें कर्तयाचिया क्रिया| व्यापलें जें धनंजया| तें कर्म गा बोलावया| आन नाहीं ||५१०||
एवं कर्म कर्ता करण | या तिहींचेंही लक्षण| सांगितलें तुज विचक्षण- | शिरोमणी ||५११||
एथ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय| हें कर्माचें प्रवृत्तित्रय| तैसेंचि कर्ता करण कार्य| हा कर्मसंचयो ||५१२||
वन्हीं ठेविला असे धूमु| आथी बीजीं जेवीं द्रुमु| कां मनीं जोडे कामु| सदा जैसा ||५१३||
तैसा कर्ता क्रिया करणीं| कर्माचें आहे जिंतवणीं| सोनें जैसें खाणी| सुवर्णाचिये ||५१४||
म्हणौनि हें कार्य मी कर्ता| ऐसें आथि जेथ पंडुसुता| तेथ आत्मा दूरी समस्ता| क्रियांपासीं ||५१५||
यालागीं पुढतपुढती| आत्मा वेगळाचि सुमती| आतां असो हे किती| जाणतासि तूं ||५१६||

ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः |
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ||१९||

परी सांगितलें जें ज्ञान| कर्म कर्ता हन| ते तिन्ही तिहीं ठायीं भिन्न| गुणीं आहाती ||५१७||
म्हणौनि ज्ञाना कर्मा कर्तया| पातेजों नये धनंजया| जे दोनी बांधती सोडावया| एकचि प्रौढ ||५१८||
तें सात्विक ठाऊवें होये| तो गुणभेदु सांगों पाहे| जो सांख्यशास्त्रीं आहे| उवाइला ||५१९||
जें विचारक्षीरसमुद्र| स्वबोधकुमुदिनीचंद्र| ज्ञानडोळसां नरेंद्र| शास्त्रांचा जें ||५२०||
कीं प्रकृतिपुरुष दोनी| मिसळलीं दिवोरजनीं| तियें निवडितां त्रिभुवनीं| मार्तंडु जें ||५२१||
जेथ अपारा मोहराशी| तत्वाच्या मापीं चोविसीं| उगाणा घेऊनि परेशीं| सुरवाडिजे ||५२२||
अर्जुना तें सांख्यशास्त्र| पढे जयाचें स्तोत्र| तें गुणभेदचरित्र| ऐसें आहे ||५२३||
जे आपुलेनि आंगिकें| त्रिविधपणाचेनि अंकें| दृश्यजात तितुकें| अंकित केलें ||५२४||
एवं सत्वरजतमा| तिहींची एवढी असे महिमा| जें त्रैविध्य आदी ब्रह्मा| अंतीं कृमी ||५२५||
परी विश्वींची आघवी मांदी| जेणें भेदलेनि गुणभेदीं| पडिली तें तंव आदी| ज्ञान सांगो ||५२६||
जे दिठी जरी चोख कीजे| तरी भलतेंही चोख सुजे| तैसें ज्ञानें शुद्धें लाहिजे| सर्वही शुद्ध ||५२७||
म्हणौनि तें सात्विक ज्ञान| आतां सांगों दे अवधान| कैवल्यगुणनिधान| श्रीकृष्ण म्हणे ||५२८||

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ||२०||

तरी अर्जुना गा तें फुडें| सात्विक ज्ञान चोखडें| जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे| ज्ञातेनिसीं ||५२९||
जैसा सूर्य न देखे अंधारें| सरिता नेणिजती सागरें| कां कवळिलिया न धरे| आत्मछाया ||५३०||
तयापरी जया ज्ञाना| शिवादि तृणावसाना| इया भूतव्यक्ति भिन्ना| नाडळती ||५३१||
जैसें हातें चित्र पाहातां| होय पाणियें मीठ धुतां| कां चेवोनि स्वप्ना येतां| जैसें होय ||५३२||
तैसें ज्ञानें जेणें| करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें| जाणता ना जाणणें| जाणावें उरे ||५३३||
पैं सोनें आटूनि लेणीं| न काढिती आपुलिया आयणी| कां तरंग न घेपती पाणी| गाळूनि जैसें ||५३४||
तैसी जया ज्ञानाचिया हाता| न लगेचि दृश्यपथा| तें ज्ञान जाण सर्वथा| सात्विक गा ||५३५||
आरिसा पाहों जातां कोडें| जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें| तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे| ज्ञाताचि जें ||५३६||
पुढती तेंचि सात्विक ज्ञान| जें मोक्षलक्ष्मीचें भुवन| हें असो ऐक चिन्ह| राजसाचें ||५३७||

पृथक्त्वेन तु यज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ञानं विद्धि राजसम् ||२१||

तरी पार्था परीयेस| तें ज्ञान गा राजस| जें भेदाची कांस| धरूनि चाले ||५३८||
विचित्रता भूतांचिया| आपण आंतोनि ठिकरिया| बहु चकै ज्ञातया| आणिली जेणें ||५३९||
जैसें साचा रूपाआड| घालूनि विसराचें कवाड| मग स्वप्नाचें काबाड| ओपी निद्रा ||५४०||
तैसें स्वज्ञानाचिये पौळी| बाहेरि मिथ्या महीं खळीं| तिहीं अवस्थांचिया वह्याळी| दावी जें जीवा ||५४१||
अलंकारपणें झांकलें| बाळा सोनें कां वायां गेलें| तैसें नामीं रूपीं दुरावलें| अद्वैत जया ||५४२||
अवतरली गाडग्यां घडां| पृथ्वी अनोळख जाली मूढां| वन्हि जाला कानडा| दीपत्वासाठीं ||५४३||
कां वस्त्रपणाचेनि आरोपें| मूर्खाप्रति तंतु हारपे| नाना मुग्धा पटु लोपे| दाऊनि चित्र ||५४४||
तैशी जया ज्ञाना| जाणोनि भूतव्यक्ती भिन्ना| ऐक्यबोधाची भावना| निमोनि गेली ||५४५||
मग इंधनीं भेदला अनळु| फुलांवरी परीमळु| कां जळभेदें शकलु| चंद्रु जैसा ||५४६||
तैसें पदार्थभेद बहुवस| जाणोनि लहानथोर वेष| आंतलें तें राजस| ज्ञान येथ ||५४७||
आतां तामसाचेंही लिंग| सांगेन तें वोळख चांग| डावलावया मातंग- | सदन जैसें ||५४८||

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् |
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ||२२||

तरी किरीटी जें ज्ञान| हिंडे विधीचेनि वस्त्रेंहीन| श्रुति पाठमोरी नग्न| म्हणौनि तया ||५४९||
येरींही शास्त्र बटिकरीं| जें निंदेचे विटाळवरी| बोळविलेंसे डोंगरीं| म्लेंच्छधर्माच्या ||५५०||
जें गा ज्ञान ऐसें| गुणग्रहें तामसें| घेतलें भवें पिसें| होऊनियां ||५५१||
जें सोयरिकें बाधु नेणें| पदार्थीं निषेधु न म्हणे| निरोविलें जैसें सुणें | शून्यग्रामीं ||५५२||
तया तोंडीं जें नाडळे| कां खातां जेणें पोळे| तेंचि येक वाळे| येर घेणेचि ||५५३||
पैं सोनें चोरितां उंदिरु| न म्हणे थरुविथरु| नेणे मांसखाइरु| काळें गोरें ||५५४||
नाना वनामाजीं बोहरी| कडसणी जेवीं न करी| कां जीत मेलें न विचारी| बैसतां माशी ||५५५||
अगा वांता कां वाढिलेया| साजुक कां सडलिया| विवेकु कावळिया| नाहीं जैसा ||५५६||
तैसें निषिद्ध सांडूनि द्यावें| कां विहित आदरें घ्यावें| हें विषयांचेनि नांवें. नेणेंचि जें ||५५७||
जेतुलें आड पडे दिठी| तेतुलें घेचि विषयासाठीं| मग तें स्त्री- द्रव्य वाटी | शिश्नोदरां ||५५८||
तीर्थातीर्थ हे भाख| उदकीं नाहीं सनोळख| तृषा वोळे तेंचि सुख| वांचूनियां ||५५९||
तयाचिपरी खाद्याखाद्य| न म्हणे निंद्यानिंद्य| तोंडा आवडे तें मेध्य| ऐसाचि बोधु ||५६०||
आणि स्त्रीजात तितुकें| त्वचेंद्रियेंचि वोळखे| तियेविषयीं सोयरिकें| एकचि बोधु ||५६१||
पैं स्वार्थीं जें उपकरे| तयाचि नाम सोयिरें| देहसंबंधु न सरे| जिये ज्ञानीं ||५६२||
मृत्यूचें आघवेंचि अन्न| आघवेंचि आगी इंधन| तैसें जगचि आपलें धन| तामसज्ञाना ||५६३||
ऐसेनि विश्व सकळ| जेणें विषयोचि मानिलें केवळ| तया एक जाण फळ| देहभरण ||५६४||
आकाशपतिता नीरा| जैसा सिंधुचि येक थारा| तैसें कृत्यजात उदरा- | लागिंचि बुझे ||५६५||
वांचूनि स्वर्गु नरकु आथी| तया हेतु प्रवृत्ति निवृत्ती| इये आघवियेचि राती| जाणिवेची जें ||५६६||
जें देहखंडा नाम आत्मा| ईश्वर पाषाणप्रतिमा| ययापरौती प्रमा| ढळों नेणें ||५६७||
म्हणे पडिलेनि शरीरें| केलेनिसीं आत्मा सरे| मा भोगावया उरे| कोण वेषें ||५६८||
ना ईश्वरु पाहातां आहे| तो भोगवी हें जरी होये| तरी देवचि खाये| विकूनियां ||५६९||
गांवींचें देवळेश्वर| नियामकचि होती साचार| तरी देशींचे डोंगर| उगे कां असती ? ||५७०||
ऐसा विपायें देवो मानिजे| तरी पाषाणमात्रचि जाणिजे| आणि आत्मा तंव म्हणिजे| देहातेंचि ||५७१||
येरें पापपुण्यादिकें| तें आघवेंचि करोनि लटिकें| हित मानी अग्निमुखे| चरणें जें कां ||५७२||
जें चामाचे डोळे दाविती| जें इंद्रियें गोडी लाविती| तेंचि साच हे प्रतीती| फुडी जया ||५७३||
किंबहुना ऐसी प्रथा| वाढती देखसी पार्था| धूमाची वेली वृथा| आकाशीं जैसी ||५७४||
कोरडा ना वोला| उपेगा आथी गेला| तो वाढोनि मोडला| भेंडु जैसा ||५७५||
नाना उंसांचीं कणसें| कां नपुंसकें माणुसें| वन लागलें जैसें| साबरीचें ||५७६||
नातरी बाळकाचें मन| कां चोराघरींचें धन| अथवा गळास्तन| शेळियेचे ||५७७||
तैसें जें वायाणें| वोसाळ दिसे जाणणें| तयातें मी म्हणें| तामस ज्ञान ||५७८||
तेंही ज्ञान इया भाषा| बोलिजे तो भावो ऐसा| जात्यंधाचा कां जैसा| डोळा वाडु ||५७९||
कां बधिराचे नीट कान| अपेया नाम पान| तैसें आडनांव ज्ञान| तामसा तया ||५८०||
हें असो किती बोलावें| तरी ऐसें जें देखावें| तें ज्ञान नोहे जाणावें| डोळस तम ||५८१||
एवं तिहीं गुणीं| भेदलें यथालक्षणीं| ज्ञान श्रोतेशिरोमणी| दाविलें तुज ||५८२||
आतां याचि त्रिप्रकारा| ज्ञानाचेनि धनुर्धरा| प्रकाशें होती गोचरा| कर्तयांच्या क्रिया ||५८३||
म्हणौनि कर्म पैं गा| अनुसरे तिहीं भागां| मोहरे जालिया वोघा| तोय जैसे ||५८४||
तेंचि ज्ञानत्रयवशें| त्रिविध कर्म जें असे | तेथ सात्विक तंव ऐसें| परीसे आधीं ||५८५||

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ||२३||

तरी स्वाधिकाराचेनि मार्गेंं| आलें जें मानिलें आंगें| पतिव्रतेचेनि परीष्वंगें| प्रियातें जैसें ||५८६||
सांवळ्या आंगा चंदन| प्रमदालोचनीं अंजन| तैसें अधिकारासी मंडण| नित्यपणें जें ||५८७||
तें नित्य कर्म भलें| होय नैमित्तिकीं सावाइलें| सोनयासि जोडलें| सौरभ्य जैसें ||५८८||
आणि आंगा जीवाची संपत्ती| वेंचूनि बाळाची करी पाळती| परी जीवें उबगणें हें स्थिती| न पाहे माय ||५८९||
तैसें सर्वस्वें कर्म अनुष्ठी| परी फळ न सूये दिठी| उखिती क्रिया पैठी| ब्रह्मींचि करी ||५९०||
आणि प्रिय आलिया स्वभावें| शंबळ उरे वेंचे ठाउवें | नव्हे तैसें सत्प्रसंगें करावें| पारुषे जरी ||५९१||
तरी अकरणाचेनि खेदें| द्वेषातें जीवीं न बांधे| जालियाचेनि आनंदें| फुंजों नेणें ||५९२||
ऐसाइसिया हातवटिया| कर्म निफजे जें धनंजया| जाण सात्विक हें तया| गुणनाम गा ||५९३||
ययावरी राजसाचें| लक्षण सांगिजेल साचें| न करीं अवधानाचें| वाणेंपण ||५९४||

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ||२४||

तरी घरीं मातापितरां| धड बोली नाहीं संसारा| येर विश्व भरी आदरा| मूर्खु जैसा ||५९५||
का तुळशीचिया झाडा| दुरूनि न घापें सिंतोडा| द्राक्षीचिया तरी बुडा| दूधचि लाविजे ||५९६||
तैसी नित्यनैमित्तिकें| कर्में जियें आवश्यकें| तयांचेविषयीं न शके| बैसला उठूं ||५९७||
येरां काम्याचेनि तरी नांवें| देह सर्वस्व आघवें| वेचितांही न मनवे| बहु ऐसें ||५९८||
अगा देवढी वाढी लाहिजे| तेथ मोल देतां न धाइजे| पेरितां पुरें न म्हणिजे| बीज जेवीं ||५९९||
कां परीसु आलिया हातीं| लोहालागीं सर्वसंपत्ती| वेचितां ये उन्नती| साधकु जैसा ||६००||
तैसीं फळें देखोनि पुढें| काम्यकर्में दुवाडें| करी परी तें थोकडें| केलेंही मानी ||६०१||
तेणें फळकामुकें| यथाविधी नेटकें | काम्य कीजे तितुकें| क्रियाजात ||६०२||
आणि तयाही केलियाचें| तोंडीं लावी दौंडीचें| कर्मी या नांवपाटाचें| वाणें सारी ||६०३||
तैसा भरे कर्माहंकारु| मग पिता अथवा गुरु| ते न मनी काळज्वरु| औषध जैसें ||६०४||
तैसेनि साहंकारें| फळाभिलाषियें नरें| कीजे गा आदरें| जें जें कांहीं ||६०५||
परी तेंही करणें बहुवसा| वळघोनि करी सायासा| जीवनोपावो कां जैसा| कोल्हाटियांचा ||६०६||
एका कणालागींँ उंदिरु| आसका उपसे डोंगरु| कां शेवाळोद्देशें दर्दुरु| समुद्रु डहुळी ||६०७||
पैं भिकेपरतें न लाहे| तऱ्ही गारुडी सापु वाहे| काय कीजे शीणुचि होये| गोडु येकां ||६०८||
हे असो परमाणूचेनि लाभें| पाताळ लंघिती वोळंबे| तैसें स्वर्गसुखलोभें| विचंबणें जें ||६०९||
तें काम्य कर्म सक्लेश| जाणावें येथ राजस| आतां चिन्ह परिस| तामसाचें ||६१०||

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ||२५||

तरी तें गा तामस कर्म| जें निंदेचें काळें धाम| निषेधाचें जन्म| सांच जेणें ||६११||
जें निपजविल्यापाठींं| कांहींच न दिसे दिठी| रेघ काढलिया पोटीं| तोयाचे जेवीं ||६१२||
कां कांजी घुसळलिया| कां राखोंडी फुंकलिया| कांहीं न दिसे गाळिलिया| वाळुघाणा ||६१३||
नाना उपणिलिया भूंस| कां विंधिलिया आकाश| नाना मांडिलिया पाश| वारयासी ||६१४||
हें आवघेंचि जैसें| वांझें होऊनि नासे| जें केलिया पाठीं तैसें| वायांचि जाय ||६१५||
येऱ्हवीं नरदेहाही येवढें| धन आटणीये पडे| जें कर्म निफजवितां मोडे| जगाचें सुख ||६१६||
जैसा कमळवनीं फांसु| काढिलिया कांटसु| आपण झिजे नाशु| कमळां करी ||६१७||
कां आपण आंगें जळे| आणि नागवी जगाचे डोळे| पतंगु जैसा सळें| दीपाचेनि ||६१८||
तैसें सर्वस्व वायां जावो| वरी देहाही होय घावो| परी पुढिलां अपावो| निफजविजे जेणें ||६१९||
माशी आपणयातें गिळवी| परी पुढीला वांती शिणवी| तें कश्मळ आठवी| आचरण जें ||६२०||
तेंही करावयो दोषें| मज सामर्थ्य असे कीं नसे | हेंहीं पुढील तैसें| न पाहतां करी ||६२१||
केवढा माझा उपावो| करितां कोण प्रस्तावो| केलियाही आवो| काय येथ ||६२२||
इये जाणिवेची सोये| अविवेकाचेनि पायें| पुसोनियां होये| साटोप कर्मीं ||६२३||
आपला वसौटा जाळुनी| बिसाटे जैसा वन्ही| कां स्वमर्यादा गिळोनि| सिंधु उठी ||६२४||
मग नेणें बहु थोडें| न पाहे मागें पुढें| मार्गामार्ग येकवढें| करीत चाले ||६२५||
तैसें कृत्याकृत्य सरकटित| आपपर नुरवित| कर्म होय तें निश्चित| तामस जाण ||६२६||
ऐसी गुणत्रयभिन्ना| कर्माची गा अर्जुना| हे केली विवंचना| उपपत्तींसीं ||६२७||
आतां ययाचि कर्मा भजतां| कर्माभिमानिया कर्ता| तो जीवुही त्रिविधता| पातला असे ||६२८||
चतुराश्रमवशें| एकु पुरुषु चतुर्धा दिसे| कर्तया त्रैविध्य तैसें| कर्मभेदें ||६२९||
तरी तयां तिहीं आंतु| सात्विक तंव प्रस्तुतु| सांगेन दत्तचित्तु| आकर्णीं तूं ||६३०||

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ||२६||

तरी फळोद्देशें सांडिलिया| वाढती जेवीं सरळिया| शाखा कां चंदनाचिया| बावन्नया ||६३१||
कां न फळतांही सार्थका| जैसिया नागलतिका| तैसिया करी नित्यादिकां| क्रिया जो कां ||६३२||
परी फळशून्यता| नाहीं तया विफळता| पैं फळासीचि पंडुसुता| फळें कायिसी ||६३३||
आणि आदरें करी बहुवसें| परी कर्ता मी हें नुमसे| वर्षाकाळींचें जैसें| मेघवृंद ||६३४||
तेवींचि परमात्मलिंगा| समर्पावयाजोगा| कर्मकलापु पैं गा| निपजावया ||६३५||
तया काळातें नुलंघणें| देशशुद्धिही साधणें| कां शास्त्रांच्या वातीं पाहणें| क्रियानिर्णयो ||६३६||
वृत्ति करणें येकवळा| चित्त जावों न देणें फळा| नियमांचिया सांखळा| वाहणें सदा ||६३७||
हा निरोधु साहावयालागीं| धैर्याचिया चांगचांगीं| चिंतवणी जिती आंगीं| वाहे जो कां ||६३८||
आणि आत्मयाचिये आवडी| कर्में करितां वरपडीं| देहसुखाचिये परवडीं| येवों न लाहे ||६३९||
आळसा निद्रा दुऱ्हावे| क्षुधा न बाणवे| सुरवाडु न पावे| आंगाचा ठावो ||६४०||
तंव अधिकाधिक| उत्साहो धरी आगळीक| सोनें जैसें पुटीं तुक| तुटलिया कसीं ||६४१||
जरी आवडी आथी साच| तरी जीवितही सलंच| आगीं घालितां रोमांच| देखिजती सतिये ||६४२||
मा आत्मया येवढीया प्रिया| वालभेला जो धनंजया| देहही सिदतां तया| काय खेदु होईल ? ||६४३||
म्हणौनि विषयसुरवाडु तुटे| जंव जंव देहबुद्धि आटे| तंव तंव आनंदु दुणवटे| कर्मीं जया ||६४४||
ऐसेनि जो कर्म करी| आणि कोणे एके अवसरीं| तें ठाके ऐसी परी| वाहे जरी ||६४५||
तरी कडाडीं लोटला गाडा| तो आपणपें न मनी अवघडा| तैसा ठाकलेनिही थोडा| नोहे जो कां ||६४६||
नातरी आदरिलें| अव्यंग सिद्धी गेलें| तरी तेंही जिंतिलें| मिरवूं नेणें ||६४७||
इया खुणा कर्म करितां| देखिजे जो पंडुसुता| तयातें म्हणिपे तत्त्वतां| सात्विकु कर्ता ||६४८||
आतां राजसा कर्तेया| वोळखणें हें धनंजया| जे अभिलाषा जगाचिया. वसौटा तो ||६४९||

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः |
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ||२७||

जैसा गावींचिया कश्मळा| उकरडा होय येकवळा| कां स्मशानीं अमंगळा| आघवयांची ||६५०||
तया परी जो अशेषा| विश्वाचिया अभिलाषा| पायपाखाळणिया दोषां| घरटा जाला ||६५१||
म्हणौनि फळाचा लागु| देखे जिये असलगु| तिये कर्मीं चांगु| रोहो मांडी ||६५२||
आणि आपण जालिये जोडी| उपखों नेदी कवडी| क्षणक्षणा कुरोंडी| जीवाची करी ||६५३||
कृपणु चित्तीं ठेवा आपुला| तैसा दक्षु पराविया माला| बकु जैसा खुतला| मासेयासी ||६५४||
आणि गोंवी गेलिया जवळी| झगटलिया अंग फाळी| फळें तरी आंतु पोळी| बोरांटी जैसी ||६५५||
तैसें मनें वाचा कायें| भलतया दुःख देतु जाये| स्वार्थु साधितां न पाहे| पराचें हित ||६५६||
तेवींचि आंगें कर्मीं| आचरणें नोहे क्षमी| न निघे मनोधर्मीं| अरोचकु ||६५७||
कनकाचिया फळा| आंतु माज बाहेरी मौळा| तैसा सबाह्य दुबळा| शुचित्वें जो ||६५८||
आणि कर्मजात केलिया| फळ लाहे जरी धनंजया| तरी हरिखें जगा यया| वांकुलिया वाये ||६५९||
अथवा जें आदरिलें| हीनफळ होय केलें| तरीं शोकें तेणें जिंतिलें| धिक्कारों लागे ||६६०||
कर्मीं राहाटी ऐसी| जयातें होती देखसी| तोचि जाण त्रिशुद्धीसी| राजस कर्ता ||६६१||
आतां यया पाठीं येरु| जो कुकर्माचा आगरु| तोही करूं गोचरु| तामस कर्ता ||६६२||

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः |
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ||२८||

तरी मियां लागलिया कैसें| पुढील जळत असे | हें नेणिजे हुताशें | जियापरी ||६६३||
पैं शस्त्रें मियां तिखटें | नेणिजे कैसेनि निवटे| कां नेणिजे काळकूटें| आपुलें केलें ||६६४||
तैसा पुढीलया आपुलया| घातु करीत धनंजया| आदरी वोखटिया| क्रिया जो कां ||६६५||
तिया करितांही वेळीं| काय जालें हें न सांभाळी| चळला वायु वाहटुळी| चेष्टे तैसा ||६६६||
पैं करणिया आणि जया| मेळु नाहीं धनंजया| तो पाहुनी पिसेया| कैंचीं त्राय ? ||६६७||
आणि इंद्रियांचें वोगरिलें| चरोनि राखे जो जियालें| बैलातळीं लागलें| गोचिड जैसें ||६६८||
हांसया रुदना वेळु| नेणतां आदरी बाळु| राहाटे उच्छृंखळु| तयापरी ||६६९||
जो प्रकृती आंतलेपणें| कृत्याकृत्यस्वादु नेणे| फुगे केरें धालेपणें| उकरडा जैसा ||६७०||
म्हणौनि मान्याचेनि नांवें| ईश्वराही परी न खालवे| स्तब्धपणें न मनवे| डोंगरासी ||६७१||
आणि मन जयाचें विषकल्लोळीं| राहाटी फुडी चोरिली| दिठी कीर ते वोली| पण्यांगनेची ||६७२||
किंबहुना कपटाचें| देहचि वळिलें तयाचें| तें जिणें कीं जुंवाराचें| टिटेघर ||६७३||
नोहे तयाचा प्रादुर्भावो| तो साभिलाष भिल्लांचा गांवो| म्हणौनि नये येवों जावों| तया वाटा ||६७४||
आणि आणिकांचें निकें केलें| विरु होय जया आलें| जैसें अपेय पया मिनलें| लवण करी ||६७५||
कां हींव ऐसा पदार्थु| घातलिया आगीआंतु| तेचि क्षणीं धडाडितु| अग्नि होय ||६७६||
नाना सुद्रव्यें गोमटीं| जालिया शरीरीं पैठीं| होऊनि ठाती किरीटी| मळुचि जेवीं ||६७७||
तैसें पुढिलाचें बरवें| जयाच्या भीतरीं पावे| आणि विरुद्धचि आघवें| होऊनि निगे ||६७८||
जो गुण घे दे दोख| अमृताचें करी विख| दूध पाजलिया देख| व्याळु जैसा ||६७९||
आणि ऐहिकीं जियावें| जेणें परत्रा साच यावें| तें उचित कृत्य पावे| अवसरीं जिये ||६८०||
तेव्हां जया आपैसी| निद्रा ये ठेविली ऐसी| दुर्व्यवहारीं जैसी| विटाळें लोटे ||६८१||
पैं द्राक्षरसा आम्ररसा| वेळे तोंड सडे वायसा| कां डोळे फुटती दिवसा| डुडुळाचे ||६८२||
तैसा कल्याणकाळु पाहे| तैं तयातें आळसु खाये| ना प्रमादीं तरी होये| तो म्हणे तैसें ||६८३||
जेवींचि सागराच्या पोटीं| जळे अखंड आगिठी | तैसा विषादु वाहे गांठीं| जिवाचिये जो ||६८४||
लेंडोराआगीं धूमावधि| कां अपाना आंगीं दुर्गंधि| तैसा जो जीवितावधि| विषादें केला ||६८५||
आणि कल्पांताचिया पारा| वेगळेंही जो वीरा| सूत्र धरी व्यापारा| साभिलाषा ||६८६||
अगा जगाही परौती| शुचा वाहे पैं चित्तीं| करितां विषीं हातीं| तृणही न लगे ||६८७||
ऐसा जो लोकाआंतु| पापपुंजु मूर्तु| देखसी तो अव्याहतु| तामसु कर्ता ||६८८||
एवं कर्म कर्ता ज्ञान| या तिहींचें त्रिधा चिन्ह| दाविलें तुज सुजन| चक्रवर्ती ||६८९||

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु |
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ||२९||

आतां अविद्येचिया गांवीं| मोहाची वेढूनि मदवी| संदेहाचीं आघवीं| लेऊनि लेणीं ||६९०||
आत्मनिश्चयाची बरव| जया आरिसां पाहे सावयव| तिये बुद्धीचीही धांव| त्रिधा असे ||६९१||
अगा सत्वादि गुणीं इहीं| कायी एक तिहीं ठायीं| न कीजेचि येथ पाहीं| जगामाजीं ||६९२||
आगी न वसतां पोटीं| कवण काष्ठ असे सृष्टीं| तैसें तें कैंचें दृश्यकोटीं| त्रिविध जें नोहे ||६९३||
म्हणौनि तिहीं गुणीं| बुद्धी केली त्रिगुणी| धृतीसिही वांटणी| तैसीचि असे ||६९४||
तेंचि येक वेगळालें| यथा चिन्हीं अळंकारलें| सांगिजैल उपाइलें| भेदलेपणें ||६९५||
परी बुद्धि धृति इयां| दोहीं भागामाजीं धनंंजया| आधीं रूप बुद्धीचिया| भेदासि करूं ||६९६||
तरी उत्तमा मध्यमा निकृष्टा| संसारासि गा सुभटा| प्राणियां येतिया वाटा| तिनी आथी ||६९७||
जे अकरणीय काम्य निषिद्ध| ते हे मार्ग तिन्ही प्रसिद्ध| संसारभयें सबाध| जीवां ययां ||६९८||

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||३०||

म्हणौनि अधिकारें मानिलें| जें विधीचेनि वोघें आलें| तें एकचि येथ भलें| नित्य कर्म ||६९९||
तेंचि आत्मप्राप्ति फळ| दिठी सूनि केवळ| कीजे जैसें कां जळ| सेविजे ताहनें ||७००||
येतुलेनि तें कर्म| सांडी जन्मभय विषम| करूनि दे उगम| मोक्षसिद्धि ||७०१||
ऐसें करी तो भला| संसारभयें सांडिला| करणीयत्वें आला| मुमुक्षुभागा ||७०२||
तेथ जे बुद्धि ऐसा| बळिया बांधे भरंवसा| मोक्षु ठेविला ऐसा| जोडेल येथ ||७०३||
म्हणौनि निवृत्तीची मांडिली| सूनि प्रवृत्तितळीं| इये कर्मीं बुडकुळी| द्यावीं कीं ना ? ||७०४||
तृषार्ता उदकें जिणें| कां पुरीं पडलिया पोहणें| अंधकूपीं गति किरणें| सूर्याचेनि ||७०५||
नाना पथ्येंसीं औषध लाहे| तरी रोगें दाटलाही जिये| का मीना जिव्हाळा होये| जळाचा जरी ||७०६||
तरी तयाच्या जीविता| नाहीं जेवीं अन्यथा| तैसें कर्मीं इये वर्ततां| जोडेचि मोक्षु ||७०७||
हें करणीयाचिया कडे| जें ज्ञान आथी चोखडें| आणि अकरणीय हें फुडें| ऐसें जाण ||७०८||
जीं तिथें काम्यादिकें| संसारभयदायकें| अकृत्यपणाचें आंबुखें| पडिलें जयां ||७०९||
तिये कर्मीं अकार्यीं| जन्ममरणसमयीं| प्रवृत्ति पळवी पायीं| मागिलींचि ||७१०||
पैं आगीमाजीं न रिघवे| अथावीं न घालवे| धगधगीत नागवे| शूळ जेवीं ||७११||
कां काळियानाग धुंधुवातु| देखोनि न घालवे हातु| न वचवे खोपेआंतु| वाघाचिये ||७१२||
तैसें कर्म अकरणीय| देखोनि महाभय| उपजे निःसंदेह| बुद्धी जिये ||७१३||
वाढिलें रांधूनि विखें| तेथें जाणिजे मृत्यु न चुके| तेवीं निषेधीं कां देखे| बंधातें जे ||७१४||
मग बंधभयभरितीं| तियें निषिद्धीं प्राप्ती| विनियोगु जाणे निवृत्ती| कर्माचिये ||७१५||
ऐसेनि कार्याकार्यविवेकी| जे प्रवृत्ति निवृत्ति मापकी| खरा कुडा पारखी| जियापरी ||७१६||
तैसी कृत्याकृत्यशुद्धी| बुझे जे निरवधी| सात्विक म्हणिपे बुद्धी| तेचि तूं जाण ||७१७||

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ||३१||

आणि बकाच्या गांवीं| घेपे क्षीरनीर सकलवी| कां अहोरात्रींची गोंवी| आंधळें नेणे ||७१८||
जया फुलाचा मकरंदु फावे| तो काष्ठें कोरूं धांवे| परी भ्रमरपणा नव्हे| अव्हांटा जेवीं ||७१९||
तैसीं इयें कार्याकार्यें| धर्माधर्मरूपें जियें| तियें न चोजवितां जाये| जाणती जे कां ||७२०||
अगा डोळांवीण मोतियें| घेतां पाडु मिळे विपायें| न मिळणें तें आहे| ठेविलें तेथें ||७२१||
तैसें अकरणीय अवचटें| नोडवे तरीच लोटे| येऱ्हवीं जाणें एकवटें| दोन्ही जे कां ||७२२||
ते गा बुद्धि चोखविषीं| जाण येथ राजसी| अक्षत टाकिली जैसी| मांदियेवरी ||७२३||

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता |
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ||३२||

आणि राजा जिया वाटा जाये| ते चोरांसि आडव होये| कां राक्षसां दिवो पाहे| राती होऊनि ||७२४||
नाना निधानचि निदैवा| होये कोळसयाचा उडवा| पैं असतें आपणपें जीवा| नाहीं जालें ||७२५||
तैसें धर्मजात तितुकें| जिये बुद्धीसी पातकें| साच तें लटिकें| ऐसेंचि बुझे ||७२६||
ते आघवेचि अर्थ| करूनि घाली अनर्थ| गुण ते ते व्यवस्थित| दोषचि मानी ||७२७||
किंबहुना श्रुतिजातें| अधिष्ठूनि केलें सरतें| तेतुलेंही उपरतें| जाणे जे बुद्धी ||७२८||
ते कोणातेंही न पुसतां| तामसी जाणावी पंडुसुता| रात्री काय धर्मार्था| साच करावी ||७२९||
एवं बुद्धीचे भेद| तिन्ही तुज विशद| सांगितले स्वबोध- | कुमुदचंद्रा ||७३०||
आतां ययाचि बुद्धिवृत्ती| निष्टंकिला कर्मजातीं| खांदु मांडिजे धृती| त्रिविधा तया ||७३१||
तिये धृतीचेही विभाग| तिन्ही यथालिंग| सांगिजती चांग| अवधान देईं ||७३२||

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः |
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ||३३||

तरी उदेलिया दिनकरु| चोरीसिं थोके अंधारु| कां राजाज्ञा अव्यवहारु| कुंठवी जेवीं ||७३३||
नाना पवनाचा साटु| वाजीनलिया नीटु| आंगेंसीं बोभाटु| सांडिती मेघ ||७३४||
कां अगस्तीचेनि दर्शनें| सिंधु घेऊनि ठाती मौनें| चंद्रोदयीं कमळवनें| मिठी देती ||७३५||
हें असो पावो उचलिला| मदमुख न ठेविती खालां| गर्जोनि पुढां जाला| सिंहु जरी ||७३६||
तैसा जो धीरु| उठलिया अंतरु| मनादिकें व्यापारु| सांडिती उभीं ||७३७||
इंद्रियां विषयांचिया गांठी| अपैसया सुटती किरीटी| मन मायेच्या पोटीं| रिगती दाही ||७३८||
अधोर्ध्व गूढें काढी| प्राण नवांची पेंडी| बांधोनि घाली उडी| मध्यमेमाजीं ||७३९||
संकल्पविकल्पांचें लुगडे| सांडूनि मन उघडें| बुद्धि मागिलेकडे| उगीचि बैसे ||७४०||
ऐसी धैर्यराजें जेणें| मन प्राण करणें| स्वचेष्टांचीं संभाषणें| सांडविजती ||७४१||
मग आघवींचि सडीं| ध्यानाच्या आंतुल्या मढीं | कोंडिजती निरवडी| योगाचिये ||७४२||
परी परमात्मया चक्रवर्ती| उगाणिती जंव हातीं| तंव लांचु न घेतां धृती| धरिजती जिया ||७४३||
ते गा धृती येथें| सात्विक हें निरुतें| आईक अर्जुनातें| श्रीकांतु म्हणे ||७४४||

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन |
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ||३४||

आणि होऊनियां शरीरी| स्वर्गसंसाराच्या दोहीं घरीं| नांदे जो पोटभरी| त्रिवर्गोपायें ||७४५||
तो मनोरथांच्या सागरीं| धर्मार्थकामांच्या तारुवावरी| जेणें धैर्यबळें करी| क्रिया- वणिज ||७४६||
जें कर्म भांडवला सूये| तयाची चौगुणी येती पाहे| येवढें सायास साहे| जया धृती ||७४७||
ते गा धृती राजस| पार्था येथ परीयेस| आतां आइक तामस| तिसरी जे कां ||७४८||

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च |
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ||३५||

तरी सर्वाधमें गुणें| जयाचें कां रूपा येणें| कोळसा काळेपणें| घडला जैसा ||७४९||
अहो प्राकृत आणि हीनु| तयाही कीं गुणत्वाचा मानु| तरी न म्हणिजे पुण्यजनु| राक्षसु काई ? ||७५०||
पैं ग्रहांमाजीं इंगळु| तयातें म्हणिजे मंगळु| तैसा तमीं धसाळु| गुणशब्दु हा ||७५१||
जे सर्वदोषांचा वसौटा| तमचि कामऊनि सुभटा| उभारिला आंगवठा| जया नराचा ||७५२||
तो आळसु सूनि असे कांखे| म्हणौनि निद्रे कहीं न मुके| पापें पोषितां दुःखें| न सांडिजे जेवीं ||७५३||
आणि देहधनाचिया आवडी| सदा भय तयातें न सांडी| विसंबूं न सके धोंडीं| काठिण्य जैसें ||७५४||
आणि पदार्थजातीं स्नेहो| बांधे म्हणौनि तो शोकें ठावो| केला न शके पाप जावों| कृतघ्नौनि जैसें ||७५५||
आणि असंतोष जीवेंसीं| धरूनि ठेला अहर्निशीं| म्हणौनि मैत्री तेणेंसीं| विषादें केली ||७५६||
लसणातें न सांडी गंधी| कां अपथ्यशीळातें व्याधी| तैसी केली मरणावधी| विषादें तया ||७५७||
आणि वयसा वित्तकामु| ययांचा वाढवी संभ्रमु| म्हणौनि मदें आश्रमु| तोचि केला ||७५८||
आगीतें न सांडी तापु| सळातें जातीचा सापु| कां जगाचा वैरी वासिपु| अखंडु जैसा ||७५९||
नातरी शरीरातें काळु| न विसंबे कवणे वेळु| तैसा आथी अढळु| तामसीं मदु ||७६०||
एवं पांचही हे निद्रादिक| तामसाच्या ठाईं दोख| जिया धृती देख| धरिलें आहाती ||७६१||
तिये गा धृती नांवें| तामसी येथ हें जाणावें| म्हणितलें तेणें देवें| जगाचेनी ||७६२||
एवं त्रिविध जे बुद्धि| कीजे कर्मनिश्चयो आधि| तो धृती या सिद्धि| नेइजो येथ ||७६३||
सूर्यें मार्गु गोचरु होये| आणि तो चालती कीर पाये| परी चालणें तें आहे| धैर्यें जेवीं ||७६४||
तैसी बुद्धि कर्मातें दावी| ते करणसामग्री निफजवी| परी निफजावया होआवी| धीरता जे ||७६५||
ते हे गा तुजप्रती| सांगीतली त्रिविध धृती| यया कर्मत्रया निष्पत्ती| जालिया मग ||७६६||
येथ फळ जें एक निफजे| सुख जयातें म्हणिजे| तेंही त्रिविध जाणिजे| कर्मवशें ||७६७||
तरी फळरूप तें सुख | त्रिगुणीं भेदलें देख| विवंचूं आतां चोख| चोखीं बोलीं ||७६८||
परी चोखी ते कैसी सांगे| पैं घेवों जातां बोलबगें| कानींचियेही लागे| हातींचा मळु ||७६९||
म्हणौनि जयाचेनि अव्हेरें| अवधानही होय बाहिरें| तेणें आइक हो आंतरें| जीवाचेनि जीवें ||७७०||
ऐसें म्हणौनि देवो| त्रिविधा सुखाचा प्रस्तावो| मांडला तो निर्वाहो| निरूपित असें ||७७१||

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ |
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ||३६||

म्हणे सुखत्रयसंज्ञा| सांगों म्हणौनि प्रतिज्ञा| बोलिलों तें प्राज्ञा| ऐक आतां ||७७२||
तरी सुख तें गा किरीटी| दाविजेल तुज दिठी| जें आत्मयाचिये भेटी| जीवासि होय ||७७३||
परी मात्रेचेनि मापें| दिव्यौषध जैसें घेपें| कां कथिलाचें कीजे रुपें| रसभावनीं ||७७४||
नाना लवणाचें जळु| होआवया दोनि चार वेळु| देऊनि सांडिजती ढाळु| तोयाचें जेवीं ||७७५||
तेवीं जालेनि सुखलेशें| जीवु भाविलिया अभ्यासें| जीवपणाचें नासे| दुःख जेथें ||७७६||
तें येथ आत्मसुख | जालें असे त्रिगुणात्मक| तेंही सांगों एकैक| रूप आतां ||७७७||

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ||३७||

आतां चंदनाचें बूड| सर्पी जैसें दुवाड| कां निधानाचें तोंड| विवसिया जेवीं ||७७८||
अगा स्वर्गींचें गोमटें| आडव यागसंकटें| कां बाळपण दासटें| त्रासकाळें ||७७९||
हें असो दीपाचिये सिद्धी| अवघड धू आधीं| नातरी तो औषधीं| जिभेचा ठावो ||७८०||
तयापरी पांडवा| जया सुखाचा रिगावा| विषम तेथ मेळावा| यमदमांचा ||७८१||
देत सर्वस्नेहा मिठी| आगीं ऐसें वैराग्य उठी| स्वर्ग संसारा कांटी| काढितचि ||७८२||
विवेकश्रवणें खरपुसें| जेथ व्रताचरणें कर्कशें| करितां जाती भोकसे| बुद्ध्यादिकांचे ||७८३||
सुषुम्नेचेनि तोंडें| गिळिजे प्राणापानाचे लोंढे| बोहणियेसीचि येवढें| भारी जेथ ||७८४||
जें सारसांही विघडतां| होय वोहाहूनि वस्त काढितां| ना भणंगु दवडितां| भाणयावरुनी ||७८५||
पैं मायेपुढौनि बाळक| काळें नेतां एकुलतें एक| होय कां उदक| तुटतां मीना ||७८६||
तैसें विषयांचें घर| इंद्रियां सांडितां थोर| युगांतु होय तें वीर| विराग साहाती ||७८७||
ऐसा जया सुखाचा आरंभु| दावी काठिण्याचा क्षोभु| मग क्षीराब्धी लाभु| अमृताचा जैसा ||७८८||
पहिलया वैराग्यगरळा| धैर्यशंभु वोडवी गळा| तरी ज्ञानामृतें सोहळा| पाहे जेथें ||७८९||
पैं कोलिताही कोपे ऐसें| द्राक्षांचें हिरवेपण असे | तें परीपाकीं कां जैसें| माधुर्य आते ||७९०||
तें वैराग्यादिक तैसें| पिकलिया आत्मप्रकाशें| मग वैराग्येंसींही नाशे| अविद्याजात ||७९१||
तेव्हां सागरीं गंगा जैसी | आत्मीं मीनल्या बुद्धि तैसी| अद्वयानंदाची आपैसी| खाणी उघडे ||७९२||
ऐसें स्वानुभवविश्रामें| वैराग्यमूळ जें परिणमे| तें सात्विक येणें नामें| बोलिजे सुख ||७९३||

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ||३८||

आणि विषयेंद्रियां| मेळु होतां धनंजया| जें सुख जाय थडिया| सांडूनि दोन्ही ||७९४||
अधिकारिया रिगतां गांवो| होय जैसा उत्साहो| कां रिणावरी विवाहो| विस्तारिला ||७९५||
नाना रोगिया जिभेपासीं| केळें गोड साखरेसीं| कां बचनागाची जैसी| मधुरता पहिली ||७९६||
पहिलें संवचोराचें मैत्र| हाटभेटीचें कलत्र| कां लाघवियाचे विचित्र| विनोद ते ||७९७||
तैसें विषयेंद्रियदोखीं| जें सुख जीवातें पोखी| मग उपडिला खडकीं| हंसु जैसा ||७९८||
तैसी जोडी आघवी आटे| जीविताचा ठाय फिटे| सुकृताचियाही सुटे| धनाची गांठी ||७९९||
आणिक भोगिलें जें कांहीं| तें स्वप्न तैसें होय नाहीं| मग हानीच्याचि घाईं| लोळावें उरे ||८००||
ऐसें आपत्ती जें सुख| ऐहिकीं परिणमे देख| परत्रीं कीर विख| होऊनि परते ||८०१||
जे इंद्रियजाता लळा| दिधलिया धर्माचा मळा| जाळूनि भोगिजे सोहळा| विषयांचा जेथ ||८०२||
तेथ पातकें बांधिती थावो| तियें नरकीं देती ठावो| जेणें सुखें हा अपावो| परत्रीं ऐसा ||८०३||
पैं नामें विष महुरें| परी मारूनि अंतीं खरें| तैसें आदि जें गोडिरें| अंतीं कडू ||८०४||
पार्था तें सुख साचें| वळिलें आहे रजाचें| म्हणौनि न शिवें तयाचें| आंग कहीं ||८०५||

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः |
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ||३९||

आणि अपेयाचेनि पानें| अखाद्याचेनि भोजनें| स्वैरस्त्रीसंनिधानें| होय जें सुख ||८०६||
का पुढिलांचेनि मारें| नातरी परस्वापहारें| जें सुख अवतरे| भाटाच्या बोलीं ||८०७||
जें आलस्यावरी पोखिजे| निद्रेमाजीं जें देखिजे| जयाच्या आद्यंतीं भुलिजे| आपुली वाट ||८०८||
तें गा सुख पार्था| तामस जाण सर्वथा| हें बहु न सांगोंचि जें कथा| असंभाव्य हे ||८०९||
ऐसें कर्मभेदें मुदलें| फळसुखही त्रिधा जालें| तें हें यथागमें केलें| गोचर तुज ||८१०||
ते कर्ता कर्म कर्मफळ| ये त्रिपुटी येकी केवळ| वांचूनि कांहींचि नसे स्थूल| सूक्ष्मीं इये ||८११||
आणि हे तंव त्रिपुटी| तिहीं गुणीं इहीं किरीटी| गुंफिली असे पटीं| तांतुवीं जैसी ||८१२||

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ||४०||

म्हणौनि प्रकृतीच्या आवलोकीं| न बंधिजे इहीं सत्वादिकीं| तैसी स्वर्गीं ना मृत्युलोकीं| आथी वस्तु ||८१३||
कैंचा लोंवेवीण कांबळा| मातियेवीण मोदळा| का जळेंवीण कल्लोळा| होणें आहे ? ||८१४||
तैसें न होनि गुणाचें| सृष्टीची रचना रचे| ऐसें नाहींचि गा साचें| प्राणिजात ||८१५||
यालागीं हें सकळ| तिहीं गुणांचेंचि केवळ| घडलें आहे निखिळ| ऐसें जाण ||८१६||
गुणीं देवां त्रयी लाविली| गुणीं लोकीं त्रिपुटी पाडिली| चतुर्वर्णा घातली| सिनानीं उळिगें ||८१७||

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ||४१||

तेचि चारी वर्ण| पुससी जरी कोण कोण| तरी जयां मुख्य ब्राह्मण| धुरेचे कां ||८१८||
येर क्षत्रिय वैश्य दोन्ही| तेही ब्राह्मणाच्याचि मानिजे मानी| जे ते वैदिकविधानीं| योग्य म्हणौनि ||८१९||
चौथा शूद्रु जो धनंजया| वेदीं लागु नाहीं तया| तऱ्हीं वृत्ति वर्णत्रया| आधीन तयाची ||८२०||
तिये वृत्तिचिया जवळिका| वर्णा ब्राह्मणादिकां| शूद्रही कीं देखा| चौथा जाला ||८२१||
जैसा फुलाचेनि सांगातें| तांतुं तुरंबिजे श्रीमंतें| तैसें द्विजसंगें शूद्रातें| स्वीकारी श्रुती ||८२२||
ऐसैसी गा पार्था| हे चतुर्वर्णव्यवस्था| करूं आतां कर्मपथा| यांचिया रूपा ||८२३||
जिहीं गुणीं ते वर्ण चारी| जन्ममृत्यूंचिये कातरी| चुकोनियां ईश्वरीं| पैठे होती ||८२४||
जिये आत्मप्रकृतीचे इहीं| गुणीं सत्त्वादिकीं तिहीं| कर्में चौघां चहूं ठाईं| वांटिलीं वर्णा ||८२५||
जैसें बापें जोडिलें लेंका| वांटिलें सूर्यें मार्ग पांथिका| नाना व्यापार सेवकां| स्वामी जैसें ||८२६||
तैसी प्रकृतीच्या गुणीं| जया कर्माची वेल्हावणी| केली आहे वर्णीं| चहूं इहीं ||८२७||
तेथ सत्त्वें आपल्या आंगीं| समीन- निमीन भागीं| दोघे केले नियोगी| ब्राह्मण क्षत्रिय ||८२८||
आणि रज परी सात्त्विक| तेथ ठेविलें वैश्य लोक| रजचि तमभेसक| तेथ शूद्र ते गा ||८२९||
ऐसा येकाचि प्राणिवृंदा| भेदु चतुर्वर्णधा| गुणींचि प्रबुद्धा| केला जाण ||८३०||
मग आपुलें ठेविलें जैसें| आइतेंचि दीपें दिसे| गुणभिन्न कर्म तैसें| शास्त्र दावी ||८३१||
तेंचि आतां कोण कोण| वर्णविहिताचें लक्षण| हें सांगों ऐक श्रवण- | सौभाग्यनिधी ||८३२||

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||४२||

तरी सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती| घेऊनि आपुल्या हातीं| बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं| प्रिया जैसी ||८३३||
ऐसा बुद्धीचा उपरमु| तया नाम म्हणिपे शमु| तो गुण गा उपक्रमु| जया कर्माचा ||८३४||
आणि बाह्येंद्रियांचें धेंडें| पिटूनि विधीचेनि दंडें| नेदिजे अधर्माकडे| कहींचि जावों ||८३५||
तो पैं गा शमा विरजा| दमु गुण जेथ दुजा| आणि स्वधर्माचिया वोजा| जिणें जें कां ||८३६||
सटवीचिये रातीं| न विसंबिजे जेवीं वाती| तैसा ईश्वरनिर्णयो चित्तीं| वाहणें सदा ||८३७||
तया नाम तप| ते तिजया गुणाचें रूप| आणि शौचही निष्पाप| द्विविध जेथ ||८३८||
मन भावशुद्धी भरलें| आंग क्रिया अळंकारिलें| ऐसें सबाह्य जियालें| साजिरें जें कां ||८३९||
तया नाम शौच पार्था| तो कर्मीं गुण जये चौथा| आणि पृथ्वीचिया परी सर्वथा| सर्व जें साहाणें ||८४०||
ते गा क्षमा पांडवा| गुण जेथ पांचवा| स्वरांमाजीं सुहावा| पंचमु जैसा ||८४१||
आणि वांकडेनी वोघेंसीं| गंगा वाहे उजूचि जैसी| कां पुटीं वळला ऊसीं| गोडी जैसी ||८४२||
तैसा विषमांही जीवां- | लागीं उजुकारु बरवा| तें आर्जव गा साहावा| जेथींचा गुण ||८४३||
आणि पाणियें प्रयत्नें माळी| अखंड जचे झाडामुळीं| परी तें आघवेंचि फळीं| जाणे जेवीं ||८४४||
तैसें शास्त्राचारें तेणें| ईश्वरुचि येकु पावणें| हें फुडें जें कां जाणणें| तें येथ ज्ञान ||८४५||
तें गा कर्मीं जिये| सातवा गुण होये| आणि विज्ञान हें पाहें| एवंरूप ||८४६||
तरी सत्वशुद्धीचिये वेळे| शास्त्रें कां ध्यानबळें| ईश्वरतत्त्वींचि मिळे| निष्टंकबुद्धी ||८४७||
हें विज्ञान बरवें| गुणरत्न जेथ आठवें| आणि आस्तिक्य जाणावें| नववा गुण ||८४८||
पैं राजमुद्रा आथिलिया| प्रजा भजे भलतया| तेवीं शास्त्रें स्वीकारिलिया| मार्गमात्रातें ||८४९||
आदरें जें कां मानणें| तें आस्तिक्य मी म्हणें| तो नववा गुण जेणें| कर्म तें साच ||८५०||
एवं नवही शमादिक| गुण जेथ निर्दोख| तें कर्म जाण स्वाभाविक| ब्राह्मणाचें ||८५१||
तो नवगुणरत्नाकरु| यया नवरत्नांचा हारु| न फेडीत ले दिनकरु| प्रकाशु जैसा ||८५२||
नाना चांपा चांपौळी पूजिला| चंद्रु चंद्रिका धवळला| कां चंदनु निजें चर्चिला| सौरभ्यें जेवीं ||८५३||
तेवीं नवगुणटिकलग| लेणें ब्राह्मणाचें अव्यंग| कहींचि न संडी आंग| ब्राह्मणाचें ||८५४||
आतां उचित जें क्षत्रिया| तेंहीं कर्म धनंजया| सांगों ऐक प्रज्ञेचिया| भरोवरी ||८५५||

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ||४३||

तरी भानु हा तेजें| नापेक्षी जेवीं विरजे| कां सिंहें न पाहिजे| जावळिया ||८५६||
ऐसा स्वयंभ जो जीवें लाठु| सावायेंवीण उद्भटु| ते शौर्य गा जेथ श्रेष्ठु| पहिला गुण ||८५७||
आणि सूर्याचेनि प्रतापें| कोडिही नक्षत्र हारपे| ना तो तरी न लोपे| सचंद्रीं तिहीं ||८५८||
तैसेनि आपुले प्रौढीगुणें| जगा या विस्मयो देणें| आपण तरी न क्षोभणें| कायसेनही ||८५९||
तें प्रागल्भ्यरूप तेजा| जिये कर्मीं गुण दुजा| आणि धीरु तो तिजा| जेथींचा गुण ||८६०||
वरिपडलिया आकाश| बुद्धीचे डोळे मानस| झांकी ना ते परीयेस| धैर्य जेथें ||८६१||
आणि पाणी हो कां भलतेतुकें| परी तें जिणौनि पद्म फांके| कां आकाश उंचिया जिंके| आवडे तयातें ||८६२||
तेवीं विविध अवस्था| पातलिया जिणौनि पार्था| प्रज्ञाफळ तया अर्था| वेझ देणें जें ||८६३||
तें दक्षत्व गा चोख| जेथ चौथा गुण देख| आणि झुंज अलौकिक| तो पांचवा गुण ||८६४||
आदित्याचीं झाडें| सदा सन्मुख सूर्याकडे| तेवीं समोर शत्रूपुढें| होणें जें कां ||८६५||
माहेवणी प्रयत्नेंसी| चुकविजे सेजे जैसी| रिपू पाठी नेदिजे तैसी| समरांगणीं ||८६६||
हा क्षत्रियाचेया आचारीं| पांचवा गुणेंद्रु अवधारीं| चहूं पुरुषार्थां शिरीं| भक्ति जैसी ||८६७||
आणि जालेनि फुलें फळें| शाखिया जैसीं मोकळे| कां उदार परीमळें| पद्माकरु ||८६८||
नाना आवडीचेनि मापें| चांदिणें भलतेणें घेपे| पुढिलांचेनि संकल्पें | तैसें जें देणें ||८६९||
तें उमप गा दान| जेथ सहावें गुणरत्न| आणि आज्ञे एकायतन| होणें जें कां ||८७०||
पोषूनि अवयव आपुले| करविजतीं मानविले| तेवीं पालणें लोभविलें| जग जें भोगणें ||८७१||
तया नाम ईश्वरभावो| जो सर्वसामर्थ्याचा ठावो| तो गुणांमाजीं रावो| सातवा जेथ ||८७२||
ऐसें जें शौर्यादिकीं| इहीं सात गुणविशेखीं| अळंकृत सप्तऋखीं| आकाश जैसें ||८७३||
तैसें सप्तगुणीं विचित्र| कर्म जें जगीं पवित्र| तें सहज जाण क्षात्र| क्षत्रियाचें ||८७४||
नाना क्षत्रिय नव्हे नरु| तो सत्त्वसोनयाचा मेरु| म्हणौनि गुणस्वर्गां आधारु| सातां इयां ||८७५||
नातरी सप्तगुणार्णवीं| परीवारली बरवी| हे क्रिया नव्हे पृथ्वी| भोगीतसे तो ||८७६||
कां गुणांचे सातांही ओघीं| हे क्रिया ते गंगा जगीं| तया महोदधीचिया आंगीं| विलसे जैसी ||८७७||
परी हें बहु असो देख| शौर्यादि गुणात्मक| कर्म गा नैसर्गिक| क्षात्रजातीसी ||८७८||
आतां वैश्याचिये जाती| उचित जे महामती| ते ऐकें गा निरुती| क्रिया सांगों ||८७९||

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् |
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ||४४||

तरी भूमि बीज नांगरु| यया भांडवलाचा आधारु| घेऊनि लाभु अपारु| मेळवणें जें ||८८०||
किंबहुना कृषी जिणें| गोधनें राखोनि वर्तणें| कां समर्घीची विकणें| महर्घीवस्तु ||८८१||
येतुलाचि पांडवा| वैश्यातें कर्माचा मेळावा| हा वैश्यजातीस्वभावा| आंतुला जाण ||८८२||
आणि वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मण| हे द्विजन्में तिन्ही वर्ण| ययांचें जें शुश्रूषण| तें शूद्रकर्म ||८८३||
पैं द्विजसेवेपरौतें| धांवणें नाहीं शूद्रातें| एवं चतुर्वर्णोचितें| दाविलीं कर्में ||८८४||

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||४५||

आतां इयेचि विचक्षणा| वेगळालिया वर्णा| उचित जैसें करणां| शब्दादिक ||८८५||
नातरी जळदच्युता| पाणिया उचित सरिता| सरितेसी पंडुसुता| सिंधु उचितु ||८८६||
तैसें वर्णाश्रमवशें| जें करणीय आलें असे | गोरेया आंगा जैसें| गोरेपण ||८८७||
तया स्वभावविहिता कर्मा| शास्त्राचेनि मुखें वीरोत्तमा| प्रवर्तावयालागीं प्रमा| अढळ कीजे ||८८८||
पैं आपुलेंचि रत्न थितें| घेपे पारखियाचेनि हातें| तैसें स्वकर्म आपैतें| शास्त्रें करावीं ||८८९||
जैसी दिठी असे आपुलिया ठायीं| परी दीपेंवीण भोग नाहीं| मार्गु न लाहतां काई| पाय असतां होय ? ||८९०||
म्हणौनि ज्ञातिवशें साचारु| सहज असे जो अधिकारु| तो आपुलिया शास्त्रें गोचरु| आपण कीजे ||८९१||
मग घरींचाचि ठेवा| जेवीं डोळ्यां दावी दिवा| तरी घेतां काय पांडवा| आडळु असे ? ||८९२||
तैसें स्वभावें भागा आलें| वरी शास्त्रें खरें केलें| तें विहित जो आपुलें| आचरे गा ||८९३||
परी आळसु सांडुनी| फळकाम दवडुनी| आंगें जीवें मांडुनी| तेथेंचि भरु ||८९४||
वोघीं पडिलें पाणी| नेणें आनानी वाहणी| तैसा जाय आचरणीं| व्यवस्थौनी ||८९५||
अर्जुना जो यापरी| तें विहित कर्म स्वयें करी| तो मोक्षाच्या ऐलद्वारीं| पैठा होय ||८९६||
जे अकरणा आणि निषिद्धा| न वचेचि कांहीं संबंधा| म्हणौनि भवा विरुद्धा| मुकला तो ||८९७||
आणि काम्यकर्मांकडे| न परतेचि जेथ कोडें| तेथ चंदनाचेही खोडे| न लेचि तो ||८९८||
येर नित्य कर्म तंव| फळत्यागें वेंचिलें सर्व| म्हणौनि मोक्षाची शींव| ठाकूं लाहे ||८९९||
ऐसेनि शुभाशुभीं संसारीं| सांडिला तो अवधारीं| वौराग्यमोक्षद्वारीं| उभा ठाके ||९००||
जें सकळ भाग्याची सीमा| मोक्षलाभाची जें प्रमा| नाना कर्ममार्गश्रमा| शेवटु जेथ ||९०१||
मोक्षफळें दिधली वोल| जें सुकृततरूचें फूल| तयें वैराग्यीं ठेवी पाऊल| भंवरु जैसा ||९०२||
पाहीं आत्मज्ञानसुदिनाचा| वाधावा सांगतया अरुणाचा| उदयो त्या वैराग्याचा| ठावो पावे ||९०३||
किंबहुना आत्मज्ञान| जेणें हाता ये निधान| तें वैराग्य दिव्यांजन| जीवें ले तो ||९०४||
ऐसी मोक्षाची योग्यता| सिद्धी जाय तया पंडुसुता| अनुसरोनि विहिता| कर्मा यया ||९०५||
हें विहित कर्म पांडवा| आपुला अनन्य वोलावा| आणि हेचि परम सेवा| मज सर्वात्मकाची ||९०६||
पैं आघवाचि भोगेंसीं| पतिव्रता क्रीडे प्रियेंसीं| कीं तयाचीं नामें जैसीं| तपें तियां केलीं ||९०७||
कां बाळका एकी माये| वांचोनि जिणें काय आहे| म्हणौनि सेविजे कीं तो होये| पाटाचा धर्मु ||९०८||
नाना पाणी म्हणौनि मासा| गंगा न सांडितां जैसा| सर्व तीर्थ सहवासा| वरपडा जाला ||९०९||
तैसें आपुलिया विहिता| उपावो असे न विसंबितां| ऐसा कीजे कीं जगन्नाथा| आभारु पडे ||९१०||
अगा जया जें विहित| तें ईश्वराचें मनोगत| म्हणौनि केलिया निभ्रांत| सांपडेचि तो ||९११||
पैं जीवाचे कसीं उतरली| ते दासी कीं गोसावीण जाली| सिसे वेंचि तया मविली| वही जेवीं ||९१२||
तैसें स्वामीचिया मनोभावा| न चुकिजे हेचि परमसेवा| येर तें गा पांडवा| वाणिज्य करणें ||९१३||

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||४६||

म्हणौनि विहित क्रिया केली| नव्हे तयाची खूण पाळिली| जयापसूनि कां आलीं| आकारा भूतें ||९१४||
जो अविद्येचिया चिंधिया| गुंडूनि जीव बाहुलिया| खेळवीतसे तिगुणिया| अहंकाररज्जू ||९१५||
जेणें जग हें समस्त| आंत बाहेरी पूर्ण भरित| जालें आहे दीपजात| तेजें जैसें ||९१६||
तया सर्वात्मका ईश्वरा| स्वकर्मकुसुमांची वीरा| पूजा केली होय अपारा| तोषालागीं ||९१७||
म्हणौनि तिये पूजे| रिझलेनि आत्मराजें| वैराग्यसिद्धि देईजे| पसाय तया ||९१८||
जिये वैराग्यदशें| ईश्वराचेनि वेधवशें| हें सर्वही नावडे जैसें| वांत होय ||९१९||
प्राणनाथाचिया आधी| विरहिणीतें जिणेंही बाधी| तैसें सुखजात त्रिशुद्धी| दुःखचि लागे ||९२०||
सम्यक्ज्ञान नुदैजतां| वेधेंचि तन्मयता| उपजे ऐसी योग्यता| बोधाची लाहे ||९२१||
म्हणौनि मोक्षलाभालागीं| जो व्रतें वाहातसें आंगीं| तेणें स्वधर्मु आस्था चांगी| अनुष्ठावा ||९२२||

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||४७||

अगा आपुला हा स्वधर्मु| आचरणीं जरी विषमु| तरी पाहावा तो परिणामु| फळेल जेणें ||९२३||
जैं सुखालागीं आपणपयां| निंबचि आथी धनंजया| तैं कडुवटपणा तयाचिया| उबगिजेना ||९२४||
फळणया ऐलीकडे| केळीतें पाहातां आस मोडे| ऐसी त्यजिली तरी जोडे| तैसें कें गोमटें ||९२५||
तेवीं स्वधर्मु सांकडु| देखोनि केला जरी कडु| तरी मोक्षसुरवाडु| अंतरला कीं ||९२६||
आणि आपुली माये| कुब्ज जरी आहे| तरी जीये तें नोहे| स्नेह कुऱ्हें कीं ||९२७||
येरी जिया पराविया| रंभेहुनि बरविया| तिया काय कराविया| बाळकें तेणें ? ||९२८||
अगा पाणियाहूनि बहुवें| तुपीं गुण कीर आहे| परी मीना काय होये| असणें तेथ ||९२९||
पैं आघविया जगा जें विख| तें विख किडियाचें पीयूख| आणि जगा गूळ तें देख| मरण तया ||९३०||
म्हणौनि जे विहित जया जेणें| फिटे संसाराचें धरणें| क्रिया कठोर तऱ्ही तेणें| तेचि करावी ||९३१||
येरा पराचारा बरविया| ऐसें होईल टेंकलया| पायांचें चालणें डोइया| केलें जैसें ||९३२||
यालागीं कर्म आपुले| जें जातिस्वभावें असे आलें| तें करी तेणें जिंतिलें| कर्मबंधातें ||९३३||
आणि स्वधर्मुचि पाळावा| परधर्मु तो गाळावा| हा नेमुही पांडवा| न कीजेचि पै गा ? ||९३४||
तरी आत्मा दृष्ट नोहे| तंव कर्म करणें कां ठाये ? | आणि करणें तेथ आहे| आयासु आधीं ||९३५||

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ||४८||

म्हणौनि भलतिये कर्मीं| आयासु जऱ्ही उपक्रमीं| तरी काय स्वधर्मीं| दोषु| सांगें ? ||९३६||
आगा उजू वाटा चालावें| तऱ्ही पायचि शिणवावे| ना आडरानें धांवावें| तऱ्ही तेंचि ||९३७||
पैं शिळा कां सिदोरिया| दाटणें एक धनंजया| परी जें वाहतां विसांवया| मिळिजे तें घेपे ||९३८||
येऱ्हवीं कणा आणि भूसा| कांडितांही सोसु सरिसा| जेंचि रंधन श्वान मांसा| तेंचि हवी ||९३९||
दधी जळाचिया घुसळणा| व्यापार सारिखेचि विचक्षणा| वाळुवे तिळा घाणा| गाळणें एक ||९४०||
पैं नित्य होम देयावया| कां सैरा आगी सुवावया| फुंकितां धू धनंजया| साहणें तेंचि ||९४१||
परी धर्मपत्नी धांगडी| पोसितां जरी एकी वोढी| तरी कां अपरवडी| आणावी आंगा ? ||९४२||
हां गा पाठीं लागला घाई| मरण न चुकेचि पाहीं| तरी समोरला काई| आगळें न कीजे ? ||९४३||
कुलस्त्री दांड्याचे घाये| परघर रिगालीहि जरी साहे| तरी स्वपतीतें वायें| सांडिलें कीं ||९४४||
तैसें आवडतेंही करणें| न निपजे शिणल्याविणें| तरी विहित बा रे कोणें| बोलें भारी ? ||९४५||
वरी थोडेंचि अमृत घेतां| सर्वस्व वेंचो कां पंडुसुता| जेणें जोडे जीविता| अक्षयत्व ||९४६||
येर काह्यां मोलें वेंचूनि| विष पियावे घेऊनि| आत्महत्येसि निमोनि| जाइजे जेणें ||९४७||
तैसें जाचूनियां इंद्रियें| वेंचूनि आयुष्याचेनि दिये| सांचलें पापीं आन आहे| दुःखावाचूनि ? ||९४८||
म्हणौनि करावा स्वधर्मु| जो करितां हिरोनि घे श्रमु| उचित देईल परमु| पुरुषार्थराजु ||९४९||
याकारणें किरीटी| स्वधर्माचिये राहाटी| न विसंबिजे संकटीं| सिद्धमंत्र जैसा ||९५०||
कां नाव जैसी उदधीं| महारोगी दिव्यौषधी| न विसंबिजे तया बुद्धी| स्वकर्म येथ ||९५१||
मग ययाचि गा कपिध्वजा| स्वकर्माचिया महापूजा| तोषला ईशु तमरजा| झाडा करुनी ||९५२||
शुद्धसत्त्वाचिया वाटा| आणी आपुली उत्कंठा| भवस्वर्ग काळकूटा| ऐसें दावी ||९५३||
जियें वैराग्य येणें बोलें| मागां संसिद्धी रूप केलें| किंबहुना तें आपुलें| मेळवी खागें ||९५४||
मग जिंतिलिया हे भोये| पुरुष सर्वत्र जैसा होये| कां जालाही जें लाहे| तें आतां सांगों ||९५५||

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||४९||

तरी देहादिक हें संसारें| सर्वही मांडलेंसे जें गुंफिरें| तेथ नातुडे तो वागुरें| वारा जैसा ||९५६||
पैं परिपाकाचिये वेळे| फळ देठें ना देठु फळें| न धरे तैसें स्नेह खुळें| सर्वत्र होय ||९५७||
पुत्र वित्त कलत्र| हे जालियाही स्वतंत्र| माझें न म्हणे पात्र| विषाचें जैसें ||९५८||
हें असो विषयजाती| बुद्धि पोळली ऐसी माघौती| पाउलें घेऊनि एकांतीं| हृदयाच्या रिगे ||९५९||
ऐसया अंतःकरण| बाह्य येतां तयाची आण| न मोडी समर्था भेण| दासी जैसी ||९६०||
तैसें ऐक्याचिये मुठी| माजिवडें चित्त किरीटी| करूनि वेधी नेहटीं| आत्मयाच्या ||९६१||
तेव्हां दृष्टादृष्ट स्पृहे| निमणें जालेंचि आहे| आगीं दडपलिया धुयें| राहिजे जैसें ||९६२||
म्हणौनि नियमिलिया मानसीं| स्पृहा नासौनि जाय आपैसीं| किंबहुना तो ऐसी| भूमिका पावे ||९६३||
पैं अन्यथा बोधु आघवा| मावळोनि तया पांडवा| बोधमात्रींचि जीवा| ठावो होय ||९६४||
धरवणी वेंचें सरे| तैसें भोगें प्राचीन पुरे| नवें तंव नुपकरे| कांहीचि करूं ||९६५||
ऐसीं कर्में साम्यदशा| होय तेथ वीरेशा| मग श्रीगुरु आपैसा| भेटेचि गा ||९६६||
रात्रीची चौपाहरी| वेंचलिया अवधारीं| डोळ्यां तमारी| मिळे जैसा ||९६७||
का येऊनि फळाचा घडु| पारुषवी केळीची वाढु| श्रीगुरु भेटोनि करी पाडु| बुभुत्सु तैसा ||९६८||
मग आलिंगिला पूर्णिमा| जैसा उणीव सांडी चंद्रमा| तैसें होय वीरोत्तमा| गुरुकृपा तया ||९६९||
तेव्हां अबोधुमात्र असे| तो तंव तया कृपा नासे| तेथ निशीसवें जैसें| आंधारें जाय ||९७०||
तैसी अबोधाचिये कुशी| कर्म कर्ता कार्य ऐशी| त्रिपुटी असे ते जैसी| गाभिणी मारिली ||९७१||
तैसेंचि अबोधनाशासवें| नाशे क्रियाजात आघवें| ऐसा समूळ संभवे| संन्यासु हा ||९७२||
येणें मुळाज्ञानसंन्यासें| दृश्याचा जेथ ठावो पुसे| तेथ बुझावें तें आपैसें| तोचि आहे ||९७३||
चेइलियावरी पाहीं| स्वप्नींचिया तिये डोहीं| आपणयातें काई| काढूं जाइजे ? ||९७४||
तैं मी नेणें आतां जाणेन| हें सरलें तया दुःस्वप्न| जाला ज्ञातृज्ञेयाविहीन| चिदाकाश ||९७५||
मुखाभासेंसी आरिसा| परौता नेलिया वीरेशा| पाहातेपणेंवीण जैसा| पाहाता ठाके ||९७६||
तैसें नेणणें जें गेलें| तेणें जाणणेंही नेलें| मग निष्क्रिय उरलें| चिन्मात्रचि ||९७७||
तेथ स्वभावें धनंजया| नाहीं कोणीचि क्रिया| म्हणौनि प्रवादु तया| नैष्कर्म्यु ऐसा ||९७८||
तें आपुलें आपणपें| असे तेंचि होऊनि हारपे| तरंगु कां वायुलोपें| समुद्रु जैसा ||९७९||
तैसें न होणें निफजे| ते नैष्कर्म्यसिद्धि जाणिजे| सर्वसिद्धींत सहजें| परम हेचि ||९८०||
देउळाचिया कामा कळसु| उपरम गंगेसी सिंधु प्रवेशु| कां सुवर्णशुद्धी कसु| सोळावा जैसा ||९८१||
तैसें आपुलें नेणणें| फेडिजे का जाणणें| तेंहि गिळूनि असणें| ऐसी जे दशा ||९८२||
तियेपरतें कांहीं| निपजणें आन नाहीं| म्हणौनि म्हणिपे पाहीं| परमसिद्धि ते ||९८३||

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे |
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ||५०||

परी हेचि आत्मसिद्धि| जो कोणी भाग्यनिधि| श्रीगुरुकृपालब्धि- | काळीं पावे ||९८४||
उदयतांचि दिनकरु| प्रकाशुचि आते आंधारु| कां दीपसंगें कापुरु| दीपुचि होय ||९८५||
तया लवणाची कणिका| मिळतखेंवो उदका| उदकचि होऊनि देखा| ठाके जेवीं ||९८६||
कां निद्रितु चेवविलिया| स्वप्नेंसि नीद वायां| जाऊनि आपणपयां| मिळे जैसा ||९८७||
तैसें जया कोण्हासि दैवें| गुरुवाक्यश्रवणाचि सवें| द्वैत गिळोनि विसंवे| आपणया वृत्ती ||९८८||
तयासी मग कर्म करणें| हें बोलिजैलचि कवणें| | आकाशा येणें जाणें| आहे काई ? ||९८९||
म्हणौनि तयासि कांहीं| त्रिशुद्धि करणें नाहीं| परी ऐसें जरी हें कांहीं| नव्हे जया ||९९०||
कानावचनाचिये भेटी- | सरिसाचि पैं किरीटी| वस्तु होऊनि उठी| कवणि एकु जो ||९९१||
येऱ्हवीं स्वकर्माचेनि वन्ही| काम्यनिषिद्धाचिया इंधनीं| रजतमें कीर दोन्ही| जाळिलीं आधीं ||९९२||
पुत्र वित्त परलोकु| यया तिहींचा अभिलाखु| घरीं होय पाइकु| हेंही जालें ||९९३||
इंद्रियें सैरा पदार्थीं| रिगतां विटाळलीं होतीं| तिये प्रत्याहार तीर्थीं| न्हाणिलीं कीर ||९९४||
आणि स्वधर्माचें फळ| ईश्वरीं अर्पूनि सकळ| घेऊनि केलें अढळ| वैराग्यपद ||९९५||
ऐसी आत्मसाक्षात्कारीं| लाभे ज्ञानाची उजरी| ते सामुग्री कीर पुरी| मेळविली ||९९६||
आणि तेचि समयीं| सद्गुरु भेटले पाहीं| तेवींचि तिहीं कांहीं| वंचिजेना ||९९७||
परी वोखद घेतखेंवो| काय लाभे आपला ठावो ? | कां उदयजतांचि दिवो| मध्यान्ह होय ? ||९९८||
सुक्षेत्रीं आणि वोलटें| बीजही पेरिलें गोमटें| तरी आलोट फळ भेटे| परी वेळे कीं गा ||९९९||
जोडला मार्गु प्रांजळु| मिनला सुसंगाचाही मेळु| तरी पाविजे वांचूनि वेळु| लागेचि कीं ||१०००||
तैसा वैराग्यलाभु जाला| वरी सद्गुरुही भेटला| जीवीं अंकुरु फुटला| विवेकाचा ||१००१||
तेणें ब्रह्म एक आथी| येर आघवीचि भ्रांती| हेही कीर प्रतीती| गाढ केली ||१००२||
परी तेंचि जें परब्रह्म| सर्वात्मक सर्वोत्तम| मोक्षाचेंही काम| सरे जेथ ||१००३||
यया तिन्ही अवस्था पोटीं| जिरवी जें गा किरीटी| तया ज्ञानासिही मिठी| दे जे वस्तु ||१००४||
ऐक्याचें एकपण सरे| जेथ आनंदकणुही विरे| कांहींचि नुरोनि उरे| जें कांहीं गा ||१००५||
तियें ब्रह्मीं ऐक्यपणें| ब्रह्मचि होऊनि असणें| तें क्रमेंचि करूनि तेणें| पाविजे पैं ||१००६||
भुकेलियापासीं| वोगरिलें षड्रसीं| तो तृप्ति प्रतिग्रासीं| लाहे जेवीं ||१००७||
तैसा वैराग्याचा वोलावा| विवेकाचा तो दिवा| आंबुथितां आत्मठेवा| काढीचि तो ||१००८||
तरी भोगिजे आत्मऋद्धी| येवढी योग्यतेची सिद्धी| जयाच्या आंगीं निरवधी| लेणें जाली ||१००९||
तो जेणें क्रमें ब्रह्म| होणें करी गा सुगम| तया क्रमाचें आतां वर्म| आईक सांगों ||१०१०||


बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च |
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ||५१||

तरी गुरु दाविलिया वाटा| येऊन विवेकतीर्थतटा| धुऊनियां मळकटा| बुद्धीचा तेणें ||१०११||
मग राहूनें उगळिली| प्रभा चंद्रें आलिंगिली| तैसी शुद्धत्वें जडली| आपणयां बुद्धि ||१०१२||
सांडूनि कुळें दोन्ही| प्रियासी अनुसरे कामिनी| द्वंद्वत्यागें स्वचिंतनीं| पडली तैसी ||१०१३||
आणि ज्ञान ऐसें जिव्हार| नेवों नेवों निरंतर| इंद्रियीं केले थोर| शब्दादिक जे ||१०१४||
ते रश्मिजाळ काढलेया| मृगजळ जाय लया| तैसें वृत्तिरोधें तयां| पांचांही केलें ||१०१५||
नेणतां अधमाचिया अन्ना| खादलिया कीजे वमना| तैसीं वोकविली सवासना| इंद्रियें विषयीं ||१०१६||
मग प्रत्यगावृत्ती चोखटें| लाविलीं गंगेचेनि तटें| ऐसीं प्रायश्चित्तें धुवटें| केलीं येणें ||१०१७||
पाठीं सात्विकें धीरें तेणें| शोधारलीं तियें करणें| मग मनेंसीं योगधारणें| मेळविलीं ||१०१८||
तेवींचि प्राचीनें इष्टानिष्टें| भोगेंसीं येउनी भेटे| तेथ देखिलियाही वोखटें| द्वेषु न करी ||१०१९||
ना गोमटेंचि विपायें| तें आणूनि पुढां सूये| तयालागीं न होये| साभिलाषु ||१०२०||
यापरी इष्टानिष्टींंं| रागद्वेष किरीटी| त्यजूनि गिरिकपाटीं | निकुंजीं वसे ||१०२१||

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ||५२||

गजबजा सांडिलिया| वसवी वनस्थळिया| अंगाचियाचि मांदिया| एकलेया ||१०२२||
शमदमादिकीं खेळे| न बोलणेंचि चावळे| गुरुवाक्याचेनि मेळें| नेणे वेळु ||१०२३||
आणि आंगा बळ यावें| नातरी क्षुधा जावें| कां जिभेएचे पुरवावे| मनोरथ ||१०२४||
भोजन करितांविखीं| ययां तिहींतें न लेखी| आहारीं मिती संतोषीं| माप न सूये ||१०२५||
अशनाचेनि पावकें| हारपतां प्राणु पोखे| इतुकियाचि भागु मोटकें| अशन करी ||१०२६||
आणि परपुरुषें कामिली| कुळवधू आंग न घाली| निद्रालस्या न मोकली| आसन तैसें ||१०२७||
दंडवताचेनि प्रसंगें| भुयीं हन अंग लागे| वांचूनि येर नेघे| राभस्य तेथ ||१०२८||
देहनिर्वाहापुरतें| राहाटवी हातांपायांतें| किंबहुना आपैतें| सबाह्य केलें ||१०२९||
आणि मनाचा उंबरा| वृत्तीसी देखों नेदी वीरा| तेथ कें वाग्व्यापारा| अवकाशु असे ? ||१०३०||
ऐसेनि देह वाचा मानस| हें जिणौनि बाह्यप्रदेश| आकळिलें आकाश| ध्यानाचें तेणें ||१०३१||
गुरुवाक्यें उठविला| बोधीं निश्चयो आपुला| न्याहाळीं हातीं घेतला| आरिसा जैसा ||१०३२||
पैं ध्याता आपणचि परी| ध्यानरूप वृत्तिमाझारीं| ध्येयत्वें घे हे अवधारीं| ध्यानरूढी गा ||१०३३||
तेथ ध्येय ध्यान ध्याता| ययां तिहीं एकरूपता| होय तंव पंडुसुता| कीजे तें गा ||१०३४||
म्हणौनि तो मुमुक्षु| आत्मज्ञानीं जाला दक्षु| परी पुढां सूनि पक्षु| योगाभ्यासाचा ||१०३५||
अपानरंध्रद्वया| माझारीं धनंजया| पार्ष्णीं पिडूनियां| कांवरुमूळ ||१०३६||
आकुंचूनि अध| देऊनि तिन्ही बंध| करूनि एकवद| वायुभेदी ||१०३७||
कुंडलिनी जागवूनि| मध्यमा विकाशूनि| आधारादि भेदूनि| आज्ञावरी ||१०३८||
सहस्त्रदळाचा मेघु| पीयुषें वर्षोनि चांगु| तो मूळवरी वोघु| आणूनियां ||१०३९||
नाचतया पुण्यगिरी| चिद्भैरवाच्या खापरीं| मनपवनाची खीच पुरी| वाढूनियां ||१०४०||
जालिया योगाचा गाढा| मेळावा सूनि हा पुढां| ध्यान मागिलीकडां| स्वयंभ केलें ||१०४१||
आणि ध्यान योग दोन्ही| इयें आत्मतत्वज्ञानीं| पैठा होआवया निर्विघ्नीं| आधींचि तेणें ||१०४२||
वीतरागतेसारिखा| जोडूनि ठेविला सखा| तो आघवियाचि भूमिका- | सवें चाले ||१०४३||
पहावें दिसे तंववरी| दिठीतें न संडी दीप जरी| तरी कें आहे अवसरी| देखावया ||१०४४||
तैसें मोक्षीं प्रवर्तलया| वृत्ती ब्रह्मीं जाय लया| तंव वैराग्य आथी तया| भंगु कैचा ||१०४५||
म्हणौनि सवैराग्यु| ज्ञानाभ्यासु तो सभाग्यु| करूनि जाला योग्यु| आत्मलाभा ||१०४६||
ऐसी वैराग्याची आंगीं| बाणूनियां वज्रांगीं| राजयोगतुरंगीं| आरूढला ||१०४७||
वरी आड पडिलें दिठी| सानें थोर निवटी| तें बळीं विवेकमुष्टीं| ध्यानाचें खांडें ||१०४८||
ऐसेनि संसाररणाआंतु |आंधारीं सूर्य तैसा असे जातु | मोक्षविजयश्रीये वरैतु| होआवयालागीं ||१०४९||

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||५३||

तेथ आडवावया आले| दोषवैरी जे धोपटिले| तयांमाजीं पहिलें| देहाहंकारु ||१०५०||
जो न मोकली मारुनी| जीवों नेदी उपजवोनि| विचंबवी खोडां घालुनी| हाडांचिया ||१०५१||
तयाचा देहदुर्ग हा थारा| मोडूनि घेतला तो वीरा| आणि बळ हा दुसरा| मारिला वैरी ||१०५२||
जो विषयाचेनि नांवें| चौगुणेंही वरी थांवे| जेणें मृतावस्था धांवे| सर्वत्र जगा ||१०५३||
तो विषय विषाचा अथावो| आघविया दोषांचा रावो| परी ध्यानखड्गाचा घावो| साहेल कैंचा ? ||१०५४||
आणि प्रिय विषयप्राप्ती| करी जया सुखाची व्यक्ती| तेचि घालूनि बुंथी| आंगीं जो वाजे ||१०५५||
जो सन्मार्गा भुलवी| मग अधर्माच्या आडवीं| सूनि वाघां सांपडवी| नरकादिकां ||१०५६||
तो विश्वासें मारितां रिपु| निवटूनि घातला दर्पु| आणि जयाचा अहा कंपु| तापसांसी ||१०५७||
क्रोधा ऐसा महादोखु| जयाचा देखा परिपाकु| भरिजे तंव अधिकु| रिता होय जो ||१०५८||
तो कामु कोणेच ठायीं| नसे ऐसें केलें पाहीं| कीं तेंचि क्रोधाही| सहजें आलें ||१०५९||
मुळाचें तोडणें जैसें| होय कां शाखोद्देशें| कामु नाशलेनि नाशे| तैसा क्रोधु ||१०६०||
म्हणौनि काम वैरी| जाला जेथ ठाणोरी| तेथ सरली वारी| क्रोधाचीही ||१०६१||
आणि समर्थु आपुला खोडा| शिसें वाहवी जैसा होडा| तैसा भुंजौनि जो गाढा| परीग्रहो ||१०६२||
जो माथांचि पालाणवी| अंगा अवगुण घालवी| जीवें दांडी घेववी| ममत्वाची ||१०६३||
शिष्यशास्त्रादिविलासें| मठादिमुद्रेचेनि मिसें| घातले आहाती फांसे| निःसंगा जेणें ||१०६४||
घरीं कुटुंबपणें सरे| तरी वनीं वन्य होऊनि अवतरे| नागवीयाही शरीरें| लागला आहे ||१०६५||
ऐसा दुर्जयो जो परीग्रहो| तयाचा फेडूनि ठावो| भवविजयाचा उत्साहो| भोगीतसे जो ||१०६६||
तेथ अमानित्वादि आघवे| ज्ञानगुणाचे जे मेळावे| ते कैवल्यदेशींचे आघवे| रावो जैसे आले ||१०६७||
तेव्हां सम्यक्ज्ञानाचिया| राणिवा उगाणूनि तया| परिवारु होऊनियां| राहत आंगें ||१०६८||
प्रवृत्तीचिये राजबिदीं| अवस्थाभेदप्रमदीं| कीजत आहे प्रतिपदीं| सुखाचें लोण ||१०६९||
पुढां बोधाचिये कांबीवरी| विवेकु दृश्याची मांदी सारी| योगभूमिका आरती करी| येती जैसिया ||१०७०||
तेथ ऋद्धिसिद्धींचीं अनेगें| वृंदें मिळती प्रसंगें| तिये पुष्पवर्षीं आंगें| नाहातसे तो ||१०७१||
ऐसेनि ब्रह्मैक्यासारिखें| स्वराज्य येतां जवळिकें| झळंबित आहे हरिखें| तिन्ही लोक ||१०७२||
तेव्हां वैरियां कां मैत्रियां| तयासि माझें म्हणावया| समानता धनंजया| उरेचिही ना ||१०७३||
हें ना भलतेणें व्याजें| तो जयातें म्हणे माझें| तें नोडवेचि कां दुजें| अद्वितीय जाला ||१०७४||
पैं आपुलिया एकी सत्ता| सर्वही कवळूनिया पंडुसुता| कहीं न लगती ममता| धाडिली तेणें ||१०७५||
ऐसा जिंतिलिया रिपुवर्गु| अपमानिलिया हें जगु| अपैसा योगतुरंगु| स्थिर जाला ||१०७६||
वैराग्याचें गाढलें| अंगी त्राण होतें भलें| तेंही नावेक ढिलें| तेव्हां करी ||१०७७||
आणि निवटी ध्यानाचें खांडें| तें दुजें नाहींचि पुढें| म्हणौनि हातु आसुडें| वृत्तीचाही ||१०७८||
जैसें रसौषध खरें| आपुलें काज करोनि पुरें| आपणही नुरे| तैसें होतसे ||१०७९||
देखोनि ठाकिता ठावो| धांवता थिरावे पावो| तैसा ब्रह्मसामीप्यें थावो| अभ्यासु सांडी ||१०८०||
घडतां महोदधीसी| गंगा वेगु सांडी जैसी| कां कामिनी कांतापासीं| स्थिर होय ||१०८१||
नाना फळतिये वेळे| केळीची वाढी मांटुळे| कां गांवापुढें वळे| मार्गु जैसा ||१०८२||
तैसा आत्मसाक्षात्कारु| होईल देखोनि गोचरु| ऐसा साधनहतियेरु| हळुचि ठेवी ||१०८३||
म्हणौनि ब्रह्मेंसी तया| ऐक्याचा समो धनंजया| होतसे तैं उपाया| वोहटु पडे ||१०८४||
मग वैराग्याची गोंधळुक| जे ज्ञानाभ्यासाचें वार्धक्य| योगफळाचाही परिपाक| दशा जे कां ||१०८५||
ते शांति पैं गा सुभगा| संपूर्ण ये तयाचिया आंगा| तैं ब्रह्म होआवया जोगा| होय तो पुरुषु ||१०८६||
पुनवेहुनी चतुर्दशी| जेतुलें उणेपण शशी| कां सोळे पाऊनि जैसी| पंधरावी वानी ||१०८७||
सागरींही पाणी वेगें| संचरे तें रूप गंगे| येर निश्चळ जें उगें| तें समुद्रु जैसा ||१०८८||
ब्रह्मा आणि ब्रह्महोतिये| योग्यते तैसा पाडु आहे| तेंचि शांतीचेनि लवलाहें| होय तो गा ||१०८९||
पैं तेंचि होणेंनवीण| प्रतीती आलें जें ब्रह्मपण| ते ब्रह्म होती जाण| योग्यता येथ ||१०९०||

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||५४||

ते ब्रह्मभावयोग्यता| पुरुषु तो मग पंडुसुता| आत्मबोधप्रसन्नता- | पदीं बैसे ||१०९१||
जेणें निपजे रससोय| तो तापुही जैं जाय| तैं ते कां होय| प्रसन्न जैसी ||१०९२||
नाना भरतिया लगबगा| शरत्काळीं सांडिजे गंगा| कां गीत रहातां उपांगा| वोहटु पडे ||१०९३||
तैसा आत्मबोधीं उद्यमु| करितां होय जो श्रमु| तोही जेथें समु| होऊनि जाय ||१०९४||
आत्मबोधप्रशस्ती| हे तिये दशेची ख्याती| ते भोगितसे महामती| योग्यु तो गा ||१०९५||
तेव्हां आत्मत्वें शोचावें| कांहीं पावावया कामावें| हें सरलें समभावें| भरितें तया ||१०९६||
उदया येतां गभस्ती| नाना नक्षत्रव्यक्ती| हारवीजती दीप्ती| आंगिका जेवीं ||१०९७||
तेवीं उठतिया आत्मप्रथा| हे भूतभेदव्यवस्था| मोडीत मोडीत पार्था| वास पाहे तो ||१०९८||
पाटियेवरील अक्षरें| जैसीं पुसतां येती करें| तैसीं हारपती भेदांतरें| तयाचिये दृष्टी ||१०९९||
तैसेनि अन्यथा ज्ञानें| जियें घेपती जागरस्वप्नें| तियें दोन्ही केलीं लीनें| अव्यक्तामाजीं ||११००||
मग तेंही अव्यक्त| बोध वाढतां झिजत| पुरलां बोधीं समस्त| बुडोनि जाय ||११०१||
जैसी भोजनाच्या व्यापारीं| क्षुधा जिरत जाय अवधारीं| मग तृप्तीच्या अवसरीं| नाहींच होय ||११०२||
नाना चालीचिया वाढी| वाट होत जाय थोडी| मग पातला ठायीं बुडी| देऊनि निमे ||११०३||
कां जागृति जंव जंव उद्दीपे| तंव तंव निद्रा हारपे| मग जागीनलिया स्वरूपें| नाहींच होय ||११०४||
हें ना आपुलें पूर्णत्व भेटें| जेथ चंद्रासीं वाढी खुंटे| तेथ शुक्लपक्षु आटे| निःशेषु जैसा ||११०५||
तैसा बोध्यजात गिळितु| बोधु बोधें ये मज आंतु| मिसळला तेथ साद्यंतु| अबोधु गेला ||११०६||
तेव्हां कल्पांताचिये वेळे| नदी सिंधूचें पेंडवळें| मोडूनि भरलें जळें |आब्रह्म जैसें ||११०७||
नाना गेलिया घट मठ| आकाश ठाके एकवट| कां जळोनि काष्ठें काष्ठ| वन्हीचि होय ||११०८||
नातरी लेणियांचे ठसे| आटोनि गेलिया मुसे| नामरूप भेदें जैसें| सांडिजे सोनें ||११०९||
हेंही असो चेइलया| तें स्वप्न नाहीं जालया| मग आपणचि आपणयां| उरिजे जैसें ||१११०||
तैसी मी एकवांचूनि कांहीं| तया तयाहीसकट नाहीं| हे चौथी भक्ति पाहीं| माझी तो लाहे ||११११||
येर आर्तु जिज्ञासु अर्थार्थी| हे भजती जिये पंथीं| ते तिन्ही पावोनी चौथी| म्हणिपत आहे ||१११२||
येऱ्हवीं तिजी ना चौथी| हे पहिली ना सरती| पैं माझिये सहजस्थिती| भक्ति नाम ||१११३||
जें नेणणें माझें प्रकाशूनि| अन्यथात्वें मातें दाऊनि| सर्वही सर्वीं भजौनि| बुझावीतसे जे ||१११४||
जो जेथ जैसें पाहों बैसे| तया तेथ तैसेंचि असे| हें उजियेडें कां दिसे| अखंडें जेणें ||१११५||
स्वप्नाचें दिसणें न दिसणें| जैसें आपलेनि असलेपणें| विश्वाचें आहे नाहीं जेणें| प्रकाशें तैसें ||१११६||
ऐसा हा सहज माझा| प्रकाशु जो कपिध्वजा| तो भक्ति या वोजा| बोलिजे गा ||१११७||
म्हणौनि आर्ताच्या ठायीं| हे आर्ति होऊनि पाहीं| अपेक्षणीय जें कांहीं | तें मीचि केला ||१११८||
जिज्ञासुपुढां वीरेशा| हेचि होऊनि जिज्ञासा| मी कां जिज्ञास्यु ऐसा| दाखविला ||१११९||
हेंचि होऊनि अर्थना| मीचि माझ्या अर्थीं अर्जुना| करूनि अर्थाभिधाना| आणी मातें ||११२०||
एवं घेऊनि अज्ञानातें| माझी भक्ति जे हे वर्ते| ते दावी मज द्रष्टयातें| दृश्य करूनि ||११२१||
येथें मुखचि दिसे मुखें| या बोला कांहीं न चुके| तरी दुजेपण हें लटिकें| आरिसा करी ||११२२||
दिठी चंद्रचि घे साचें| परी येतुलें हें तिमिराचें| जे एकचि असे तयाचे| दोनी दावी ||११२३||
तैसा सर्वत्र मीचि मियां| घेपतसें भक्ति इया| परी दृश्यत्व हें वायां| अज्ञानवशें ||११२४||
तें अज्ञान आतां फिटलें| माझें दृष्टृत्व मज भेटलें| निजबिंबीं एकवटलें| प्रतिबिंब जैसें ||११२५||
पैं जेव्हांही असे किडाळ| तेव्हांही सोनेंचि अढळ| परी तें कीड गेलिया केवळ| उरे जैसें ||११२६||
हां गा पूर्णिमे आधीं कायी| चंद्रु सावयवु नाहीं ? | परी तिये दिवशीं भेटे पाहीं| पूर्णता तया ||११२७||
तैसा मीचि ज्ञानद्वारें| दिसें परी हस्तांतरें| मग दृष्टृत्व तें सरे| मियांचि मी लाभें ||११२८||
म्हणौनि दृश्यपथा- | अतीतु माझा पार्था| भक्तियोगु चवथा| म्हणितला गा ||११२९||

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ||५५||

या ज्ञान भक्ति सहज| भक्तु एकवटला मज| मीचि केवळ हें तुज| श्रुतही आहे ||११३०||
जे उभऊनियां भुजा| ज्ञानिया आत्मा माझा| हे बोलिलों कपिध्वजा| सप्तमाध्यायीं ||११३१||
ते कल्पादीं भक्ति मियां| श्रीभागवतमिषें ब्रह्मया| उत्तम म्हणौनि धनंजया| उपदेशिली ||११३२||
ज्ञानी इयेतें स्वसंवित्ती| शैव म्हणती शक्ती| आम्ही परम भक्ती| आपुली म्हणो ||११३३||
हे मज मिळतिये वेळे| तया क्रमयोगियां फळे| मग समस्तही निखिळें| मियांचि भरे ||११३४||
तेथ वैराग्य विवेकेंसी| आटे बंध मोक्षेंसीं| वृत्ती तिये आवृत्तीसीं| बुडोनि जाय ||११३५||
घेऊनि ऐलपणातें| परत्व हारपें जेथें| गिळूनि चाऱ्ही भूतें| आकाश जैसें ||११३६||
तया परी थडथाद| साध्यसाधनातीत शुद्ध| तें मी होऊनि एकवद| भोगितो मातें ||११३७||
घडोनि सिंधूचिया आंगा| सिंधूवरी तळपे गंगा| तैसा पाडु तया भोगा| अवधारी जो ||११३८||
कां आरिसयासि आरिसा| उटूनि दाविलिया जैसा| देखणा अतिशयो तैसा| भोगणा तिये ||११३९||
हे असो दर्पणु नेलिया| तो मुख बोधुही गेलिया| देखलेंपण एकलेया| आस्वादिजे जेवीं ||११४०||
चेइलिया स्वप्न नाशे| आपलें ऐक्यचि दिसे| ते दुजेनवीण जैसें| भोगिजे का ||११४१||
तोचि जालिया भोगु तयाचा| न घडे हा भावो जयांचा| तिहीं बोलें केवीं बोलाचा| उच्चारु कीजे ||११४२||
तयांच्या नेणों गांवीं| रवी प्रकाशी हन दिवी| कीं व्योमालागीं मांडवी| उभिली तिहीं ||११४३||
हां गा राजन्यत्व नव्हतां आंगीं| रावो रायपण काय भोगी ? | कां आंधारु हन आलिंगी| दिनकरातें ? ||११४४||
आणि आकाश जें नव्हे| तया आकाश काय जाणवे ? | रत्नाच्या रूपीं मिरवे| गुंजांचें लेणें ? ||११४५||
म्हणौनि मी होणें नाहीं| तया मीचि आहें केहीं| मग भजेल हें कायी| बोलों कीर ||११४६||
यालागीं तो क्रमयोगी| मी जालाचि मातें भोगी| तारुण्य कां तरुणांगीं| जियापरी ||११४७||
तरंग सर्वांगीं तोय चुंबी| प्रभा सर्वत्र विलसे बिंबीं| नाना अवकाश नभीं| लुंठतु जैसा ||११४८||
तैसा रूप होऊनि माझें| मातें क्रियावीण तो भजे| अलंकारु का सहजें| सोनयातें जेवीं ||११४९||
का चंदनाची द्रुती जैसी| चंदनीं भजे अपैसी| का अकृत्रिम शशीं| चंद्रिका ते ||११५०||
तैसी क्रिया कीर न साहे| तऱ्ही अद्वैतीं भक्ति आहे| हें अनुभवाचिजोगें नव्हे| बोलाऐसें ||११५१||
तेव्हां पूर्वसंस्कार छंदें| जें कांहीं तो अनुवादे| तेणें आळविलेनि वो दें| बोलतां मीचि ||११५२||
बोलतया बोलताचि भेटे| तेथें बोलिलें हें न घटे| तें मौन तंव गोमटें| स्तवन माझें ||११५३||
म्हणौनि तया बोलतां| बोली बोलतां मी भेटतां| मौन होय तेणें तत्वतां| स्तवितो मातें ||११५४||
तैसेंचि बुद्धी का दिठी| जें तो देखों जाय किरीटी| तें देखणें दृश्य लोटी| देखतेंचि दावी ||११५५||
आरिसया आधीं जैसें| देखतेंचि मुख दिसेअ| तयाचें देखणें तैसें| मेळवी द्रष्टें ||११५६||
दृश्य जाउनियां द्रष्टें| द्रष्टयासीचि जैं भेटे| तैं एकलेपणें न घटे| द्रष्टेपणही ||११५७||
तेथ स्वप्नींचिया प्रिया| चेवोनि झोंबो गेलिया| ठायिजे दोन्ही न होनियां| आपणचि जैसें ||११५८||
का दोहीं काष्ठाचिये घृष्टी- | माजीं वन्हि एक उठी| तो दोन्ही हे भाष आटी| आपणचि होय ||११५९||
नाना प्रतिबिंब हातीं| घेऊं गेलिया गभस्ती| बिंबताही असती| जाय जैसी ||११६०||
तैसा मी होऊनि देखतें| तो घेऊं जाय दृश्यातें| तेथ दृश्य ने थितें| द्रष्टृत्वेंसीं ||११६१||
रवि आंधारु प्रकाशिता| नुरेचि जेवीं प्रकाश्यता| तेंवीं दृश्यीं नाही द्रष्टृता| मी जालिया ||११६२||
मग देखिजे ना न देखिजे| ऐसी जे दशा निपजे| ते तें दर्शन माझें| साचोकारें ||११६३||
तें भलतयाही किरीटी| पदार्थाचिया भेटी| द्रष्टृदृश्यातीता दृष्टी| भोगितो सदा ||११६४||
आणि आकाश हें आकाशें| दाटलें न ढळें जैसें| मियां आत्मेन आपणपें तैसें| जालें तया ||११६५||
कल्पांतीं उदक उदकें| रुंधिलिया वाहों ठाके| तैसा आत्मेनि मियां येकें| कोंदला तो ||११६६||
पावो आपणपयां वोळघे ? | केवीं वन्हि आपणपयां लागे ? | आपणपां पाणी रिघे| स्नाना कैसें ? ||११६७||
म्हणौनि सर्व मी जालेपणें| ठेलें तया येणें जाणें| तेंचि गा यात्रा करणें| अद्वया मज ||११६८||
पैं जळावरील तरंगु| जरी धाविन्नला सवेगु| तरी नाहीं भूमिभागु| क्रमिला तेणें ||११६९||
जें सांडावें कां मांडावें| जें चालणें जेणें चालावें| तें तोयचि एक आघवें| म्हणौनियां ||११७०||
गेलियाही भलतेउता| उदकपणेंं पंडुसुता| तरंगाची एकात्मता| न मोडेचि जेवीं ||११७१||
तैसा मीपणें हा लोटला| तो आघवेंयाचि मजआंतु आला| या यात्रा होय भला| कापडी माझा ||११७२||
आणि शरीर स्वभाववशें| कांहीं येक करूं जरी बैसे| तरी मीचि तो तेणें मिषें| भेटे तया ||११७३||
तेथ कर्म आणि कर्ता| हें जाऊनि पंडुसुता| मियां आत्मेनि मज पाहतां| मीचि होय ||११७४||
पैं दर्पणातेंं दर्पणें| पाहिलिया होय न पाहणें| सोनें झांकिलिया सुवर्णें| ना झांकें जेवीं ||११७५||
दीपातें दीपें प्रकाशिजे| तें न प्रकाशणेंचि निपजे| तैसें कर्म मियां कीजे| तें करणें कैंचें ? ||११७६||
कर्मही करितचि आहे| जैं करावें हें भाष जाये| तैं न करणेंचि होये| तयाचें केलें ||११७७||
क्रियाजात मी जालेपणें| घडे कांहींचि न करणें| तयाचि नांव पूजणें| खुणेचें माझें ||११७८||
म्हणौनि करीतयाही वोजा| तें न करणें हेंचि कपिध्वजा| निफजे तिया महापूजा| पूजी तो मातें ||११७९||
एवं तो बोले तें स्तवन| तो देखे तें दर्शन| अद्वया मज गमन| तो चाले तेंचि ||११८०||
तो करी तेतुली पूजा| तो कल्पी तो जपु माझा| तो असे तेचि कपिध्वजा| समाधी माझी ||११८१||
जैसें कनकेंसी कांकणें| असिजे अनन्यपणें| तो भक्तियोगें येणें| मजसीं तैसा ||११८२||
उदकीं कल्लोळु| कापुरीं परीमळु| रत्नीं उजाळु| अनन्यु जैसा ||११८३||
किंबहुना तंतूंसीं पटु| कां मृत्तिकेसीं घटु| तैसा तो एकवटु| मजसीं माझा ||११८४||
इया अनन्यसिद्धा भक्ती| या आघवाचि दृश्यजातीं| मज आपणपेंया सुमती| द्रष्टयातें जाण ||११८५||
तिन्ही अवस्थांचेनि द्वारें| उपाध्युपहिताकारें| भावाभावरूप स्फुरे| दृश्य जें हें ||११८६||
तें हें आघवेंचि मी द्रष्टा| ऐसिया बोधाचा माजिवटा| अनुभवाचा सुभटा| धेंडा तो नाचे ||११८७||
रज्जु जालिया गोचरु| आभासतां तो व्याळाकारु| रज्जुचि ऐसा निर्धारु| होय जेवीं ||११८८||
भांगारापरतें कांहीं| लेणें गुंजहीभरी नाहीं| हें आटुनियां ठायीं| कीजे जैसे ||११८९||
उदका येकापरतें | तरंग नाहींचि हें निरुतें| जाणोनि तया आकारातें| न घेपे जेवीं ||११९०||
नातरी स्वप्नविकारां समस्तां| चेऊनियां उमाणें घेतां| तो आपणयापरौता| न दिसे जैसा ||११९१||
तैसें जें कांहीं आथी नाथी| येणें होय ज्ञेयस्फुर्ती| तें ज्ञाताचि मी हें प्रतीती| होऊनि भोगी ||११९२||
जाणे अजु मी अजरु| अक्षयो मी अक्षरु| अपूर्वु मी अपारु| आनंदु मी ||११९३||
अचळु मी अच्युतु| अनंतु मी अद्वैतु| आद्यु मी अव्यक्तु| व्यक्तुही मी ||११९४||
ईश्य मी ईश्वरु| अनादि मी अमरु| अभय मी आधारु| आधेय मी ||११९५||
स्वामी मी सदोदितु| सहजु मी सततु| सर्व मी सर्वगतु| सर्वातीतु मी ||११९६||
नवा मी पुराणु| शून्यु मी संपूर्णु| स्थुलु मी अणु| जें कांहीं तें मी ||११९७||
अक्रियु मी येकु| असंगु मी अशोकु| व्यापु मी व्यापकु| पुरुषोत्तमु मी ||११९८||
अशब्दु मी अश्रोत्रु| अरूपु मी अगोत्रु| समु मी स्वतंत्रु| ब्रह्म मी परु ||११९९||
ऐसें आत्मत्वें मज एकातें| इया अद्वयभक्ती जाणोनि निरुतें| आणि याही बोधा जाणतें| तेंही मीचि जाणें ||१२००||
पैं चेइलेयानंतरें| आपुलें एकपण उरे| तेंही तोंवरी स्फुरे| तयाशींचि जैसें ||१२०१||
कां प्रकाशतां अर्कु| तोचि होय प्रकाशकु| तयाही अभेदा द्योतकु| तोचि जैसा ||१२०२||
तैसा वेद्यांच्या विलयीं| केवळ वेएदकु उरे पाहीं| तेणें जाणवें तया तेंही| हेंही जो जाणे ||१२०३||
तया अद्वयपणा आपुलिया| जाणती ज्ञप्ती जे धनंजया| ते ईश्वरचि मी हे तया| बोधासि ये ||१२०४||
मग द्वैताद्वैतातीत| मीचि आत्मा एकु निभ्रांत| हें जाणोनि जाणणें जेथ| अनुभवीं रिघे ||१२०५||
तेथ चेइलियां येकपण| दिसे जे आपुलया आपण| तेंही जातां नेणों कोण| होईजे जेवीं ||१२०६||
कां डोळां देखतिये क्षणीं| सुवर्णपण सुवर्णीं| नाटितां होय आटणी| अळंकाराचीही ||१२०७||
नाना लवण तोय होये| मग क्षारता तोयत्वें राहे| तेही जिरतां जेवीं जाये| जालेपण तें ||१२०८||
तैसा मी तो हें जें असे | तें स्वानंदानुभवसमरसें| कालवूनिया प्रवेशे| मजचिमाजीं ||१२०९||
आणि तो हे भाष जेथ जाये| तेथे मी हें कोण्हासी आहे| ऐसा मी ना तो तिये सामाये| माझ्याचि रूपीं ||१२१०||
जेव्हां कापुर जळों सरे| तयाचि नाम अग्नि पुरेए| मग उभयतातीत उरे| आकाश जेवीं ||१२११||
का धाडलिया एका एकु| वाढे तो शून्य विशेखु| तैसा आहे नाहींचा शेखु| मीचि मग आथी ||१२१२||
तेथ ब्रह्मा आत्मा ईशु| यया बोला मोडे सौरसु| न बोलणें याही पैसु| नाहीं तेथ ||१२१३||
न बोलणेंही न बोलोनी| तें बोलिजे तोंड भरुनी| जाणिव नेणिव नेणोनी| जाणिजे तें ||१२१४||
तेथ बुझिजे बोधु बोधें| आनंंदु घेपे आनंदें| सुखावरी नुसधें| सुखचि भोगिजे ||१२१५||
तेथ लाभु जोडला लाभा| प्रभा आलिंगिली प्रभा| विस्मयो बुडाला उभा| विस्मयामाजीं ||१२१६||
शमु तेथ सामावला| विश्रामु विश्रांति आला| अनुभवु वेडावला| अनुभूतिपणें ||१२१७||
किंबहुना ऐसें निखळ| मीपण जोडे तया फळ| सेवूनि वेली वेल्हाळ| क्रमयोगाची ते ||१२१८||
पैं क्रमयोगिया किरीटी| चक्रवर्तीच्या मुकुटीं| मी चिद्रत्न तें साटोवाटीं| होय तो माझा ||१२१९||
कीं क्रमयोगप्रासादाचा| कळसु जो हा मोक्षाचा| तयावरील अवकाशाचा| उवावो जाला तो ||१२२०||
नाना संसार आडवीं| क्रमयोग वाट बरवी| जोडिली ते मदैक्यगांवीं| पैठी जालीसे ||१२२१||
हें असो क्रमयोगबोधें| तेणें भक्तिचिद्गांगें| मी स्वानंदोदधी वेगें| ठाकिला कीं गा ||१२२२||
हा ठायवरी सुवर्मा| क्रमयोगीं आहे महिमा| म्हणौनि वेळोवेळां तुम्हां| सांगतों आम्ही ||१२२३||
पैं देशें काळें पदार्थें| साधूनि घेइजे मातें| तैसा नव्हे मी आयतें| सर्वांचें सर्वही ||१२२४||
म्हणौनि माझ्या ठायीं| जाचावें न लगे कांहीं| मी लाभें इयें उपायीं| साचचि गा ||१२२५||
एक शिष्य एक गुरु| हा रूढला साच व्यवहारु| तो मत्प्राप्तिप्रकारु| जाणावया ||१२२६||
अगा वसुधेच्या पोटीं| निधान सिद्ध किरीटी| वन्हि सिद्ध काष्ठीं| वोहां दूध ||१२२७||
परी लाभे तें असतें| तया कीजे उपायातें| येर सिद्धचि तैसा तेथें| उपायीं मी ||१२२८||
हा फळहीवरी उपावो| कां पां प्रस्तावीतसे देवो| हे पुसतां परी अभिप्रावो| येथिंचा ऐसा ||१२२९||
जे गीतार्थाचें चांगावें| मोक्षोपायपर आघवें| आन शास्त्रोपाय कीं नव्हे| प्रमाणसिद्ध ||१२३०||
वारा आभाळचि फेडी| वांचूनि सूर्यातें न घडी| कां हातु बाबुळी धाडी| तोय न करी ||१२३१||
तैसा आत्मदर्शनीं आडळु| असे अविद्येचा जो मळु| तो शास्त्र नाशी येरु निर्मळु| मी प्रकाशें स्वयें ||१२३२||
म्हणौनि आघवींचि शास्त्रें| अविद्याविनाशाचीं पात्रें| वांचोनि न होतीं स्वतंत्रें| आत्मबोधीं ||१२३३||
तया अध्यात्मशास्त्रांसीं| जैं साचपणाची ये पुसी| तैं येइजे जया ठायासी| ते हे गीता ||१२३४||
भानुभूषिता प्राचिया| सतेजा दिशा आघविया| तैसी शास्त्रेश्वरा गीता या| सनाथें शास्त्रें ||१२३५||
हें असो येणें शास्त्रेश्वरें| मागां उपाय बहुवे विस्तारें| सांगितला जैसा करें| घेवों ये आत्मा ||१२३६||
परी प्रथमश्रवणासवें| अर्जुना विपायें हें फावे| हा भावो सकणवे| धरूनि श्रीहरी ||१२३७||
तेंचि प्रमेय एक वेळ| शिष्यीं होआवया अढळ| सांगतसे मुकुल| मुद्रा आतां ||१२३८||
आणि प्रसंगें गीता| ठावोही हा संपता| म्हणौनि दावी आद्यंता| एकार्थत्व ||१२३९||
जे ग्रंथाच्या मध्यभागीं| नाना अधिकारप्रसंगीं| निरूपण अनेगीं| सिद्धांतीं केलें ||१२४०||
तरी तेतुलेही सिद्धांत| इयें शास्त्रीं प्रस्तुत| हे पूर्वापर नेणत| कोण्ही जैं मानी ||१२४१||
तैं महासिद्धांताचा आवांका| सिद्धांतकक्षा अनेका| भिडऊनि आरंभु देखा| संपवीतु असे ||१२४२||
एथ अविद्यानाशु हें स्थळ| तेणें मोक्षोपादान फळ| या दोहीं केवळ| साधन ज्ञान ||१२४३||
हें इतुलेंचि नानापरी| निरूपिलें ग्रंथविस्तारीं| तें आतां दोहीं अक्षरीं| अनुवादावें ||१२४४||
म्हणौनि उपेयही हातीं| जालया उपायस्थिती| देव प्रवर्तले तें पुढती| येणेंचि भावें ||१२४५||

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः |
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ||५६||

मग म्हणे गा सुभटा| तो क्रमयोगिया निष्ठा| मी होउनी होय पैठा| माझ्या रूपीं ||१२४६||
स्वकर्माच्या चोखौळीं| मज पूजा करूनि भलीं| तेणें प्रसादें आकळी| ज्ञाननिष्ठेतें ||१२४७||
ते ज्ञाननिष्ठा जेथ हातवसे| तेथ भक्ति माझी उल्लासे| तिया भजन समरसें| सुखिया होय ||१२४८||
आणि विश्वप्रकाशितया| आत्मया मज आपुलिया| अनुसरे जो करूनियां| सर्वत्रता हे ||१२४९||
सांडूनि आपुला आडळ| लवण आश्रयी जळ| कां हिंडोनि राहे निश्चळ| वायु व्योमीं ||१२५०||
तैसा बुद्धी वाचा कायें| जो मातें आश्रऊनि ठाये| तो निषिद्धेंही विपायें| कर्में करूं ||१२५१||
परी गंगेच्या संबंधीं | बिदी आणि महानदी| येक तेवीं माझ्या बोधीं| शुभाशुभांसी ||१२५२||
कां बावनें आणि धुरें| हा निवाडु तंवचि सरे| जंव न घेपती वैश्वानरें| कवळूनि दोन्ही ||१२५३||
ना पांचिकें आणि सोळें| हें सोनया तंवचि आलें| जंव परिसु आंगमेळें| एकवटीना ||१२५४||
तैसें शुभाशुभ ऐसें| हें तंवचिवरी आभासे| जंव येकु न प्रकाशे| सर्वत्र मी ||१२५५||
अगा रात्री आणि दिवो| हा तंवचि द्वैतभावो| जंव न रिगिजे गांवो| गभस्तीचा ||१२५६||
म्हणौनि माझिया भेटी| तयाचीं सर्व कर्में किरीटी| जाऊनि बैसे तो पाटीं| सायुज्याच्या ||१२५७||
देशें काळें स्वभावें| वेंचु जया न संभवे| तें पद माझें पावे| अविनाश तो ||१२५८||
किंबहुना पंडुसुता| मज आत्मयाची प्रसन्नता| लाहे तेणें न पविजतां| लाभु कवणु असे ||१२५९||

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः |
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ||५७||

याकारणें गा तुवां इया| सर्व कर्मा आपुलिया| माझ्या स्वरूपीं धनंजया| संन्यासु कीजे ||१२६०||
परी तोचि संन्यासु वीरा| करणीयेचा झणें करा| आत्मविवेकीं धरा| चित्तवृत्ति हे ||१२६१||
मग तेणें विवेकबळें| आपणपें कर्मावेगळें| माझ्या स्वरूपीं निर्मळें| देखिजेल ||१२६२||
आणि कर्माचि जन्मभोये| प्रकृति जे का आहे| ते आपणयाहूनि बहुवे| देखसी दूरी ||१२६३||
तेथ प्रकृति आपणयां| वेगळी नुरे धनंजया| रूपेंवीण का छाया| जियापरी ||१२६४||
ऐसेनि प्रकृतिनाशु| जालया कर्मसंन्यासु| निफजेल अनायासु| सकारणु ||१२६५||
मग कर्मजात गेलया| मी आत्मा उरें आपणपयां| तेथ बुद्धि घापे करूनियां| पतिव्रता ||१२६६||
बुद्धि अनन्य येणें योगें| मजमाजीं जैं रिगे| तैं चित्त चैत्यत्यागें| मातेंचि भजे ||१२६७||
ऐसें चैत्यजातें सांडिलें| चित्त माझ्या ठायीं जडलें| ठाके तैसें वहिलें| सर्वदा करी ||१२६८||

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||५८||

मग अभिन्ना इया सेवा| चित्त मियांचि भरेल जेधवां| माझा प्रसादु जाण तेधवां| संपूर्ण जाहला ||१२६९||
तेथ सकळ दुःखधामें| भुंजीजती जियें मृत्युजन्में| तियें दुर्गमेंचि सुगमें| होती तुज ||१२७०||
सूर्याचेनि सावायें| डोळा सावाइला होये| तैं अंधाराचा आहे| पाडु तया ? ||१२७१||
तैसा माझेनि प्रसादें| जीवकणु जयाचा उपमर्दे| तो संसराचेनी बाधे| बागुलें केवीं ? ||१२७२||
म्हणौनि धनंजया| तूं संसारदुर्गती यया| तरसील माझिया| प्रसादास्तव ||१२७३||
अथवा हन अहंभावें| माझें बोलणें हें आघवें| कानामनाचिये शिंवे| नेदिसी टेंकों ||१२७४||
तरी नित्य मुक्त अव्ययो| तूं आहासि तें होऊनि वावो| देहसंबंधाचा घावो| वाजेल आंगीं ||१२७५||
जया देहसंबंधा आंतु| प्रतिपदीं आत्मघातु| भुंजतां उसंतु| कहींचि नाहीं ||१२७६||
येवढेनि दारुणें| निमणेनवीण निमणें| पडेल जरी बोलणें| नेघसी माझें ||१२७७||

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||५९||

पथ्यद्वेषिया पोषी ज्वरु| कां दीपद्वेषिया अंधकारु| विवेकद्वेषें अहंकारु| पोषूनि तैसा ||१२७८||
स्वदेहा नाम अर्जुनु| परदेहा नाम स्वजनु| संग्रामा नाम मलिनु| पापाचारु ||१२७९||
इया मती आपुलिया| तिघां तीन नामें ययां| ठेऊनियां धनंजया| न झुंजें ऐसा ||१२८०||
जीवामाजीं निष्टंकु| करिसी जो आत्यंतिकु| तो वायां धाडील नैसर्गिकु| स्वभावोचि तुझा ||१२८१||
आणि मी अर्जुन हे आत्मिक| ययां वधु करणें हें पातक| हे मायावांचूनि तात्त्विक| कांहीं आहे ? ||१२८२||
आधीं जुंझार तुवां होआवें| मग झुंजावया शस्त्र घेयावें| कां न जुंझावया करावें| देवांगण ||१२८३||
म्हणौनि न झुंजणें| म्हणसी तें वायाणें| ना मानूं लोकपणें| लोकदृष्टीही ||१२८४||
तऱ्ही न झुंजें ऐसें| निष्टंकीसी जें मानसें| तें प्रकृति अनारिसें| करवीलचि ||१२८५||

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ||६०||

पैं पूर्वे वाहतां पाणी| पव्हिजे पश्चिमेचे वाहणीं| तरी आग्रहोचि उरे तें आणी| आपुलिया लेखा ||१२८६||
कां साळीचा कणु म्हणे| मी नुगवें साळीपणें| तरी आहे आन करणें| स्वभावासी ? ||१२८७||
तैसा क्षात्रंस्कारसिद्धा| प्रकृती घडिलासी प्रबुद्धा| आता नुठी म्हणसी हा धांदा| परी उठवीजसीचि तूं ||१२८८||
पैं शौर्य तेज दक्षता| एवमादिक पंडुसुता | गुण दिधले जन्मतां| प्रकृती तुज ||१२८९||
तरी तयाचिया समवाया- | अनुरूप धनंजया| न करितां उगलियां| नयेल असों ||१२९०||
म्हणौनियां तिहीं गुणीं| बांधिलासि तूं कोदंडपाणी| त्रिशुद्धी निघसी वाहणीं| क्षात्राचिया ||१२९१||
ना हें आपुलें जन्ममूळ| न विचारीतचि केवळ| न झुंजें ऐसें अढळ| व्रत जरी घेसी ||१२९२||
तरी बांधोनि हात पाये| जो रथीं घातला होये| तो न चाले तरी जाये| दिगंता जेवीं ||१२९३||
तैसा तूं आपुलियाकडुनी| मीं कांहींच न करीं म्हणौनि| ठासी परी भरंवसेनि| तूंचि करिसी ||१२९४||
उत्तरु वैराटींचा राजा| पळतां तूं कां निघालासी झुंजा ? | हा क्षात्रस्वभावो तुझा| झुंजवील तुज ||१२९५||
महावीर अकरा अक्षौहिणी| तुवां येकें नागविले रणांगणीं| तो स्वभावो कोदंडपाणी| झुंजवील तूंतें ||१२९६||
हां गा रोगु कायी रोगिया| आवडे दरिद्र दरिद्रिया ? | परी भोगविजे बळिया| अदृष्टें जेणें ||१२९७||
तें अदृष्ट अनारिसें| न करील ईश्वरवशें| तो ईश्वरुही असे | हृदयीं तुझ्या ||१२९८||

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||६१||

सर्व भूतांच्या अंतरीं| हृदय महाअंबरीं| चिद्वृत्तीच्या सहस्त्रकरीं| उदयला असे जो ||१२९९||
अवस्थात्रय तिन्हीं लोक| प्रकाशूनि अशेख| अन्यथादृष्टि पांथिक| चेवविले ||१३००||
वेद्योदकाच्या सरोवरीं| फांकतां विषयकल्हारीं| इंद्रियषट्पदा चारी| जीवभ्रमरातें ||१३०१||
असो रूपक हें तो ईश्वरु| सकल भूतांचा अहंकारु| पांघरोनि निरंतरु| उल्हासत असे ||१३०२||
स्वमायेचें आडवस्त्र| लावूनि एकला खेळवी सूत्र| बाहेरी नटी छायाचित्र| चौऱ्याशीं लक्ष ||१३०३||
तया ब्रह्मादिकीटांता| अशेषांही भूतजातां| देहाकार योग्यता| पाहोनि दावी ||१३०४||
तेथ जें देह जयापुढें| अनुरूपपणें मांडे| तें भूत तया आरूढे| हें मी म्हणौनि ||१३०५||
सूत सूतें गुंतलें| तृण तृणचि बांधलें| कां आत्मबिंबा घेतलें| बाळकें जळीं ||१३०६||
तयापरी देहाकारें| आपणपेंचि दुसरें| देखोनि जीव आविष्करें| आत्मबुद्धि ||१३०७||
ऐसेनि शरीराकारीं| यंत्रीं भूतें अवधारीं| वाहूनि हालवी दोरी| प्राचीनाची ||१३०८||
तेथ जया जें कर्मसूत्र| मांडूनि ठेविलें स्वतंत्र| तें तिये गती पात्र| होंचि लागे ||१३०९||
किंबहुना धनुर्धरा| भूतांतें स्वर्गसंसारा | - माजीं भोवंडी तृणें वारा| आकाशीं जैसा ||१३१०||
भ्रामकाचेनि संगें| जैसें लोहो वेढा रिगे| तैसीं ईश्वरसत्तायोगें| चेष्टती भूतें ||१३११||
जैसे चेष्टा आपुलिया| समुद्रादिक धनंजया| चेष्टती चंद्राचिया| सन्निधी येकीं ||१३१२||
तया सिंधू भरितें दाटें| सोमकांता पाझरु फुटे| कुमुदांचकोरांचा फिटे| संकोचु तो ||१३१३||
तैसीं बीजप्रकृतिवशें| अनेकें भूतें येकें ईशें| चेष्टवीजती तो असे | तुझ्या हृदयीं ||१३१४||
अर्जुनपण न घेतां| मी ऐसें जें पंडुसुता| उठतसे तें तत्वता| तयाचें रूप ||१३१५||
यालागीं तो प्रकृतीतें| प्रवर्तवील हें निरुतें| आणि तें झुंजवील तूंतें| न झुंजशी जऱ्ही ||१३१६||
म्हणौनि ईश्वर गोसावी| तेणें प्रकृती हे नेमावी| तिया सुखें राबवावीं| इंद्रियें आपुलीं ||१३१७||
तूं करणें न करणें दोन्हीं| लाऊनि प्रकृतीच्या मानीं| प्रकृतीही कां अधीनी| हृदयस्था जया ||१३१८||

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||६२||

तया अहं वाचा चित्त आंग| देऊनिया शरण रिग| महोदधी कां गांग| रिगालें जैसें ||१३१९||
मग तयाचेनि प्रसादें| सर्वोपशांतिप्रमदे| कांतु होऊनिया स्वानंदें| स्वरूपींचि रमसी ||१३२०||
संभूति जेणें संभवे| विश्रांति जेथें विसंवे| अनुभूतिही अनुभवे| अनुभवा जया ||१३२१||
तिये निजात्मपदींचा रावो| होऊनि ठाकसी अव्यवो| म्हणे लक्ष्मीनाहो| पार्था तूं गा ||१३२२||

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ||६३||

हें गीता नाम विख्यात| सर्ववाङ्गमयाचें मथित| आत्मा जेणें हस्तगत| रत्न होय ||१३२३||
ज्ञान ऐसिया रूढी| वेदांतीं जयाची प्रौढी| वानितां कीर्ति चोखडी| पातली जगीं ||१३२४||
बुद्ध्यादिकें डोळसें| हें जयाचें कां कडवसें| मी सर्वद्रष्टाही दिसें| पाहला जया ||१३२५||
तें हें गा आत्मज्ञान| मज गोप्याचेंही गुप्त धन| परी तूं म्हणौनि आन| केवीं करूं ? ||१३२६||
याकारणें गा पांडवा| आम्हीं आपुला हा गुह्य ठेवा| तुज दिधला कणवा| जाकळिलेपणें ||१३२७||
जैसी भुलली वोरसें| माय बोले बाळा दोषें| प्रीति ही परी तैसें| न करूंचि हो ||१३२८||
येथ आकाश आणि गाळिजे| अमृताही साली फेडिजे| कां दिव्याकरवीं करविजे| दिव्य जैसे ||१३२९||
जयाचेनि अंगप्रकाशें| पाताळींचा परमाणु दिसे| तया सूर्याहि का जैसे| अंजन सूदलें ||१३३०||
तैसें सर्वज्ञेंही मियां| सर्वही निर्धारूनियां| निकें होय तें धनंजया| सांगितलें तुज ||१३३१||
आतां तूं ययावरी| निकें हें निर्धारीं| निर्धारूनि करीं| आवडे तैसें ||१३३२||
यया देवाचिया बोला| अर्जुनु उगाचि ठेला| तेथ देवो म्हणती भला| अवंचकु होसी ||१३३३||
वाढतयापुढें भुकेला| उपरोधें म्हणे मी धाला| तैं तोचि पीडे आपुला| आणि दोषुही तया ||१३३४||
तैसा सर्वज्ञु श्रीगुरु| भेटलिया आत्मनिर्धारु| न पुसिजे जैं आभारु| धरूनियां ||१३३५||
तैं आपणपेंचि वंचे| आणि पापही वंचनाचें| आपणयाचि साचें| चुकविलें तेणें ||१३३६||
पैं उगेपणा तुझिया| हा अभिप्रावो कीं धनंजया| जें एकवेळ आवांकुनियां| सांगावें ज्ञान ||१३३७||
तेथ पार्थु म्हणे दातारा| भलें जाणसी माझिया अंतरा| हें म्हणों तरी दुसरा| जाणता असे काई ? ||१३३८||
येर ज्ञेय हें जी आघवें| तूं ज्ञाता एकचि स्वभावें| मा सूर्यु म्हणौनि वानावें| सूर्यातें काई ? ||१३३९||
या बोला श्रीकृष्णें| म्हणितलें काय येणें| हेंचि थोडें गा वानणें| जें बुझतासि तूं ||१३४०||

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः |
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ||६४||

तरी अवधान पघळ| करूनियाम् आणिक येक वेळ| वाक्य माझें निर्मळ| अवधारीं पां ||१३४१||
हें वाच्य म्हणौनि बोलिजे| कां श्राव्य मग आयिकिजे| तैसें नव्हें परी तुझें| भाग्य बरवें ||१३४२||
कूर्मीचिया पिलियां| दिठी पान्हा ये धनंजया| कां आकाश वाहे बापिया| घरींचें पाणी ||१३४३||
जो व्यवहारु जेथ न घडे| तयाचें फळचि तेथ जोडे| काय दैवें न सांपडे| सानुकूळें ? ||१३४४||
येऱ्हवीं द्वैताची वारी| सारूनि ऐक्याच्या परीवरीं| भोगिजे तें अवधारीं| रहस्य हें ||१३४५||
आणि निरुपचारा प्रेमा| विषय होय जें प्रियोत्तमा| तें दुजें नव्हे कीं आत्मा| ऐसेंचि जाणावें ||१३४६||
आरिसाचिया देखिलया| गोमटें कीजे धनंजया| तें तया नोहे आपणयां| लागीं जैसें ||१३४७||
तैसें पार्था तुझेनि मिषें| मी बोलें आपणयाचि उद्देशें| माझ्या तुझ्या ठाईं असे | मीतूंपण गा ||१३४८||
म्हणौनि जिव्हारींचें गुज| सांगतसे जीवासी तुज| हें अनन्यगतीचें मज| आथी व्यसन ||१३४९||
पैम् जळा आपणपें देतां| लवण भुललें पंडुसुता| कीं आघवें तयाचें होतां| न लजेचि तें ||१३५०||
तैसा तूं माझ्या ठाईं| राखों नेणसीचि कांहीं| तरी आतां तुज काई| गोप्य मी करूं ? ||१३५१||
म्हणौनि आघवींचि गूढें| जें पाऊनि अति उघडें| तें गोप्य माझें चोखडें| वाक्य आइक ||१३५२||

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||६५||

तरी बाह्य आणि अंतरा| आपुलिया सर्व व्यापारा| मज व्यापकातें वीरा| विषयो करीं ||१३५३||
आघवा आंगीं जैसा| वायु मिळोनि आहे आकाशा| तूं सर्व कर्मीं तैसा| मजसींचि आस ||१३५४||
किंबहुना आपुलें मन| करीं माझें एकायतन| माझेनि श्रवणें कान| भरूनि घालीं ||१३५५||
आत्मज्ञानें चोखडीं| संत जे माझीं रूपडीं| तेथ दृष्टि पडो आवडी| कामिनी जैसी ||१३५६||
मीं सर्व वस्तीचें वसौटें| माझीं नामें जियें चोखटें| तियें जियावया वाटे| वाचेचिये लावीं ||१३५७||
हातांचें करणें| कां पायांचें चालणें| तें होय मजकारणें| तैसें करीं ||१३५८||
आपुला अथवा परावा| ठायीं उपकरसी पांडवा| तेणें यज्ञें होईं बरवा| याज्ञिकु माझा ||१३५९||
हें एकैक शिकऊं काई| पैं सेवकें आपुल्या ठाईं| उरूनि येर सर्वही| मी सेव्यचि करीं ||१३६०||
तेथ जाऊनिया भूतद्वेषु| सर्वत्र नमवैन मीचि एकु| ऐसेनि आश्रयो आत्यंतिकु| लाहसी तूं माझा ||१३६१||
मग भरलेया जगाआंतु| जाऊनि तिजयाची मातु| होऊनि ठायील एकांतु| आम्हां तुम्हां ||१३६२||
तेव्हां भलतिये आवस्थे| मी तूतें तूं मातें| भोगिसी ऐसें आइतें| वाढेल सुख ||१३६३||
आणि तिजें आडळ करितें| निमालें अर्जुना जेथें| तें मीचि म्हणौनि तूं मातें| पावसी शेखीं ||१३६४||
जैसी जळींची प्रतिभा| जळनाशीं बिंबा| येतां गाभागोभा| कांहीं आहे ? ||१३६५||
पैं पवनु अंबरा| कां कल्लोळु सागरा| मिळतां आडवारा| कोणाचा गा ? ||१३६६||
म्हणौनि तूं आणि आम्हीं| हें दिसताहे देहधर्मीं| मग ययाच्या विरामीं| मीचि होसी ||१३६७||
यया बोलामाझारीं| होय नव्हे झणें करीं| येथ आन आथी तरी| तुझीचि आण ||१३६८||
पैं तुझी आण वाहणें| हें आत्मलिंगातें शिवणें| प्रीतीची जाति लाजणें| आठवों नेदी ||१३६९||
येऱ्हवीं वेद्यु निष्प्रपंचु| जेणें विश्वाभासु हा साचु| आज्ञेचा नटनाचु| काळातें जिणें ||१३७०||
तो देवो मी सत्यसंकल्पु| आणि जगाच्या हितीं बापु| मा आणेचा आक्षेपु| कां करावा ? ||१३७१||
परी अर्जुना तुझेनि वेधें| मियां देवपणाचीं बिरुदें| सांडिलीं गा मी हे आधें | सगळेनि तुवां ||१३७२||
पैं काजा आपुलिया| रावो आपुली आपणया| आण वाहे धनंजया| तैसें हें कीं ||१३७३||
तेथ अर्जुनु म्हणे देवें| अचाट हें न बोलावें| जे आमचें काज नांवें| तुझेनि एके ||१३७४||
यावरी सांगों बैससी | कां सांगतां भाषही देसी| या तुझिया विनोदासी| पारु आहे जी ? ||१३७५||
कमळवना विकाशु| करी रवीचा एक अंशु | तेथ आघवाचि प्रकाशु| नित्य दे तो ||१३७६||
पृथ्वी निवऊनि सागर| भरीजती येवढें थोर| वर्षे तेथ मिषांतर| चातकु कीं ||१३७७||
म्हणौनि औदार्या तुझेया| मज निमित्त ना म्हणावया| प्राप्ति असे दानीराया| कृपानिधी ||१३७८||
तंव देवो म्हणती राहें| या बोलाचा प्रस्तावो नोहे| पैं मातें पावसी उपायें | साचचि येणें ||१३७९||
सैंधव सिंधू पडलिया| जो क्षणु धनंजया| तेणें विरेचि कीं उरावया| कारण कायी ? ||१३८०||
तैसें सर्वत्र मातें भजतां| सर्व मी होतां अहंता| निःशेष जाऊनि तत्वता| मीचि होसी ||१३८१||
एवं माझिये प्राप्तीवरी| कर्मालागोनि अवधारीं| दाविली तुज उजरी| उपायांची ||१३८२||
जे आधीं तंव पंडुसुता| सर्व कर्में मज अर्पितां| सर्वत्र प्रसन्नता| लाहिजे माझी ||१३८३||
पाठीं माझ्या इये प्रसादीं| माझें ज्ञान जाय सिद्धी| तेणें मिसळिजे त्रिशुद्धी| स्वरूपीं माझ्या ||१३८४||
मग पार्था तिये ठायीं| साध्य साधन होय नाहीं| किंबहुना तुज कांहीं| उरेचि ना ||१३८५||
तरी सर्व कर्में आपलीं| तुवां सर्वदा मज अर्पिलीं| तेणें प्रसन्नता लाधली| आजि हे माझी ||१३८६||
म्हणौनि येणें प्रसादबळें| नव्हे झुंजाचेनि आडळें| न ठाकेचि येकवेळे| भाळलों तुज ||१३८७||
जेणें सप्रपंच अज्ञान जाये| एकु मी गोचरु होये| तें उपपत्तीचेनि उपायें| गीतारूप हें ||१३८८||
मियां ज्ञान तुज आपुलें| नानापरी उपदेशिलें| येणें अज्ञानजात सांडी वियालें| धर्माधर्म जें ||१३८९||

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः ||६६||

आशा जैसी दुःखातें| व्यालीं निंदा दुरितें| हे असो जैसें दैन्यातें| दुर्भगत्व ||१३९०||
तैसें स्वर्गनरकसूचक| अज्ञान व्यालें धर्मादिक| तें सांडूनि घालीं अशेख| ज्ञानें येणें ||१३९१||
हातीं घेऊन तो दोरु| सांडिजे जैसा सर्पाकारु| कां निद्रात्यागें घराचारु| स्वप्नींचा जैसा ||१३९२||
नाना सांडिलेनि कवळें| चंद्रींचें धुये पिंवळें| व्याधित्यागें कडुवाळें- | पण मुखाचें ||१३९३||
अगा दिवसा पाठीं देउनी| मृगजळ घापे त्यजुनी| कां काष्ठत्यागें वन्ही| त्यजिजे जैसा ||१३९४||
तैसें धर्माधर्माचें टवाळ| दावी अज्ञान जें कां मूळ| तें त्यजूनि त्यजीं सकळ| धर्मजात ||१३९५||
मग अज्ञान निमालिया| मीचि येकु असे अपैसया| सनिद्र स्वप्न गेलया| आपणपें जैसें ||१३९६||
तैसा मी एकवांचूनि कांहीं| मग भिन्नाभिन्न आन नाहीं| सोऽहंबोधें तयाच्या ठायीं| अनन्यु होय ||१३९७||
पैंं आपुलेनि भेदेंविण| माझें जाणिजे जें एकपण| तयाचि नांव शरण| मज येएणें गा ||१३९८||
जैसें घटाचेनि नाशें| गगनीं गगन प्रवेशे| मज शरण येणें तैसें| ऐक्य करी ||१३९९||
सुवर्णमणि सोनया| ये कल्लोळु जैसा पाणिया| तैसा मज धनंजया| शरण ये तूं ||१४००||
वांचूनि सागराच्या पोटीं| वडवानळु शरण आला किरीटी| जाळूनि ठाके तया गोठी| वाळूनि दे पां ||१४०१||
मजही शरण रिघिजे| आणि जीवत्वेंचि असिजे| धिग् बोली यिया न लजे| प्रज्ञा केवीं ||१४०२||
अगा प्राकृताही राया| आंगीं पडे जें धनंजया| तें दासिरूंहि कीं तया| समान होय ||१४०३||
मा मी विश्वेश्वरु भेटे| आणि जीवग्रंथी न सुटे| हे बोल नको वोखटें| कानीं ल्ॐ ||१४०४||
म्हणौनि मी होऊनि मातें| सेवणें आहे आयितें| तें करीं हातां येतें| ज्ञानें येणें ||१४०५||
मग ताकौनियां काढिलें| लोणी मागौतें ताकीं घातलें| परी न घेपेचि कांहींं केलें| तेणें जेवीं ||१४०६||
तैसें अद्वयत्वें मज| शरण रिघालिया तुज| धर्माधर्म हे सहज| लागतील ना ||१४०७||
लोह उभें खाय माती| तें परीसाचिये संगतीं| सोनें जालया पुढती| न शिविजे मळें ||१४०८||
हें असो काष्ठापासोनि| मथूनि घेतलिया वन्ही| मग काष्ठेंही कोंडोनी| न ठके जैसा ||१४०९||
अर्जुना काय दिनकरु| देखत आहे अंधारु| कीं प्रबोधीं होय गोचरु| स्वप्नभ्रमु ||१४१०||
तैसें मजसी येकवटलेया| मी सर्वरूप वांचूनियां| आन कांहीं उरावया| कारण असे ? ||१४११||
म्हणौनि तयाचें कांहीं| चिंतीं न आपुल्या ठायीं| तुझें पापपुण्य पाहीं| मीचि होईन ||१४१२||
तेथ सर्वबंधलक्षणें| पापें उरावें दुजेपणें| तें माझ्या बोधीं वायाणें| होऊनि जाईल ||१४१३||
जळीं पडिलिया लवणा| सर्वही जळ होईल विचक्षणा| तुज मी अनन्यशरणा| होईन तैसा ||१४१४||
येतुलेनि आपैसया| सुटलाचि आहसी धनंजया| घेईं मज प्रकाशोनियां| सोडवीन तूंतें ||१४१५||
याकारणें पुढती| हे आधी न वाहे चित्तीं| मज एकासि ये सुमती| जाणोनि शरण ||१४१६||
ऐसें सर्वरूपरूपसें| सर्वदृष्टिडोळसें| सर्वदेशनिवासें| बोलिलें श्रीकृष्णें ||१४१७||
मग सांवळा सकंकणु| बाहु पसरोनि दक्षिणु| आलिंगिला स्वशरणु| भक्तराजु तो ||१४१८||
न पवतां जयातें| काखे सूनि बुद्धीतें| बोंलणें मागौतें| वोसरलें ||१४१९||
ऐसें जें कांहीं येक| बोला बुद्धीसिही अटक| तें द्यावया मिष| खेवाचें केलें ||१४२०||
हृदया हृदय येक जाले| ये हृदयींचें ते हृदयीं घातलें| द्वैत न मोडितां केलें | आपणाऐसें अर्जुना ||१४२१||
दीपें दीप लाविला| तैसा परीष्वंगु तो जाला| द्वैत न मोडितां केला| आपणपें पार्थुं ||१४२२||
तेव्हां सुखाचा मग तया| पूरु आला जो धनंजया| तेथ वाडु तऱ्हीं बुडोनियां| ठेला देवो ||१४२३||
सिंधु सिंधूतें पावों जाये| तें पावणें ठाके दुणा होये| वरी रिगे पुरवणिये| आकाशही ||१४२४||
तैसें तयां दोघांचें मिळणें| दोघां नावरे जाणावें कवणें| किंबहुना श्रीनारायणें| विश्व कोंदलें ||१४२५||
एवं वेदाचें मूळसूत्र| सर्वाधिकारैकपवित्र| श्रीकृष्णें गीताशास्त्र| प्रकट केलें ||१४२६||
येथ गीता मूळ वेदां| ऐसें केवीं पां आलें बोधा| हें म्हणाल तरी प्रसिद्धा| उपपत्ति सांगों ||१४२७||
तरी जयाच्या निःश्वासीं| जन्म झाले वेदराशी| तो सत्यप्रतिज्ञ पैजेसीं| बोलला स्वमुखें ||१४२८||
म्हणौनि वेदां मूळभूत| गीता म्हणों हें होय उचित| आणिकही येकी येथ| उपपत्ति असे ||१४२९||
जें न नशतु स्वरूपें| जयाचा विस्तारु जेथ लपे| तें तयांचें म्हणिपे| बीज जगीं ||१४३०||
तरी कांडत्रयात्मकु| शब्दराशी अशेखु| गीतेमाजीं असे रुखु| बीजीं जैसा ||१४३१||
म्हणौनि वेदांचें बीज| श्रीगीता होय हें मज| गमे आणि सहज| दिसतही आहे ||१४३२||
जे वेदांचे तिन्ही भाग| गीते उमटले असती चांग| भूषणरत्नीं सर्वांग| शोभलें जैसें ||१४३३||
तियेचि कर्मादिकें तिन्ही| कांडें कोणकोणे स्थानीं| गीते आहाति तें नयनीं| दाखऊं आईक ||१४३४||
तरी पहिला जो अध्यावो| तो शास्त्रप्रवृत्तिप्रस्तावो| द्वितीयीं साङ्ख्यसद्भावो| प्रकाशिला ||१४३५||
मोक्षदानीं स्वतंत्र| ज्ञानप्रधान हें शास्त्र| येतुलालें दुजीं सूत्र| उभारिलें ||१४३६||
मग अज्ञानें बांधलेयां| मोक्षपदीं बैसावया| साधनारंभु तो तृतीया- | ध्यायीं बोलिला ||. १४३७||
जे देहाभिमान बंधें| सांडूनि काम्यनिषिद्धें| विहित परी अप्रमादें| अनुष्ठावें ||१४३८||
ऐसेनि सद्भावें कर्म करावें| हा तिजा अध्यावो जो देवें| निर्णय केला तें जाणावें| कर्मकांड येथ ||१४३९||
आणि तेंचि नित्यादिक| अज्ञानाचें आवश्यक| आचरतां मोंचक| केवीं होय पां ||१४४०||
ऐसी अपेक्षा जालिया| बद्ध मुमुक्षुते आलिया| देवें ब्रह्मार्पणत्वें क्रिया| सांगितली ||१४४१||
जे देहवाचामानसें| विहित निपजे जें जैसें| तें एक ईश्वरोद्देशें| कीजे म्हणितलें ||१४४२||
हेंचि ईश्वरीं कर्मयोगें| भजनकथनाचें खागें| आदरिलें शेषभागें | चतुर्थाचेनी ||१४४३||
तें विश्वरूप अकरावा| अध्यावो संपे जंव आघवा. तंव कर्में ईशु भजावा| हें जें बोलिलें ||१४४४||
तें अष्टाध्यायीं उघड| जाण येथें देवताकांड| शास्त्र सांगतसे आड| मोडूनि बोलें ||१४४५||
आणि तेणेंचि ईशप्रसादें| श्रीगुरुसंप्रदायलब्धें| साच ज्ञान उद्बोधे| कोंवळें जें ||१४४६||
तें अद्वेष्टादिप्रभृतिकीं| अथवा अमानित्वादिकीं| वाढविजे म्हणौनि लेखी| बारावा गणूं ||१४४७||
तो बारावा अध्याय आदी| आणि पंधरावा अवधी| ज्ञानफळपाकसिद्धी| निरूपणासीं ||१४४८||
म्हणौनि चहूंही इहीं| ऊर्ध्वमूळांतीं अध्यायीं| ज्ञानकांड ये ठायीं| निरूपिजे ||१४४९||
एवं कांडत्रयनिरूपणी| श्रुतीचि हे कोडिसवाणी| गीतापद्यरत्नांचीं लेणीं| लेयिली आहे ||१४५०||
हें असो कांडत्रयात्मक| श्रुति मोक्षरूप फळ येक| बोभावे जें आवश्यक| ठाकावें म्हणौनि ||१४५१||
तयाचेनि साधन ज्ञानेंसीं| वैर करी जो प्रतिदिवशीं| तो अज्ञानवर्ग षोडशीं| प्रतिपादिजे ||१४५२||
तोचि शास्त्राचा बोळावा| घेवोनि वैरी जिणावा| हा निरोपु तो सतरावा| अध्याय येथ ||१४५३||
ऐसा प्रथमालागोनि| सतरावा लाणी करूनी| आत्मनिश्वास विवरूनी| दाविला देवें ||१४५४||
तया अर्थजातां अशेषां| केला तात्पर्याचा आवांका| तो हा अठरावा देखा| कलशाध्यायो ||१४५५||
एवं सकळसंख्यासिद्धु| श्रीभागवद्गीता प्रबंधु| हा औदार्यें आगळा वेदु| मूर्तु जाण ||१४५६||
वेदु संपन्नु होय ठाईं| परी कृपणु ऐसा आनु नाहीं| जे कानीं लागला तिहीं| वर्णांच्याचि ||१४५७||
येरां भवव्याथा ठेलियां| स्त्रीशूद्रादिकां प्राणियां| अनवसरू मांडूनियां| राहिला आहे ||१४५८||
तरी मज पाहतां तें मागील उणें| फेडावया गीतापणें| वेदु वेठला भलतेणें| सेव्य होआवया ||१४५९||
ना हे अर्थु रिगोनि मनीं| श्रवणें लागोनि कानीं| जपमिषें वदनीं| वसोनियां ||१४६०||
ये गीतेचा पाठु जो जाणे| तयाचेनि सांगातीपणें| गीता लिहोनि वाहाणें| पुस्तकमिषें ||१४६१||
ऐसैसा मिसकटां| संसाराचा चोहटा| गवादी घालीत चोखटा| मोक्षसुखाची ||१४६२||
परी आकाशीं वसावया| पृथ्वीवरी बैसावया| रविदीप्ति राहाटावया| आवारु नभ ||१४६३||
तेवीं उत्तम अधम ऐसें| सेवितां कवणातेंही न पुसे| कैवल्यदानें सरिसें| निववीत जगा ||१४६४||
यालागीं मागिली कुटी| भ्याला वेदु गीतेच्या पोटीं| रिगाला आतां गोमटी| कीर्ति पातला ||१४६५||
म्हणौनि वेदाची सुसेव्यता| ते हे मूर्त जाण श्रीगीता| श्रीकृष्णें पंडुसुता| उपदेशिली ||१४६६||
परी वत्साचेनि वोरसें| दुभतें होय घरोद्देशें| जालें पांडवाचेनि मिषें| जगदुद्धरण ||१४६७||
चातकाचियें कणवें| मेघु पाणियेसिं धांवे| तेथ चराचर आघवें| निवालें जेवीं ||१४६८||
कां अनन्यगतिकमळा- | लागीं सूर्य ये वेळोवेळां| कीं सुखिया होईजे डोळां| त्रिभुवनींचा ||१४६९||
तैसें अर्जुनाचेनि व्याजें| गीता प्रकाशूनि श्रीराजें| संसारायेवढें थोर ओझें| फेडिलें जगाचें ||१४७०||
सर्वशास्त्ररत्नदीप्ती| उजळिता हा त्रिजगतीं| सूर्यु नव्हें लक्ष्मीपती| वक्त्राकाशींचा ||१४७१||
बाप कुळ तें पवित्र| जेथिंचा पार्थु या ज्ञाना पात्र| जेणें गीता केलें शास्त्र| आवारु जगा ||१४७२||
हें असो मग तेणें| सद्गुरु श्रीकृष्णें| पार्थाचें मिसळणें| आणिलें द्वैता ||१४७३||
पाठीं म्हणतसे पांडवा| शास्त्र हें मानलें कीं जीवा| तेथ येरु म्हणे देवा| आपुलिया कृपा ||१४७४||
तरी निधान जोडावया| भाग्य घडे गा धनंजया| परी जोडिलें भोगावया | विपायें होय ||१४७५||
पैं क्षीरसागरायेवढें| अविरजी दुधाचें भांडें| सुरां असुरां केवढें| मथितां जालें ||१४७६||
तें सायासही फळा आलें| जें अमृतही डोळां देखिलें| परी वरिचिली चुकलें| जतनेतें ||१४७७||
तेथ अमरत्वा वोगरिलें| तें मरणाचिलागीं जालें| भोगों नेणतां जोडलें| ऐसें आहे ||१४७८||
नहुषु स्वर्गाधिपति जाहला| परी राहाटीं भांबावला| तो भुजंगत्व पावला| नेणसी कायी ? ||१४७९||
म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां| केलें तेणें धनंजया| आजि शास्त्रराजा इया| जालासि विषयो ||१४८०||
तरी ययाचि शास्त्राचेनि| संप्रदायें पांघुरौनि| शास्त्रार्थ हा निकेनि| अनुष्ठीं हो ||१४८१||
येऱ्हवीं अमृतमंथना- | सारिखें होईल अर्जुना| जरी रिघसी अनुष्ठाना| संप्रदायेंवीण ||१४८२||
गाय धड जोडे गोमटी| ते तैंचि पिवों ये किरीटी| जैं जाणिजे हातवटी| सांजवणीची ||१४८३||
तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये| शिष्य विद्याही कीर लाहे| परी ते फळे संप्रदायें| उपासिलिया ||१४८४||
म्हणौनि शास्त्रीं जो इये| उचितु संप्रदायो आहे| तो ऐक आतां बहुवें| आदरेंसीं ||१४८५||

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||६७||

तरी तुवां हें जें पार्था| गीताशास्त्र लाधलें आस्था| तें तपोहीना सर्वथा| सांगावें ना हो ||. १४८६||
अथवा तापसुही जाला | परी गुरूभक्तीं जो ढिला| तो वेदीं अंत्यजु वाळिळा| तैसा वाळीं ||१४८७||
नातरी पुरोडाशु जैसा| न घापे वृद्ध तरी वायसा| गीता नेदी तैसी तापसा| गुरुभक्तिहीना ||१४८८||
कां तपही जोडे देहीं| भजे गुरुदेवांच्या ठायीं| परी आकर्णनीं नाहीं| चाड जरी ||१४८९||
तरी मागील दोन्हीं आंगीं| उत्तम होय कीर जगीं| परी या श्रवणालागीं| योग्यु नोहे ||१४९०||
मुक्ताफळ भलतैसें| हो परी मुख नसे| तंव गुण प्रवेशे| तेथ कायी ? ||१४९१||
सागरु गंभीरु होये| हें कोण ना म्हणत आहे| परी वृष्टि वायां जाये| जाली तेथ ||१४९२||
धालिया दिव्यान्न सुवावें| मग जें वायां धाडावें| तें आर्तीं कां न करावें| उदारपण ||१४९३||
म्हणौनि योग्य भलतैसें| होतु परी चाड नसे| तरी झणें वानिवसें| देसी हें तयां ||१४९४||
रूपाचा सुजाणु डोळा| वोढवूं ये कायि परिमळा ? | जेथ जें माने ते फळा| तेथचि ते गा ||१४९५||
म्हणौनि तपी भक्ति| पाहावे ते सुभद्रापती| परी शास्त्रश्रवणीं अनासक्ती| वाळावेचि ते ||१४९६||
नातरी तपभक्ति| होऊनि श्रवणीं आर्ति| आथी ऐसीही आयती| देखसी जरी ||१४९७||
तरी गीताशास्त्रनिर्मिता| जो मी सकळलोकशास्ता| तया मातें सामान्यता| बोलेल जो ||१४९८||
माझ्या सज्जनेंसिं मातें| पैशुन्याचेनि हातें| येक आहाती तयांतें| योग्य न म्हण ||१४९९||
तयांची येर आघवी| सामग्री ऐसी जाणावी| दीपेंवीण ठाणदिवी| रात्रीची जैसी ||१५००||
अंग गोरें आणि तरुणें| वरी लेईलें आहे लेणें| परी येकलेनि प्राणें| सांडिलें जेवीं ||१५०१||
सोनयाचें सुंदर| निर्वाळिलें होय घर| परी सर्पांगना द्वार| रुंधलें आहे ||१५०२||
निपजे दिव्यान्न चोखट| परी माजीं काळकूट| असो मैत्री कपट- | गर्भिणी जैसी ||१५०३||
तैसी तपभक्तिमेधा| तयाची जाण प्रबुद्धा| जो माझयांची कां निंदा| माझीचि करी ||१५०४||
याकारणें धनंजया| तो भक्तु मेधावीं तपिया| तरी नको बापा इया| शास्त्रा आतळों देवों ||१५०५||
काय बहु बोलों निंदका| योग्य स्रष्टयाहीसारिखा| गीता हे कवतिका- | लागींही नेदीं ||१५०६||
म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा| तळीं दाटोनि गाडोरा| वरी गुरुभक्तीचा पुरा| प्रासादु जो जाला ||१५०७||
आणि श्रवणेच्छेचा पुढां| दारवंटा सदा उघडा| वरी कलशु चोखडा| अनिंदारत्नांचा ||१५०८||

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ||६८||

ऐशा भक्तालयीं चोखटीं| गीतारत्नेश्वरु हा प्रतिष्ठीं| मग माझिया संवसाटी| तुकसी जगीं ||१५०९||
कां जे एकाक्षरपणेंसीं| त्रिमात्रकेचिये कुशीं| प्रणवु होतां गर्भवासीं| सांकडला ||१५१०||
तो गीतेचिया बाहाळींं| वेदबीज गेलें पाहाळीँ| कीं गायत्री फुलींफळीं| श्लोकांच्या आली ||१५११||
ते हे मंत्ररहय गीता| मेळवी जो माझिया भक्ता| अनन्यजीवना माता| बाळका जैसी ||१५१२||
तैसी भक्तां गीतेसीं| भेटी करी जो आदरेंसीं| तो देहापाठीं मजसीं| येकचि होय ||१५१३||

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||६९||

आणि देहाचेंही लेणें| लेऊनि वेगळेपणें| असे तंव जीवेंप्राणें| तोचि पढिये ||१५१४||
ज्ञानियां कर्मठां तापसां| यया खुणेचिया माणुसां- | माजीं तो येकु गा जैसा| पढिये मज ||१५१५||
तैसा भूतळीं आघवा| आन न देखे पांडवा| जो गीता सांगें मेळावा| भक्तजनांचा ||१५१६||
मज ईश्वराचेनि लोभें| हे गीता पढतां अक्षोभें| जो मंडन होय सभे| संतांचिये ||१५१७||
नेत्रपल्लवीं रोमांचितु| मंदानिळें कांपवितु| आमोदजळें वोलवितु| फुलांचे डोळें ||१५१८||
कोकिळा कलरवाचेनि मिषें| सद्गद बोलवीत जैसें| वसंत का प्रवेशे| मद्भक्त आरामीं ||१५१९||
कां जन्माचें फळ चकोरां| होत जैं चंद्र ये अंबरा| नाना नवघन मयूरां| वो देत पावे ||१५२०||
तैसा सज्जनांच्या मेळापीं| गीतापद्यरत्नीं उमपीं| वर्षे जो माझ्या रूपीं| हेतु ठेऊनि ||१५२१||
मग तयाचेनि पाडें| पढियंतें मज फुडें| नाहींचि गा मागेंपुढें| न्याहाळितां ||१५२२||
अर्जुना हा ठायवरी| मी तयातें सूयें जिव्हारीं| जो गीतार्थाचें करी| परगुणें संतां ||१५२३||

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ||७०||

पैं माझिया तुझिया मिळणीं| वाढिनली जे हे कहाणी| मोक्षधर्म का जिणीं| आलासे जेथें ||१५२४||
तो हा सकळार्थप्रबोधु| आम्हां दोघांचा संवादु| न करितां पदभेदु| पाठेंचि जो पढे ||१५२५||
तेणें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं| मूळ अविद्येचिया आहुती| तोषविला होय सुमती| परमात्मा मी ||१५२६||
घेऊनि गीतार्थ उगाणा| ज्ञानिये जें विचक्षणा| ठाकती तें गाणावाणा| गीतेचा तो लाहे ||१५२७||
गीता पाठकासि असे | फळ अर्थज्ञाचि सरिसें| गीता माउलियेसि नसे| जाणें तान्हें ||१५२८||

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः |
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ||७१||

आणि सर्वमार्गीं निंदा| सांडूनि आस्था पैं शुद्धा| गीताश्रवणीं श्रद्धा| उभारी जो ||१५२९||
तयाच्या श्रवणपुटीं| गीतेचीं अक्षरें जंव पैठीं| होतीना तंव उठाउठीं| पळेचि पाप ||१५३०||
अटवियेमाजीं जैसा| वन्हि रिघतां सहसा| लंघिती का दिशा| वनौकें तियें ||१५३१||
कां उदयाचळकुळीं| झळकतां अंशुमाळी| तिमिरें अंतराळीं| हारपती ||१५३२||
तैसा कानाच्या महाद्वारीं| गीता गजर जेथ करी| तेथ सृष्टीचिये आदिवरी| जायचि पाप ||१५३३||
ऐसी जन्मवेली धुवट| होय पुण्यरूप चोखट| याहीवरी अचाट| लाहे फळ ||१५३४||
जें इये गीतेचीं अक्षरें| जेतुलीं कां कर्णद्वारें| रिघती तेतुले होती पुरे| अश्वमेध कीं ||१५३५||
म्हणौनि श्रवणें पापें जाती| आणि धर्म धरी उन्नती| तेणें स्वर्गराज संपत्ती| लाहेचि शेखीं ||१५३६||
तो पैं मज यावयालागीं| पहिलें पेणें करी स्वर्गीं| मग आवडे तंव भोगी| पाठीं मजचि मिळे ||१५३७||
ऐसी गीता धनंजया| ऐकतया आणि पढतया| फळे महानंदें मियां| बहु काय बोलों ||१५३८||
याकारणें हें असो| परी जयालागीं शास्त्रातिसो| केला तें तंव तुज पुसों| काज तुझें ||१५३९||

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ||७२||

तरी सांग पां पांडवा| हा शास्त्रसिद्धांतु आघवा| तुज एकचित्तें फावा| गेला आहे ? ||१५४०||
आम्हीं जैसें जया रीतीं| उगाणिलें कानांच्या हातीं| येरीं तैसेंचि तुझ्या चित्तीं | पेठें केलें कीं ? ||१५४१||
अथवा माझारीं| गेलें सांडीविखुरी| किंवा उपेक्षेवरी| वाळूनि सांडिलें ||१५४२||
जैसें आम्हीं सांगितलें| तैसेंचि हृदयीं फावलें| तरी सांग पां वहिलें| पुसेन तें मी ||१५४३||
तरी स्वाज्ञानजनितें| मागिलें मोहें तूतें| भुलविलें तो येथें| असे कीं नाहीं ? ||१५४४||
हें बहु पुसों काई| सांगें तूं आपल्या ठायीं| कर्माकर्म कांहीं| देखतासी ? ||१५४५||
पार्थु स्वानंदैकरसें| विरेल ऐसा भेददशे| आणिला येणें मिषें| प्रश्नाचेनि ||१५४६||
पूर्णब्रह्म जाला पार्थु| तरी पुढील साधावया कार्यार्थु| मर्यादा श्रीकृष्णनाथु| उल्लंघों नेदी ||१५४७||
येऱ्हवीं आपुलें करणें| सर्वज्ञ काय तो नेणें ? | परी केलें पुसणें| याचि लागीं ||१५४८||
एवं करोनियां प्रश्न| नसतेंचि अर्जुनपण| आणूनियां जालें पूर्णपण| तें बोलवी स्वयें ||१५४९||
मग क्षीराब्धीतें सांडितु| गगनीं पुंजु मंडितु| निवडे जैसा न निवडितु| पूर्णचंद्रु ||१५५०||
तैसा ब्रह्म मी हें विसरे| तेथ जगचि ब्रह्मत्वें भरे| हेंही सांडी तरी विरे| ब्रह्मपणही ||१५५१||
ऐसा मोडतु मांडतु ब्रह्में| तो दुःखें देहाचिये सीमे| मी अर्जुन येणें नामें| उभा ठेला ||१५५२||
मग कांपतां करतळीं| दडपूनि रोमावळी| पुलिका स्वेदजळीं| जिरऊनियां ||१५५३||
प्राणक्षोभें डोलतया| आंगा आंगचि टेंकया| सूनि स्तंभु चाळया| भुलौनियां ||१५५४||
नेत्रयुगुळाचेनि वोतें| आनंदामृताचें भरितें| वोसंडत तें मागुतें| काढूनियां ||१५५५||
विविधा औत्सुक्यांची दाटी| चीप दाटत होती कंठीं| ते करूनियां पैठी| हृदयामाजीं ||१५५६||
वाचेचें वितुळणें| सांवरूनि प्राणें| अक्रमाचें श्वसणें| ठेऊनि ठायीं ||१५५७||

अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||७३||

मग अर्जुन म्हणे काय देवो| | पुसताति आवडे मोहो| तरी तो सकुटुंब गेला जी ठावो| घेऊनि आपला ||१५५८||
पासीं येऊनि दिनकरें| डोळ्यातें अंधारें| पुसिजे हें कायि सरे| कोणे गांवीं ? ||१५५९||
तैसा तूं श्रीकृष्णराया| आमुचिया डोळयां| गोचर हेंचि कायिसया| न पुरे तंव ||१५६०||
वरी लोभें मायेपासूनी| तें सांगसी तोंड भरूनी| जें कायिसेनिही करूनी| जाणूं नये ||१५६१||
आतां मोह असे कीं नाहीं| हें ऐसें जी पुससी काई| कृतकृत्य जाहलों पाहीं| तुझेपणें ||१५६२||
गुंतलों होतों अर्जुनगुणें| तो मुक्त जालों तुझेपणें| आतां पुसणें सांगणें| दोन्ही नाहीं ||१५६३||
मी तुझेनि प्रसादें| लाधलेनि आत्मबोधें| मोहाचे तया कांदे| नेदीच उरों ||१५६४||
आतां करणें कां न करणें| हें जेणें उठी दुजेपणें| तें तूं वांचूनि नेणें| सर्वत्र गा ||१५६५||
ये विषयीं माझ्या ठायीं| संदेहाचे नुरेचि कांहीं| त्रिशुद्धि कर्म जेथ नाहीं| तें मी जालों ||१५६६||
तुझेनि मज मी पावोनी| कर्तव्य गेलें निपटूनी| परी आज्ञा तुझी वांचोनि| आन नाहीं प्रभो ||१५६७||
कां जें दृश्य दृश्यातें नाशी| जें दुजें द्वैतातें ग्रासी| जें एक परी सर्वदेशीं| वसवी सदा ||१५६८||
जयाचेनि संबंधें बंधु फिटे| जयाचिया आशा आस तुटे| जें भेटलया सर्व भेटे| आपणपांचि ||१५६९||
तें तूं गुरुलिंग जी माझें| जें येकलेपणींचें विरजें| जयालागीं वोलांडिजे| अद्वैतबोधु ||१५७०||
आपणचि होऊनि ब्रह्म| सारिजे कृत्याकृत्यांचें काम| मग कीजे का निःसीम| सेवा जयाची ||१५७१||
गंगा सिंधू सेवूं गेली| पावतांचि समुद्र जाली| तेवीं भक्तां सेल दिधली| निजपदाची ||१५७२||
तो तूं माझा जी निरुपचारु| श्रीकृष्णा सेव्य सद्गुरु| मा ब्रह्मतेचा उपकारु| हाचि मानीं ||१५७३||
जें मज तुम्हां आड| होतें भेदाचें कवाड| तें फेडोनि केलें गोड| सेवासुख ||१५७४||
तरी आतां तुझी आज्ञा| सकळ देवाधिदेवराज्ञा| करीन देईं अनुज्ञा| भलतियेविषयीं ||१५७५||
यया अर्जुनाचिया बोला| देवो नाचे सुखें भुलला| म्हणे विश्वफळा जाला| फळ हा मज ||१५७६||
उणेनि उमचला सुधाकरु| देखुनी आपला कुमरु| मर्यादा क्षीरसागरु| विसरेचिना ? ||१५७७||
ऐसे संवादाचिया बहुलां| लग्न दोघांचियां आंतुला| लागलें देखोनि जाला| निर्भरु संजयो ||१५७८||
तेणें म्हणतसे संजयो | बाप कृपानिधी रावो | तो आपुला मनोभावो | अर्जुनेंसी केला ||१५७९ ||
तेणें उचंबळलेपणें| संजय धृतराष्ट्रातें म्हणे| जी कैसे बादरायणें| रक्षिलों दोघे ? ||१५८०||
आजि तुमतें अवधारा| नाहीं चर्मचक्षूही संसारा| कीं ज्ञानदृष्टिव्यवहारा आणिलेती ||१५८१||
आणि रथींचिये राहाटी| घेई जो घोडेयासाठीं| तया आम्हां या गोष्टी| गोचरा होती ||१५८२||
वरी जुंझाचें निर्वाण| मांडलें असे दारुण| दोहीं हारीं आपण| हारपिजे जैसें ||१५८३||
येवढा जिये सांकडां| कैसा अनुग्रहो पैं गाढा| जे ब्रह्मानंदु उघडा| भोगवीतसे ||१५८४||
ऐसें संजय बोलिला| परी न द्रवे येरु उगला| चंद्रकिरणीं शिवतला| पाषाणु जैसा ||१५८५||
हे देखोनि तयाची दशा| मग करीचिना सरिसा| परी सुखें जाला पिसा| बोलतसे ||१५८६||
भुलविला हर्षवेगें| म्हणौनि धृतराष्ट्रा सांगे| येऱ्हवीं नव्हे तयाजोगें| हें कीर जाणें ||१५८७||

सञ्जय उवाच |
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः |
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ||७४||

मग म्हणे पैं कुरुराजा| ऐसा बंधुपुत्र तो तुझा| बोलिला तें अधोक्षजा| गोड जालें ||१५८८||
अगा पूर्वापर सागर| ययां नामसीचि सिनार| येर आघवें तें नीर| एक जैसें ||१५८९||
तैसा श्रीकृष्ण पार्थ ऐसें| हें आंगाचिपासीं दिसे| मग संवादीं जी नसे| कांहींचि भेदु ||१५९० ||
पैं दर्पणाहूनि चोखें| दोन्ही होती सन्मुखें| तेथ येरी येर देखे| आपणपें जैसें ||१५९१||
तैसा देवेसीं पंडुसुतु| आपणपें देवीं देखतु| पांडवेंसीं देखे अनंतु| आपणपें पार्थीं ||१५९२||
देव देवो भक्तालागीं| जिये विवरूनि देखे आंगीं| येरु तियेचेही भागीं| दोन्ही देखे ||१५९३||
आणिक कांहींच नाहीं| म्हणौनि करिती काई| दोघे येकपणें पाहीं| नांदताती ||१५९४||
आतां भेदु जरी मोडे| तरी प्रश्नोत्तर कां घडे ? | ना भेदुचि तरी जोडे| संवादसुख कां ? ||१५९५||
ऐसें बोलतां दुजेपणें| संवादीं द्वैत गिळणें| तें ऐकिलें बोलणें| दोघांचें मियां ||१५९६||
उटूनि दोन्ही आरिसे| वोडविलीया सरिसे| कोण कोणा पाहातसे| कल्पावें पां ? ||१५९७||
कां दीपासन्मुखु| ठेविलया दीपकु| कोण कोणा अर्थिकु| कोण जाणें ||१५९८||
नाना अर्कापुढें अर्कु| उदयलिया आणिकु| कोण म्हणे प्रकाशकु| प्रकाश्य कवण ? ||१५९९||
हें निर्धारूं जातां फुडें| निर्धारासि ठक पडे| ते दोघे जाले एवढे| संवादें सरिसे ||१६००||
जी मिळतां दोन्ही उदकें | माजी लवण वारूं ठाके| कीं तयासींही निमिखें| तेंचि होय ||१६०१||
तैसे श्रीकृष्ण अर्जुन दोन्ही| संवादले तें मनीं| धरितां मजही वानी| तेंचि होतसे ||१६०२||
ऐसें म्हणे ना मोटकें | तंव हिरोनि सात्विकें| आठव नेला नेणों कें| संजयपणाचा ||१६०३||
रोमांच जंव फरके| तंव तंव आंग सुरके| स्तंभ स्वेदांतें जिंके| एकला कंपु ||१६०४||
अद्वयानंदस्पर्शें| दिठी रसमय जाली असे | ते अश्रु नव्हती जैसें| द्रवत्वचि ||१६०५||
नेणों काय न माय पोटीं| नेणों काय गुंफे कंठीं| वागर्था पडत मिठी| उससांचिया ||१६०६||
किंबहुना सात्विकां आठां| चाचरु मांडतां उमेठा| संजयो जालासे चोहटां| संवादसुखाचा ||१६०७||
तया सुखाची ऐसी जाती| जे आपणचि धरी शांती| मग पुढती देहस्मृती| लाधली तेणें ||१६०८||

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||७५||

तेव्हां बैसतेनि आनंदें| म्हणे जी जें उपनिषदें| नेणती तें व्यासप्रसादें| ऐकिलें मियां ||१६०९||
ऐकतांचि ते गोठी| ब्रह्मत्वाची पडिली मिठी| मीतूंपणेंसीं दृष्टी| विरोनि गेली ||१६१०||
हे आघवेचि का योग| जया ठाया येती मार्ग| तयाचें वाक्य सवंग| केलें मज व्यासें ||१६११||
अहो अर्जुनाचेनि मिषें| आपणपेंचि दुजें ऐसें| नटोनि आपणया उद्देशें| बोलिलें जें देव ||१६१२||
तेथ कीं माझें श्रोत्र| पाटाचें जालें जी पात्र| काय वानूं स्वतंत्र| सामर्थ्य श्रीगुरुचें ||१६१३||

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् |
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ||७६||

राया हें बोलतां विस्मित होये| तेणेंचि मोडावला ठाये| रत्नीं कीं रत्नकिळा ये| झांकोळित जैसी ||१६१४||
हिमवंतींचीं सरोवरें| चंद्रोदयीं होती काश्मीरें| मग सूर्यागमीं माघारें| द्रवत्व ये ||१६१५||
तैसा शरीराचिया स्मृती| तो संवादु संजय चित्तीं| धरी आणि पुढती| तेंचि होय ||१६१६||

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः |
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ||७७||

मग उठोनि म्हणे नृपा| श्रीहरीचिया विश्वरूपा| देखिलया उगा कां पां| असों लाहसी ? ||१६१७||
न देखणेनि जें दिसे| नाहींपणेंचि जें असे | विसरें आठवे तें कैसें| चुकऊं आतां ||१६१८||
देखोनि चमत्कारु| कीजे तो नाहीं पैसारु| मजहीसकट महापूरु| नेत आहे ||१६१९||
ऐसा श्रीकृष्णार्जुन- | संवाद संगमीं स्नान| करूनि देतसे तिळदान| अहंतेचें ||१६२०||
तेथ असंवरें आनंदें| अलौकिकही कांहीं स्फुंदे| श्रीकृष्ण म्हणे सद्गदें| वेळोवेळां ||१६२१||
या अवस्थांची कांहीं| कौरवांतें परी नाहीं| म्हणौनि रायें तें कांहीं| कल्पावें जंव ||१६२२||
तंव जाला सुखलाभु| आपणया करूनि स्वयंभु| बुझाविला अवष्टंभु| संजयें तेणें ||१६२३||
तेथ कोणी येकी अवसरी| होआवी ते करूनि दुरी| रावो म्हणे संजया परी| कैसी तुझी गा ? ||१६२४||
तेणें तूंतें येथें व्यासें| बैसविलें कासया उद्देशें| अप्रसंगामाजीं ऐसें| बोलसी काई ? ||१६२५||
रानींचें राउळा नेलिया| दाही दिशा मानी सुनिया| कां रात्री होय पाहलया| निशाचरां ||१६२६||
जो जेथिंचें गौरव नेणें| तयासि तें भिंगुळवाणें| म्हणौनि अप्रसंगु तेणें| म्हणावा कीं तो ||१६२७||
मग म्हणे सांगें प्रस्तुत| उदयलेंसे जें उत्कळित| तें कोणासि बा रे जैत| देईल शेखीं ? ||१६२८||
येऱ्हवीं विशेषें बहुतेक| आमुचें ऐसें मानसिक| जे दुर्योधनाचे अधिक| प्रताप सदा ||१६२९||
आणि येरांचेनि पाडें| दळही याचें देव्हडें| म्हणौनि जैत फुडें| आणील ना तें ? ||१६३०||
आम्हां तंव गमे ऐसें| मा तुझें ज्योतिष कैसें| तें नेणों संजया असे | तैसें सांग पां ||१६३१||

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||७८||

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ||१८अ ||

यया बोला संजयो म्हणे| जी येरयेरांचें मी नेणें| परी आयुष्य तेथें जिणें| हें फुडें कीं गा ||१६३२||
चंद्रु तेथें चंद्रिका| शंभु तेथें अंबिका| संत तेथें विवेका| असणें कीं जी ||१६३३||
रावो तेथें कटक| सौजन्य तेथें सोयरीक| वन्हि तेथें दाहक| सामर्थ्य कीं ||१६३४||
दया तेथें धर्मु| धर्मु तेथें सुखागमु| सुखीं पुरुषोत्तमु| असे जैसा ||१६३५||
वसंत तेथें वनें| वन तेथें सुमनें| सुमनीं पालिंगनें| सारंगांचीं ||१६३६||
गुरु तेथ ज्ञान| ज्ञानीं आत्मदर्शन| दर्शनीं समाधान| आथी जैसें ||१६३७||
भाग्य तेथ विलासु| सुख तेथ उल्लासु| हें असो तेथ प्रकाशु| सूर्य जेथें ||१६३८||
तैसे सकल पुरुषार्थ| जेणें स्वामी कां सनाथ| तो श्रीकृष्ण रावो जेथ| तेथ लक्ष्मी ||१६३९||
आणि आपुलेनि कांतेंसीं| ते जगदंबा जयापासीं| अणिमादिकीं काय दासी| नव्हती तयातें ? ||१६४०||
कृष्ण विजयस्वरूप निजांगें| तो राहिला असे जेणें भागें| तैं जयो लागवेगें| तेथेंचि आहे ||१६४१||
विजयो नामें अर्जुन विख्यातु| विजयस्वरूप श्रीकृष्णनाथु| श्रियेसीं विजय निश्चितु| तेथेंचि असे ||१६४२||
तयाचिये देशींच्या झाडीं| कल्पतरूतें होडी| न जिणावें कां येवढीं| मायबापें असतां ? ||१६४३||
ते पाषाणही आघवें| चिंतारत्नें कां नोहावे ? | तिये भूमिके कां न यावें| सुवर्णत्व ? ||१६४४||
तयाचिया गांवींचिया| नदी अमृतें वाहाविया| नवल कायि राया| विचारीं पां ||१६४५||
तयाचे बिसाट शब्द| सुखें म्हणों येती वेद| सदेह सच्चिदानंद| कां न व्हावे ते ? ||१६४६||
पैं स्वर्गापवर्ग दोन्ही| इयें पदें जया अधीनीं| तो श्रीकृष्ण बाप जननी| कमळा जया ||१६४७||
म्हणौनि जिया बाहीं उभा| तो लक्ष्मीयेचा वल्लभा| तेथें सर्वसिद्धी स्वयंभा| येर मी नेणें ||१६४८||
आणि समुद्राचा मेघु| उपयोगें तयाहूनि चांगु| तैसा पार्थीं आजि लागु| आहे तये ||१६४९||
कनकत्वदीक्षागुरू| लोहा परिसु होय कीरू| परी जगा पोसिता व्यवहारु| तेंचि जाणें ||१६५०||
येथ गुरुत्वा येतसे उणें| ऐसें झणें कोण्ही म्हणे| वन्हि प्रकाश दीपपणें| प्रकाशी आपुला ||१६५१||
तैसा देवाचिया शक्ती| पार्थु देवासीचि बहुती| परी माने इये स्तुती| गौरव असे ||१६५२||
आणि पुत्रें मी सर्व गुणीं| जिणावा हे बापा शिराणी| तरी ते शारङ्गपाणी| फळा आली ||१६५३||
किंबहुना ऐसा नृपा| पार्थु जालासे कृष्णकृपा| तो जयाकडे साक्षेपा| रीति आहे ||१६५४||
तोचि गा विजयासि ठावो| येथ तुज कोण संदेहो ? | तेथ न ये तरी वावो| विजयोचि होय ||१६५५||
म्हणौनि जेथ श्री तेथें श्रीमंतु| जेथ तो पंडूचा सुतु| तेथ विजय समस्तु| अभ्युदयो तेथ ||१६५६||
जरी व्यासाचेनि साचें| धिरे मन तुमचें| तरी या बोलाचें| ध्रुवचि माना ||१६५७||
जेथ तो श्रीवल्लभु| जेथ भक्तकदंबु| तेथ सुख आणि लाभु| मंगळाचा ||१६५८||
या बोला आन होये| तरी व्यासाचा अंकु न वाहे| ऐसें गाजोनि बाहें| उभिली तेणें ||१६५९||
एवं भारताचा आवांका| आणूनि श्लोका येका| संजयें कुरुनायका| दिधला हातीं ||१६६०||
जैसा नेणों केवढा वन्ही| परी गुणाग्रीं ठेऊनी| आणिजे सूर्याची हानी| निस्तरावया ||१६६१||
तैसें शब्दब्रह्म अनंत| जालें सवालक्ष भारत| भारताचें शतें सात| सर्वस्व गीता ||१६६२||
तयांही सातां शतांचा| इत्यर्थु हा श्लोक शेषींचा| व्यासशिष्य संजयाचा| पूर्णोद्गारु जो ||१६६३||
येणें येकेंचि श्लोकें| राहे तेणें असकें| अविद्याजाताचें निकें| जिंतलें होय ||१६६४||
ऐसें श्लोक शतें सात| गीतेचीं पदें आंगें वाहत| पदें म्हणों कीं परमामृत| गीताकाशींचें ||१६६५||
कीं आत्मराजाचिये सभे| गीते वोडवले हे खांबे| मज श्लोक प्रतिभे| ऐसे येत ||१६६६||
कीं गीता हे सप्तशती| मंत्रप्रतिपाद्य भगवती| मोहमहिषा मुक्ति| आनंदली असे ||१६६७||
म्हणौनि मनें कायें वाचा| जो सेवकु होईल इयेचा| तो स्वानंदासाम्राज्याचा| चक्रवर्ती करी ||१६६८||
कीं अविद्यातिमिररोंखें| श्लोक सूर्यातें पैजा जिंकें| ऐसे प्रकाशिले गीतामिषें| रायें श्रीकृष्णें ||१६६९||
कीं श्लोकाक्षरद्राक्षलता| मांडव जाली आहे गीता| संसारपथश्रांता| विसंवावया ||१६७०||
कीं सभाग्यसंतीं भ्रमरीं| केले ते श्लोककल्हारीं| श्रीकृष्णाख्यसरोवरीं| सासिन्नली हे ||१६७१||
कीं श्लोक नव्हती आन| गमे गीतेचें महिमान| वाखाणिते बंदीजन| उदंड जैसे ||१६७२||
कीं श्लोकांचिया आवारा| सात शतें करूनि सुंदरा| सर्वागम गीतापुरा| वसों आले ||१६७३||
कीं निजकांता आत्मया| आवडी गीता मिळावया| श्लोक नव्हती बाह्या| पसरु का जो ||१६७४||
कीं गीताकमळींचे भृंग| कीं हे गीतासागरतरंग| कीं हरीचे हे तुरंग| गीतारथींचे ||१६७५||
कीं श्लोक सर्वतीर्थ संघातु| आला श्रीगीतेगंगे आंतु| जे अर्जुन नर सिंहस्थु| जाला म्हणौनि ||१६७६||
कीं नोहे हे श्लोकश्रेणी| अचिंत्यचित्तचिंतामणी| कीं निर्विकल्पां लावणी| कल्पतरूंची ||१६७७||
ऐसिया शतें सात श्लोकां| परी आगळा येकयेका| आतां कोण वेगळिका| वानावां पां ||१६७८||
तान्ही आणि पारठी| इया कामधेनूतें दिठी| सूनि जैसिया गोठी| कीजती ना ||१६७९||
दीपा आगिलु मागिलु| सूर्यु धाकुटा वडीलु| अमृतसिंधु खोलु| उथळु कायसा ||१६८०||
तैसे पहिले सरते| श्लोक न म्हणावे गीते| जुनीं नवीं पारिजातें| आहाती काई ? ||१६८१||
आणि श्लोका पाडु नाहीं| हें कीर समर्थु काई| येथ वाच्य वाचकही| भागु न धरी ||१६८२||
जे इये शास्त्रीं येकु| श्रीकृष्णचि वाच्य वाचकु| हें प्रसिद्ध जाणे लोकु| भलताही ||१६८३||
येथें अर्थें तेंचि पाठें| जोडे येवढेनि धटें| वाच्यवाचक येकवटें| साधितें शास्त्र ||१६८४||
म्हणौनि मज कांहीं| समर्थनीं आतां विषय नाहीं| गीता जाणा हे वाङ्ग्मयी| श्रीमूर्ति प्रभूचि ||१६८५||
शास्त्र वाच्यें अर्थें फळे| मग आपण मावळे| तैसें नव्हें हें सगळें| परब्रह्मचि ||१६८६||
कैसा विश्वाचिया कृपा| करूनि महानंद सोपा| अर्जुनव्याजें रूपा| आणिला देवें ||१६८७||
चकोराचेनि निमित्तें| तिन्ही भुवनें संतप्तें| निवविलीं कळांवतें| चंद्रें जेवीं ||१६८८||
कां गौतमाचेनि मिषें| कळिकाळज्वरीतोद्देशें| पाणिढाळु गिरीशें| गंगेंचा केला ||१६८९||
तैसें गीतेचें हें दुभतें| वत्स करूनि पार्थातें| दुभिन्नली जगापुरतें| श्रीकृष्ण गाय ||१६९०||
येथे जीवें जरी नाहाल| तरी हेंचि कीर होआल| नातरी पाठमिषें तिंबाल| जीभचि जरी ||१६९१||
तरी लोह एकें अंशें| झगटलिया परीसें| येरीकडे अपैसें| सुवर्ण होय ||१६९२||
तैसी पाठाची ते वाटी| श्लोकपाद लावा ना जंव वोठीं| तंव ब्रह्मतेची पुष्टी| येईल आंगा ||१६९३||
ना येणेसीं मुख वांकडें| करूनि ठाकाल कानवडें| तरी कानींही घेतां पडे| तेचि लेख ||१६९४||
जे हे श्रवणें पाठें अर्थें| गीता नेदी मोक्षाआरौतें| जैसा समर्थु दाता कोण्हातें| नास्ति न म्हणे ||१६९५||
म्हणौनि जाणतया सवा| गीताचि येकी सेवा| काय कराल आघवां| शास्त्रीं येरीं ||१६९६||
आणि कृष्णार्जुनीं मोकळी| गोठी चावळिली जे निराळी| ते श्रीव्यासें केली करतळीं| घेवों ये ऐसी ||१६९७||
बाळकातें वोरसें| माय जैं जेवऊं बैसे| तैं तया ठाकती तैसे| घांस करी ||१६९८||
कां अफाटा समीरणा| आपैतेंपण शाहाणा| केलें जैसें विंजणा| निर्मूनियां ||१६९९||
तैसें शब्दें जें न लभे| तें घडूनिया अनुष्टुभें| स्त्रीशूद्रादि प्रतिभे| सामाविलें ||१७००||
स्वातीचेनि पाणियें| न होती जरी मोतियें| तरी अंगीं सुंदरांचिये| कां शोभिती तियें ? ||१७०१||
नादु वाद्या न येतां| तरी कां गोचरु होता| | फुलें न होतां घेपता| आमोदु केवीं ? ||१७०२||
गोडीं न होती पक्वान्नें| तरी कां फावती रसनें ? | दर्पणावीण नयनें| नयनु कां दिसे ? ||१७०३||
द्रष्टा श्रीगुरुमूर्ती| न रिगता दृश्यपंथीं| तरी कां ह्या उपास्ती| आकळता तो ? ||१७०४||
तैसें वस्तु जें असंख्यात| तया संख्या शतें सात| न होती तरी कोणा येथ| फावों शकतें ? ||१७०५||
मेघ सिंधूचें पाणी वाहे| तरी जग तयातेंचि पाहे| कां जे उमप ते नोहें| ठाकतें कोण्हा ||१७०६||
आणि वाचा जें न पवे| तें हे श्लोक न होते बरवे| तरी कानें मुखें फावे| ऐसें कां होतें ? ||१७०७||
म्हणौनि श्रीव्यासाचा हा थोरु| विश्वा जाला उपकारु| जे श्रीकृष्ण उक्ती आकारु| ग्रंथाचा केला ||१७०८||
आणि तोचि हा मी आतां| श्रीव्यासाचीं पदें पाहतां पाहतां| आणिला श्रवणपथा| मऱ्हाठिया ||१७०९||
व्यासादिकांचे उन्मेख| राहाटती जेथ साशंक| तेथ मीही रंक येक| चावळी करीं ||१७१०||
परी गीता ईश्वरु भोळा| ले व्यासोक्तिकुसुममाळा| तरी माझिया दुर्वादळा| ना न म्हणे कीं ||१७११||
आणि क्षीरसिंधूचिया तटा| पाणिया येती गजघटा| तेथ काय मुरकुटा| वारिजत असे ? ||१७१२||
पांख फुटे पांखिरूं| नुडे तरी नभींच स्थिरू| गगन आक्रमी सत्वरू| तो गरुडही तेथ ||१७१३||
राजहंसाचें चालणें| भूतळीं जालिया शाहाणें| आणिकें काय कोणें| चालावेचिना ? ||१७१४||
जी आपुलेनि अवकाशें| अगाध जळ घेपे कलशें| चुळीं चूळपण ऐसें| भरूनि न निघे ? ||१७१५||
दिवटीच्या आंगीं थोरी| तरी ते बहु तेज धरी| वाती आपुलिया परी| आणीच कीं ना ? ||१७१६||
जी समुद्राचेनि पैसें| समुद्रीं आकाश आभासे| थिल्लरीं थिल्लराऐसें| बिंबेचि पैं ||१७१७||
तेवीं व्यासादिक महामती| वावरों येती इये ग्रंथीं| मा आम्ही ठाकों हे युक्ति| न मिळे कीर ? ||१७१८||
जिये सागरीं जळचरें| संचरती मंदराकारें| तेथ देखोनि शफरें येरें| पोहों न लाहती ? ||१७१९||
अरुण आंगाजवळिके| म्हणौनि सूर्यातें देखें| मा भूतळींची न देखे| मुंगी काई ? ||१७२०||
यालागीं आम्हां प्राकृतां| देशिकारें बंधें गीता| म्हणणें हें अनुचिता| कारण नोहे ||१७२१||
आणि बापु पुढां जाये| ते घेत पाउलाची सोये| बाळ ये तरी न लाहे| पावों कायी ? ||१७२२||
तैसा व्यासाचा मागोवा घेतु| भाष्यकारातें वाट पुसतु| अयोग्यही मी न पवतु| कें जाईन ? ||१७२३||
आणि पृथ्वी जयाचिया क्षमा| नुबगे स्थावर जंगमा| जयाचेनि अमृतें चंद्रमा| निववी जग ||१७२४||
जयाचें आंगिक असिकें| तेज लाहोनि अर्कें| आंधाराचें सावाइकें| लोटिजत आहे ||१७२५||
समुद्रा जयाचें तोय| तोया जयाचें माधुर्य| माधुर्या सौंदर्य| जयाचेनि ||१७२६||
पवना जयाचें बळ| आकाश जेणें पघळ| ज्ञान जेणें उज्वळ| चक्रवर्ती ||१७२७||
वेद जेणें सुभाष| सुख जेणें सोल्लास| हें असो रूपस| विश्व जेणें ||१७२८||
तो सर्वोपकारी समर्थु| सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथु| राहाटत असे मजही आंतु| रिघोनियां ||१७२९||
आतां आयती गीता जगीं| मी सांगें मऱ्हाठिया भंगीं| येथ कें विस्मयालागीं| ठावो आहे ||१७३०||
श्रीगुरुचेनि नांवें माती| डोंगरीं जयापासीं होती| तेणें कोळियें त्रिजगतीं| येकवद केली ||१७३१||
चंदनें वेधलीं झाडें| जालीं चंदनाचेनि पाडें| वसिष्ठें मांनिली कीं भांडे| भानूसीं शाटी ||१७३२||
मा मी तव चित्ताथिला| आणि श्रीगुरु ऐसा दादुला| जो दिठीवेनि आपुला| बैसवी पदीं ||१७३३||
आधींचि देखणी दिठी| वरी सूर्य पुरवी पाठी| तैं न दिसे ऐसी गोठी| केंही आहे ? ||१७३४||
म्हणौनि माझें नित्य नवे| श्वासोश्वासही प्रबंध होआवे| श्रीगुरुकृपा काय नोहे| ज्ञानदेवो म्हणे ||१७३५||
याकारणें मियां| श्रीगीतार्थु मऱ्हाठिया| केला लोकां यया| दिठीचा विषो ||१७३६||
परी मऱ्हाठे बोलरंगें| कवळितां पैं गीतांगें| तैं गातयाचेनि पांगें| येकाढतां नोहे ||१७३७||
म्हणौनि गीता गावों म्हणे| तें गाणिवें होती लेणें| ना मोकळे तरी उणें| गीताही आणित ||१७३८||
सुंदर आंगीं लेणें न सूये| तैं तो मोकळा शृंगारु होये| ना लेइलें तरी आहे| तैसें कें उचित ? ||१७३९||
कां मोतियांची जैसी जाती| सोनयाही मान देती| नातरी मानविती| अंगेंचि सडीं ||१७४०||
नाना गुंफिलीं कां मोकळीं| उणीं न होती परीमळीं| वसंतागमींचीं वाटोळीं| मोगरीं जैसीं ||१७४१||
तैसा गाणिवेतें मिरवी| गीतेवीणही रंगु दावीं| तो लाभाचा प्रबंधु ओंवी| केला मियां ||१७४२||
तेणें आबालसुबोधें| ओवीयेचेनि प्रबंधें| ब्रह्मरससुस्वादें| अक्षरें गुंथिलीं ||१७४३||
आतां चंदनाच्या तरुवरीं| परीमळालागीं फुलवरीं| पारुखणें जियापरी| लागेना कीं ||१७४४||
तैसा प्रबंधु हा श्रवणीं| लागतखेंवो समाधि आणी| ऐकिलियाही वाखाणी| काय व्यसन न लवी ? ||१७४५||
पाठ करितां व्याजें| पांडित्यें येती वेषजे| तैं अमृतातें नेणिजे| फावलिया ||१७४६||
तैसेंनि आइतेपणें| कवित्व जालें हें उपेणें| मनन निदिध्यास श्रवणें| जिंतिलें आतां ||१७४७||
हे स्वानंदभोगाची सेल| भलतयसीचि देईल| सर्वेंद्रियां पोषवील| श्रवणाकरवीं ||१७४८||
चंद्रातें आंगवणें| भोगूनि चकोर शाहाणे| परी फावे जैसें चांदिणें| भलतयाही ||१७४९||
तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये| अंतरंगचि अधिकारिये| परी लोकु वाक्चातुर्यें| होईल सुखिया ||१७५०||
ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें| गौरव आहे जी साचें| ग्रंथु नोहे हें कृपेचें| वैभव तिये ||१७५१||
क्षीरसिंधु परिसरीं| शक्तीच्या कर्णकुहरीं| नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं| सांगितलें जें ||१७५२||
तें क्षीरकल्लोळाआंतु| मकरोदरीं गुप्तु| होता तयाचा हातु| पैठें जालें ||१७५३||
तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं| भग्नावयवा चौरंगी| भेटला कीं तो सर्वांगीं| संपूर्ण जाला ||१७५४||
मग समाधि अव्युत्थया| भोगावी वासना यया| ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया| दिधली मीनीं ||१७५५||
तेणें योगाब्जिनीसरोवरु| विषयविध्वंसैकवीरु| तिये पदीं कां सर्वेश्वरु| अभिषेकिला ||१७५६||
मग तिहीं तें शांभव| अद्वयानंदवैभव| संपादिलें सप्रभव| श्रीगहिनीनाथा ||१७५७||
तेणें कळिकळितु भूतां| आला देखोनि निरुता| ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा| दिधली ऐसी ||१७५८||
ना आदिगुरु शंकरा- | लागोनि शिष्यपरंपरा| बोधाचा हा संसरा| जाला जो आमुतें ||१७५९||
तो हा तूं घेऊनि आघवा| कळीं गिळितयां जीवां| सर्व प्रकारीं धांवा| करीं पां वेगीं ||१७६०||
आधींच तंव तो कृपाळु| वरी गुरुआज्ञेचा बोलू| जाला जैसा वर्षाकाळू| खवळणें मेघां ||१७६१||
मग आर्ताचेनि वोरसें| गीतार्थग्रंथनमिसें| वर्षला शांतरसें| तो हा ग्रंथु ||१७६२||
तेथ पुढां मी बापिया| मांडला आर्ती आपुलिया| कीं यासाठीं येवढिया| आणिलों यशा ||१७६३||
एवं गुरुक्रमें लाधलें| समाधिधन जें आपुलें| तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें| गोसावी मज ||१७६४||
वांचूनि पढे ना वाची| ना सेवाही जाणें स्वामीची| ऐशिया मज ग्रंथाची| योग्यता कें असे ? ||१७६५||
परी साचचि गुरुनाथें| निमित्त करूनि मातें| प्रबंधव्याजें जगातें| रक्षिलें जाणा ||१७६६||
तऱ्ही पुरोहितगुणें| मी बोलिलों पुरें उणें| तें तुम्हीं माउलीपणें| उपसाहिजो जी ||१७६७||
शब्द कैसा घडिजे| प्रमेयीं कैसें पां चढिजें| अळंकारु म्हणिजे| काय तें नेणें ||१७६८||
सायिखडेयाचें बाहुलें| चालवित्या सूत्राचेनि चाले| तैसा मातें दावीत बोले| स्वामी तो माझा ||१७६९||
यालागीं मी गुणदोष- | विषीं क्षमाविना विशेष| जे मी संजात ग्रंथलों देख| आचार्यें कीं ||१७७०||
आणि तुम्हां संतांचिये सभे| जें उणीवेंसी ठाके उभें| तें पूर्ण नोहे तरी तैं लोभें| तुम्हांसीचि कोपें ||१७७१||
सिवतलियाही परीसें| लोहत्वाचिये अवदसे| न मुकिजे आयसें| तैं कवणा बोलु ||१७७२||
वोहळें हेंचि करावें| जे गंगेचें आंग ठाकावें| मगही गंगा जरी नोहावें| तैं तो काय करी ? ||१७७३||
म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें| तुम्हां संतांचें मी पाये| पातलों आतां कें लाहे| उणें जगीं ||१७७४||
अहो जी माझेनि स्वामी| मज संत जोडुनि तुम्हीं| दिधलेति तेणें सर्वकामीं| परीपूर्ण जालों ||१७७५||
पाहा पां मातें तुम्हां सांगडें| माहेर तेणें सुरवाडें| ग्रंथाचें आळियाडें| सिद्धी गेलें ||१७७६||
जी कनकाचें निखळ| वोतूं येईल भूमंडळ| चिंतारत्नीं कुळाचळ| निर्मूं येती ||१७७७||
सातांही हो सागरांतें| सोपें भरितां अमृतें| दुवाड नोहे तारांतें| चंद्र करितां ||१७७८||
कल्पतरूचे आराम| लावितां नाहीं विषम| परी गीतार्थाचें वर्म| निवडूं न ये ||१७७९||
तो मी येकु सर्व मुका| बोलोनि मऱ्हाठिया भाखा| करी डोळेवरी लोकां| घेवों ये ऐसें जें ||१७८०||
हा ग्रंथसागरु येव्हढा| उतरोनि पैलीकडा| कीर्तिविजयाचा धेंडा| नाचे जो कां ||१७८१||
गीतार्थाचा आवारु| कलशेंसीं महामेरु| रचूनि माजीं श्रीगुरु- | लिंग जें पूजीं ||१७८२||
गीता निष्कपट माय| चुकोनि तान्हें हिंडे जें वाय| तें मायपूता भेटी होय| हा धर्म तुमचा ||१७८३||
तुम्हां सज्जनांचें केलें| आकळुनी जी मी बोलें| ज्ञानदेव म्हणे थेंकुलें| तैसें नोहें ||१७८४||
काय बहु बोलों सकळां| मेळविलों जन्मफळा| ग्रंथसिद्धीचा सोहळा| दाविला जो हा ||१७८५||
मियां जैसजैसिया आशा| केला तुमचा भरंवसा| ते पुरवूनि जी बहुवसा| आणिलों सुखा ||१७८६||
मजलागीं ग्रंथाची स्वामी| दुजीं सृष्टी जे हे केली तुम्ही| तें पाहोनि हांसों आम्हीं| विश्वामित्रातेंही ||१७८७||
जे असोनि त्रिशंकुदोषें| धातयाही आणावें वोसें| तें नासतें कीजे कीं ऐसें| निर्मावें नाहीं ||१७८८||
शंभू उपमन्युचेनि मोहें| क्षीरसागरूही केला आहे| येथ तोही उपमे सरी नोहे| जे विषगर्भ कीं ||१७८९||
अंधकारु निशाचरां| गिळितां सूर्यें चराचरां| धांवा केला तरी खरा| ताउनी कीं तो ||१७९०||
तातलियाही जगाकारणें| चंद्रें वेंचिलें चांदणें| तया सदोषा केवीं म्हणे| सारिखें हें ||१७९१||
म्हणौनि तुम्हीं मज संतीं| ग्रंथरूप जो हा त्रिजगतीं| उपयोग केला तो पुढती| निरुपम जी ||१७९२||
किंबहुना तुमचें केलें| धर्मकीर्तन हें सिद्धी नेलें| येथ माझें जी उरलें| पाईकपण ||१७९३||
आतां विश्वात्मकें देवें| येणें वाग्यज्ञें तोषावें| तोषोनि मज द्यावें| पसायदान हें ||१७९४||
जे खळांची व्यंकटी सांडो| तयां सत्कर्मीं रती वाढो| भूतां परस्परें पडो| मैत्र जीवाचें ||१७९५||
दुरिताचें तिमिर जावो| विश्व स्वधर्मसूर्यें पाहो| जो जें वांछील तो तें लाहो| प्राणिजात ||१७९६||
वर्षत सकळमंगळीं| ईश्वर निष्ठांची मांदियाळी| अनवरत भूमंडळीं| भेटतु या भूतां ||१७९७||
चलां कल्पतरूंचे अरव| चेतना चिंतामणीचें गांव| बोलते जे अर्णव| पीयूषाचे ||१७९८||
चंद्रमे जे अलांछन| मार्तंड जे तापहीन| ते सर्वांही सदा सज्जन| सोयरे होतु ||१७९९||
किंबहुना सर्वसुखीं| पूर्ण होऊनि तिहीं लोकीं| भजिजो आदिपुरुखीं| अखंडित ||१८००||
आणि ग्रंथोपजीविये| विशेषीं लोकीं इयें| दृष्टादृष्ट विजयें| होआवें जी ||१८०१||
तेथ म्हणे श्रीविश्वेशरावो| हा होईल दानपसावो| येणें वरें ज्ञानदेवो| सुखिया झाला ||१८०२||
ऐसें युगीं परी कळीं| आणि महाराष्ट्रमंडळीं| श्रीगोदावरीच्या कूलीं| दक्षिणलिंगीं ||१८०३||
त्रिभुवनैकपवित्र| अनादि पंचक्रोश क्षेत्र| जेथ जगाचें जीवनसूत्र| श्रीमहालया असे ||१८०४||
तेथ यदुवंशविलासु| जो सकळकळानिवासु| न्यायातें पोषी क्षितीशु| श्रीरामचंद्रु ||१८०५||
तेथ महेशान्वयसंभूतें| श्रीनिवृत्तिनाथसुतें| केलें ज्ञानदेवें गीते| देशीकार लेणें ||१८०६||
एवं भारताच्या गांवीं| भीष्मनाम प्रसिद्ध पर्वीं| श्रीकृष्णार्जुनीं बरवी| गोठी जे केली ||१८०७||
जें उपनिषदांचें सार| सर्व शास्त्रांचें माहेर| परमहंसीं सरोवर| सेविजे जें ||१८०८||
तियें गीतेचा कलशु| संपूर्ण हा अष्टादशु| म्हणे निवृत्तिदासु| ज्ञानदेवो ||१८०९||
पुढती पुढती पुढती| इया ग्रंथपुण्यसंपत्ती| सर्वसुखीं सर्वभूतीं| संपूर्ण होईजे ||१८१०||
शके बाराशतें बारोत्तरें| तैं टीका केली ज्ञानेश्वरें| सच्चिदानंदबाबा आदरें| लेखकु जाहला ||१८११||
इति श्री ज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां अष्टादशोध्यायः ||

श्रीशके पंधराशें साहोत्तरीं| तारणनामसंवत्सरीं| एकाजनार्दनें अत्यादरीं| गीता- ज्ञानेश्वरी प्रतिशुद्ध केली ||१||
ग्रंथ पूर्वींच अतिशुद्ध| परी पाठांतरीं शुद्ध अबद्ध| तो शोधूनियां एवंविध| प्रतिशुद्ध सिद्धज्ञानेश्वरी ||२||
नमो ज्ञानेश्वरा निष्कलंका| जयाची गीतेची वाचितां टीका| ज्ञान होय लोकां| अतिभाविकां ग्रंथार्थियां ||३||
बहुकाळपर्वणी गोमटी| भाद्रपदमास कपिलाषष्ठी| प्रतिष्ठानीं गोदातटीं| लेखनकामाठी संपूर्ण जाली ||४||
ज्ञानेश्वरीपाठीं| जो ओंवी करील मऱ्हाटी| तेणें अमृताचे ताटीं| जाण नरोटी ठेविली ||५||
||श्रीकृष्णार्पणमस्तु ||
||शुभं भवतु ||
||श्री परमात्मने नमः ||
||तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु |

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Dnyaneshwari ||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १८ || Marathi

1:53:00 PM Reporter: Vishwajeet Singh 0 Responses
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय अठरावा ||
मोक्षसंन्यासयोगः |

जयजय देव निर्मळ| निजजनाखिलमंगळ| जन्मजराजलदजाळ| प्रभंजन ||१||
जयजय देव प्रबळ| विदळितामंगळकुळ| निगमागमद्रुमफळ| फलप्रद ||२||
जयजय देव सकल| विगतविषयवत्सल| कलितकाळकौतूहल| कलातीत ||३||
जयजय देव निश्चळ| चलितचित्तपानतुंदिल| जगदुन्मीलनाविरल| केलिप्रिय ||४||
जयजय देव निष्कळ| स्फुरदमंदानंदबहळ| नित्यनिरस्ताखिलमळ| मूळभूत ||५||
जयजय देव स्वप्रभ| जगदंबुदगर्भनभ| भुवनोद्भवारंभस्तंभ| भवध्वंस ||६||
जयजय देव विशुद्ध| विदुदयोद्यानद्विरद| शमदम- मदनमदभेद| दयार्णव ||७||
जयजय देवैकरूप| अतिकृतकंदर्पसर्पदर्प| भक्तभावभुवनदीप| तापापह ||८||
जयजय देव अद्वितीय| परीणतोपरमैकप्रिय| निजजनजित भजनीय| मायागम्य ||९||
जयजय देव श्रीगुरो| अकल्पनाख्यकल्पतरो| स्वसंविद्रुमबीजप्ररो| हणावनी ||१०||
हे काय एकैक ऐसैसें| नानापरीभाषावशें| स्तोत्र करूं तुजोद्देशें| निर्विशेषा ||११||
जिहींं विशेषणीं विशेषिजे| तें दृश्य नव्हे रूप तुझें| हें जाणें मी म्हणौनि लाजें| वानणा इहीं ||१२||
परी मर्यादेचा सागरु| हा तंवचि तया डगरु| जंव न देखे सुधाकरु| उदया आला ||१३||
सोमकांतु निजनिर्झरींं| चंद्रा अर्घ्यादिक न करी| तें तोचि अवधारीं| करवी कीं जी ||१४||
नेणों कैसी वसंतसंगें| अवचितिया वृक्षाचीं अंगें| फुटती तैं हे तयांहि जोगें| धरणें नोहे ? ||१५||
पद्मिनी रविकिरण| लाहे मग लाजें कवण ? | | कां जळें शिवतलें लवण| आंग भुले ||१६||
तैसा तूतें जेथ मी स्मरें| तेथ मीपण मी विसरें| मग जाकळिला ढेंकरें| तृप्तु जैसा ||१७||
मज तुवां जी केलें तैसें| माझें मीपण दवडूनि देशें| स्तुतिमिषेंच पां पिसें| बांधलें वाचे ||१८||
ना येऱ्हवींं तरी आठवीं| राहोनि स्तुति जैं करावी| तैं गुणागुणिया धरावी| सरोभरी कींंं ||१९||
तरी तूं जी एकरसाचें लिंग| केवीं करूं गुणागुणीं विभाग| मोतीं फोडोनि सांधितां चांग| कीं तैसेंचि भलें ||२०||
आणि बाप तूं माय| इहीं बोलीं ना स्तुति होय| डिंभोपाधिक आहे| विटाळु तेथें ||२१||
जी जालेनि पाइकें आलें| तें गोसावीपण केवीं बोलें ? | ऐसें उपाधी उशिटलें| काय वर्णूं ||२२||
जरी आत्मा तूं एकसरा| हेंही म्हणतां दातारा| तरी आंतुल तूं बाहेरा| घापतासी ||२३||
म्हणौनि सत्यचि तुजलागींं| स्तुति न देखों जी जगीं| मौनावांचूनि लेणें आंगीं| सुसीना मा ||२४||
स्तुति कांहीं न बोलणें| पूजा कांहींं न करणें| सन्निधी कांहींंं न होणें| तुझ्या ठायीं ||२५||
तरी जिंतलें जैसें भुली| पिसें आलापु घाली| तैसें वानूं तें माऊली| उपसाहावें तुवां ||२६||
आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी| लावीं माझिये वाग्वृद्धी| जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ||२७||
तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती| नको हें पुढतपुढती| परीसीं लोहा घृष्टी किती| वेळवेळां कीजे गा ||२८||
तंव विनवी ज्ञानदेवो| म्हणे हो कां जी पसावो| तरी अवधान देतु देवो| ग्रंथा आतां ||२९||
जी गीतारत्नप्रासादाचा| कळसु अर्थचिंतामणीचा| सर्व गीतादर्शनाचा| पाढ्ॐ जो ||३०||
लोकीं तरी आथी ऐसें| जे दुरूनि कळसु दिसे| आणी भेटीचि हातवसे| देवतेची तिये ||३१||
तैसेंचि एथही आहे| जे एकेचि येणें अध्यायें| आघवाचि दृष्ट होये| गीतागमु हा ||३२||
मी कळसु याचि कारणें| अठरावा अध्यायो म्हणें| उवाइला बादरायणें| गीताप्रासादा ||३३||
नोहे कळसापरतें कांहीं| प्रासादीं काम नाहीं| तें सांगतसे गीता ही| संपलेपणें ||३४||
व्यासु सहजें सूत्री बळी| तेणें निगमरत्नाचळीं| उपनिषदार्थाची माळी- | माजीं खांडिली ||३५||
तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु| आडऊ निघाला जो अपारु| तो महाभारतप्राकारु| भोंवता केला ||३६||
माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट| दळवाडें झाडूनि चोखट| घडिलें पार्थवैकुंठ- | संवाद कुसरी ||३७||
निवृत्तिसूत्र सोडवणिया| सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया| आवो साधिला मांडणिया| मोक्षरेखेचा ||३८||
ऐसेनि करितां उभारा| पंधरा अध्यायांत पंधरा| भूमि निर्वाळलिया पुरा| प्रासादु जाहला ||३९||
उपरी सोळावा अध्यायो| तो ग्रीवघंटेचा आवो| सप्तदशु तोचि ठावो| पडघाणिये ||४०||
तयाहीवरी अष्टादशु| तो अपैसा मांडला कळसु| उपरि गीतादिकीं व्यासु| ध्वजें लागला ||४१||
म्हणौनि मागील जे अध्याये| ते चढते भूमीचे आये| तयांचें पुरें दाविताहे| आपुल्या आंगीं ||४२||
जालया कामा नाहीं चोरी| ते कळसें होय उजरी| तेवींं अष्टादशु विवरी| साद्यंत गीता ||४३||
ऐसा व्यासें विंदाणियें| गीताप्रासादु सोडवणिये| आणूनि राखिले प्राणिये| नानापरी ||४४||
एक प्रदक्षिणा जपाचिया| बाहेरोनि करिती यया| एक ते श्रवणमिषें छाया| सेविती ययाची ||४५||
एक ते अवधानाचा पुरा| विडापाऊड भीतरां| घेऊनि रिघती गाभारां| अर्थज्ञानाच्या ||४६||
ते निजबोधें उराउरी| भेटती आत्मया श्रीहरी| परी मोक्षप्रासादीं सरी| सर्वांही आथी ||४७||
समर्थाचिये पंक्तिभोजनें| तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें| तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें| मोक्षुचि लाभे ||४८||
ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु| अठरावा अध्याय कळसु विशदु| म्यां म्हणितला हा भेदु| जाणोनियां ||४९||
आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी| तो संबंधु सांगो दिठी| दिसे तैसा ||५०||
का गंगायमुना उदक| वोघबगें वेगळिक| दावी होऊनि एक| पाणीपणें ||५१||
न मोडितां दोन्ही आकार| घडिलें एक शरीर| हें अर्धनारी नटेश्वर- | रूपीं दिसें ||५२||
नाना वाढिली दिवसें| कळा बिंबीं पैसे| परी सिनानें लेवे जैसें| चंद्रीं नाहीं ||५३||
तैसींं सिनानीं चारीं पदें| श्लोक तो श्लोकावच्छेदें| अध्यावो अध्यायभेदें| गमे कीर ||५४||
परी प्रमेयाची उजरी| आनान रूप न धरी| नाना रत्नमणीं दोरी| एकचि जैसी ||५५||
मोतियें मिळोनि बहुवें| एकावळीचा पाडु आहे| परी शोभे रूप होये| एकचि तेथ ||५६||
फुलांफुलसरां लेख चढे| द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे| श्लोक अध्याय तेणें पाडें| जाणावे हे ||५७||
सात शतें श्लोक| अध्यायां अठरांचे लेख| परी देवो बोलिले एक| जें दुजें नाहीं ||५८||
आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये| ग्रंथ व्यक्ति केली आहे| प्रस्तुत तेणें निर्वाहे| निरूपण आइका ||५९||
तरी सतरावा अध्यावो| पावतां पुरता ठावो| जें संपतां श्लोकीं देवो| बोलिले ऐसें ||६०||
अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं. बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं| कर्मे कीजती तितुकींंंं| असंतें होतीं ||६१||
हा ऐकोनि देवाचा बोलु| अर्जुना आला डोलु| म्हणे कर्मनिष्ठां मळु| ठेविला देखों ||६२||
तो अज्ञानांधु तंव बापुडा| ईश्वरुचि न देखे एवढा| तेथ नामचि एक पुढां| कां सुझे तया ||६३||
आणि रजतमें दोन्हीं| गेलियावीण श्रद्धा सानी| ते कां लागे अभिधानीं| ब्रह्माचिये ? ||६४||
मग कोता खेंव देणें| वार्तेवरील धावणें| सांडी पडे खेळणें| नागिणीचें तें ||६५||
तैसीं कर्में दुवाडें| तयां जन्मांतराची कडे| दुर्मेळावे येवढे| कर्मामाजीं ||६६||
ना विपायें हें उजू होये| तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे| येऱ्हवीं येणेंचि जाये| निरयालया ||६७||
कर्मीं हा ठायवरी| आहाती बहुवा अवसरी| आतां कर्मठां कैं वारी| मोक्षाची हे ||६८||
तरी फिटो कर्माचा पांगु| कीजो अवघाचि त्यागु| आदरिजो अव्यंगु| संन्यासु हा ||६९||
कर्मबाधेची कहीं| जेथ भयाची गोठी नाहीं| तें आत्मज्ञान जिहीं| स्वाधीन होय ||७०||
ज्ञानाचें आवाहनमंत्र| जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र| ज्ञान आकर्षितें सूत्र| तंतु जे का ||७१||
ते दोनी संन्यास त्याग| अनुष्ठूनि सुटे जग| तरी हेंचि आतां चांग| व्यक्त पुसों ||७२||
ऐसें म्हणौनि पार्थें| त्यागसंन्यासव्यवस्थे| रूप होआवया जेथें| प्रश्नु केला ||७३||
तेथ प्रत्युत्तरें बोली| श्रीकृष्णें जे चावळिली| तया व्यक्ति जाली| अष्टादशा ||७४||
एवं जन्यजनकभावें| अध्यावो अध्यायातें प्रसवे| आतां ऐका बरवें| पुसिलें जें ||७५||
तरी पंडुकुमरें तेणें| देवाचें सरतें बोलणें| जाणोनि अंतःकरणें| काणी घेतली ||७६||
येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला| तो निश्चितु असे कीर जाहला| परी देवो राहे उगला| तें साहावेना ||७७||
वत्स धालयाही वरी| धेनू न वचावी दुरी| अनन्य प्रीतीची परी| ऐसी आहे ||७८||
तेणें काजेवीणही बोलावें| तें देखीलें तरी पाहावें| भोगितां चाड दुणावे| पढियंतयाठायीं ||७९||
ऐसी प्रेमाची हे जाती| आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती| म्हणौनि करूं लाहे खंती| उगेपणाची ||८०||
आणि संवादाचेनि मिषें| जे अव्यवहारी वस्तु असे | ते भोगिजे कीं जैसें| आरिसां रूप ||८१||
मग संवादु तोही पारुखे| तरी भोगितां भोगणें थोके| हें कां साहवेल सुखें| लांचावलेया ? ||८२||
यालागीं त्याग संन्यास| पुसावयाचें घेऊनि मिस| मग उपलविलें दुस| गीतेंचें तें ||८३||
अठरावा अध्यावो नोहे| हे एकाध्यायी गीताचि आहे| जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ||८४||
तैसी संपतां अवसरीं| गीता आदरविली माघारीं| स्वामी भृत्याचा न करी| संवादु काई ? ||८५||
परी हें असो ऐसें| अर्जुनें पुसिजत असे | म्हणे विनंती विश्वेशें| अवधारिजो ||८६||

अर्जुन उवाच |
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ||१||

हां जी संन्यासु आणि त्यागु| इयां दोहीं एक अर्थीं लागु| जैसा सांघातु आणि संघु| संघातेंचि बोलिजे ||८७||
तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें| त्यागुचि बोलिजतु असे| | आमचेनि तंव मानसें| जाणिजे हेंचि ||८८||
ना कांहीं आथी अर्थभेदु| तो देवो करोतु विशदु| तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु| भिन्नचि पैं ||८९||
तरी अर्जुना तुझ्या मनीं| त्याग संन्यास दोनी| एकार्थ गमलें हें मानीं| मीही साच ||९०||
इहीं दोहीं कीर शब्दीं| त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी| परी कारण एथ भेदीं| येतुलेंचि ||९१||
जें निपटूनि कर्म सांडिजे| तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे| आणि फलमात्र का त्यजिजे| तो त्यागु गा ||९२||
तरी कोणा कर्माचें फळ| सांडिजे कोण कर्म केवळ| हेंही सांगों विवळ| चित्त दे पां ||९३||
तरी आपैसीं दांगें डोंगर| झाडें डाळती अपार| तैसें लांबे राजागर| नुठिती ते ||९४||
न पेरितां सैंघ तृणें| उठती तैसें साळीचें होणें| नाहीं गा राबाउणें| जियापरी ||९५||
कां अंग जाहलें सहजें| परी लेणें उद्यमें कीजे| नदी आपैसी आपादिजे| विहिरी जेवीं ||९६||
तैसें नित्य नैमित्तिक| कर्म होय स्वाभाविक| परी न कामितां कामिक| न निफजे जें ||९७||

श्रीभगवानुवाच |
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||२||

कां कामनेचेनि दळवाडें| जें उभारावया घडे| अश्वमेधादिक फुडे| याग जेथ ||९८||
वापी कूप आराम| अग्रहारें हन महाग्राम| आणीकही नाना संभ्रम| व्रतांचे ते ||९९||
ऐसें इष्टापूर्त सकळ| जया कामना एक मूळ| जें केलें भोगवी फळ| बांधोनियां ||१००||
देहाचिया गांवा अलिया| जन्ममृत्यूचिया सोहळिया| ना म्हणों नये धनंजया| जियापरी ||१०१||
का ललाटींचें लिहिलें| न मोडे गा कांहीं केलें| काळेगोरेपण धुतलें| फिटों नेणे ||१०२||
केलें काम्य कर्म तैसें| फळ भोगावया धरणें बैसे| न फेडितां ऋण जैसें| वोसंडीना ||१०३||
कां कामनाही न करितां| अवसांत घडे पंडुसुता| तरी वायकांडें न झुंजतां| लागे जैसें ||१०४||
गूळ नेणतां तोंडीं| घातला देचि गोडी| आगी मानूनि राखोंडी| चेपिला पोळी ||१०५||
काम्यकर्मी हें एक| सामर्थ्य आथी स्वाभाविक| म्हणौनि नको कौतुक| मुमुक्षु एथ ||१०६||
किंबहुना पार्था ऐसें| जें काम्य कर्म गा असे | तें त्यजिजे विष जैसें| वोकूनियां ||१०७||
मग तया त्यागातें जगीं| संन्यासु ऐसया भंगीं| बोलिजे अंतरंगीं| सर्वद्रष्टा ||१०८||
हें काम्य कर्म सांडणें| तें कामनेतेंचि उपडणें| द्रव्यत्यागें दवडणें| भय जैसें ||१०९||
आणि सोमसूर्यग्रहणें| येऊनि करविती पार्वणें| का मातापितरमरणें| अंकित जे दिवस ||११०||
अथवा अतिथी हन पावे| हें ऐसैसें पडे जैं करावें| तैं तें कर्म जाणावें| नौमित्तिक गा ||१११||
वार्षिया क्षोमे गगन| वसंतें दुणावे वन| देहा श्रृंगारी यौवन- | दशा जैसी ||११२||
का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें| एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ||११३||
तैसें नित्य जें का कर्म| तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम| एथ उंचावे तेणें नाम| नैमित्तिक होय ||११४||
आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं| जें कां करणीय प्रतिदिनीं| परी दृष्टि जैसी लोचनीं| अधिक नोहे ||११५||
कां नापादितां गती| चरणीं जैसी आथी| नातरी ते दीप्ती| दीपबिंबीं ||११६||
वासु नेदितां जैसे| चंदनीं सौरभ्य असे | अधिकाराचे तैसें| रूपचि जें ||११७||
नित्य कर्म ऐसें जनीं| पार्था बोलिजे तें मानीं| एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं| दाविलीं तुज ||११८||
हेंचि नित्य नैमित्तिक| अनुष्ठेय आवश्यक| म्हणौनि म्हणोंं पाहती एक| वांझ ययातें ||११९||
परी भोजनीं जैसें होये| तृप्ति लाहे भूक जाये| तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे| सर्वांगीं फळ ||१२०||
कीड आगिठां पडे| तरी मळु तुटे वानी चढे| यया कर्मा तया सांगडें| फळ जाणावें ||१२१||
जे प्रत्यवाय तंव गळे| स्वाधिकार बहुवें उजळे| तेथ हातोफळिया मिळे| सद्गतीसी ||१२२||
येवढेवरी ढिसाळ| नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ| परी तें त्यजिजे मूळ| नक्षत्रीं जैसें ||१२३||
लता पिके आघवी| तंव च्यूत बांधे पालवीं| मग हात न लावित माधवीं| सोडूनि घाली ||१२४||
तैसी नोलांडितां कर्मरेखा| चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका| पाठीं फळा कीजे अशेखा| वांताचे वानी ||१२५||
यया कर्म फळत्यागातें| त्यागु म्हणती पैं जाणते| एवं त्याग संन्यास तूतें| परीसविले ||१२६||
हा संन्यासु जैं संभवे| तैं काम्य बाधूं न पावे| निषिद्ध तंव स्वभावें| निषेधें गेलें ||१२७||
आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे| शिर लोटलिया जैसें| येर आंग ||१२८||
मग सस्य फळपाकांत| तैसें निमालिया कर्मजात| आत्मज्ञान गिंवसीत| अपैसें ये ||१२९||
ऐसिया निगुती दोनी| त्याग संन्यास अनुष्ठानीं| पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ||१३०||
नातरी हे निगुती चुके| मग त्यागु कीजे हाततुकें| तैं कांहीं न त्यजे अधिकें| गोंवींचि पडे ||१३१||
जें औषध व्याधी अनोळख| तें घेतलिया परतें विख| कां अन्न न मानितां भूक| मारी ना काय ? ||१३२||
म्हणौनि त्याज्य जें नोहे| तेथ त्यागातें न सुवावें| त्याज्यालागीं नोहावें| लोभापर ||१३३||
चुकलिया त्यागाचें वेझें| केला सर्वत्यागुही होय वोझें| न देखती सर्वत्र दुजें| वीतराग ते ||१३४||

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||३||

एकां फळाभिलाष न ठके| ते कर्मांते म्हणती बंधकें| जैसें आपण नग्न भांडकें| जगातें म्हणे ||१३५||
कां जिव्हालंपट रोगिया| अन्नें दूषी धनंजया| आंगा न रुसे कोढिया| मासियां कोपे ||१३६||
तैसे फळकाम दुर्बळ| म्हणती कर्मचि किडाळ| मग निर्णयो देती केवळ| त्यजावें ऐसा ||१३७||
एक म्हणती यागादिक| करावेंचि आवश्यक| जे यावांचूनि शोधक| आन नसे ||१३८||
मनशुद्धीच्या मार्गीं| जैं विजयी व्हावें वेगीं| तैं कर्म सबळालागीं | आळसु न कीजे ||१३९||
भांगार आथी शोधावें| तरी आगी जेवी नुबगावें| कां दर्पणालागीं सांचावें| अधिक रज ||१४०||
नाना वस्त्रें चोख होआवीं| ऐसें आथी जरी जीवीं| तरी संवदणी न मनावी| मलिन जैसी ||१४१||
तैसीं कर्में क्लेशकारें| म्हणौनि न न्यावीं अव्हेरें| कां अन्नलाभें अरुवारें| रांधितिये उणें ||१४२||
इहीं इहीं गा शब्दीं| एक कर्मीं बांधिती बुद्धी| ऐसा त्यागु विसंवादीं| पडोनि ठेला ||१४३||
तरी विसंवादु तो फिटे| त्यागाचा निश्चयो भेटे| तैसें बोलों गोमटें| अवधान देईं ||१४४||

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम |
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ||४||

तरी त्यागु एथें पांडवा| त्रिविधु पैं जाणावा| तया त्रिविधाही बरवा| विभाग करूं ||१४५||
त्यागाचे तीन्ही प्रकार| कीजती जरी गोचर| तरी तूं इत्यर्थाचें सार| इतुलें जाण ||१४६||
मज सर्वज्ञाचिये बुद्धी| जें अलोट माने त्रिशुद्धी| निश्चयतत्व तें आधीं| अवधारीं पां ||१४७||
तरी आपुलिये सोडवणें| जो मुमुक्षु जागों म्हणे| तया सर्वस्वें करणें| हेंचि एक ||१४८||

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||५||

जियें यज्ञदानतपादिकें| इयें कर्में आवश्यकें| तियें न सांडावीं पांथिकें| पाउलें जैसीं ||१४९||
हारपलें न देखिजे| तंव तयाचा मागु न सांडिजे| कां तृप्त न होतां न लोटिजे| भाणें जेवीं ||१५०||
नाव थडी न पवतां| न खांडिजे केळी न फळतां| कां ठेविलें न दिसतां| दीपु जैसा ||१५१||
तैसी आत्मज्ञानविखीं| जंव निश्चिती नाहीं निकी| तंव नोहावें यागादिकीं| उदासीन ||१५२||
तरी स्वाधिकारानुरुपें| तियें यज्ञदानें तपें| अनुष्ठावींचि साक्षेपें| अधिकेंवर ||१५३||
जें चालणें वेगावत जाये| तो वेगु बैसावयाचि होये| तैसा कर्मातिशयो आहे| नैष्कर्म्यालागीं ||१५४||
अधिकें जंव जंव औषधी| सेवनेची मांडी बांधी| तंव तंव मुकिजे व्याधी| तयाचिये ||१५५||
तैसीं कर्में हातोपातीं| जैं कीजती यथानिगुती| तैं रजतमें झडती| झाडा देऊनी ||१५६||
कां पाठोवाटीं पुटें| भांगारा खारु देणें घटे| तैं कीड झडकरी तुटे| निर्व्याजु होय ||१५७||
तैसें निष्ठा केलें कर्म| तें झाडी करूनि रजतम| सत्वशुद्धीचें धाम| डोळां दावी ||१५८||
म्हणौनियां धनंजया| सत्वशुद्धी गिंवसितया| तीर्थांचिया सावाया| आलीं कर्में ||१५९||
तीर्थें बाह्यमळु क्षाळे| कर्में अभ्यंतर उजळे| एवं तीर्थें जाण निर्मळें| सत्कर्मेॅहि ||१६०||
तृषार्ता मरुदेशीं| झळे अमृतें वोळलीं जैसींं| कीं अंधालागीं डोळ्यांसी| सूर्यु आला ||१६१||
बुडतया नदीच धाविन्नली| पडतया पृथ्वीच कळवळिली| निमतया मृत्यूनें दिधली| आयुष्यवृद्धी ||१६२||
तैसें कर्में कर्मबद्धता| मुमुक्षु सोडविले पंडुसुता| जैसा रसरीति मरतां| राखिला विषें ||१६३||
तैसीं एके हातवटिया| कर्में कीजती धनंजया| बंधकेंचि सोडवावया| मुख्यें होती ||१६४||
आतां तेचि हातवटी| तुज सांगों गोमटी| जया कर्मातें किरीटी| कर्मचि रुसे ||१६५||

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||६||

तरी महायागप्रमुखें| कर्मे निफजतांही अचुकें| कर्तेपणाचें न ठाके| फुंजणें आंगीं ||१६६||
जो मोलें तीर्था जाये| तया मी यात्रा करितु आहे| ऐसिये श्लाघ्यतेचा नोहे| तोषु जेवीं ||१६७||
कां मुद्रा समर्थाचिया| जो एकवटु झोंबे राया| तो मी जिणता ऐसिया| न येचि गर्वा ||१६८||
जो कासें लागोनि तरे| तया पोहती ऊर्मी नुरे| पुरोहितु नाविष्करे| दातेपणें ||१६९||
तैसें कर्तृत्व अहंकारें| नेघोनि यथा अवसरें| कृत्यजातांचें मोहरें| सारीजती ||१७०||
केल्या कर्मा पांडवा| जो आथी फळाचा यावा| तया मोहरा हों नेदावा| मनोरथु ||१७१||
आधींचि फळीं आस तुटिया| कर्मे आरंभावीं धनंजया| परावें बाळ धाया| पाहिजे जैसें ||१७२||
पिंपरुवांचिया आशा| न शिंपिजे पिंपळु जैसा| तैसिया फळनिराशा| कीजती कर्में ||१७३||
सांडूनि दुधाची टकळी| गोंवारी गांवधेनु वेंटाळी| किंबहुना कर्मफळीं| तैसें कीजे ||१७४||
ऐसी हे हातवटी| घेऊनि जे क्रिया उठी| आपणा आपुलिया गांठी| लाहेची तो ||१७५||
म्हणौनि फळीं लागु| सांडोनि देहसंगु| कर्में करावीं हा चांगु| निरोपु माझा ||१७६||
जो जीवबंधेएं शिणला| सुटके जाचे आपला| तेणें पुढतपुढतीं या बोला| आन न कीजे ||१७७||

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते |
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ||७||

नातरी आंधाराचेनि रोखें| जैसीं डोळां रोंविजती नखें| तैसा कर्मद्वेषें अशेखें| कर्मेंचि सांडी ||१७८||
तयाचें जें कर्म सांडणें| तें तामस पैं मी म्हणें| शिसाराचे रागें लोटणें| शिरचि जैसें ||१७९||
हां गा मार्गु दुवाडु होये| तरी निस्तरितील पाये| कीं तेचि खांडणें आहे| मार्गापराधें ||१८०||
भुकेलियापुढें अन्न| हो कां भलतैसें उन्ह| तरी बुद्धी न घेतां लंघन| भाणें पापरां हल्या ||१८१||
तैसा कर्माचा बाधु कर्में| निस्तरीजे करितेनि वर्में| हे तामसु नेणें भ्रमें| माजविला ||१८२||
कीं स्वभावें आलें विभागा| तें कर्मचि वोसंडी पैं गा| तरी झणें आतळा त्यागा| तामसा तया ||१८३||

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८||

अथवा स्वाधिकारु बुझे| आपले विहितही सुजे| परी करितया उमजे| निबरपणा ||१८४||
जे कर्माची ऐलीकड| नावेक दिसे दुवाड| जे वाहतिये वेळे जड| शिदोरी जैसी ||१८५||
जैसा निंब जिभे कडवटु| हिरडा पहिलें तुरटु| तैसा कर्मा ऐल शेवटु| खणुवाळा होय ||१८६||
कां धेनु दुवाड शिंग| शेवंतीये अडव आंग| भोजनसुख महाग| पाकु करितां ||१८७||
तैसें पुढतपुढती कर्म | आरंभींच अति विषम| म्हणौनि तो तें श्रम| करितां मानी ||१८८||
येऱ्हवीं विहितत्वें मांडी| परी घालितां असुरवाडीं| तेथ पोळला ऐसा सांडी| आदरिलेंही ||१८९||
म्हणे वस्तु देहासारिखी| आली बहुतीं भाग्यविशेखीं| मा जाचूं कां कर्मादिकीं| पापिया जैसा ? ||१९०||
केलें कर्मीं जे द्यावें| तें झणें मज होआवें| आजि भोगूं ना कां बरवे| हातींचे भोग ? ||१९१||
ऐसा शरीराचिया क्लेशा| भेणें कर्में वीरेशा| सांडी तो परीयेसा| राजसु त्यागु ||१९२||
येऱ्हवीं तेथही कर्म सांडे| परी तया त्यागफळ न जोडे| जैसें उतलें आगीं पडे| तें नलगेचि होमा ||१९३||
कां बुडोनि प्राण गेले| ते अर्धोदकीं निमाले| हें म्हणों नये जाहलें| दुर्मरणचि ||१९४||
तैसें देहाचेनि लोभें| जेणें कर्मा पाणी सुभे| तेणें साच न लभे| त्यागाचें फळ ||१९५||
किंबहुना आपुलें| जैं ज्ञान होय उदया आलें| तैं नक्षत्रातें पाहलें| गिळी जैसें ||१९६||
तैशा सकारण क्रिया| हारपती धनंजया| तो कर्मत्यागु ये जया| मोक्षफळासी ||१९७||
तें मोक्षफळ अज्ञाना| त्यागिया नाहीं अर्जुना| म्हणौनि तो त्यागु न माना| राजसु जो ||१९८||
तरी कोणे पां एथ त्यागें| तें मोक्षफळ घर रिघे| हेंही आइक प्रसंगे| बोलिजेल ||१९९||

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||९||

तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें| जें वांटिया आलें स्वभावें| तें आचरे विधिगौरवें| शृंगारोनि ||२००||
परी हें मी करितु असें| ऐसा आठवु त्यजी मानसें| तैसेचि पाणी दे आशे| फळाचिये ||२०१||
पैं अवज्ञा आणि कामना| मातेच्या ठायीं अर्जुना| केलिया दोनी पतना| कारण होती ||२०२||
तरी दोनीं यें त्यजावीं| मग माताची ते भजावी| वांचूनि मुखालागीं वाळावी| गायचि सगळी ? ||२०३||
आवडतियेही फळीं| असारें साली आंठोळीं| त्यासाठीं अवगळी| फळातें कोण्ही ? ||२०४||
तैसा कर्तृत्वाचा मदु| आणि कर्मफळाचा आस्वादु| या दोहींचें नांव बंधु| कर्माचा कीं ||२०५||
तरी या दोहींच्या विखीं| जैसा बापु नातळे लेंकीं | तैसा हों न शके दुःखी| विहिता क्रिया ||२०६||
हा तो त्याग तरुवरु| जो गा मोक्षफळें ये थोरु| सात्विक ऐसा डगरु| यासींच जगीं ||२०७||
आतां जाळूनि बीज जैसें| झाडा कीजे निर्वंशें| फळ त्यागूनि कर्म तैसें| त्यजिलें जेणें ||२०८||
लोह लागतखेंवो परीसीं| धातूची गंधिकाळिमा जैसी| जाती रजतमें तैसीं| तुटलीं दोन्ही ||२०९||
मग सत्वें चोखाळें| उघडती आत्मबोधाचे डोळे| तेथ मृगांबु सांजवेळे| होय जैसें ||२१०||
तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां| असतु विश्वाभासु हा येवढा| तो न देखे कवणीकडां| आकाश जैसें ||२११||

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ||१०||

म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें| अलंकृतें कुशलाकुशलें| तियें व्योमाआंगीं आभाळें| जिरालीं जैसीं ||२१२||
तैसीं तयाचिये दिठी| कर्में चोखाळलीं किरीटी. म्हणौनि सुखदुःखीं उठी| पडेना तो ||२१३||
तेणें शुभकर्म जाणावें| मग तें हर्षें करावें| कां अशुभालागीं होआवें| द्वेषिया ना ||२१४||
तरी इयाविषयींचा कांहीं| तया एकुही संदेहो नाहीं| जैसा स्वप्नाच्या ठायीं| जागिन्नलिया ||२१५||
म्हणौनि कर्म आणि कर्ता| या द्वैतभावाची वार्ता| नेणें तो पंडुसुता| सात्विक त्यागु ||२१६||
ऐसेनि कर्में पार्था| त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा | अधिकें बांधिती अन्यथा| सांडिलीं तरी ||२१७||

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||११||

आणि हां गा सव्यसाची| मूर्ति लाहोनि देहाची| खंती करिती कर्माची| ते गांवढे गा ||२१८||
मृत्तिकेचा वीटु| घेऊनि काय करील घटु ? | केउता ताथु पटु| सांडील तो ? ||२१९||
तेवींचि वन्हित्व आंगीं| आणि उबे उबगणें आगी| कीं तो दीपु प्रभेलागीं| द्वेषु करील काई ? ||२२०||
हिंगु त्रासिला घाणी| तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? | द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ||२२१||
तैसा शरीराचेनि आभासें| नांदतु जंव असे | तंव कर्मत्यागाचें पिसें| काइसें तरी ? ||२२२||
आपण लाविजे टिळा| म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा| मा घाली फेडी निडळा| कां करूं ये गा ? ||२२३||
तैसें विहित स्वयें आदरिलें| म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें| परी कर्मचि देह आतलें| तें कां सांडील गा ? ||२२४||
जें श्वासोच्छ्वासवरी| होत निजेलियाहीवरी| कांहीं न करणेंयाचि परी| होती जयाची ||२२५||
या शरीराचेनि मिसकें| कर्मची लागलें असिकें| जितां मेलया न ठाके| इया रीती ||२२६||
यया कर्मातें सांडिती परी| एकीचि ते अवधारीं| जे करितां न जाइजे हारीं| फळशेचिये ||२२७||
कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे| तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें| तेथ रज्जुज्ञानें लोपे| व्याळशंका ||२२८||
तेणें आत्मबोधें तैसें| अविद्येसीं कर्म नाशे| पार्था त्यजिजे जैं ऐसें| तैं त्यजिलें होय ||२२९||
म्हणौनि इयापरी जगीं| कर्में करितां मानूं त्यागी| येर मुर्छने नांव रोगी| विसांवा जैसा ||२३०||
तैसा कर्मीं शिणे एकीं| तो विसांवो पाहे आणिकीं| दांडेयाचे घाय बुकी| धाडणें जैसें ||२३१||
परी हें असो पुढती| तोचि त्यागी त्रिजगतीं| जेणें फळत्यागें निष्कृती| नेलें कर्म ||२३२||

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ||१२||

येऱ्हवीं तरी धनंजया| त्रिविधा कर्मफळा गा यया| समर्थ ते कीं भोगावया| जे न सांडितीचि आशा ||२३३||
आपणचि विऊनि दुहिता| कीं न मम म्हणे पिता| तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता| जांवई शिरके ||२३४||
विषाचे आगरही वाहती| तें विकितां सुखें लाभे जिती| येर निमालें जे घेती| वेंचोनि मोलें ||२३५||
तैसें कर्ता कर्म करू| अकर्ता फळाशा न धरू| एथ न शके आवरूं| दोहींतें कर्म ||२३६||
वाटे पिकलिया रुखाचें| फळ अपेक्षी तयाचें| तेवीं साधारण कर्माचें| फळ घे तया ||२३७||
परी करूनि फळ नेघे| तो जगाच्या कामीं न रिघे| जे त्रिविध जग अवघें| कर्मफळ हें ||२३८||
देव मनुष्य स्थावर| यया नांव जगडंबर| आणि हे तंव तिन्ही प्रकार| कर्मफळांचे ||२३९||
तेंचि एक गा अनिष्ट| एक तें केवळ इष्ट| आणि एक इष्टानिष्ट| त्रिविध ऐसें ||२४०||
परी विषयमंतीं बुद्धी| आंगीं सूनि अविधी| प्रवर्तती जे निषिद्धीं| कुव्यापारीं ||२४१||
तेथ कृमि कीट लोष्ट| हे देह लाहती निकृष्ट| तया नाम तें अनिष्ट| कर्मफळ ||२४२||
कां स्वधर्मा मानु देतां| स्वाधिकारु पुढां सूतां| सुकृत कीजे पुसतां| आम्नायातें ||२४३||
तैं इंद्रादिक देवांचीं| देहें लाहिजती सव्यसाची| तया कर्मफळा इष्टाची| प्रसिद्धि गा ||२४४||
आणि गोड आंबट मिळे| तेथ रसांतर फरसाळें| उठी दोंही वेगळें| दोहीं जिणतें ||२४५||
रेचकुचि योगवशें| होय स्तंभावयादोषें| तेवीं सत्यासत्य समरसें| सत्यासत्यचि जिणिजे ||२४६||
म्हणौनि समभागें शुभाशुभें| मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें. तेणें मनुष्यत्व लाभे| तें मिश्र फळ ||२४७||
ऐसें त्रिविध यया भागीं| कर्मफळ मांडलेसें जगीं| हें न सांडी तयां भोगीं| जें सूदले आशा ||२४८||
जेथें जिव्हेचा हातु फांटे| तंव जेवितां वाटे गोमटें| मग परीणामीं शेवटें| अवश्य मरण ||२४९||
संवचोरमैत्री चांग| जंव न पविजे तें दांग| सामान्या भली आंग| न शिवे तंव ||२५०||
तैसीं कर्में करितां शरीरीं| लाहती महत्त्वाची फरारी| पाठीं निधनीं एकसरी| पावती फळें ||२५१||
तैसा समर्थु आणि ऋणिया| मागों आला बाइणिया| न लोटे तैसा प्राणिया| पडे तो भोगु ||२५२||
मग कणिसौनि कणु झडे| तो विरूढला कणिसा चढे| पुढती भूमी पडे| पुढती उठी ||२५३||
तैसें भोगीं जें फळ होय| तें फळांतरें वीत जाय| चालतां पावो पाय| जिणिजे जैसा ||२५४||
उताराचिये सांगडी| ठाके ते ऐलीच थडी| तेवीं न मुकीजती वोढी| भोग्याचिये ||२५५||
पैं साध्यसाधनप्रकारें| फळभोगु तो पसरे| एवं गोंविले संसारें| अत्यागी ते ||२५६||
येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें| त्याचि नाम जैसें सुकणें| तैसें कर्ममिषें न करणें| केलें जिहीं ||२५७||
बीजचि वरोसि वेंचे| तेथ वाढती कुळवाडी खांचे| तेवीं फळत्यागें कर्माचें| सारिलें काम ||२५८||
ते सत्वशुद्धि साहाकारें| गुरुकृपामृततुषारें| सासिन्नलेनि बोधें वोसरे| द्वैतदैन्य ||२५९||
तेव्हां जगदाभासमिषें| स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे| एथ भोक्ता भोग्य आपैसें| निमालें हें ||२६०||
घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा| संन्यासु जयां वीरेशा| तेचि फलभोग सोसा| मुकले गा ||२६१||
आणि येणें कीर संन्यासें| जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे| तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? ||२६२||
पडोनि गेलिया भिंती| चित्रांची केवळ होय माती| कां पाहालेया राती| आंधारें उरे ? ||२६३||
जैं रूपचि नाहीं उभें| तैं साउली काह्याची शोभे ? | दर्पणेवीण बिंबें| वदन कें पां ? ||२६४||
फिटलिया निद्रेचा ठावो| कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? | मग साच का वावो| कोण म्हणे ? ||२६५||
तैसें गा संन्यासें येणें| मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें| मा तियेचें कार्य कोणें| घेपे दीजे ? ||२६६||
म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं| कर्माची गोठी कीजेल ख़ई | परी अविद्या आपुलाम् देहीं| आहे जै कां ||२६७||
जैं कर्तेपणाचेनि थांवें| आत्मा शुभाशुभीं धांवें| दृष्टि भेदाचिये राणिवे| रचलीसे जैं ||२६८||
तैं तरी गा सुवर्मा| बिजावळी आत्मया कर्मा| अपाडें जैसी पश्चिमा| पूर्वेसि कां ||२६९||
नातरी आकाशा का आभाळा| सूर्या आणि मृगजळा| बिजावळी भूतळा| वायूसि जैसी ||२७०||
पांघरौनि नईचें उदक| असे नईचिमाजीं खडक| परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ||२७१||
हो कां उदकाजवळी| परी सिनानीचि ते बाबुळी| काय संगास्तव काजळी| दीपु म्हणों ये ? ||२७२||
जरी चंद्रीं जाला कलंकु| तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु| आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु| अपाडु जेतुला ||२७३||
नाना वाटा वाटे जातया| वोघा वोघीं वाहातया| आरसा आरसां पाहातया| अपाडु जेतुला ||२७४||
पार्था गा तेतुलेनि मानें| आत्मेंनिसीं कर्म सिनें| परी घेवविजे अज्ञानें| तें कीर ऐसें ||२७५||
विकाशें रवीतें उपजवी| द्रुती अलीकरवी भोगवी| ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ||२७६||
पुढतपुढती आत्मक्रिया| अन्यकारणकाचि तैशिया| करूं पांचांही तयां| कारणां रूप ||२७७||

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||१३||

आणि पांचही कारणें तियें| तूंही जाणसील विपायें| जें शास्त्रें उभऊनी बाहे| बोलती तयांते ||२७८||
वेदरायाचिया राजधानीं| सांख्यवेदांताच्या भुवनीं| निरूपणाच्या निशाणध्वनीं| गर्जती जियें ||२७९||
जें सर्वकर्मसिद्धीलागीं| इयेंचि मुद्दलें हो जगीं| तेथ न सुवावा अभंगीं| आत्मराजु ||२८०||
ह्या बोलाचि डांगुरटी| तियें प्रसिद्धीचि आली किरीटी| म्हणौनि तुझ्या हन कर्णपुटीं| वसों हें काज ||२८१||
आणि मुखांतरीं आइकिजे| तैसें कायसें हें ओझें| मी चिद्रत्न तुझें | असतां हातीं ||२८२||
दर्पणु पुढां मांडलेया| कां लोकांचियां डोळयां| मानु द्यावा पहावया| आपुलें निकें ||२८३||
भक्त जैसेनि जेथ पाहे| तेथ तें तेंचि होत जाये| तो मी तुझें जाहालों आहें| खेळणें आजी ||२८४||
ऐसें हें प्रीतीचेनि वेगें| देवो बोलतां से नेघे| तंव आनंदामाजीं आंगें| विरतसे येरु ||२८५||
चांदिणियाचा पडिभरु| होतां सोमकांताचा डोंगरु| विघरोनि सरोवरु| हों पाहे जैसा ||२८६||
तैसें सुख आणि अनुभूती| या भावांची मोडूनि भिंती| आतलें अर्जुनाकृति| सुखचि जेथ ||२८७||
तेथ समर्थु म्हणौनि देवा| अवकाशु जाहला आठवा| मग बुडतयाचा धांवा| जीवें केला ||२८८||
अर्जुना येसणें धेंडें| प्रज्ञा पसरेंसीं बुडे| आलें भरतें एवढें| तें काढूनि पुढती ||२८९||
देवो म्हणे हां गा पार्था| तूं आपणपें देख सर्वथा| तंव श्वासूनि येरें माथा| तुकियेला ||२९०||
म्हणे जाणसी दातारा| मी तुजशीं व्यक्तिशेजारा| उबगला आजी एकाहारा| येवों पाहें ||२९१||
तयाही हा ऐसा| लोभें देतसां जरी लालसा| तरी कां जी घालीतसां| आड आड जीवा ? ||२९२||
तेथ श्रीकृष्ण म्हणती निकें| अद्यापि नाहीं मा ठाऊकें| वेडया चंद्रा आणि चंद्रिके| न मिळणें आहे ? ||२९३||
आणि हाही बोलोनि भावो| तुज द्ॐ आम्ही भिवों| जे रुसतां बांधे थांवो| तें प्रेम गा हें ||२९४||
एथ एकमेकांचिये खुणें| विसंवादु तंवचि जिणें| म्हणौनि असो हें बोलणें| इयेविषयींचें ||२९५||
मग कैशी कैशी ते आतां | बोलत होतों पंडुसुता| सर्व कर्मा भिन्नता| आत्मेनिसीं ||२९६||
तंव अर्जुन म्हणे देवें| माझिये मनींचेंचि स्वभावें| प्रस्ताविलें बरवें| प्रमेय तें जी ||२९७||
जें सकळ कर्माचें बीज| कारणपंचक तुज| सांगेन ऐसी पैज| घेतली कां ||२९८||
आणि आत्मया एथ कांहीं| सर्वथा लागु नाहीं| हें पुढारलासि ते देईं| लाहाणें माझें ||२९९||
यया बोला विश्वेशें| म्हणितलें तोषें बहुवसे| इयेविषयीं धरणें बैसे. ऐसें कें जोडे ? ||३००||
तरी अर्जुना निरूपिजेल| तें कीर भाषेआंतुल| परी मेचु ये होईजेल| ऋणिया तुज ||३०१||
तंव अर्जुन म्हणे देवो| काई विसरले मागील भावो ? | इये गोंठीस कीं राखत आहों| मीतूंपण जी ? ||३०२||
एथ श्रीकृष्ण म्हणती हो कां| आतां अवधानाचा पसरु निका| करूनियां आइका| पुढारलों तें ||३०३||
तरी सत्यचि गा धनुर्धरा| सर्वकर्मांचा उभारा| होतसे बहिरबाहिरा| करणीं पांचें ||३०४||
आणि पांच कारण दळवाडें| जिहीं कर्माकारु मांडे| ते हेतुस्तव घडे| पांच आथी ||३०५||
येर आत्मतत्त्व उदासीन| तें ना हेतु ना उपादान| ना ते अंगें करी संवाहन| कर्मसिद्धीचें ||३०६||
तेथ शुभाशुभीं अंशीं| निफजती कर्में ऐसीं| राती दिवो आकाशीं| जियापरी ||३०७||
तोय तेज धूमु| ययां वायूसीं संगमु| जालिया होय अभ्रागमु| व्योम तें नेणें ||३०८||
नाना काष्ठीं नाव मिळे| ते नावाडेनि चळे| चालविजे अनिळें| उदक तें साक्षी ||३०९||
कां कवणे एकें पिंडे| वेंचितां अवतरे भांडें| मग भवंडीजे दंडें| भ्रमे चक्र ||३१०||
आणि कर्तृत्व कुलालाचें| तेथ काय तें पृथ्वीयेचें| आधारावांचूनि वेंचे| विचारीं पां ||३११||
हेंहि असो लोकांचिया| राहाटी होतां आघविया| कोण काम सवितया| आंगा आलें ? ||३१२||
तैसें पांचहेतुमिळणीं| पांचेंचि इहीं कारणीं| कीजे कर्मलतांची लावणी| आत्मा सिना ||३१३||
आतां तेंचि वेगळालीं| पांचही विवंचूं गा भलीं| तुकोनि घेतलीं| मोतियें जैसीं ||३१४||

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||१४||

तैसीं यथा लक्षणें| आइकें कर्म- कारणें| तरी देह हें मी म्हणें| पहिलें एथ ||३१५||
ययातें अधिष्ठान ऐसें| म्हणिजे तें याचि उद्देशें| जे स्वभोग्येंसीं वसे| भोक्ता येथ ||३१६||
इंद्रियांच्या दाहें हातीं| जाचोनियां दिवोराती| सुखदुःखें प्रकृती| जोडीजती जियें ||३१७||
तियें भोगावया पुरुखा| आन ठावोचि नाहीं देखा| म्हणौनि अधिष्ठानभाखा| बोलिजे देह ||३१८||
हें चोविसांही तत्वांचें| कुटुंबघर वस्तीचें| तुटे बंधमोक्षाचें| गुंथाडे एथ ||३१९||
किंबहुना अवस्थात्रया| हें अधिष्ठान धनंजया| म्हणौनि देहा यया| हेंचि नाम ||३२०||
आणि कर्ता हें दुजें| कर्माचें कारण जाणिजे| प्रतिबिंब म्हणिजे| चैतन्याचें जें ||३२१||
आकाशचि वर्षे नीर| तें तळवटीं बांधे नाडर| मग बिंबोनि तदाकार| होय जेवीं ||३२२||
कां निद्राभरें बहुवें| राया आपणपें ठाउवें नव्हे| मग स्वप्नींचिये सामावे| रंकपणीं ||३२३||
तैसें आपुलेनि विसरें| चैतन्यचि देहाकारें| आभासोनि आविष्करें| देहपणें जें ||३२४||
जया विसराच्या देशीं| प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी| जेणें भाष केली देहेंसी| आघवाविषयीं ||३२५||
प्रकृति करी कर्में| तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें| येथ कर्ता येणें नामें| बोलिजे जीवु ||३२६||
मग पातेयांच्या केशीं| एकीच उठी दिठी जैसी| मोकळी चवरी ऐसी| चिरीव गमे ||३२७||
कां घराआंतुल एकु| दीपाचा तो अवलोकु| गवाक्षभेदें अनेकु| आवडे जेवीं ||३२८||
कां एकुचि पुरुषु जैसा| अनुसरत नवां रसां| नवविधु ऐसा| आवडों लागे ||३२९||
तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें| श्रोत्रादिभेदें येणें| बाहेरी इंद्रियपणें| फांके जें कां ||३३०||
तें पृथग्विध करण| कर्माचें इया कारण| तिसरें गा जाण| नृपनंदना ||३३१||
आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं| निघालिया वोघाचिया मिळणी| होय नदी नद पाणी| एकचि जेवीं ||३३२||
तैसी क्रियाशक्ति पवनीं| असे जे अनपायिनी| ते पडिली नानास्थानीं| नाना होय ||३३३||
जैं वाचे करी येणें| तैं तेंचि होय बोलणें| हाता आली तरी घेणें| देणें होय ||३३४||
अगा चरणाच्या ठायीं| तरी गति तेचि पाहीं| अधोद्वारीं दोहीं| क्षरणें तेचि ||३३५||
कंदौनि हृदयवरी| प्रणवाची उजरी| करितां तेचि शरीरीं| प्राणु म्हणिजे ||३३६||
मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा| पुढती तेचि शक्ति पैं गा| उदानु ऐसिया लिंगा| पात्र जाहली ||३३७||
अधोरंध्राचेनि वाहें| अपानु हें नाम लाहे| व्यापकपणें होये| व्यानु तेचि ||३३८||
आरोगिलेनि रसें| शरीर भरी सरिसें| आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ||३३९||
ऐसिया इया राहटीं| मग तेचि क्रिया पाठीं| समान ऐसी किरीटी| बोलिजे गा ||३४०||
आणि जांभई शिंक ढेंकर| ऐसैसा होतसे व्यापार| नाग कूर्म कृकर| इत्यादि होय ||३४१||
एवं वायूची हे चेष्टा| एकीचि परी सुभटा| वर्तनास्तव पालटा| येतसे जे ||३४२||
तें भेदली वृत्तिपंथें| वायुशक्ति गा एथें| कर्मकारण चौथें| ऐसें जाण ||३४३||
आणि ऋतु बरवा शारदु| शारदीं पुढती चांदु| चंद्री जैसा संबंधु| पूर्णिमेचा ||३४४||
कां वसंतीं बरवा आरामु| आरामींही प्रियसंगमु | संगमीं आगमु. उपचारांचा ||३४५||
नाना कमळीं पांडवा| विकासु जैसा बरवा| विकासींही यावा| परागाचा ||३४६||
वाचे बरवें कवित्व| कवित्वीं बरवें रसिकत्व| रसिकत्वीं परतत्व| स्पर्शु जैसा ||३४७||
तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं| बुद्धिचि एकली बरवी| बुद्धिही बरव नवी| इंद्रियप्रौढी ||३४८||
इंद्रियप्रौढीमंडळा| शृंगारु एकुचि निर्मळा| जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा| देवतांचा जो ||३४९||
म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें| इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें| सूर्यादिकां कां आहे| सुरांचें वृंद ||३५०||
तें देववृंद बरवें| कर्मकारण पांचवें| अर्जुना एथ जाणावें| देवो म्हणे ||३५१||
एवं माने तुझिये आयणी| तैसी कर्मजातांची हे खाणी| पंचविध आकर्णीं| निरूपिली ||३५२||
आतां हेचि खाणी वाढे| मग कर्माची सृष्टि घडे| जिहीं ते हेतुही उघडे| द्ॐ पांचै ||३५३||

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||१५||

तरी अवसांत आली माधवी| ते हेतु होय नवपल्लवीं| पल्लव पुष्पपुंज दावी| पुष्प फळातें ||३५४||
कां वार्षिये आणिजे मेघु| मेघें वृष्टिप्रसंगु| वृष्टीस्तव भोगु| सस्यसुखाचा ||३५५||
नातरी प्राची अरुणातें विये| अरुणें सूर्योदयो होये| सूर्यें सगळा पाहे| दिवो जैसा ||३५६||
तैसें मन हेतु पांडवा| होय कर्मसंकल्पभावा| तो संकल्पु लावी दिवा| वाचेचा गा ||३५७||
मग वाचेचा तो दिवटा| दावी कृत्यजातांचिया वाटा| तेव्हां कर्ता रिगे कामठां | कर्तृत्वाच्या ||३५८||
तेथ शरीरादिक दळवाडें| शरीरादिकां हेतुचि घडे| लोहकाम लोखंडें| निर्वाळिजे जैसें ||३५९||
कां तांथुवाचा ताणा| तांथु घालितां वैरणा| तो तंतुचि विचक्षणा| होय पटु ||३६०||
तैसें मनवाचादेहाचें| कर्म मनादि हेतुचि रचे| रत्नीं घडे रत्नाचें| दळवाडें जेवीं ||३६१||
एथ शरीरादिकें कारणें| तेंचि हेतु केवीं हें कोणें| अपेक्षिजे तरी तेणें| अवधारिजो ||३६२||
आइका सूर्याचिया प्रकाशा| हेतु कारण सूर्युचि जैसा| कां ऊंसाचें कांडें ऊंसा| वाढी हेतु ||३६३||
नाना वाग्देवता वानावी| तैं वाचाचि लागे कामवावी| कां वेदां वेदेंचि बोलावी| प्रतिष्ठा जेवीं ||३६४||
तैसें कर्मा शरीरादिकें| कारण हें कीर ठाउकें| परी हेंचि हेतु न चुके| हेंही एथ ||३६५||
आणि देहादिकीं कारणीं| देहादि हेतु मिळणीं| होय जया उभारणी| कर्मजातां ||३६६||
तें शास्त्रार्थेंं मानिलेया| मार्गा अनुसरे धनंजया| तरी न्याय तो न्याया| हेतु होय ||३६७||
जैसा पर्जन्योदकाचा लोटु| विपायें धरी साळीचा पाटु| तो जिरे परी अचाटु| उपयोगु आथी ||३६८||
कां रोषें निघालें अवचटें| पडिलें द्वारकेचिया वाटे | तें शिणे परी सुनाटें| न वचिती पदें ||३६९||
तैसें हेतुकारण मेळें| उठी कर्म जें आंधळें| तें शास्त्राचें लाहे डोळे| तैं न्याय म्हणिपे ||३७०||
ना दूध वाढिता ठावो पावे| तंव उतोनि जाय स्वभावें| तोही वेंचु परी नव्हे| वेंचिलें तें ||३७१||
तैसें शास्त्रसाह्येंवीण| केलें नोहे जरी अकारण| तरी लागो कां नागवण| दानलेखीं ||३७२||
अगा बावन्ना वर्णांपरता| कोण मंत्रु आहे पंडुसुता| कां बावन्नही नुच्चारितां| जीवु आथी ? ||३७३||
परी मंत्राची कडसणी| जंव नेणिजे कोदंडपाणी| तंव उच्चारफळ वाणी| न पवे जेवीं ||३७४||
तेवीं कारणहेतुयोगें| जें बिसाट कर्म निगे| तें शास्त्राचिये न लगे| कांसे जंव ||३७५||
कर्म होतचि असे तेव्हांही| परी तें होणें नव्हे पाहीं| तो अन्यायो गा अन्यायीं| हेतु होय ||३७६||

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ||१६||

एवं पंचकारणा कर्मा| पांचही हेतु हे सुमहिमा| आतां एथें पाहें पां आत्मा| सांपडला असे ? ||३७७||
भानु न होनि रूपें जैसीं| चक्षुरूपातें प्रकाशी| आत्मा न होनि कर्में तैसीं| प्रकटित असे गा ||३७८||
पैं प्रतिबिंब आरिसा| दोन्ही न होनि वीरेशा| दोहींतें प्रकाशी जैसा| न्याहाळिता तो ||३७९||
कां अहोरात्र सविता| न होनि करी पंडुसुता| तैसा आत्मा कर्मकर्ता| न होनि दावी ||३८०||
परी देहाहंमान भुली| जयाची बुद्धि देहींचि आतली| तया आत्मविषयीं जाली| मध्यरात्री गा ||३८१||
जेणें चैतन्या ईश्वरा ब्रह्मा| देहचि केलें परमसीमा| तया आत्मा कर्ता हे प्रमा| अलोट उपजे ||३८२||
आत्माचि कर्मकर्ता| हाही निश्चयो नाहीं तत्वतां| देहोचि मी कर्मकर्ता| मानितो साचे ||३८३||
जे आत्मा मी कर्मातीतु| सर्वकर्मसाक्षिभूतु| हे आपुली कहीं मातु| नायकेचि कानीं ||३८४||
म्हणौनि उमपा आत्मयातें| देहचिवरी मविजे एथें| विचित्र काई रात्रि दिवसातें| डुडुळ न करी ? ||३८५||
पैं जेणें आकाशींचा कहीं| सत्य सूर्यु देखिला नाहीं| तो थिल्लरींचें बिंब काई| मानू न लाहे ? ||३८६||
थिल्लराचेनि जालेपणें| सूर्यासि आणी होणें| त्याच्या नाशीं नाशणें| कंपें कंपू ||३८७||
आणि निद्रिस्ता चेवो नये| तंव स्वप्न साच हों लाहे| रज्जु नेणतां सापा बिहे| विस्मो कवण ? ||३८८||
जंव कवळ आथि डोळां| तंव चंद्रु देखावा कींं पिंवळा| काय मृगींहीं मृगजळा| भाळावें नाहीं ? ||३८९||
तैसा शास्त्रगुरूचेनि नांवे| जो वाराही टेंकों नेदी सिवें| केवळ मौढ्याचेनिचि जीवें| जियाला जो ||३९०||
तेणें देहात्मदृष्टीमुळें| आत्मया घापे देहाचें जाळें| जैसा अभ्राचा वेगु कोल्हें| चंद्रीं मानीं ||३९१||
मग तया मानणयासाठीं| देहबंदीशाळे किरीटी| कर्माच्या वज्रगांठी| कळासे तो ||३९२||
पाहे पां बद्ध भावना दृढा| नळियेवरी तो बापुडा| काय मोकळेयाही पायाचा चवडा| न ठकेचि पुंसा ||३९३||
म्हणौनि निर्मळा आत्मस्वरूपीं| तो प्रकृतीचें केलें आरोपी| तो कल्पकोडीच्या मापीं| मवीचि कर्में ||३९४||
आता कर्मामाजीं असे | परी तयातें कर्म न स्पर्शे| वडवानळातें जैसें| समुद्रोदक ||३९५||
तैसेंनि वेगळेपणें| जयाचें कर्मीं असणें| तो कीर वोळखावा कवणें| तरी सांगो ||३९६||
जे मुक्तातें निर्धारितां| लाभे आपलीच मुक्तता| जैसी दीपें दिसें पाहतां| आपली वस्तु ||३९७||
नातरी दर्पणु जंव उटिजे| तंव आपणपयां आपण भेटिजे| कां तोय पावतां तोय होईजे| लवणें जेंवीं ||३९८||
हें असो परतोनि मागुतें| प्रतिबिंब पाहे बिंबातें| तंव पाहणें जाउनी आयितें| बिंबचि होय ||३९९||
तैसें हारपलें आपणपें पावे| तैं संतांतें पाहतां गिंवसावें| म्हणौनि वानावे ऐकावे| तेचि सदा ||४००||
परी कर्मीं असोनि कर्में | जो नावरे समेंविषमें| चर्मचक्षूंचेनि चामें| दृष्टि जैसी ||४०१||
तैसा सोडवला जो आहे| तयाचें रूप आतां पाहें| उपपत्तीची बाहे| उभऊनि सांगों ||४०२||

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ||१७||

तरी अविद्येचिया निदा| विश्वस्वप्नाचा हा धांदा| भोगीत होता प्रबुद्धा| अनादि जो ||४०३||
तो महावाक्याचेनि नांवें| गुरुकृपेचेनि थांवें| माथां हातु ठेविला नव्हे| थापटिला जैसा ||४०४||
तैसा विश्वस्वप्नेंसीं माया| नीद सांडूनि धनंजया| सहसा चेइला अद्वया- | नंदपणें जो ||४०५||
तेव्हां मृगजळाचे पूर| दिसते एक निरंतर| हारपती कां चंद्रकर| फांकतां जैसे ||४०६||
कां बाळत्व निघोनि जाय| तैं बागुला नाहीं त्राय| पैं जळालिया इंधन न होय| इंधन जेवीं ||४०७||
नाना चेवो आलिया पाठीं| तैं स्वप्न न दिसे दिठी| तैसी अहं ममता किरीटी| नुरेचि तया ||४०८||
मग सूर्यु आंधारालागीं| रिघो कां भलते सुरंगीं| परी तो तयाच्या भागीं| नाहींचि जैसा ||४०९||
तैसा आत्मत्वें वेष्टिला होये| तो जया जया दृश्यातें पाहें| तें दृष्य द्रष्टेपणेंसीं होत जाये| तयाचेंचि रूप ||४१०||
जैसा वन्हि जया लागे| तें वन्हिचि जालिया आंगें| दाह्यदाहकविभागें| सांडिजे तें ||४११||
तैसा कर्माकारा दुजेया| तो कर्तेपणाचा आत्मया| आळु आला तो गेलिया| कांहीं बाहीं जें उरे ||४१२||
तिये आत्मस्थितीचा जो रावो| मग तो देहीं इये जाणेल ठावो ? | काय प्रलयांबूचा उन्नाहो| वोघु मानी ? ||४१३||
तैसी ते पूर्ण अहंता| काई देहपणें पंडुसुता| आवरे काई सविता| बिंबें धरिला ? ||४१४||
पैं मथूनि लोणी घेपे| तें मागुती ताकीं घापे| तरी तें अलिप्तपणें सिंपे| तेणेंसी काई ? ||४१५||
नाना काष्ठौनि वीरेशा| वेगळा केलिया हुताशा| राहे काष्ठाचिया मांदुसा| कोंडलेपणें ? ||४१६||
कां रात्रीचिया उदराआंतु| निघाला जो हा भास्वतु| तो रात्री ऐसी मातु| ऐके कायी ? ||४१७||
तैसें वेद्य वेदकपणेंसी| पडिलें कां जयाचे ग्रासीं| तया देह मी ऐसी| अहंता कैंची ? ||४१८||
आणि आकाशें जेथें जेथुनी| जाइजे तेथ असे भरोनी| म्हणौनि ठेलें कोंदोनी| आपेंआप ||४१९||
तैसें जें तेणें करावें| तो तेंचि आहे स्वभावें| मा कोणें कर्मीं वेष्टावें| कर्तेपणें ? ||४२०||
नुरेचि गगनावीण ठावो| नोहेचि समुद्रा प्रवाहो| नुठीचि ध्रुवा जावों| तैसें जाहालें ||४२१||
ऐसेनि अहंकृतिभावो| जयाचा बोधीं जाहला वावो| तऱ्ही देहा जंव निर्वाहो| तंव आथी कर्में ||४२२||
वारा जरी वाजोनि वोसरे| तरी तो डोल रुखीं उरे| कां सेंदें द्रुति राहे कापुरें| वेंचलेनी ||४२३||
कां सरलेया गीताचा समारंभु| न वचे राहवलेपणाचा क्षोभु| भूमी लोळोनि गेलिया अंबु| वोल थारे ||४२४||
अगा मावळलेनि अर्कें| संध्येचिये भूमिके| ज्योतिदीप्ति कौतुकें| दिसे जैसी ||४२५||
पैं लक्ष भेदिलियाहीवरी| बाण धांवेचि तंववरी| जंव भरली आथी उरी| बळाची ते ||४२६||
नाना चक्रीं भांडें जालें| तें कुलालें परतें नेलें| परी भ्रमेंचि तें मागिले| भोवंडिलेपणें ||४२७||
तैसा देहाभिमानु गेलिया| देह जेणें स्वभावें धनंजया. जालें तें अपैसया| चेष्टवीच तें ||४२८||
संकल्पेंवीण स्वप्न| न लावितां दांगीचें बन| न रचितां गंधर्वभुवन| उठी जैसें ||४२९||
आत्मयाचेनि उद्यमेंवीण| तैसें देहादिपंचकारण| होय आपणयां आपण| क्रियाजात ||४३०||
पैं प्राचीनसंस्कारवशें| पांचही कारणें सहेतुकें| कामवीजती गा अनेकें| कर्माकारें ||४३१||
तया कर्मामाजीं मग| संहरो आघवें जग| अथवा नवें चांग| अनुकरो ||४३२||
परी कुमुद कैसेनि सुके| कैसें तें कमळ फांके| हीं दोन्ही रवी न देखे| जयापरी ||४३३||
कां वीजु वर्षोनि आभाळ| ठिकरिया आतो भूतळ| अथवा करूं शाड्वळ| प्रसन्नावृष्टी ||४३४||
तरी तया दोहींतें जैसें| नेणिजेचि कां आकाशें| तैसा देहींच जो असे | विदेहदृष्टी ||४३५||
तो देहादिकीं चेष्टीं| घडतां मोडतां हे सृष्टी| न देखे स्वप्न दृष्टी| चेइला जैसा ||४३६||
येऱ्हवीं चामाचे डोळेवरी| जे देखती देहचिवरी| ते कीर तो व्यापारी| ऐसेंचि मानिती ||४३७||
कां तृणाचा बाहुला| जो आगरामेरें ठेविला| तो साचचि राखता कोल्हा| मानिजे ना ? ||४३८||
पिसेंं नेसलें कां नागवें| हें लोकीं येऊनि जाणावें| ठाणोरियांचें मवावें| आणिकीं घाय ||४३९||
कां महासतीचे भोग| देखे कीर सकळ जग| परी ते आगी ना आंग| ना लोकु देखे ||४४०||
तैसा स्वस्वरूपें उठिला| जो दृश्येंसी द्रष्टा आटला| तो नेणें काय राहटला| इंद्रियग्रामु ||४४१||
अगा थोरीं कल्लोळीं कल्लोळ साने| लोपतां तिरींचेनि जनें| एकीं एक गिळिलें हें मनें| मानिजे जऱ्ही ||४४२||
तऱ्ही उदकाप्रति पाहीं| कोण ग्रसितसे काई| तैसें पूर्णा दुजें नाहीं| जें तो मारी ||४४३||
सुवर्णाचिया चंडिका| सुवर्णशूळेंचि देखा| सुवर्णाचिया महिखा| नाशु केला ||४४४||
तो देवलवसिया कडा| व्यवहारु गमला फुडा| वांचूनि शूळ महिष चामुंडा| सुवर्णचि तें ||४४५||
पैं चित्रींचें जळ हुतांशु| तो दृष्टीचाचि आभासु| पटीं आगी वोलांशु| दोन्ही नाहीं ||४४६||
मुक्ताचें देह तैसें | हालत संस्कारवशें | तें देखोनि लोक पिसे | कर्ता म्हणती ||४४७||
आणि तयां करणेया आंतु| घडो तिहीं लोकां घातु| परी तेणें केला हे मातु| बोलों नये ||४४८||
अगा अंधारुचि देखावा तेजें| मग तो फेडी हें बोलिजे| | तैसें ज्ञानिया नाहीं दुजें| जें तो मारी ||४४९||
म्हणौनि तयाचि बुद्धी| नेणे पापपुण्याची गंधी| गंगा मीनलिया नदी| विटाळु जैसा ||४५०||
आगीसी आगी झगटलिया| काय पोळे धनंजया| | कीं शस्त्र रुपे आपणया| आपणचि ||४५१||
तैसें आपणपयापरतें| जो नेणें क्रियाजातातें| तेथ काय लिंपवी बुद्धीतें| तयाचिये ||४५२||
म्हणौनि कार्य कर्ता क्रिया| हें स्वरूपचि जाहलें जया| नाहीं शरीरादिकीं तया| कर्मी बंधु ||४५३||
जे कर्ता जीव विंदाणीं| काढूनि पांचही खाणी| घडित आहे करणीं| आउतीं दाहें ||४५४||
तेथ न्यावो आणि अन्यावो| हा द्विविधु साधूनि आवो| उभविता न लवी खेंवो| कर्मभुवनें ||४५५||
या थोराडा कीर कामा| विरजा नोहे आत्मा| परी म्हणसी हन उपक्रमा| हातु लावी ||४५६||
तो साक्षी चिद्रूपु| कर्मप्रवृत्तीचा संकल्पु| उठी तो कां निरोपु| आपणचि दे ? ||४५७||
तरी कर्मप्रवृत्तीहीलागीं| तया आयासु नाहीं आंगीं| जे प्रवृत्तीचेही उळिगीं| लोकुचि आथी ||४५८||
म्हणौनि आत्मयाचें केवळ| जो रूपचि जाहला निखिळ| तया नाहीं बंदिशाळ| कर्माचि हे ||४५९||
परी अज्ञानाच्या पटीं| अन्यथा ज्ञानाचें चित्र उठी| तेथ चितारणी हे त्रिपुटी| प्रसिद्ध जे कां ||४६०||

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ||१८||

जें ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय| हें जगाचें बीज त्रय| ते कर्माची निःसंदेह| प्रवृत्ति जाण ||४६१||
आतां ययाचि गा त्रया| व्यक्ति वेगळालिया| आइकें धनंजया| करूं रूप ||४६२||
तरी जीवसूर्यबिंबाचे| रश्मी श्रोत्रादिकें पांचें| धांवोनि विषयपद्माचे| फोडिती मढ ||४६३||
कीं जीवनृपाचे वारु उपलाणें| घेऊनि इंद्रियांचीं केकाणें| विषयदेशींचें नागवणें| आणीत जे ||४६४||
हें असो इहीं इंद्रियीं राहाटे| जें सुखदुःखेंसीं जीवा भेटे| तें सुषुप्तिकालीं वोहटे| जेथ ज्ञान ||४६५||
तया जीवा नांव ज्ञाता| आणि जें हें सांगितलें आतां| तेंचि एथ पंडुसुता| ज्ञान जाण ||४६६||
जें अविद्येचिये पोटीं| उपजतखेंवो किरीटी| आपणयातें वांटी| तिहीं ठायीं ||४६७||
आपुलिये धांवे पुढां| घालूनि ज्ञेयाचा गुंडा| उभारी मागिलीकडां| ज्ञातृत्वातें ||४६८||
मग ज्ञातया ज्ञेया दोघां| तो नांदणुकेचा बगा| माजीं जालेनि पैं गा| वाहे जेणें ||४६९||
ठाकूनि ज्ञेयाची शिंव| पुरे जयाची धांव| सकळ पदार्थां नांव| सूतसे जें ||४७०||
तें गा सामान्य ज्ञान| या बोअला नाहीं आन| ज्ञेयाचेंही चिन्ह| आइक आतां ||४७१||
तरी शब्दु स्पर्शु| रूप गंध रसु| हा पंचविध आभासु| ज्ञेयाचा तो ||४७२||
जैसें एकेचि चूतफळें| इंद्रियां वेगवेगळे| रसें वर्णें परीमळें| भेटिजे स्पर्शें ||४७३||
तैसें ज्ञेय तरी एकसरें| परी ज्ञान इंद्रियद्वारें| घे म्हणौनि प्रकारें| पांचें जालें ||४७४||
आणि समुद्रीं वोघाचें जाणें| सरे लाणीपासीं धावणें| कां फळीं सरे वाढणें| सस्याचें जेवीं ||४७५||
तैसें इंद्रियांच्या वाहवटीं| धांवतया ज्ञाना जेथ ठी| होय तें गा किरीटी| विषय ज्ञेय ||४७६||
एवं ज्ञातया ज्ञाना ज्ञेया| तिहीं रूप केलें धनंजया| हे त्रिविध सर्व क्रिया- | प्रवृत्ति जाण ||४७७||
जे शब्दादि विषय| हें पंचविध जें ज्ञेय| तेंचि प्रिय कां अप्रिय| एकेपरीचें ||४७८||
ज्ञान मोटकें ज्ञातया| दावी ना जंव धनंजया| तंव स्वीकारा कीं त्यजावया| प्रवर्तेचि तो ||४७९||
परी मीनातें देखोनि बकु| जैसा निधानातें रंकु| कां स्त्री देखोनि कामुकु| प्रवृत्ति धरी ||४८०||
जैसें खालारां धांवे पाणी| भ्रमर पुष्पाचिये घाणीं| नाना सुटला सांजवणीं| वत्सुचि पां ||४८१||
अगा स्वर्गींची उर्वशी | ऐकोनि जेंवी माणुसीं| वराता लावीजती आकाशीं| यागांचिया ||४८२||
पैं पारिवा जैसा किरीटी| चढला नभाचिये पोटीं| पारवी देखोनि लोटी| आंगचि सगळें ||४८३||
हें ना घनगर्जनासरिसा| मयूर वोवांडे आकाशा| ज्ञाता ज्ञेय देखोनि तैसा| धांवचि घे ||४८४||
म्हणौनि ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता| हे त्रिविध गा पंडुसुता| होयचि कर्मा समस्तां| प्रवृत्ति येथ ||४८५||
परी तेंचि ज्ञेय विपायें| जरी ज्ञातयातें प्रिय होये| तरी भोगावया न साहे| क्षणही विलंबु ||४८६||
नातरी अवचटें| तेंचि विरुद्ध होऊनि भेटे| तरी युगांत वाटे| सांडावया ||४८७||
व्याळा कां हारा| वरपडा जालेया नरा| हरिखु आणि दरारा| सरिसाचि उठी ||४८८||
तैसें ज्ञेय प्रियाप्रियें| देखिलेनि ज्ञातया होये| मग त्याग स्वीकारीं वाहे| व्यापारातें ||४८९||
तेथ रागी प्रतिमल्लाचा| गोसांवी सर्वदळाचा| रथु सांडूनि पायांचा| होय जैसा ||४९०||
तैसें ज्ञातेपणें जें असे | तें ये कर्ता ऐसिये दशे| जेवितें बैसलें जैसें| रंधन करूं ||४९१||
कां भंवरेंचि केला मळा| वरकलुचि जाला अंकसाळा| नाना देवो रिगाला देऊळा- | चिया कामा ||४९२||
तैसा ज्ञेयाचिया हांवा| ज्ञाता इंद्रियांचा मेळावा| राहाटवी तेथ पांडवा| कर्ता होय ||४९३||
आणि आपण होउनी कर्ता| ज्ञाना आणी करणता| तेथें ज्ञेयचि स्वभावतां| कार्य होय ||४९४||
ऐसा ज्ञानाचिये निजगति| पालटु पडे गा सुमति| डोळ्याची शोभा रातीं| पालटे जैसी ||४९५||
कां अदृष्ट जालिया उदासु| पालटे श्रीमंताचा विलासु| पुनिवेपाठीं शीतांशु| पालटे जैसा ||४९६||
तैसा चाळितां करणें| ज्ञाता वेष्टिजे कर्तेपणें| तेथींचीं तियें लक्षणें| ऐक आतां ||४९७||
तरी बुद्धि आणि मन| चित्त अहंकार हन| हें चतुर्विध चिन्ह| अंतःकरणाचें ||४९८||
बाह्य त्वचा श्रवण| चक्षु रसना घ्राण| हें पंचविध जाण| इंद्रियें गा ||४९९||
तेथ आंतुले तंव करणें| कर्ता कर्तव्या घे उमाणें| मग तैं जरी जाणें| सुखा येतें ||५००||
तरी बाहेरीलें तियेंही| चक्षुरादिकें दाहाही| उठौनि लवलाहीं| व्यापारा सूये ||५०१||
मग तो इंद्रियकदंंबु| करविजे तंव राबु| जंव कर्तव्याचा लाभु| हातासि ये ||५०२||
ना तें कर्तव्य जरी दुःखें| फळेल ऐसें देखे| तो लावी त्यागमुखें| तियें दाहाही ||५०३||
मग फिटे दुःखाचा ठावो| तंव राहाटवी रात्रिदिवो| विकणवातें कां रावो| जयापरी ||५०४||
तैसेनि त्याग स्वीकारीं| वाहातां इंद्रियांची धुरी| ज्ञातयातें अवधारीं| कर्ता म्हणिपे ||५०५||
आणि कर्तयाच्या सर्व कर्मीं| आउतांचिया परी क्षमी| म्हणौनि इंद्रियांतें आम्ही| करणें म्हणों ||५०६||
आणि हेचि करणेंवरी| कर्ता क्रिया ज्या उभारी| तिया व्यापे तें अवधारीं| कर्म एथ ||५०७||
सोनाराचिया बुद्धि लेणें| व्यापे चंद्रकरीं चांदणें| कां व्यापे वेल्हाळपणें| वेली जैसी ||५०८||
नाना प्रभा व्यापे प्रकाशु| गोडिया इक्षुरसु| हें असो अवकाशु| आकाशीं जैसा ||५०९||
तैसें कर्तयाचिया क्रिया| व्यापलें जें धनंजया| तें कर्म गा बोलावया| आन नाहीं ||५१०||
एवं कर्म कर्ता करण | या तिहींचेंही लक्षण| सांगितलें तुज विचक्षण- | शिरोमणी ||५११||
एथ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय| हें कर्माचें प्रवृत्तित्रय| तैसेंचि कर्ता करण कार्य| हा कर्मसंचयो ||५१२||
वन्हीं ठेविला असे धूमु| आथी बीजीं जेवीं द्रुमु| कां मनीं जोडे कामु| सदा जैसा ||५१३||
तैसा कर्ता क्रिया करणीं| कर्माचें आहे जिंतवणीं| सोनें जैसें खाणी| सुवर्णाचिये ||५१४||
म्हणौनि हें कार्य मी कर्ता| ऐसें आथि जेथ पंडुसुता| तेथ आत्मा दूरी समस्ता| क्रियांपासीं ||५१५||
यालागीं पुढतपुढती| आत्मा वेगळाचि सुमती| आतां असो हे किती| जाणतासि तूं ||५१६||

ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः |
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ||१९||

परी सांगितलें जें ज्ञान| कर्म कर्ता हन| ते तिन्ही तिहीं ठायीं भिन्न| गुणीं आहाती ||५१७||
म्हणौनि ज्ञाना कर्मा कर्तया| पातेजों नये धनंजया| जे दोनी बांधती सोडावया| एकचि प्रौढ ||५१८||
तें सात्विक ठाऊवें होये| तो गुणभेदु सांगों पाहे| जो सांख्यशास्त्रीं आहे| उवाइला ||५१९||
जें विचारक्षीरसमुद्र| स्वबोधकुमुदिनीचंद्र| ज्ञानडोळसां नरेंद्र| शास्त्रांचा जें ||५२०||
कीं प्रकृतिपुरुष दोनी| मिसळलीं दिवोरजनीं| तियें निवडितां त्रिभुवनीं| मार्तंडु जें ||५२१||
जेथ अपारा मोहराशी| तत्वाच्या मापीं चोविसीं| उगाणा घेऊनि परेशीं| सुरवाडिजे ||५२२||
अर्जुना तें सांख्यशास्त्र| पढे जयाचें स्तोत्र| तें गुणभेदचरित्र| ऐसें आहे ||५२३||
जे आपुलेनि आंगिकें| त्रिविधपणाचेनि अंकें| दृश्यजात तितुकें| अंकित केलें ||५२४||
एवं सत्वरजतमा| तिहींची एवढी असे महिमा| जें त्रैविध्य आदी ब्रह्मा| अंतीं कृमी ||५२५||
परी विश्वींची आघवी मांदी| जेणें भेदलेनि गुणभेदीं| पडिली तें तंव आदी| ज्ञान सांगो ||५२६||
जे दिठी जरी चोख कीजे| तरी भलतेंही चोख सुजे| तैसें ज्ञानें शुद्धें लाहिजे| सर्वही शुद्ध ||५२७||
म्हणौनि तें सात्विक ज्ञान| आतां सांगों दे अवधान| कैवल्यगुणनिधान| श्रीकृष्ण म्हणे ||५२८||

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ||२०||

तरी अर्जुना गा तें फुडें| सात्विक ज्ञान चोखडें| जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे| ज्ञातेनिसीं ||५२९||
जैसा सूर्य न देखे अंधारें| सरिता नेणिजती सागरें| कां कवळिलिया न धरे| आत्मछाया ||५३०||
तयापरी जया ज्ञाना| शिवादि तृणावसाना| इया भूतव्यक्ति भिन्ना| नाडळती ||५३१||
जैसें हातें चित्र पाहातां| होय पाणियें मीठ धुतां| कां चेवोनि स्वप्ना येतां| जैसें होय ||५३२||
तैसें ज्ञानें जेणें| करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें| जाणता ना जाणणें| जाणावें उरे ||५३३||
पैं सोनें आटूनि लेणीं| न काढिती आपुलिया आयणी| कां तरंग न घेपती पाणी| गाळूनि जैसें ||५३४||
तैसी जया ज्ञानाचिया हाता| न लगेचि दृश्यपथा| तें ज्ञान जाण सर्वथा| सात्विक गा ||५३५||
आरिसा पाहों जातां कोडें| जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें| तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे| ज्ञाताचि जें ||५३६||
पुढती तेंचि सात्विक ज्ञान| जें मोक्षलक्ष्मीचें भुवन| हें असो ऐक चिन्ह| राजसाचें ||५३७||

पृथक्त्वेन तु यज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ञानं विद्धि राजसम् ||२१||

तरी पार्था परीयेस| तें ज्ञान गा राजस| जें भेदाची कांस| धरूनि चाले ||५३८||
विचित्रता भूतांचिया| आपण आंतोनि ठिकरिया| बहु चकै ज्ञातया| आणिली जेणें ||५३९||
जैसें साचा रूपाआड| घालूनि विसराचें कवाड| मग स्वप्नाचें काबाड| ओपी निद्रा ||५४०||
तैसें स्वज्ञानाचिये पौळी| बाहेरि मिथ्या महीं खळीं| तिहीं अवस्थांचिया वह्याळी| दावी जें जीवा ||५४१||
अलंकारपणें झांकलें| बाळा सोनें कां वायां गेलें| तैसें नामीं रूपीं दुरावलें| अद्वैत जया ||५४२||
अवतरली गाडग्यां घडां| पृथ्वी अनोळख जाली मूढां| वन्हि जाला कानडा| दीपत्वासाठीं ||५४३||
कां वस्त्रपणाचेनि आरोपें| मूर्खाप्रति तंतु हारपे| नाना मुग्धा पटु लोपे| दाऊनि चित्र ||५४४||
तैशी जया ज्ञाना| जाणोनि भूतव्यक्ती भिन्ना| ऐक्यबोधाची भावना| निमोनि गेली ||५४५||
मग इंधनीं भेदला अनळु| फुलांवरी परीमळु| कां जळभेदें शकलु| चंद्रु जैसा ||५४६||
तैसें पदार्थभेद बहुवस| जाणोनि लहानथोर वेष| आंतलें तें राजस| ज्ञान येथ ||५४७||
आतां तामसाचेंही लिंग| सांगेन तें वोळख चांग| डावलावया मातंग- | सदन जैसें ||५४८||

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् |
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ||२२||

तरी किरीटी जें ज्ञान| हिंडे विधीचेनि वस्त्रेंहीन| श्रुति पाठमोरी नग्न| म्हणौनि तया ||५४९||
येरींही शास्त्र बटिकरीं| जें निंदेचे विटाळवरी| बोळविलेंसे डोंगरीं| म्लेंच्छधर्माच्या ||५५०||
जें गा ज्ञान ऐसें| गुणग्रहें तामसें| घेतलें भवें पिसें| होऊनियां ||५५१||
जें सोयरिकें बाधु नेणें| पदार्थीं निषेधु न म्हणे| निरोविलें जैसें सुणें | शून्यग्रामीं ||५५२||
तया तोंडीं जें नाडळे| कां खातां जेणें पोळे| तेंचि येक वाळे| येर घेणेचि ||५५३||
पैं सोनें चोरितां उंदिरु| न म्हणे थरुविथरु| नेणे मांसखाइरु| काळें गोरें ||५५४||
नाना वनामाजीं बोहरी| कडसणी जेवीं न करी| कां जीत मेलें न विचारी| बैसतां माशी ||५५५||
अगा वांता कां वाढिलेया| साजुक कां सडलिया| विवेकु कावळिया| नाहीं जैसा ||५५६||
तैसें निषिद्ध सांडूनि द्यावें| कां विहित आदरें घ्यावें| हें विषयांचेनि नांवें. नेणेंचि जें ||५५७||
जेतुलें आड पडे दिठी| तेतुलें घेचि विषयासाठीं| मग तें स्त्री- द्रव्य वाटी | शिश्नोदरां ||५५८||
तीर्थातीर्थ हे भाख| उदकीं नाहीं सनोळख| तृषा वोळे तेंचि सुख| वांचूनियां ||५५९||
तयाचिपरी खाद्याखाद्य| न म्हणे निंद्यानिंद्य| तोंडा आवडे तें मेध्य| ऐसाचि बोधु ||५६०||
आणि स्त्रीजात तितुकें| त्वचेंद्रियेंचि वोळखे| तियेविषयीं सोयरिकें| एकचि बोधु ||५६१||
पैं स्वार्थीं जें उपकरे| तयाचि नाम सोयिरें| देहसंबंधु न सरे| जिये ज्ञानीं ||५६२||
मृत्यूचें आघवेंचि अन्न| आघवेंचि आगी इंधन| तैसें जगचि आपलें धन| तामसज्ञाना ||५६३||
ऐसेनि विश्व सकळ| जेणें विषयोचि मानिलें केवळ| तया एक जाण फळ| देहभरण ||५६४||
आकाशपतिता नीरा| जैसा सिंधुचि येक थारा| तैसें कृत्यजात उदरा- | लागिंचि बुझे ||५६५||
वांचूनि स्वर्गु नरकु आथी| तया हेतु प्रवृत्ति निवृत्ती| इये आघवियेचि राती| जाणिवेची जें ||५६६||
जें देहखंडा नाम आत्मा| ईश्वर पाषाणप्रतिमा| ययापरौती प्रमा| ढळों नेणें ||५६७||
म्हणे पडिलेनि शरीरें| केलेनिसीं आत्मा सरे| मा भोगावया उरे| कोण वेषें ||५६८||
ना ईश्वरु पाहातां आहे| तो भोगवी हें जरी होये| तरी देवचि खाये| विकूनियां ||५६९||
गांवींचें देवळेश्वर| नियामकचि होती साचार| तरी देशींचे डोंगर| उगे कां असती ? ||५७०||
ऐसा विपायें देवो मानिजे| तरी पाषाणमात्रचि जाणिजे| आणि आत्मा तंव म्हणिजे| देहातेंचि ||५७१||
येरें पापपुण्यादिकें| तें आघवेंचि करोनि लटिकें| हित मानी अग्निमुखे| चरणें जें कां ||५७२||
जें चामाचे डोळे दाविती| जें इंद्रियें गोडी लाविती| तेंचि साच हे प्रतीती| फुडी जया ||५७३||
किंबहुना ऐसी प्रथा| वाढती देखसी पार्था| धूमाची वेली वृथा| आकाशीं जैसी ||५७४||
कोरडा ना वोला| उपेगा आथी गेला| तो वाढोनि मोडला| भेंडु जैसा ||५७५||
नाना उंसांचीं कणसें| कां नपुंसकें माणुसें| वन लागलें जैसें| साबरीचें ||५७६||
नातरी बाळकाचें मन| कां चोराघरींचें धन| अथवा गळास्तन| शेळियेचे ||५७७||
तैसें जें वायाणें| वोसाळ दिसे जाणणें| तयातें मी म्हणें| तामस ज्ञान ||५७८||
तेंही ज्ञान इया भाषा| बोलिजे तो भावो ऐसा| जात्यंधाचा कां जैसा| डोळा वाडु ||५७९||
कां बधिराचे नीट कान| अपेया नाम पान| तैसें आडनांव ज्ञान| तामसा तया ||५८०||
हें असो किती बोलावें| तरी ऐसें जें देखावें| तें ज्ञान नोहे जाणावें| डोळस तम ||५८१||
एवं तिहीं गुणीं| भेदलें यथालक्षणीं| ज्ञान श्रोतेशिरोमणी| दाविलें तुज ||५८२||
आतां याचि त्रिप्रकारा| ज्ञानाचेनि धनुर्धरा| प्रकाशें होती गोचरा| कर्तयांच्या क्रिया ||५८३||
म्हणौनि कर्म पैं गा| अनुसरे तिहीं भागां| मोहरे जालिया वोघा| तोय जैसे ||५८४||
तेंचि ज्ञानत्रयवशें| त्रिविध कर्म जें असे | तेथ सात्विक तंव ऐसें| परीसे आधीं ||५८५||

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ||२३||

तरी स्वाधिकाराचेनि मार्गेंं| आलें जें मानिलें आंगें| पतिव्रतेचेनि परीष्वंगें| प्रियातें जैसें ||५८६||
सांवळ्या आंगा चंदन| प्रमदालोचनीं अंजन| तैसें अधिकारासी मंडण| नित्यपणें जें ||५८७||
तें नित्य कर्म भलें| होय नैमित्तिकीं सावाइलें| सोनयासि जोडलें| सौरभ्य जैसें ||५८८||
आणि आंगा जीवाची संपत्ती| वेंचूनि बाळाची करी पाळती| परी जीवें उबगणें हें स्थिती| न पाहे माय ||५८९||
तैसें सर्वस्वें कर्म अनुष्ठी| परी फळ न सूये दिठी| उखिती क्रिया पैठी| ब्रह्मींचि करी ||५९०||
आणि प्रिय आलिया स्वभावें| शंबळ उरे वेंचे ठाउवें | नव्हे तैसें सत्प्रसंगें करावें| पारुषे जरी ||५९१||
तरी अकरणाचेनि खेदें| द्वेषातें जीवीं न बांधे| जालियाचेनि आनंदें| फुंजों नेणें ||५९२||
ऐसाइसिया हातवटिया| कर्म निफजे जें धनंजया| जाण सात्विक हें तया| गुणनाम गा ||५९३||
ययावरी राजसाचें| लक्षण सांगिजेल साचें| न करीं अवधानाचें| वाणेंपण ||५९४||

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ||२४||

तरी घरीं मातापितरां| धड बोली नाहीं संसारा| येर विश्व भरी आदरा| मूर्खु जैसा ||५९५||
का तुळशीचिया झाडा| दुरूनि न घापें सिंतोडा| द्राक्षीचिया तरी बुडा| दूधचि लाविजे ||५९६||
तैसी नित्यनैमित्तिकें| कर्में जियें आवश्यकें| तयांचेविषयीं न शके| बैसला उठूं ||५९७||
येरां काम्याचेनि तरी नांवें| देह सर्वस्व आघवें| वेचितांही न मनवे| बहु ऐसें ||५९८||
अगा देवढी वाढी लाहिजे| तेथ मोल देतां न धाइजे| पेरितां पुरें न म्हणिजे| बीज जेवीं ||५९९||
कां परीसु आलिया हातीं| लोहालागीं सर्वसंपत्ती| वेचितां ये उन्नती| साधकु जैसा ||६००||
तैसीं फळें देखोनि पुढें| काम्यकर्में दुवाडें| करी परी तें थोकडें| केलेंही मानी ||६०१||
तेणें फळकामुकें| यथाविधी नेटकें | काम्य कीजे तितुकें| क्रियाजात ||६०२||
आणि तयाही केलियाचें| तोंडीं लावी दौंडीचें| कर्मी या नांवपाटाचें| वाणें सारी ||६०३||
तैसा भरे कर्माहंकारु| मग पिता अथवा गुरु| ते न मनी काळज्वरु| औषध जैसें ||६०४||
तैसेनि साहंकारें| फळाभिलाषियें नरें| कीजे गा आदरें| जें जें कांहीं ||६०५||
परी तेंही करणें बहुवसा| वळघोनि करी सायासा| जीवनोपावो कां जैसा| कोल्हाटियांचा ||६०६||
एका कणालागींँ उंदिरु| आसका उपसे डोंगरु| कां शेवाळोद्देशें दर्दुरु| समुद्रु डहुळी ||६०७||
पैं भिकेपरतें न लाहे| तऱ्ही गारुडी सापु वाहे| काय कीजे शीणुचि होये| गोडु येकां ||६०८||
हे असो परमाणूचेनि लाभें| पाताळ लंघिती वोळंबे| तैसें स्वर्गसुखलोभें| विचंबणें जें ||६०९||
तें काम्य कर्म सक्लेश| जाणावें येथ राजस| आतां चिन्ह परिस| तामसाचें ||६१०||

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ||२५||

तरी तें गा तामस कर्म| जें निंदेचें काळें धाम| निषेधाचें जन्म| सांच जेणें ||६११||
जें निपजविल्यापाठींं| कांहींच न दिसे दिठी| रेघ काढलिया पोटीं| तोयाचे जेवीं ||६१२||
कां कांजी घुसळलिया| कां राखोंडी फुंकलिया| कांहीं न दिसे गाळिलिया| वाळुघाणा ||६१३||
नाना उपणिलिया भूंस| कां विंधिलिया आकाश| नाना मांडिलिया पाश| वारयासी ||६१४||
हें आवघेंचि जैसें| वांझें होऊनि नासे| जें केलिया पाठीं तैसें| वायांचि जाय ||६१५||
येऱ्हवीं नरदेहाही येवढें| धन आटणीये पडे| जें कर्म निफजवितां मोडे| जगाचें सुख ||६१६||
जैसा कमळवनीं फांसु| काढिलिया कांटसु| आपण झिजे नाशु| कमळां करी ||६१७||
कां आपण आंगें जळे| आणि नागवी जगाचे डोळे| पतंगु जैसा सळें| दीपाचेनि ||६१८||
तैसें सर्वस्व वायां जावो| वरी देहाही होय घावो| परी पुढिलां अपावो| निफजविजे जेणें ||६१९||
माशी आपणयातें गिळवी| परी पुढीला वांती शिणवी| तें कश्मळ आठवी| आचरण जें ||६२०||
तेंही करावयो दोषें| मज सामर्थ्य असे कीं नसे | हेंहीं पुढील तैसें| न पाहतां करी ||६२१||
केवढा माझा उपावो| करितां कोण प्रस्तावो| केलियाही आवो| काय येथ ||६२२||
इये जाणिवेची सोये| अविवेकाचेनि पायें| पुसोनियां होये| साटोप कर्मीं ||६२३||
आपला वसौटा जाळुनी| बिसाटे जैसा वन्ही| कां स्वमर्यादा गिळोनि| सिंधु उठी ||६२४||
मग नेणें बहु थोडें| न पाहे मागें पुढें| मार्गामार्ग येकवढें| करीत चाले ||६२५||
तैसें कृत्याकृत्य सरकटित| आपपर नुरवित| कर्म होय तें निश्चित| तामस जाण ||६२६||
ऐसी गुणत्रयभिन्ना| कर्माची गा अर्जुना| हे केली विवंचना| उपपत्तींसीं ||६२७||
आतां ययाचि कर्मा भजतां| कर्माभिमानिया कर्ता| तो जीवुही त्रिविधता| पातला असे ||६२८||
चतुराश्रमवशें| एकु पुरुषु चतुर्धा दिसे| कर्तया त्रैविध्य तैसें| कर्मभेदें ||६२९||
तरी तयां तिहीं आंतु| सात्विक तंव प्रस्तुतु| सांगेन दत्तचित्तु| आकर्णीं तूं ||६३०||

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ||२६||

तरी फळोद्देशें सांडिलिया| वाढती जेवीं सरळिया| शाखा कां चंदनाचिया| बावन्नया ||६३१||
कां न फळतांही सार्थका| जैसिया नागलतिका| तैसिया करी नित्यादिकां| क्रिया जो कां ||६३२||
परी फळशून्यता| नाहीं तया विफळता| पैं फळासीचि पंडुसुता| फळें कायिसी ||६३३||
आणि आदरें करी बहुवसें| परी कर्ता मी हें नुमसे| वर्षाकाळींचें जैसें| मेघवृंद ||६३४||
तेवींचि परमात्मलिंगा| समर्पावयाजोगा| कर्मकलापु पैं गा| निपजावया ||६३५||
तया काळातें नुलंघणें| देशशुद्धिही साधणें| कां शास्त्रांच्या वातीं पाहणें| क्रियानिर्णयो ||६३६||
वृत्ति करणें येकवळा| चित्त जावों न देणें फळा| नियमांचिया सांखळा| वाहणें सदा ||६३७||
हा निरोधु साहावयालागीं| धैर्याचिया चांगचांगीं| चिंतवणी जिती आंगीं| वाहे जो कां ||६३८||
आणि आत्मयाचिये आवडी| कर्में करितां वरपडीं| देहसुखाचिये परवडीं| येवों न लाहे ||६३९||
आळसा निद्रा दुऱ्हावे| क्षुधा न बाणवे| सुरवाडु न पावे| आंगाचा ठावो ||६४०||
तंव अधिकाधिक| उत्साहो धरी आगळीक| सोनें जैसें पुटीं तुक| तुटलिया कसीं ||६४१||
जरी आवडी आथी साच| तरी जीवितही सलंच| आगीं घालितां रोमांच| देखिजती सतिये ||६४२||
मा आत्मया येवढीया प्रिया| वालभेला जो धनंजया| देहही सिदतां तया| काय खेदु होईल ? ||६४३||
म्हणौनि विषयसुरवाडु तुटे| जंव जंव देहबुद्धि आटे| तंव तंव आनंदु दुणवटे| कर्मीं जया ||६४४||
ऐसेनि जो कर्म करी| आणि कोणे एके अवसरीं| तें ठाके ऐसी परी| वाहे जरी ||६४५||
तरी कडाडीं लोटला गाडा| तो आपणपें न मनी अवघडा| तैसा ठाकलेनिही थोडा| नोहे जो कां ||६४६||
नातरी आदरिलें| अव्यंग सिद्धी गेलें| तरी तेंही जिंतिलें| मिरवूं नेणें ||६४७||
इया खुणा कर्म करितां| देखिजे जो पंडुसुता| तयातें म्हणिपे तत्त्वतां| सात्विकु कर्ता ||६४८||
आतां राजसा कर्तेया| वोळखणें हें धनंजया| जे अभिलाषा जगाचिया. वसौटा तो ||६४९||

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः |
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ||२७||

जैसा गावींचिया कश्मळा| उकरडा होय येकवळा| कां स्मशानीं अमंगळा| आघवयांची ||६५०||
तया परी जो अशेषा| विश्वाचिया अभिलाषा| पायपाखाळणिया दोषां| घरटा जाला ||६५१||
म्हणौनि फळाचा लागु| देखे जिये असलगु| तिये कर्मीं चांगु| रोहो मांडी ||६५२||
आणि आपण जालिये जोडी| उपखों नेदी कवडी| क्षणक्षणा कुरोंडी| जीवाची करी ||६५३||
कृपणु चित्तीं ठेवा आपुला| तैसा दक्षु पराविया माला| बकु जैसा खुतला| मासेयासी ||६५४||
आणि गोंवी गेलिया जवळी| झगटलिया अंग फाळी| फळें तरी आंतु पोळी| बोरांटी जैसी ||६५५||
तैसें मनें वाचा कायें| भलतया दुःख देतु जाये| स्वार्थु साधितां न पाहे| पराचें हित ||६५६||
तेवींचि आंगें कर्मीं| आचरणें नोहे क्षमी| न निघे मनोधर्मीं| अरोचकु ||६५७||
कनकाचिया फळा| आंतु माज बाहेरी मौळा| तैसा सबाह्य दुबळा| शुचित्वें जो ||६५८||
आणि कर्मजात केलिया| फळ लाहे जरी धनंजया| तरी हरिखें जगा यया| वांकुलिया वाये ||६५९||
अथवा जें आदरिलें| हीनफळ होय केलें| तरीं शोकें तेणें जिंतिलें| धिक्कारों लागे ||६६०||
कर्मीं राहाटी ऐसी| जयातें होती देखसी| तोचि जाण त्रिशुद्धीसी| राजस कर्ता ||६६१||
आतां यया पाठीं येरु| जो कुकर्माचा आगरु| तोही करूं गोचरु| तामस कर्ता ||६६२||

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः |
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ||२८||

तरी मियां लागलिया कैसें| पुढील जळत असे | हें नेणिजे हुताशें | जियापरी ||६६३||
पैं शस्त्रें मियां तिखटें | नेणिजे कैसेनि निवटे| कां नेणिजे काळकूटें| आपुलें केलें ||६६४||
तैसा पुढीलया आपुलया| घातु करीत धनंजया| आदरी वोखटिया| क्रिया जो कां ||६६५||
तिया करितांही वेळीं| काय जालें हें न सांभाळी| चळला वायु वाहटुळी| चेष्टे तैसा ||६६६||
पैं करणिया आणि जया| मेळु नाहीं धनंजया| तो पाहुनी पिसेया| कैंचीं त्राय ? ||६६७||
आणि इंद्रियांचें वोगरिलें| चरोनि राखे जो जियालें| बैलातळीं लागलें| गोचिड जैसें ||६६८||
हांसया रुदना वेळु| नेणतां आदरी बाळु| राहाटे उच्छृंखळु| तयापरी ||६६९||
जो प्रकृती आंतलेपणें| कृत्याकृत्यस्वादु नेणे| फुगे केरें धालेपणें| उकरडा जैसा ||६७०||
म्हणौनि मान्याचेनि नांवें| ईश्वराही परी न खालवे| स्तब्धपणें न मनवे| डोंगरासी ||६७१||
आणि मन जयाचें विषकल्लोळीं| राहाटी फुडी चोरिली| दिठी कीर ते वोली| पण्यांगनेची ||६७२||
किंबहुना कपटाचें| देहचि वळिलें तयाचें| तें जिणें कीं जुंवाराचें| टिटेघर ||६७३||
नोहे तयाचा प्रादुर्भावो| तो साभिलाष भिल्लांचा गांवो| म्हणौनि नये येवों जावों| तया वाटा ||६७४||
आणि आणिकांचें निकें केलें| विरु होय जया आलें| जैसें अपेय पया मिनलें| लवण करी ||६७५||
कां हींव ऐसा पदार्थु| घातलिया आगीआंतु| तेचि क्षणीं धडाडितु| अग्नि होय ||६७६||
नाना सुद्रव्यें गोमटीं| जालिया शरीरीं पैठीं| होऊनि ठाती किरीटी| मळुचि जेवीं ||६७७||
तैसें पुढिलाचें बरवें| जयाच्या भीतरीं पावे| आणि विरुद्धचि आघवें| होऊनि निगे ||६७८||
जो गुण घे दे दोख| अमृताचें करी विख| दूध पाजलिया देख| व्याळु जैसा ||६७९||
आणि ऐहिकीं जियावें| जेणें परत्रा साच यावें| तें उचित कृत्य पावे| अवसरीं जिये ||६८०||
तेव्हां जया आपैसी| निद्रा ये ठेविली ऐसी| दुर्व्यवहारीं जैसी| विटाळें लोटे ||६८१||
पैं द्राक्षरसा आम्ररसा| वेळे तोंड सडे वायसा| कां डोळे फुटती दिवसा| डुडुळाचे ||६८२||
तैसा कल्याणकाळु पाहे| तैं तयातें आळसु खाये| ना प्रमादीं तरी होये| तो म्हणे तैसें ||६८३||
जेवींचि सागराच्या पोटीं| जळे अखंड आगिठी | तैसा विषादु वाहे गांठीं| जिवाचिये जो ||६८४||
लेंडोराआगीं धूमावधि| कां अपाना आंगीं दुर्गंधि| तैसा जो जीवितावधि| विषादें केला ||६८५||
आणि कल्पांताचिया पारा| वेगळेंही जो वीरा| सूत्र धरी व्यापारा| साभिलाषा ||६८६||
अगा जगाही परौती| शुचा वाहे पैं चित्तीं| करितां विषीं हातीं| तृणही न लगे ||६८७||
ऐसा जो लोकाआंतु| पापपुंजु मूर्तु| देखसी तो अव्याहतु| तामसु कर्ता ||६८८||
एवं कर्म कर्ता ज्ञान| या तिहींचें त्रिधा चिन्ह| दाविलें तुज सुजन| चक्रवर्ती ||६८९||

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु |
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ||२९||

आतां अविद्येचिया गांवीं| मोहाची वेढूनि मदवी| संदेहाचीं आघवीं| लेऊनि लेणीं ||६९०||
आत्मनिश्चयाची बरव| जया आरिसां पाहे सावयव| तिये बुद्धीचीही धांव| त्रिधा असे ||६९१||
अगा सत्वादि गुणीं इहीं| कायी एक तिहीं ठायीं| न कीजेचि येथ पाहीं| जगामाजीं ||६९२||
आगी न वसतां पोटीं| कवण काष्ठ असे सृष्टीं| तैसें तें कैंचें दृश्यकोटीं| त्रिविध जें नोहे ||६९३||
म्हणौनि तिहीं गुणीं| बुद्धी केली त्रिगुणी| धृतीसिही वांटणी| तैसीचि असे ||६९४||
तेंचि येक वेगळालें| यथा चिन्हीं अळंकारलें| सांगिजैल उपाइलें| भेदलेपणें ||६९५||
परी बुद्धि धृति इयां| दोहीं भागामाजीं धनंंजया| आधीं रूप बुद्धीचिया| भेदासि करूं ||६९६||
तरी उत्तमा मध्यमा निकृष्टा| संसारासि गा सुभटा| प्राणियां येतिया वाटा| तिनी आथी ||६९७||
जे अकरणीय काम्य निषिद्ध| ते हे मार्ग तिन्ही प्रसिद्ध| संसारभयें सबाध| जीवां ययां ||६९८||

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||३०||

म्हणौनि अधिकारें मानिलें| जें विधीचेनि वोघें आलें| तें एकचि येथ भलें| नित्य कर्म ||६९९||
तेंचि आत्मप्राप्ति फळ| दिठी सूनि केवळ| कीजे जैसें कां जळ| सेविजे ताहनें ||७००||
येतुलेनि तें कर्म| सांडी जन्मभय विषम| करूनि दे उगम| मोक्षसिद्धि ||७०१||
ऐसें करी तो भला| संसारभयें सांडिला| करणीयत्वें आला| मुमुक्षुभागा ||७०२||
तेथ जे बुद्धि ऐसा| बळिया बांधे भरंवसा| मोक्षु ठेविला ऐसा| जोडेल येथ ||७०३||
म्हणौनि निवृत्तीची मांडिली| सूनि प्रवृत्तितळीं| इये कर्मीं बुडकुळी| द्यावीं कीं ना ? ||७०४||
तृषार्ता उदकें जिणें| कां पुरीं पडलिया पोहणें| अंधकूपीं गति किरणें| सूर्याचेनि ||७०५||
नाना पथ्येंसीं औषध लाहे| तरी रोगें दाटलाही जिये| का मीना जिव्हाळा होये| जळाचा जरी ||७०६||
तरी तयाच्या जीविता| नाहीं जेवीं अन्यथा| तैसें कर्मीं इये वर्ततां| जोडेचि मोक्षु ||७०७||
हें करणीयाचिया कडे| जें ज्ञान आथी चोखडें| आणि अकरणीय हें फुडें| ऐसें जाण ||७०८||
जीं तिथें काम्यादिकें| संसारभयदायकें| अकृत्यपणाचें आंबुखें| पडिलें जयां ||७०९||
तिये कर्मीं अकार्यीं| जन्ममरणसमयीं| प्रवृत्ति पळवी पायीं| मागिलींचि ||७१०||
पैं आगीमाजीं न रिघवे| अथावीं न घालवे| धगधगीत नागवे| शूळ जेवीं ||७११||
कां काळियानाग धुंधुवातु| देखोनि न घालवे हातु| न वचवे खोपेआंतु| वाघाचिये ||७१२||
तैसें कर्म अकरणीय| देखोनि महाभय| उपजे निःसंदेह| बुद्धी जिये ||७१३||
वाढिलें रांधूनि विखें| तेथें जाणिजे मृत्यु न चुके| तेवीं निषेधीं कां देखे| बंधातें जे ||७१४||
मग बंधभयभरितीं| तियें निषिद्धीं प्राप्ती| विनियोगु जाणे निवृत्ती| कर्माचिये ||७१५||
ऐसेनि कार्याकार्यविवेकी| जे प्रवृत्ति निवृत्ति मापकी| खरा कुडा पारखी| जियापरी ||७१६||
तैसी कृत्याकृत्यशुद्धी| बुझे जे निरवधी| सात्विक म्हणिपे बुद्धी| तेचि तूं जाण ||७१७||

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ||३१||

आणि बकाच्या गांवीं| घेपे क्षीरनीर सकलवी| कां अहोरात्रींची गोंवी| आंधळें नेणे ||७१८||
जया फुलाचा मकरंदु फावे| तो काष्ठें कोरूं धांवे| परी भ्रमरपणा नव्हे| अव्हांटा जेवीं ||७१९||
तैसीं इयें कार्याकार्यें| धर्माधर्मरूपें जियें| तियें न चोजवितां जाये| जाणती जे कां ||७२०||
अगा डोळांवीण मोतियें| घेतां पाडु मिळे विपायें| न मिळणें तें आहे| ठेविलें तेथें ||७२१||
तैसें अकरणीय अवचटें| नोडवे तरीच लोटे| येऱ्हवीं जाणें एकवटें| दोन्ही जे कां ||७२२||
ते गा बुद्धि चोखविषीं| जाण येथ राजसी| अक्षत टाकिली जैसी| मांदियेवरी ||७२३||

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता |
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ||३२||

आणि राजा जिया वाटा जाये| ते चोरांसि आडव होये| कां राक्षसां दिवो पाहे| राती होऊनि ||७२४||
नाना निधानचि निदैवा| होये कोळसयाचा उडवा| पैं असतें आपणपें जीवा| नाहीं जालें ||७२५||
तैसें धर्मजात तितुकें| जिये बुद्धीसी पातकें| साच तें लटिकें| ऐसेंचि बुझे ||७२६||
ते आघवेचि अर्थ| करूनि घाली अनर्थ| गुण ते ते व्यवस्थित| दोषचि मानी ||७२७||
किंबहुना श्रुतिजातें| अधिष्ठूनि केलें सरतें| तेतुलेंही उपरतें| जाणे जे बुद्धी ||७२८||
ते कोणातेंही न पुसतां| तामसी जाणावी पंडुसुता| रात्री काय धर्मार्था| साच करावी ||७२९||
एवं बुद्धीचे भेद| तिन्ही तुज विशद| सांगितले स्वबोध- | कुमुदचंद्रा ||७३०||
आतां ययाचि बुद्धिवृत्ती| निष्टंकिला कर्मजातीं| खांदु मांडिजे धृती| त्रिविधा तया ||७३१||
तिये धृतीचेही विभाग| तिन्ही यथालिंग| सांगिजती चांग| अवधान देईं ||७३२||

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः |
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ||३३||

तरी उदेलिया दिनकरु| चोरीसिं थोके अंधारु| कां राजाज्ञा अव्यवहारु| कुंठवी जेवीं ||७३३||
नाना पवनाचा साटु| वाजीनलिया नीटु| आंगेंसीं बोभाटु| सांडिती मेघ ||७३४||
कां अगस्तीचेनि दर्शनें| सिंधु घेऊनि ठाती मौनें| चंद्रोदयीं कमळवनें| मिठी देती ||७३५||
हें असो पावो उचलिला| मदमुख न ठेविती खालां| गर्जोनि पुढां जाला| सिंहु जरी ||७३६||
तैसा जो धीरु| उठलिया अंतरु| मनादिकें व्यापारु| सांडिती उभीं ||७३७||
इंद्रियां विषयांचिया गांठी| अपैसया सुटती किरीटी| मन मायेच्या पोटीं| रिगती दाही ||७३८||
अधोर्ध्व गूढें काढी| प्राण नवांची पेंडी| बांधोनि घाली उडी| मध्यमेमाजीं ||७३९||
संकल्पविकल्पांचें लुगडे| सांडूनि मन उघडें| बुद्धि मागिलेकडे| उगीचि बैसे ||७४०||
ऐसी धैर्यराजें जेणें| मन प्राण करणें| स्वचेष्टांचीं संभाषणें| सांडविजती ||७४१||
मग आघवींचि सडीं| ध्यानाच्या आंतुल्या मढीं | कोंडिजती निरवडी| योगाचिये ||७४२||
परी परमात्मया चक्रवर्ती| उगाणिती जंव हातीं| तंव लांचु न घेतां धृती| धरिजती जिया ||७४३||
ते गा धृती येथें| सात्विक हें निरुतें| आईक अर्जुनातें| श्रीकांतु म्हणे ||७४४||

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन |
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ||३४||

आणि होऊनियां शरीरी| स्वर्गसंसाराच्या दोहीं घरीं| नांदे जो पोटभरी| त्रिवर्गोपायें ||७४५||
तो मनोरथांच्या सागरीं| धर्मार्थकामांच्या तारुवावरी| जेणें धैर्यबळें करी| क्रिया- वणिज ||७४६||
जें कर्म भांडवला सूये| तयाची चौगुणी येती पाहे| येवढें सायास साहे| जया धृती ||७४७||
ते गा धृती राजस| पार्था येथ परीयेस| आतां आइक तामस| तिसरी जे कां ||७४८||

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च |
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ||३५||

तरी सर्वाधमें गुणें| जयाचें कां रूपा येणें| कोळसा काळेपणें| घडला जैसा ||७४९||
अहो प्राकृत आणि हीनु| तयाही कीं गुणत्वाचा मानु| तरी न म्हणिजे पुण्यजनु| राक्षसु काई ? ||७५०||
पैं ग्रहांमाजीं इंगळु| तयातें म्हणिजे मंगळु| तैसा तमीं धसाळु| गुणशब्दु हा ||७५१||
जे सर्वदोषांचा वसौटा| तमचि कामऊनि सुभटा| उभारिला आंगवठा| जया नराचा ||७५२||
तो आळसु सूनि असे कांखे| म्हणौनि निद्रे कहीं न मुके| पापें पोषितां दुःखें| न सांडिजे जेवीं ||७५३||
आणि देहधनाचिया आवडी| सदा भय तयातें न सांडी| विसंबूं न सके धोंडीं| काठिण्य जैसें ||७५४||
आणि पदार्थजातीं स्नेहो| बांधे म्हणौनि तो शोकें ठावो| केला न शके पाप जावों| कृतघ्नौनि जैसें ||७५५||
आणि असंतोष जीवेंसीं| धरूनि ठेला अहर्निशीं| म्हणौनि मैत्री तेणेंसीं| विषादें केली ||७५६||
लसणातें न सांडी गंधी| कां अपथ्यशीळातें व्याधी| तैसी केली मरणावधी| विषादें तया ||७५७||
आणि वयसा वित्तकामु| ययांचा वाढवी संभ्रमु| म्हणौनि मदें आश्रमु| तोचि केला ||७५८||
आगीतें न सांडी तापु| सळातें जातीचा सापु| कां जगाचा वैरी वासिपु| अखंडु जैसा ||७५९||
नातरी शरीरातें काळु| न विसंबे कवणे वेळु| तैसा आथी अढळु| तामसीं मदु ||७६०||
एवं पांचही हे निद्रादिक| तामसाच्या ठाईं दोख| जिया धृती देख| धरिलें आहाती ||७६१||
तिये गा धृती नांवें| तामसी येथ हें जाणावें| म्हणितलें तेणें देवें| जगाचेनी ||७६२||
एवं त्रिविध जे बुद्धि| कीजे कर्मनिश्चयो आधि| तो धृती या सिद्धि| नेइजो येथ ||७६३||
सूर्यें मार्गु गोचरु होये| आणि तो चालती कीर पाये| परी चालणें तें आहे| धैर्यें जेवीं ||७६४||
तैसी बुद्धि कर्मातें दावी| ते करणसामग्री निफजवी| परी निफजावया होआवी| धीरता जे ||७६५||
ते हे गा तुजप्रती| सांगीतली त्रिविध धृती| यया कर्मत्रया निष्पत्ती| जालिया मग ||७६६||
येथ फळ जें एक निफजे| सुख जयातें म्हणिजे| तेंही त्रिविध जाणिजे| कर्मवशें ||७६७||
तरी फळरूप तें सुख | त्रिगुणीं भेदलें देख| विवंचूं आतां चोख| चोखीं बोलीं ||७६८||
परी चोखी ते कैसी सांगे| पैं घेवों जातां बोलबगें| कानींचियेही लागे| हातींचा मळु ||७६९||
म्हणौनि जयाचेनि अव्हेरें| अवधानही होय बाहिरें| तेणें आइक हो आंतरें| जीवाचेनि जीवें ||७७०||
ऐसें म्हणौनि देवो| त्रिविधा सुखाचा प्रस्तावो| मांडला तो निर्वाहो| निरूपित असें ||७७१||

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ |
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ||३६||

म्हणे सुखत्रयसंज्ञा| सांगों म्हणौनि प्रतिज्ञा| बोलिलों तें प्राज्ञा| ऐक आतां ||७७२||
तरी सुख तें गा किरीटी| दाविजेल तुज दिठी| जें आत्मयाचिये भेटी| जीवासि होय ||७७३||
परी मात्रेचेनि मापें| दिव्यौषध जैसें घेपें| कां कथिलाचें कीजे रुपें| रसभावनीं ||७७४||
नाना लवणाचें जळु| होआवया दोनि चार वेळु| देऊनि सांडिजती ढाळु| तोयाचें जेवीं ||७७५||
तेवीं जालेनि सुखलेशें| जीवु भाविलिया अभ्यासें| जीवपणाचें नासे| दुःख जेथें ||७७६||
तें येथ आत्मसुख | जालें असे त्रिगुणात्मक| तेंही सांगों एकैक| रूप आतां ||७७७||

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ||३७||

आतां चंदनाचें बूड| सर्पी जैसें दुवाड| कां निधानाचें तोंड| विवसिया जेवीं ||७७८||
अगा स्वर्गींचें गोमटें| आडव यागसंकटें| कां बाळपण दासटें| त्रासकाळें ||७७९||
हें असो दीपाचिये सिद्धी| अवघड धू आधीं| नातरी तो औषधीं| जिभेचा ठावो ||७८०||
तयापरी पांडवा| जया सुखाचा रिगावा| विषम तेथ मेळावा| यमदमांचा ||७८१||
देत सर्वस्नेहा मिठी| आगीं ऐसें वैराग्य उठी| स्वर्ग संसारा कांटी| काढितचि ||७८२||
विवेकश्रवणें खरपुसें| जेथ व्रताचरणें कर्कशें| करितां जाती भोकसे| बुद्ध्यादिकांचे ||७८३||
सुषुम्नेचेनि तोंडें| गिळिजे प्राणापानाचे लोंढे| बोहणियेसीचि येवढें| भारी जेथ ||७८४||
जें सारसांही विघडतां| होय वोहाहूनि वस्त काढितां| ना भणंगु दवडितां| भाणयावरुनी ||७८५||
पैं मायेपुढौनि बाळक| काळें नेतां एकुलतें एक| होय कां उदक| तुटतां मीना ||७८६||
तैसें विषयांचें घर| इंद्रियां सांडितां थोर| युगांतु होय तें वीर| विराग साहाती ||७८७||
ऐसा जया सुखाचा आरंभु| दावी काठिण्याचा क्षोभु| मग क्षीराब्धी लाभु| अमृताचा जैसा ||७८८||
पहिलया वैराग्यगरळा| धैर्यशंभु वोडवी गळा| तरी ज्ञानामृतें सोहळा| पाहे जेथें ||७८९||
पैं कोलिताही कोपे ऐसें| द्राक्षांचें हिरवेपण असे | तें परीपाकीं कां जैसें| माधुर्य आते ||७९०||
तें वैराग्यादिक तैसें| पिकलिया आत्मप्रकाशें| मग वैराग्येंसींही नाशे| अविद्याजात ||७९१||
तेव्हां सागरीं गंगा जैसी | आत्मीं मीनल्या बुद्धि तैसी| अद्वयानंदाची आपैसी| खाणी उघडे ||७९२||
ऐसें स्वानुभवविश्रामें| वैराग्यमूळ जें परिणमे| तें सात्विक येणें नामें| बोलिजे सुख ||७९३||

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ||३८||

आणि विषयेंद्रियां| मेळु होतां धनंजया| जें सुख जाय थडिया| सांडूनि दोन्ही ||७९४||
अधिकारिया रिगतां गांवो| होय जैसा उत्साहो| कां रिणावरी विवाहो| विस्तारिला ||७९५||
नाना रोगिया जिभेपासीं| केळें गोड साखरेसीं| कां बचनागाची जैसी| मधुरता पहिली ||७९६||
पहिलें संवचोराचें मैत्र| हाटभेटीचें कलत्र| कां लाघवियाचे विचित्र| विनोद ते ||७९७||
तैसें विषयेंद्रियदोखीं| जें सुख जीवातें पोखी| मग उपडिला खडकीं| हंसु जैसा ||७९८||
तैसी जोडी आघवी आटे| जीविताचा ठाय फिटे| सुकृताचियाही सुटे| धनाची गांठी ||७९९||
आणिक भोगिलें जें कांहीं| तें स्वप्न तैसें होय नाहीं| मग हानीच्याचि घाईं| लोळावें उरे ||८००||
ऐसें आपत्ती जें सुख| ऐहिकीं परिणमे देख| परत्रीं कीर विख| होऊनि परते ||८०१||
जे इंद्रियजाता लळा| दिधलिया धर्माचा मळा| जाळूनि भोगिजे सोहळा| विषयांचा जेथ ||८०२||
तेथ पातकें बांधिती थावो| तियें नरकीं देती ठावो| जेणें सुखें हा अपावो| परत्रीं ऐसा ||८०३||
पैं नामें विष महुरें| परी मारूनि अंतीं खरें| तैसें आदि जें गोडिरें| अंतीं कडू ||८०४||
पार्था तें सुख साचें| वळिलें आहे रजाचें| म्हणौनि न शिवें तयाचें| आंग कहीं ||८०५||

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः |
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ||३९||

आणि अपेयाचेनि पानें| अखाद्याचेनि भोजनें| स्वैरस्त्रीसंनिधानें| होय जें सुख ||८०६||
का पुढिलांचेनि मारें| नातरी परस्वापहारें| जें सुख अवतरे| भाटाच्या बोलीं ||८०७||
जें आलस्यावरी पोखिजे| निद्रेमाजीं जें देखिजे| जयाच्या आद्यंतीं भुलिजे| आपुली वाट ||८०८||
तें गा सुख पार्था| तामस जाण सर्वथा| हें बहु न सांगोंचि जें कथा| असंभाव्य हे ||८०९||
ऐसें कर्मभेदें मुदलें| फळसुखही त्रिधा जालें| तें हें यथागमें केलें| गोचर तुज ||८१०||
ते कर्ता कर्म कर्मफळ| ये त्रिपुटी येकी केवळ| वांचूनि कांहींचि नसे स्थूल| सूक्ष्मीं इये ||८११||
आणि हे तंव त्रिपुटी| तिहीं गुणीं इहीं किरीटी| गुंफिली असे पटीं| तांतुवीं जैसी ||८१२||

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ||४०||

म्हणौनि प्रकृतीच्या आवलोकीं| न बंधिजे इहीं सत्वादिकीं| तैसी स्वर्गीं ना मृत्युलोकीं| आथी वस्तु ||८१३||
कैंचा लोंवेवीण कांबळा| मातियेवीण मोदळा| का जळेंवीण कल्लोळा| होणें आहे ? ||८१४||
तैसें न होनि गुणाचें| सृष्टीची रचना रचे| ऐसें नाहींचि गा साचें| प्राणिजात ||८१५||
यालागीं हें सकळ| तिहीं गुणांचेंचि केवळ| घडलें आहे निखिळ| ऐसें जाण ||८१६||
गुणीं देवां त्रयी लाविली| गुणीं लोकीं त्रिपुटी पाडिली| चतुर्वर्णा घातली| सिनानीं उळिगें ||८१७||

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ||४१||

तेचि चारी वर्ण| पुससी जरी कोण कोण| तरी जयां मुख्य ब्राह्मण| धुरेचे कां ||८१८||
येर क्षत्रिय वैश्य दोन्ही| तेही ब्राह्मणाच्याचि मानिजे मानी| जे ते वैदिकविधानीं| योग्य म्हणौनि ||८१९||
चौथा शूद्रु जो धनंजया| वेदीं लागु नाहीं तया| तऱ्हीं वृत्ति वर्णत्रया| आधीन तयाची ||८२०||
तिये वृत्तिचिया जवळिका| वर्णा ब्राह्मणादिकां| शूद्रही कीं देखा| चौथा जाला ||८२१||
जैसा फुलाचेनि सांगातें| तांतुं तुरंबिजे श्रीमंतें| तैसें द्विजसंगें शूद्रातें| स्वीकारी श्रुती ||८२२||
ऐसैसी गा पार्था| हे चतुर्वर्णव्यवस्था| करूं आतां कर्मपथा| यांचिया रूपा ||८२३||
जिहीं गुणीं ते वर्ण चारी| जन्ममृत्यूंचिये कातरी| चुकोनियां ईश्वरीं| पैठे होती ||८२४||
जिये आत्मप्रकृतीचे इहीं| गुणीं सत्त्वादिकीं तिहीं| कर्में चौघां चहूं ठाईं| वांटिलीं वर्णा ||८२५||
जैसें बापें जोडिलें लेंका| वांटिलें सूर्यें मार्ग पांथिका| नाना व्यापार सेवकां| स्वामी जैसें ||८२६||
तैसी प्रकृतीच्या गुणीं| जया कर्माची वेल्हावणी| केली आहे वर्णीं| चहूं इहीं ||८२७||
तेथ सत्त्वें आपल्या आंगीं| समीन- निमीन भागीं| दोघे केले नियोगी| ब्राह्मण क्षत्रिय ||८२८||
आणि रज परी सात्त्विक| तेथ ठेविलें वैश्य लोक| रजचि तमभेसक| तेथ शूद्र ते गा ||८२९||
ऐसा येकाचि प्राणिवृंदा| भेदु चतुर्वर्णधा| गुणींचि प्रबुद्धा| केला जाण ||८३०||
मग आपुलें ठेविलें जैसें| आइतेंचि दीपें दिसे| गुणभिन्न कर्म तैसें| शास्त्र दावी ||८३१||
तेंचि आतां कोण कोण| वर्णविहिताचें लक्षण| हें सांगों ऐक श्रवण- | सौभाग्यनिधी ||८३२||

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||४२||

तरी सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती| घेऊनि आपुल्या हातीं| बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं| प्रिया जैसी ||८३३||
ऐसा बुद्धीचा उपरमु| तया नाम म्हणिपे शमु| तो गुण गा उपक्रमु| जया कर्माचा ||८३४||
आणि बाह्येंद्रियांचें धेंडें| पिटूनि विधीचेनि दंडें| नेदिजे अधर्माकडे| कहींचि जावों ||८३५||
तो पैं गा शमा विरजा| दमु गुण जेथ दुजा| आणि स्वधर्माचिया वोजा| जिणें जें कां ||८३६||
सटवीचिये रातीं| न विसंबिजे जेवीं वाती| तैसा ईश्वरनिर्णयो चित्तीं| वाहणें सदा ||८३७||
तया नाम तप| ते तिजया गुणाचें रूप| आणि शौचही निष्पाप| द्विविध जेथ ||८३८||
मन भावशुद्धी भरलें| आंग क्रिया अळंकारिलें| ऐसें सबाह्य जियालें| साजिरें जें कां ||८३९||
तया नाम शौच पार्था| तो कर्मीं गुण जये चौथा| आणि पृथ्वीचिया परी सर्वथा| सर्व जें साहाणें ||८४०||
ते गा क्षमा पांडवा| गुण जेथ पांचवा| स्वरांमाजीं सुहावा| पंचमु जैसा ||८४१||
आणि वांकडेनी वोघेंसीं| गंगा वाहे उजूचि जैसी| कां पुटीं वळला ऊसीं| गोडी जैसी ||८४२||
तैसा विषमांही जीवां- | लागीं उजुकारु बरवा| तें आर्जव गा साहावा| जेथींचा गुण ||८४३||
आणि पाणियें प्रयत्नें माळी| अखंड जचे झाडामुळीं| परी तें आघवेंचि फळीं| जाणे जेवीं ||८४४||
तैसें शास्त्राचारें तेणें| ईश्वरुचि येकु पावणें| हें फुडें जें कां जाणणें| तें येथ ज्ञान ||८४५||
तें गा कर्मीं जिये| सातवा गुण होये| आणि विज्ञान हें पाहें| एवंरूप ||८४६||
तरी सत्वशुद्धीचिये वेळे| शास्त्रें कां ध्यानबळें| ईश्वरतत्त्वींचि मिळे| निष्टंकबुद्धी ||८४७||
हें विज्ञान बरवें| गुणरत्न जेथ आठवें| आणि आस्तिक्य जाणावें| नववा गुण ||८४८||
पैं राजमुद्रा आथिलिया| प्रजा भजे भलतया| तेवीं शास्त्रें स्वीकारिलिया| मार्गमात्रातें ||८४९||
आदरें जें कां मानणें| तें आस्तिक्य मी म्हणें| तो नववा गुण जेणें| कर्म तें साच ||८५०||
एवं नवही शमादिक| गुण जेथ निर्दोख| तें कर्म जाण स्वाभाविक| ब्राह्मणाचें ||८५१||
तो नवगुणरत्नाकरु| यया नवरत्नांचा हारु| न फेडीत ले दिनकरु| प्रकाशु जैसा ||८५२||
नाना चांपा चांपौळी पूजिला| चंद्रु चंद्रिका धवळला| कां चंदनु निजें चर्चिला| सौरभ्यें जेवीं ||८५३||
तेवीं नवगुणटिकलग| लेणें ब्राह्मणाचें अव्यंग| कहींचि न संडी आंग| ब्राह्मणाचें ||८५४||
आतां उचित जें क्षत्रिया| तेंहीं कर्म धनंजया| सांगों ऐक प्रज्ञेचिया| भरोवरी ||८५५||

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ||४३||

तरी भानु हा तेजें| नापेक्षी जेवीं विरजे| कां सिंहें न पाहिजे| जावळिया ||८५६||
ऐसा स्वयंभ जो जीवें लाठु| सावायेंवीण उद्भटु| ते शौर्य गा जेथ श्रेष्ठु| पहिला गुण ||८५७||
आणि सूर्याचेनि प्रतापें| कोडिही नक्षत्र हारपे| ना तो तरी न लोपे| सचंद्रीं तिहीं ||८५८||
तैसेनि आपुले प्रौढीगुणें| जगा या विस्मयो देणें| आपण तरी न क्षोभणें| कायसेनही ||८५९||
तें प्रागल्भ्यरूप तेजा| जिये कर्मीं गुण दुजा| आणि धीरु तो तिजा| जेथींचा गुण ||८६०||
वरिपडलिया आकाश| बुद्धीचे डोळे मानस| झांकी ना ते परीयेस| धैर्य जेथें ||८६१||
आणि पाणी हो कां भलतेतुकें| परी तें जिणौनि पद्म फांके| कां आकाश उंचिया जिंके| आवडे तयातें ||८६२||
तेवीं विविध अवस्था| पातलिया जिणौनि पार्था| प्रज्ञाफळ तया अर्था| वेझ देणें जें ||८६३||
तें दक्षत्व गा चोख| जेथ चौथा गुण देख| आणि झुंज अलौकिक| तो पांचवा गुण ||८६४||
आदित्याचीं झाडें| सदा सन्मुख सूर्याकडे| तेवीं समोर शत्रूपुढें| होणें जें कां ||८६५||
माहेवणी प्रयत्नेंसी| चुकविजे सेजे जैसी| रिपू पाठी नेदिजे तैसी| समरांगणीं ||८६६||
हा क्षत्रियाचेया आचारीं| पांचवा गुणेंद्रु अवधारीं| चहूं पुरुषार्थां शिरीं| भक्ति जैसी ||८६७||
आणि जालेनि फुलें फळें| शाखिया जैसीं मोकळे| कां उदार परीमळें| पद्माकरु ||८६८||
नाना आवडीचेनि मापें| चांदिणें भलतेणें घेपे| पुढिलांचेनि संकल्पें | तैसें जें देणें ||८६९||
तें उमप गा दान| जेथ सहावें गुणरत्न| आणि आज्ञे एकायतन| होणें जें कां ||८७०||
पोषूनि अवयव आपुले| करविजतीं मानविले| तेवीं पालणें लोभविलें| जग जें भोगणें ||८७१||
तया नाम ईश्वरभावो| जो सर्वसामर्थ्याचा ठावो| तो गुणांमाजीं रावो| सातवा जेथ ||८७२||
ऐसें जें शौर्यादिकीं| इहीं सात गुणविशेखीं| अळंकृत सप्तऋखीं| आकाश जैसें ||८७३||
तैसें सप्तगुणीं विचित्र| कर्म जें जगीं पवित्र| तें सहज जाण क्षात्र| क्षत्रियाचें ||८७४||
नाना क्षत्रिय नव्हे नरु| तो सत्त्वसोनयाचा मेरु| म्हणौनि गुणस्वर्गां आधारु| सातां इयां ||८७५||
नातरी सप्तगुणार्णवीं| परीवारली बरवी| हे क्रिया नव्हे पृथ्वी| भोगीतसे तो ||८७६||
कां गुणांचे सातांही ओघीं| हे क्रिया ते गंगा जगीं| तया महोदधीचिया आंगीं| विलसे जैसी ||८७७||
परी हें बहु असो देख| शौर्यादि गुणात्मक| कर्म गा नैसर्गिक| क्षात्रजातीसी ||८७८||
आतां वैश्याचिये जाती| उचित जे महामती| ते ऐकें गा निरुती| क्रिया सांगों ||८७९||

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् |
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ||४४||

तरी भूमि बीज नांगरु| यया भांडवलाचा आधारु| घेऊनि लाभु अपारु| मेळवणें जें ||८८०||
किंबहुना कृषी जिणें| गोधनें राखोनि वर्तणें| कां समर्घीची विकणें| महर्घीवस्तु ||८८१||
येतुलाचि पांडवा| वैश्यातें कर्माचा मेळावा| हा वैश्यजातीस्वभावा| आंतुला जाण ||८८२||
आणि वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मण| हे द्विजन्में तिन्ही वर्ण| ययांचें जें शुश्रूषण| तें शूद्रकर्म ||८८३||
पैं द्विजसेवेपरौतें| धांवणें नाहीं शूद्रातें| एवं चतुर्वर्णोचितें| दाविलीं कर्में ||८८४||

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||४५||

आतां इयेचि विचक्षणा| वेगळालिया वर्णा| उचित जैसें करणां| शब्दादिक ||८८५||
नातरी जळदच्युता| पाणिया उचित सरिता| सरितेसी पंडुसुता| सिंधु उचितु ||८८६||
तैसें वर्णाश्रमवशें| जें करणीय आलें असे | गोरेया आंगा जैसें| गोरेपण ||८८७||
तया स्वभावविहिता कर्मा| शास्त्राचेनि मुखें वीरोत्तमा| प्रवर्तावयालागीं प्रमा| अढळ कीजे ||८८८||
पैं आपुलेंचि रत्न थितें| घेपे पारखियाचेनि हातें| तैसें स्वकर्म आपैतें| शास्त्रें करावीं ||८८९||
जैसी दिठी असे आपुलिया ठायीं| परी दीपेंवीण भोग नाहीं| मार्गु न लाहतां काई| पाय असतां होय ? ||८९०||
म्हणौनि ज्ञातिवशें साचारु| सहज असे जो अधिकारु| तो आपुलिया शास्त्रें गोचरु| आपण कीजे ||८९१||
मग घरींचाचि ठेवा| जेवीं डोळ्यां दावी दिवा| तरी घेतां काय पांडवा| आडळु असे ? ||८९२||
तैसें स्वभावें भागा आलें| वरी शास्त्रें खरें केलें| तें विहित जो आपुलें| आचरे गा ||८९३||
परी आळसु सांडुनी| फळकाम दवडुनी| आंगें जीवें मांडुनी| तेथेंचि भरु ||८९४||
वोघीं पडिलें पाणी| नेणें आनानी वाहणी| तैसा जाय आचरणीं| व्यवस्थौनी ||८९५||
अर्जुना जो यापरी| तें विहित कर्म स्वयें करी| तो मोक्षाच्या ऐलद्वारीं| पैठा होय ||८९६||
जे अकरणा आणि निषिद्धा| न वचेचि कांहीं संबंधा| म्हणौनि भवा विरुद्धा| मुकला तो ||८९७||
आणि काम्यकर्मांकडे| न परतेचि जेथ कोडें| तेथ चंदनाचेही खोडे| न लेचि तो ||८९८||
येर नित्य कर्म तंव| फळत्यागें वेंचिलें सर्व| म्हणौनि मोक्षाची शींव| ठाकूं लाहे ||८९९||
ऐसेनि शुभाशुभीं संसारीं| सांडिला तो अवधारीं| वौराग्यमोक्षद्वारीं| उभा ठाके ||९००||
जें सकळ भाग्याची सीमा| मोक्षलाभाची जें प्रमा| नाना कर्ममार्गश्रमा| शेवटु जेथ ||९०१||
मोक्षफळें दिधली वोल| जें सुकृततरूचें फूल| तयें वैराग्यीं ठेवी पाऊल| भंवरु जैसा ||९०२||
पाहीं आत्मज्ञानसुदिनाचा| वाधावा सांगतया अरुणाचा| उदयो त्या वैराग्याचा| ठावो पावे ||९०३||
किंबहुना आत्मज्ञान| जेणें हाता ये निधान| तें वैराग्य दिव्यांजन| जीवें ले तो ||९०४||
ऐसी मोक्षाची योग्यता| सिद्धी जाय तया पंडुसुता| अनुसरोनि विहिता| कर्मा यया ||९०५||
हें विहित कर्म पांडवा| आपुला अनन्य वोलावा| आणि हेचि परम सेवा| मज सर्वात्मकाची ||९०६||
पैं आघवाचि भोगेंसीं| पतिव्रता क्रीडे प्रियेंसीं| कीं तयाचीं नामें जैसीं| तपें तियां केलीं ||९०७||
कां बाळका एकी माये| वांचोनि जिणें काय आहे| म्हणौनि सेविजे कीं तो होये| पाटाचा धर्मु ||९०८||
नाना पाणी म्हणौनि मासा| गंगा न सांडितां जैसा| सर्व तीर्थ सहवासा| वरपडा जाला ||९०९||
तैसें आपुलिया विहिता| उपावो असे न विसंबितां| ऐसा कीजे कीं जगन्नाथा| आभारु पडे ||९१०||
अगा जया जें विहित| तें ईश्वराचें मनोगत| म्हणौनि केलिया निभ्रांत| सांपडेचि तो ||९११||
पैं जीवाचे कसीं उतरली| ते दासी कीं गोसावीण जाली| सिसे वेंचि तया मविली| वही जेवीं ||९१२||
तैसें स्वामीचिया मनोभावा| न चुकिजे हेचि परमसेवा| येर तें गा पांडवा| वाणिज्य करणें ||९१३||

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||४६||

म्हणौनि विहित क्रिया केली| नव्हे तयाची खूण पाळिली| जयापसूनि कां आलीं| आकारा भूतें ||९१४||
जो अविद्येचिया चिंधिया| गुंडूनि जीव बाहुलिया| खेळवीतसे तिगुणिया| अहंकाररज्जू ||९१५||
जेणें जग हें समस्त| आंत बाहेरी पूर्ण भरित| जालें आहे दीपजात| तेजें जैसें ||९१६||
तया सर्वात्मका ईश्वरा| स्वकर्मकुसुमांची वीरा| पूजा केली होय अपारा| तोषालागीं ||९१७||
म्हणौनि तिये पूजे| रिझलेनि आत्मराजें| वैराग्यसिद्धि देईजे| पसाय तया ||९१८||
जिये वैराग्यदशें| ईश्वराचेनि वेधवशें| हें सर्वही नावडे जैसें| वांत होय ||९१९||
प्राणनाथाचिया आधी| विरहिणीतें जिणेंही बाधी| तैसें सुखजात त्रिशुद्धी| दुःखचि लागे ||९२०||
सम्यक्ज्ञान नुदैजतां| वेधेंचि तन्मयता| उपजे ऐसी योग्यता| बोधाची लाहे ||९२१||
म्हणौनि मोक्षलाभालागीं| जो व्रतें वाहातसें आंगीं| तेणें स्वधर्मु आस्था चांगी| अनुष्ठावा ||९२२||

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||४७||

अगा आपुला हा स्वधर्मु| आचरणीं जरी विषमु| तरी पाहावा तो परिणामु| फळेल जेणें ||९२३||
जैं सुखालागीं आपणपयां| निंबचि आथी धनंजया| तैं कडुवटपणा तयाचिया| उबगिजेना ||९२४||
फळणया ऐलीकडे| केळीतें पाहातां आस मोडे| ऐसी त्यजिली तरी जोडे| तैसें कें गोमटें ||९२५||
तेवीं स्वधर्मु सांकडु| देखोनि केला जरी कडु| तरी मोक्षसुरवाडु| अंतरला कीं ||९२६||
आणि आपुली माये| कुब्ज जरी आहे| तरी जीये तें नोहे| स्नेह कुऱ्हें कीं ||९२७||
येरी जिया पराविया| रंभेहुनि बरविया| तिया काय कराविया| बाळकें तेणें ? ||९२८||
अगा पाणियाहूनि बहुवें| तुपीं गुण कीर आहे| परी मीना काय होये| असणें तेथ ||९२९||
पैं आघविया जगा जें विख| तें विख किडियाचें पीयूख| आणि जगा गूळ तें देख| मरण तया ||९३०||
म्हणौनि जे विहित जया जेणें| फिटे संसाराचें धरणें| क्रिया कठोर तऱ्ही तेणें| तेचि करावी ||९३१||
येरा पराचारा बरविया| ऐसें होईल टेंकलया| पायांचें चालणें डोइया| केलें जैसें ||९३२||
यालागीं कर्म आपुले| जें जातिस्वभावें असे आलें| तें करी तेणें जिंतिलें| कर्मबंधातें ||९३३||
आणि स्वधर्मुचि पाळावा| परधर्मु तो गाळावा| हा नेमुही पांडवा| न कीजेचि पै गा ? ||९३४||
तरी आत्मा दृष्ट नोहे| तंव कर्म करणें कां ठाये ? | आणि करणें तेथ आहे| आयासु आधीं ||९३५||

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ||४८||

म्हणौनि भलतिये कर्मीं| आयासु जऱ्ही उपक्रमीं| तरी काय स्वधर्मीं| दोषु| सांगें ? ||९३६||
आगा उजू वाटा चालावें| तऱ्ही पायचि शिणवावे| ना आडरानें धांवावें| तऱ्ही तेंचि ||९३७||
पैं शिळा कां सिदोरिया| दाटणें एक धनंजया| परी जें वाहतां विसांवया| मिळिजे तें घेपे ||९३८||
येऱ्हवीं कणा आणि भूसा| कांडितांही सोसु सरिसा| जेंचि रंधन श्वान मांसा| तेंचि हवी ||९३९||
दधी जळाचिया घुसळणा| व्यापार सारिखेचि विचक्षणा| वाळुवे तिळा घाणा| गाळणें एक ||९४०||
पैं नित्य होम देयावया| कां सैरा आगी सुवावया| फुंकितां धू धनंजया| साहणें तेंचि ||९४१||
परी धर्मपत्नी धांगडी| पोसितां जरी एकी वोढी| तरी कां अपरवडी| आणावी आंगा ? ||९४२||
हां गा पाठीं लागला घाई| मरण न चुकेचि पाहीं| तरी समोरला काई| आगळें न कीजे ? ||९४३||
कुलस्त्री दांड्याचे घाये| परघर रिगालीहि जरी साहे| तरी स्वपतीतें वायें| सांडिलें कीं ||९४४||
तैसें आवडतेंही करणें| न निपजे शिणल्याविणें| तरी विहित बा रे कोणें| बोलें भारी ? ||९४५||
वरी थोडेंचि अमृत घेतां| सर्वस्व वेंचो कां पंडुसुता| जेणें जोडे जीविता| अक्षयत्व ||९४६||
येर काह्यां मोलें वेंचूनि| विष पियावे घेऊनि| आत्महत्येसि निमोनि| जाइजे जेणें ||९४७||
तैसें जाचूनियां इंद्रियें| वेंचूनि आयुष्याचेनि दिये| सांचलें पापीं आन आहे| दुःखावाचूनि ? ||९४८||
म्हणौनि करावा स्वधर्मु| जो करितां हिरोनि घे श्रमु| उचित देईल परमु| पुरुषार्थराजु ||९४९||
याकारणें किरीटी| स्वधर्माचिये राहाटी| न विसंबिजे संकटीं| सिद्धमंत्र जैसा ||९५०||
कां नाव जैसी उदधीं| महारोगी दिव्यौषधी| न विसंबिजे तया बुद्धी| स्वकर्म येथ ||९५१||
मग ययाचि गा कपिध्वजा| स्वकर्माचिया महापूजा| तोषला ईशु तमरजा| झाडा करुनी ||९५२||
शुद्धसत्त्वाचिया वाटा| आणी आपुली उत्कंठा| भवस्वर्ग काळकूटा| ऐसें दावी ||९५३||
जियें वैराग्य येणें बोलें| मागां संसिद्धी रूप केलें| किंबहुना तें आपुलें| मेळवी खागें ||९५४||
मग जिंतिलिया हे भोये| पुरुष सर्वत्र जैसा होये| कां जालाही जें लाहे| तें आतां सांगों ||९५५||

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||४९||

तरी देहादिक हें संसारें| सर्वही मांडलेंसे जें गुंफिरें| तेथ नातुडे तो वागुरें| वारा जैसा ||९५६||
पैं परिपाकाचिये वेळे| फळ देठें ना देठु फळें| न धरे तैसें स्नेह खुळें| सर्वत्र होय ||९५७||
पुत्र वित्त कलत्र| हे जालियाही स्वतंत्र| माझें न म्हणे पात्र| विषाचें जैसें ||९५८||
हें असो विषयजाती| बुद्धि पोळली ऐसी माघौती| पाउलें घेऊनि एकांतीं| हृदयाच्या रिगे ||९५९||
ऐसया अंतःकरण| बाह्य येतां तयाची आण| न मोडी समर्था भेण| दासी जैसी ||९६०||
तैसें ऐक्याचिये मुठी| माजिवडें चित्त किरीटी| करूनि वेधी नेहटीं| आत्मयाच्या ||९६१||
तेव्हां दृष्टादृष्ट स्पृहे| निमणें जालेंचि आहे| आगीं दडपलिया धुयें| राहिजे जैसें ||९६२||
म्हणौनि नियमिलिया मानसीं| स्पृहा नासौनि जाय आपैसीं| किंबहुना तो ऐसी| भूमिका पावे ||९६३||
पैं अन्यथा बोधु आघवा| मावळोनि तया पांडवा| बोधमात्रींचि जीवा| ठावो होय ||९६४||
धरवणी वेंचें सरे| तैसें भोगें प्राचीन पुरे| नवें तंव नुपकरे| कांहीचि करूं ||९६५||
ऐसीं कर्में साम्यदशा| होय तेथ वीरेशा| मग श्रीगुरु आपैसा| भेटेचि गा ||९६६||
रात्रीची चौपाहरी| वेंचलिया अवधारीं| डोळ्यां तमारी| मिळे जैसा ||९६७||
का येऊनि फळाचा घडु| पारुषवी केळीची वाढु| श्रीगुरु भेटोनि करी पाडु| बुभुत्सु तैसा ||९६८||
मग आलिंगिला पूर्णिमा| जैसा उणीव सांडी चंद्रमा| तैसें होय वीरोत्तमा| गुरुकृपा तया ||९६९||
तेव्हां अबोधुमात्र असे| तो तंव तया कृपा नासे| तेथ निशीसवें जैसें| आंधारें जाय ||९७०||
तैसी अबोधाचिये कुशी| कर्म कर्ता कार्य ऐशी| त्रिपुटी असे ते जैसी| गाभिणी मारिली ||९७१||
तैसेंचि अबोधनाशासवें| नाशे क्रियाजात आघवें| ऐसा समूळ संभवे| संन्यासु हा ||९७२||
येणें मुळाज्ञानसंन्यासें| दृश्याचा जेथ ठावो पुसे| तेथ बुझावें तें आपैसें| तोचि आहे ||९७३||
चेइलियावरी पाहीं| स्वप्नींचिया तिये डोहीं| आपणयातें काई| काढूं जाइजे ? ||९७४||
तैं मी नेणें आतां जाणेन| हें सरलें तया दुःस्वप्न| जाला ज्ञातृज्ञेयाविहीन| चिदाकाश ||९७५||
मुखाभासेंसी आरिसा| परौता नेलिया वीरेशा| पाहातेपणेंवीण जैसा| पाहाता ठाके ||९७६||
तैसें नेणणें जें गेलें| तेणें जाणणेंही नेलें| मग निष्क्रिय उरलें| चिन्मात्रचि ||९७७||
तेथ स्वभावें धनंजया| नाहीं कोणीचि क्रिया| म्हणौनि प्रवादु तया| नैष्कर्म्यु ऐसा ||९७८||
तें आपुलें आपणपें| असे तेंचि होऊनि हारपे| तरंगु कां वायुलोपें| समुद्रु जैसा ||९७९||
तैसें न होणें निफजे| ते नैष्कर्म्यसिद्धि जाणिजे| सर्वसिद्धींत सहजें| परम हेचि ||९८०||
देउळाचिया कामा कळसु| उपरम गंगेसी सिंधु प्रवेशु| कां सुवर्णशुद्धी कसु| सोळावा जैसा ||९८१||
तैसें आपुलें नेणणें| फेडिजे का जाणणें| तेंहि गिळूनि असणें| ऐसी जे दशा ||९८२||
तियेपरतें कांहीं| निपजणें आन नाहीं| म्हणौनि म्हणिपे पाहीं| परमसिद्धि ते ||९८३||

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे |
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ||५०||

परी हेचि आत्मसिद्धि| जो कोणी भाग्यनिधि| श्रीगुरुकृपालब्धि- | काळीं पावे ||९८४||
उदयतांचि दिनकरु| प्रकाशुचि आते आंधारु| कां दीपसंगें कापुरु| दीपुचि होय ||९८५||
तया लवणाची कणिका| मिळतखेंवो उदका| उदकचि होऊनि देखा| ठाके जेवीं ||९८६||
कां निद्रितु चेवविलिया| स्वप्नेंसि नीद वायां| जाऊनि आपणपयां| मिळे जैसा ||९८७||
तैसें जया कोण्हासि दैवें| गुरुवाक्यश्रवणाचि सवें| द्वैत गिळोनि विसंवे| आपणया वृत्ती ||९८८||
तयासी मग कर्म करणें| हें बोलिजैलचि कवणें| | आकाशा येणें जाणें| आहे काई ? ||९८९||
म्हणौनि तयासि कांहीं| त्रिशुद्धि करणें नाहीं| परी ऐसें जरी हें कांहीं| नव्हे जया ||९९०||
कानावचनाचिये भेटी- | सरिसाचि पैं किरीटी| वस्तु होऊनि उठी| कवणि एकु जो ||९९१||
येऱ्हवीं स्वकर्माचेनि वन्ही| काम्यनिषिद्धाचिया इंधनीं| रजतमें कीर दोन्ही| जाळिलीं आधीं ||९९२||
पुत्र वित्त परलोकु| यया तिहींचा अभिलाखु| घरीं होय पाइकु| हेंही जालें ||९९३||
इंद्रियें सैरा पदार्थीं| रिगतां विटाळलीं होतीं| तिये प्रत्याहार तीर्थीं| न्हाणिलीं कीर ||९९४||
आणि स्वधर्माचें फळ| ईश्वरीं अर्पूनि सकळ| घेऊनि केलें अढळ| वैराग्यपद ||९९५||
ऐसी आत्मसाक्षात्कारीं| लाभे ज्ञानाची उजरी| ते सामुग्री कीर पुरी| मेळविली ||९९६||
आणि तेचि समयीं| सद्गुरु भेटले पाहीं| तेवींचि तिहीं कांहीं| वंचिजेना ||९९७||
परी वोखद घेतखेंवो| काय लाभे आपला ठावो ? | कां उदयजतांचि दिवो| मध्यान्ह होय ? ||९९८||
सुक्षेत्रीं आणि वोलटें| बीजही पेरिलें गोमटें| तरी आलोट फळ भेटे| परी वेळे कीं गा ||९९९||
जोडला मार्गु प्रांजळु| मिनला सुसंगाचाही मेळु| तरी पाविजे वांचूनि वेळु| लागेचि कीं ||१०००||
तैसा वैराग्यलाभु जाला| वरी सद्गुरुही भेटला| जीवीं अंकुरु फुटला| विवेकाचा ||१००१||
तेणें ब्रह्म एक आथी| येर आघवीचि भ्रांती| हेही कीर प्रतीती| गाढ केली ||१००२||
परी तेंचि जें परब्रह्म| सर्वात्मक सर्वोत्तम| मोक्षाचेंही काम| सरे जेथ ||१००३||
यया तिन्ही अवस्था पोटीं| जिरवी जें गा किरीटी| तया ज्ञानासिही मिठी| दे जे वस्तु ||१००४||
ऐक्याचें एकपण सरे| जेथ आनंदकणुही विरे| कांहींचि नुरोनि उरे| जें कांहीं गा ||१००५||
तियें ब्रह्मीं ऐक्यपणें| ब्रह्मचि होऊनि असणें| तें क्रमेंचि करूनि तेणें| पाविजे पैं ||१००६||
भुकेलियापासीं| वोगरिलें षड्रसीं| तो तृप्ति प्रतिग्रासीं| लाहे जेवीं ||१००७||
तैसा वैराग्याचा वोलावा| विवेकाचा तो दिवा| आंबुथितां आत्मठेवा| काढीचि तो ||१००८||
तरी भोगिजे आत्मऋद्धी| येवढी योग्यतेची सिद्धी| जयाच्या आंगीं निरवधी| लेणें जाली ||१००९||
तो जेणें क्रमें ब्रह्म| होणें करी गा सुगम| तया क्रमाचें आतां वर्म| आईक सांगों ||१०१०||


बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च |
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ||५१||

तरी गुरु दाविलिया वाटा| येऊन विवेकतीर्थतटा| धुऊनियां मळकटा| बुद्धीचा तेणें ||१०११||
मग राहूनें उगळिली| प्रभा चंद्रें आलिंगिली| तैसी शुद्धत्वें जडली| आपणयां बुद्धि ||१०१२||
सांडूनि कुळें दोन्ही| प्रियासी अनुसरे कामिनी| द्वंद्वत्यागें स्वचिंतनीं| पडली तैसी ||१०१३||
आणि ज्ञान ऐसें जिव्हार| नेवों नेवों निरंतर| इंद्रियीं केले थोर| शब्दादिक जे ||१०१४||
ते रश्मिजाळ काढलेया| मृगजळ जाय लया| तैसें वृत्तिरोधें तयां| पांचांही केलें ||१०१५||
नेणतां अधमाचिया अन्ना| खादलिया कीजे वमना| तैसीं वोकविली सवासना| इंद्रियें विषयीं ||१०१६||
मग प्रत्यगावृत्ती चोखटें| लाविलीं गंगेचेनि तटें| ऐसीं प्रायश्चित्तें धुवटें| केलीं येणें ||१०१७||
पाठीं सात्विकें धीरें तेणें| शोधारलीं तियें करणें| मग मनेंसीं योगधारणें| मेळविलीं ||१०१८||
तेवींचि प्राचीनें इष्टानिष्टें| भोगेंसीं येउनी भेटे| तेथ देखिलियाही वोखटें| द्वेषु न करी ||१०१९||
ना गोमटेंचि विपायें| तें आणूनि पुढां सूये| तयालागीं न होये| साभिलाषु ||१०२०||
यापरी इष्टानिष्टींंं| रागद्वेष किरीटी| त्यजूनि गिरिकपाटीं | निकुंजीं वसे ||१०२१||

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ||५२||

गजबजा सांडिलिया| वसवी वनस्थळिया| अंगाचियाचि मांदिया| एकलेया ||१०२२||
शमदमादिकीं खेळे| न बोलणेंचि चावळे| गुरुवाक्याचेनि मेळें| नेणे वेळु ||१०२३||
आणि आंगा बळ यावें| नातरी क्षुधा जावें| कां जिभेएचे पुरवावे| मनोरथ ||१०२४||
भोजन करितांविखीं| ययां तिहींतें न लेखी| आहारीं मिती संतोषीं| माप न सूये ||१०२५||
अशनाचेनि पावकें| हारपतां प्राणु पोखे| इतुकियाचि भागु मोटकें| अशन करी ||१०२६||
आणि परपुरुषें कामिली| कुळवधू आंग न घाली| निद्रालस्या न मोकली| आसन तैसें ||१०२७||
दंडवताचेनि प्रसंगें| भुयीं हन अंग लागे| वांचूनि येर नेघे| राभस्य तेथ ||१०२८||
देहनिर्वाहापुरतें| राहाटवी हातांपायांतें| किंबहुना आपैतें| सबाह्य केलें ||१०२९||
आणि मनाचा उंबरा| वृत्तीसी देखों नेदी वीरा| तेथ कें वाग्व्यापारा| अवकाशु असे ? ||१०३०||
ऐसेनि देह वाचा मानस| हें जिणौनि बाह्यप्रदेश| आकळिलें आकाश| ध्यानाचें तेणें ||१०३१||
गुरुवाक्यें उठविला| बोधीं निश्चयो आपुला| न्याहाळीं हातीं घेतला| आरिसा जैसा ||१०३२||
पैं ध्याता आपणचि परी| ध्यानरूप वृत्तिमाझारीं| ध्येयत्वें घे हे अवधारीं| ध्यानरूढी गा ||१०३३||
तेथ ध्येय ध्यान ध्याता| ययां तिहीं एकरूपता| होय तंव पंडुसुता| कीजे तें गा ||१०३४||
म्हणौनि तो मुमुक्षु| आत्मज्ञानीं जाला दक्षु| परी पुढां सूनि पक्षु| योगाभ्यासाचा ||१०३५||
अपानरंध्रद्वया| माझारीं धनंजया| पार्ष्णीं पिडूनियां| कांवरुमूळ ||१०३६||
आकुंचूनि अध| देऊनि तिन्ही बंध| करूनि एकवद| वायुभेदी ||१०३७||
कुंडलिनी जागवूनि| मध्यमा विकाशूनि| आधारादि भेदूनि| आज्ञावरी ||१०३८||
सहस्त्रदळाचा मेघु| पीयुषें वर्षोनि चांगु| तो मूळवरी वोघु| आणूनियां ||१०३९||
नाचतया पुण्यगिरी| चिद्भैरवाच्या खापरीं| मनपवनाची खीच पुरी| वाढूनियां ||१०४०||
जालिया योगाचा गाढा| मेळावा सूनि हा पुढां| ध्यान मागिलीकडां| स्वयंभ केलें ||१०४१||
आणि ध्यान योग दोन्ही| इयें आत्मतत्वज्ञानीं| पैठा होआवया निर्विघ्नीं| आधींचि तेणें ||१०४२||
वीतरागतेसारिखा| जोडूनि ठेविला सखा| तो आघवियाचि भूमिका- | सवें चाले ||१०४३||
पहावें दिसे तंववरी| दिठीतें न संडी दीप जरी| तरी कें आहे अवसरी| देखावया ||१०४४||
तैसें मोक्षीं प्रवर्तलया| वृत्ती ब्रह्मीं जाय लया| तंव वैराग्य आथी तया| भंगु कैचा ||१०४५||
म्हणौनि सवैराग्यु| ज्ञानाभ्यासु तो सभाग्यु| करूनि जाला योग्यु| आत्मलाभा ||१०४६||
ऐसी वैराग्याची आंगीं| बाणूनियां वज्रांगीं| राजयोगतुरंगीं| आरूढला ||१०४७||
वरी आड पडिलें दिठी| सानें थोर निवटी| तें बळीं विवेकमुष्टीं| ध्यानाचें खांडें ||१०४८||
ऐसेनि संसाररणाआंतु |आंधारीं सूर्य तैसा असे जातु | मोक्षविजयश्रीये वरैतु| होआवयालागीं ||१०४९||

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||५३||

तेथ आडवावया आले| दोषवैरी जे धोपटिले| तयांमाजीं पहिलें| देहाहंकारु ||१०५०||
जो न मोकली मारुनी| जीवों नेदी उपजवोनि| विचंबवी खोडां घालुनी| हाडांचिया ||१०५१||
तयाचा देहदुर्ग हा थारा| मोडूनि घेतला तो वीरा| आणि बळ हा दुसरा| मारिला वैरी ||१०५२||
जो विषयाचेनि नांवें| चौगुणेंही वरी थांवे| जेणें मृतावस्था धांवे| सर्वत्र जगा ||१०५३||
तो विषय विषाचा अथावो| आघविया दोषांचा रावो| परी ध्यानखड्गाचा घावो| साहेल कैंचा ? ||१०५४||
आणि प्रिय विषयप्राप्ती| करी जया सुखाची व्यक्ती| तेचि घालूनि बुंथी| आंगीं जो वाजे ||१०५५||
जो सन्मार्गा भुलवी| मग अधर्माच्या आडवीं| सूनि वाघां सांपडवी| नरकादिकां ||१०५६||
तो विश्वासें मारितां रिपु| निवटूनि घातला दर्पु| आणि जयाचा अहा कंपु| तापसांसी ||१०५७||
क्रोधा ऐसा महादोखु| जयाचा देखा परिपाकु| भरिजे तंव अधिकु| रिता होय जो ||१०५८||
तो कामु कोणेच ठायीं| नसे ऐसें केलें पाहीं| कीं तेंचि क्रोधाही| सहजें आलें ||१०५९||
मुळाचें तोडणें जैसें| होय कां शाखोद्देशें| कामु नाशलेनि नाशे| तैसा क्रोधु ||१०६०||
म्हणौनि काम वैरी| जाला जेथ ठाणोरी| तेथ सरली वारी| क्रोधाचीही ||१०६१||
आणि समर्थु आपुला खोडा| शिसें वाहवी जैसा होडा| तैसा भुंजौनि जो गाढा| परीग्रहो ||१०६२||
जो माथांचि पालाणवी| अंगा अवगुण घालवी| जीवें दांडी घेववी| ममत्वाची ||१०६३||
शिष्यशास्त्रादिविलासें| मठादिमुद्रेचेनि मिसें| घातले आहाती फांसे| निःसंगा जेणें ||१०६४||
घरीं कुटुंबपणें सरे| तरी वनीं वन्य होऊनि अवतरे| नागवीयाही शरीरें| लागला आहे ||१०६५||
ऐसा दुर्जयो जो परीग्रहो| तयाचा फेडूनि ठावो| भवविजयाचा उत्साहो| भोगीतसे जो ||१०६६||
तेथ अमानित्वादि आघवे| ज्ञानगुणाचे जे मेळावे| ते कैवल्यदेशींचे आघवे| रावो जैसे आले ||१०६७||
तेव्हां सम्यक्ज्ञानाचिया| राणिवा उगाणूनि तया| परिवारु होऊनियां| राहत आंगें ||१०६८||
प्रवृत्तीचिये राजबिदीं| अवस्थाभेदप्रमदीं| कीजत आहे प्रतिपदीं| सुखाचें लोण ||१०६९||
पुढां बोधाचिये कांबीवरी| विवेकु दृश्याची मांदी सारी| योगभूमिका आरती करी| येती जैसिया ||१०७०||
तेथ ऋद्धिसिद्धींचीं अनेगें| वृंदें मिळती प्रसंगें| तिये पुष्पवर्षीं आंगें| नाहातसे तो ||१०७१||
ऐसेनि ब्रह्मैक्यासारिखें| स्वराज्य येतां जवळिकें| झळंबित आहे हरिखें| तिन्ही लोक ||१०७२||
तेव्हां वैरियां कां मैत्रियां| तयासि माझें म्हणावया| समानता धनंजया| उरेचिही ना ||१०७३||
हें ना भलतेणें व्याजें| तो जयातें म्हणे माझें| तें नोडवेचि कां दुजें| अद्वितीय जाला ||१०७४||
पैं आपुलिया एकी सत्ता| सर्वही कवळूनिया पंडुसुता| कहीं न लगती ममता| धाडिली तेणें ||१०७५||
ऐसा जिंतिलिया रिपुवर्गु| अपमानिलिया हें जगु| अपैसा योगतुरंगु| स्थिर जाला ||१०७६||
वैराग्याचें गाढलें| अंगी त्राण होतें भलें| तेंही नावेक ढिलें| तेव्हां करी ||१०७७||
आणि निवटी ध्यानाचें खांडें| तें दुजें नाहींचि पुढें| म्हणौनि हातु आसुडें| वृत्तीचाही ||१०७८||
जैसें रसौषध खरें| आपुलें काज करोनि पुरें| आपणही नुरे| तैसें होतसे ||१०७९||
देखोनि ठाकिता ठावो| धांवता थिरावे पावो| तैसा ब्रह्मसामीप्यें थावो| अभ्यासु सांडी ||१०८०||
घडतां महोदधीसी| गंगा वेगु सांडी जैसी| कां कामिनी कांतापासीं| स्थिर होय ||१०८१||
नाना फळतिये वेळे| केळीची वाढी मांटुळे| कां गांवापुढें वळे| मार्गु जैसा ||१०८२||
तैसा आत्मसाक्षात्कारु| होईल देखोनि गोचरु| ऐसा साधनहतियेरु| हळुचि ठेवी ||१०८३||
म्हणौनि ब्रह्मेंसी तया| ऐक्याचा समो धनंजया| होतसे तैं उपाया| वोहटु पडे ||१०८४||
मग वैराग्याची गोंधळुक| जे ज्ञानाभ्यासाचें वार्धक्य| योगफळाचाही परिपाक| दशा जे कां ||१०८५||
ते शांति पैं गा सुभगा| संपूर्ण ये तयाचिया आंगा| तैं ब्रह्म होआवया जोगा| होय तो पुरुषु ||१०८६||
पुनवेहुनी चतुर्दशी| जेतुलें उणेपण शशी| कां सोळे पाऊनि जैसी| पंधरावी वानी ||१०८७||
सागरींही पाणी वेगें| संचरे तें रूप गंगे| येर निश्चळ जें उगें| तें समुद्रु जैसा ||१०८८||
ब्रह्मा आणि ब्रह्महोतिये| योग्यते तैसा पाडु आहे| तेंचि शांतीचेनि लवलाहें| होय तो गा ||१०८९||
पैं तेंचि होणेंनवीण| प्रतीती आलें जें ब्रह्मपण| ते ब्रह्म होती जाण| योग्यता येथ ||१०९०||

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||५४||

ते ब्रह्मभावयोग्यता| पुरुषु तो मग पंडुसुता| आत्मबोधप्रसन्नता- | पदीं बैसे ||१०९१||
जेणें निपजे रससोय| तो तापुही जैं जाय| तैं ते कां होय| प्रसन्न जैसी ||१०९२||
नाना भरतिया लगबगा| शरत्काळीं सांडिजे गंगा| कां गीत रहातां उपांगा| वोहटु पडे ||१०९३||
तैसा आत्मबोधीं उद्यमु| करितां होय जो श्रमु| तोही जेथें समु| होऊनि जाय ||१०९४||
आत्मबोधप्रशस्ती| हे तिये दशेची ख्याती| ते भोगितसे महामती| योग्यु तो गा ||१०९५||
तेव्हां आत्मत्वें शोचावें| कांहीं पावावया कामावें| हें सरलें समभावें| भरितें तया ||१०९६||
उदया येतां गभस्ती| नाना नक्षत्रव्यक्ती| हारवीजती दीप्ती| आंगिका जेवीं ||१०९७||
तेवीं उठतिया आत्मप्रथा| हे भूतभेदव्यवस्था| मोडीत मोडीत पार्था| वास पाहे तो ||१०९८||
पाटियेवरील अक्षरें| जैसीं पुसतां येती करें| तैसीं हारपती भेदांतरें| तयाचिये दृष्टी ||१०९९||
तैसेनि अन्यथा ज्ञानें| जियें घेपती जागरस्वप्नें| तियें दोन्ही केलीं लीनें| अव्यक्तामाजीं ||११००||
मग तेंही अव्यक्त| बोध वाढतां झिजत| पुरलां बोधीं समस्त| बुडोनि जाय ||११०१||
जैसी भोजनाच्या व्यापारीं| क्षुधा जिरत जाय अवधारीं| मग तृप्तीच्या अवसरीं| नाहींच होय ||११०२||
नाना चालीचिया वाढी| वाट होत जाय थोडी| मग पातला ठायीं बुडी| देऊनि निमे ||११०३||
कां जागृति जंव जंव उद्दीपे| तंव तंव निद्रा हारपे| मग जागीनलिया स्वरूपें| नाहींच होय ||११०४||
हें ना आपुलें पूर्णत्व भेटें| जेथ चंद्रासीं वाढी खुंटे| तेथ शुक्लपक्षु आटे| निःशेषु जैसा ||११०५||
तैसा बोध्यजात गिळितु| बोधु बोधें ये मज आंतु| मिसळला तेथ साद्यंतु| अबोधु गेला ||११०६||
तेव्हां कल्पांताचिये वेळे| नदी सिंधूचें पेंडवळें| मोडूनि भरलें जळें |आब्रह्म जैसें ||११०७||
नाना गेलिया घट मठ| आकाश ठाके एकवट| कां जळोनि काष्ठें काष्ठ| वन्हीचि होय ||११०८||
नातरी लेणियांचे ठसे| आटोनि गेलिया मुसे| नामरूप भेदें जैसें| सांडिजे सोनें ||११०९||
हेंही असो चेइलया| तें स्वप्न नाहीं जालया| मग आपणचि आपणयां| उरिजे जैसें ||१११०||
तैसी मी एकवांचूनि कांहीं| तया तयाहीसकट नाहीं| हे चौथी भक्ति पाहीं| माझी तो लाहे ||११११||
येर आर्तु जिज्ञासु अर्थार्थी| हे भजती जिये पंथीं| ते तिन्ही पावोनी चौथी| म्हणिपत आहे ||१११२||
येऱ्हवीं तिजी ना चौथी| हे पहिली ना सरती| पैं माझिये सहजस्थिती| भक्ति नाम ||१११३||
जें नेणणें माझें प्रकाशूनि| अन्यथात्वें मातें दाऊनि| सर्वही सर्वीं भजौनि| बुझावीतसे जे ||१११४||
जो जेथ जैसें पाहों बैसे| तया तेथ तैसेंचि असे| हें उजियेडें कां दिसे| अखंडें जेणें ||१११५||
स्वप्नाचें दिसणें न दिसणें| जैसें आपलेनि असलेपणें| विश्वाचें आहे नाहीं जेणें| प्रकाशें तैसें ||१११६||
ऐसा हा सहज माझा| प्रकाशु जो कपिध्वजा| तो भक्ति या वोजा| बोलिजे गा ||१११७||
म्हणौनि आर्ताच्या ठायीं| हे आर्ति होऊनि पाहीं| अपेक्षणीय जें कांहीं | तें मीचि केला ||१११८||
जिज्ञासुपुढां वीरेशा| हेचि होऊनि जिज्ञासा| मी कां जिज्ञास्यु ऐसा| दाखविला ||१११९||
हेंचि होऊनि अर्थना| मीचि माझ्या अर्थीं अर्जुना| करूनि अर्थाभिधाना| आणी मातें ||११२०||
एवं घेऊनि अज्ञानातें| माझी भक्ति जे हे वर्ते| ते दावी मज द्रष्टयातें| दृश्य करूनि ||११२१||
येथें मुखचि दिसे मुखें| या बोला कांहीं न चुके| तरी दुजेपण हें लटिकें| आरिसा करी ||११२२||
दिठी चंद्रचि घे साचें| परी येतुलें हें तिमिराचें| जे एकचि असे तयाचे| दोनी दावी ||११२३||
तैसा सर्वत्र मीचि मियां| घेपतसें भक्ति इया| परी दृश्यत्व हें वायां| अज्ञानवशें ||११२४||
तें अज्ञान आतां फिटलें| माझें दृष्टृत्व मज भेटलें| निजबिंबीं एकवटलें| प्रतिबिंब जैसें ||११२५||
पैं जेव्हांही असे किडाळ| तेव्हांही सोनेंचि अढळ| परी तें कीड गेलिया केवळ| उरे जैसें ||११२६||
हां गा पूर्णिमे आधीं कायी| चंद्रु सावयवु नाहीं ? | परी तिये दिवशीं भेटे पाहीं| पूर्णता तया ||११२७||
तैसा मीचि ज्ञानद्वारें| दिसें परी हस्तांतरें| मग दृष्टृत्व तें सरे| मियांचि मी लाभें ||११२८||
म्हणौनि दृश्यपथा- | अतीतु माझा पार्था| भक्तियोगु चवथा| म्हणितला गा ||११२९||

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ||५५||

या ज्ञान भक्ति सहज| भक्तु एकवटला मज| मीचि केवळ हें तुज| श्रुतही आहे ||११३०||
जे उभऊनियां भुजा| ज्ञानिया आत्मा माझा| हे बोलिलों कपिध्वजा| सप्तमाध्यायीं ||११३१||
ते कल्पादीं भक्ति मियां| श्रीभागवतमिषें ब्रह्मया| उत्तम म्हणौनि धनंजया| उपदेशिली ||११३२||
ज्ञानी इयेतें स्वसंवित्ती| शैव म्हणती शक्ती| आम्ही परम भक्ती| आपुली म्हणो ||११३३||
हे मज मिळतिये वेळे| तया क्रमयोगियां फळे| मग समस्तही निखिळें| मियांचि भरे ||११३४||
तेथ वैराग्य विवेकेंसी| आटे बंध मोक्षेंसीं| वृत्ती तिये आवृत्तीसीं| बुडोनि जाय ||११३५||
घेऊनि ऐलपणातें| परत्व हारपें जेथें| गिळूनि चाऱ्ही भूतें| आकाश जैसें ||११३६||
तया परी थडथाद| साध्यसाधनातीत शुद्ध| तें मी होऊनि एकवद| भोगितो मातें ||११३७||
घडोनि सिंधूचिया आंगा| सिंधूवरी तळपे गंगा| तैसा पाडु तया भोगा| अवधारी जो ||११३८||
कां आरिसयासि आरिसा| उटूनि दाविलिया जैसा| देखणा अतिशयो तैसा| भोगणा तिये ||११३९||
हे असो दर्पणु नेलिया| तो मुख बोधुही गेलिया| देखलेंपण एकलेया| आस्वादिजे जेवीं ||११४०||
चेइलिया स्वप्न नाशे| आपलें ऐक्यचि दिसे| ते दुजेनवीण जैसें| भोगिजे का ||११४१||
तोचि जालिया भोगु तयाचा| न घडे हा भावो जयांचा| तिहीं बोलें केवीं बोलाचा| उच्चारु कीजे ||११४२||
तयांच्या नेणों गांवीं| रवी प्रकाशी हन दिवी| कीं व्योमालागीं मांडवी| उभिली तिहीं ||११४३||
हां गा राजन्यत्व नव्हतां आंगीं| रावो रायपण काय भोगी ? | कां आंधारु हन आलिंगी| दिनकरातें ? ||११४४||
आणि आकाश जें नव्हे| तया आकाश काय जाणवे ? | रत्नाच्या रूपीं मिरवे| गुंजांचें लेणें ? ||११४५||
म्हणौनि मी होणें नाहीं| तया मीचि आहें केहीं| मग भजेल हें कायी| बोलों कीर ||११४६||
यालागीं तो क्रमयोगी| मी जालाचि मातें भोगी| तारुण्य कां तरुणांगीं| जियापरी ||११४७||
तरंग सर्वांगीं तोय चुंबी| प्रभा सर्वत्र विलसे बिंबीं| नाना अवकाश नभीं| लुंठतु जैसा ||११४८||
तैसा रूप होऊनि माझें| मातें क्रियावीण तो भजे| अलंकारु का सहजें| सोनयातें जेवीं ||११४९||
का चंदनाची द्रुती जैसी| चंदनीं भजे अपैसी| का अकृत्रिम शशीं| चंद्रिका ते ||११५०||
तैसी क्रिया कीर न साहे| तऱ्ही अद्वैतीं भक्ति आहे| हें अनुभवाचिजोगें नव्हे| बोलाऐसें ||११५१||
तेव्हां पूर्वसंस्कार छंदें| जें कांहीं तो अनुवादे| तेणें आळविलेनि वो दें| बोलतां मीचि ||११५२||
बोलतया बोलताचि भेटे| तेथें बोलिलें हें न घटे| तें मौन तंव गोमटें| स्तवन माझें ||११५३||
म्हणौनि तया बोलतां| बोली बोलतां मी भेटतां| मौन होय तेणें तत्वतां| स्तवितो मातें ||११५४||
तैसेंचि बुद्धी का दिठी| जें तो देखों जाय किरीटी| तें देखणें दृश्य लोटी| देखतेंचि दावी ||११५५||
आरिसया आधीं जैसें| देखतेंचि मुख दिसेअ| तयाचें देखणें तैसें| मेळवी द्रष्टें ||११५६||
दृश्य जाउनियां द्रष्टें| द्रष्टयासीचि जैं भेटे| तैं एकलेपणें न घटे| द्रष्टेपणही ||११५७||
तेथ स्वप्नींचिया प्रिया| चेवोनि झोंबो गेलिया| ठायिजे दोन्ही न होनियां| आपणचि जैसें ||११५८||
का दोहीं काष्ठाचिये घृष्टी- | माजीं वन्हि एक उठी| तो दोन्ही हे भाष आटी| आपणचि होय ||११५९||
नाना प्रतिबिंब हातीं| घेऊं गेलिया गभस्ती| बिंबताही असती| जाय जैसी ||११६०||
तैसा मी होऊनि देखतें| तो घेऊं जाय दृश्यातें| तेथ दृश्य ने थितें| द्रष्टृत्वेंसीं ||११६१||
रवि आंधारु प्रकाशिता| नुरेचि जेवीं प्रकाश्यता| तेंवीं दृश्यीं नाही द्रष्टृता| मी जालिया ||११६२||
मग देखिजे ना न देखिजे| ऐसी जे दशा निपजे| ते तें दर्शन माझें| साचोकारें ||११६३||
तें भलतयाही किरीटी| पदार्थाचिया भेटी| द्रष्टृदृश्यातीता दृष्टी| भोगितो सदा ||११६४||
आणि आकाश हें आकाशें| दाटलें न ढळें जैसें| मियां आत्मेन आपणपें तैसें| जालें तया ||११६५||
कल्पांतीं उदक उदकें| रुंधिलिया वाहों ठाके| तैसा आत्मेनि मियां येकें| कोंदला तो ||११६६||
पावो आपणपयां वोळघे ? | केवीं वन्हि आपणपयां लागे ? | आपणपां पाणी रिघे| स्नाना कैसें ? ||११६७||
म्हणौनि सर्व मी जालेपणें| ठेलें तया येणें जाणें| तेंचि गा यात्रा करणें| अद्वया मज ||११६८||
पैं जळावरील तरंगु| जरी धाविन्नला सवेगु| तरी नाहीं भूमिभागु| क्रमिला तेणें ||११६९||
जें सांडावें कां मांडावें| जें चालणें जेणें चालावें| तें तोयचि एक आघवें| म्हणौनियां ||११७०||
गेलियाही भलतेउता| उदकपणेंं पंडुसुता| तरंगाची एकात्मता| न मोडेचि जेवीं ||११७१||
तैसा मीपणें हा लोटला| तो आघवेंयाचि मजआंतु आला| या यात्रा होय भला| कापडी माझा ||११७२||
आणि शरीर स्वभाववशें| कांहीं येक करूं जरी बैसे| तरी मीचि तो तेणें मिषें| भेटे तया ||११७३||
तेथ कर्म आणि कर्ता| हें जाऊनि पंडुसुता| मियां आत्मेनि मज पाहतां| मीचि होय ||११७४||
पैं दर्पणातेंं दर्पणें| पाहिलिया होय न पाहणें| सोनें झांकिलिया सुवर्णें| ना झांकें जेवीं ||११७५||
दीपातें दीपें प्रकाशिजे| तें न प्रकाशणेंचि निपजे| तैसें कर्म मियां कीजे| तें करणें कैंचें ? ||११७६||
कर्मही करितचि आहे| जैं करावें हें भाष जाये| तैं न करणेंचि होये| तयाचें केलें ||११७७||
क्रियाजात मी जालेपणें| घडे कांहींचि न करणें| तयाचि नांव पूजणें| खुणेचें माझें ||११७८||
म्हणौनि करीतयाही वोजा| तें न करणें हेंचि कपिध्वजा| निफजे तिया महापूजा| पूजी तो मातें ||११७९||
एवं तो बोले तें स्तवन| तो देखे तें दर्शन| अद्वया मज गमन| तो चाले तेंचि ||११८०||
तो करी तेतुली पूजा| तो कल्पी तो जपु माझा| तो असे तेचि कपिध्वजा| समाधी माझी ||११८१||
जैसें कनकेंसी कांकणें| असिजे अनन्यपणें| तो भक्तियोगें येणें| मजसीं तैसा ||११८२||
उदकीं कल्लोळु| कापुरीं परीमळु| रत्नीं उजाळु| अनन्यु जैसा ||११८३||
किंबहुना तंतूंसीं पटु| कां मृत्तिकेसीं घटु| तैसा तो एकवटु| मजसीं माझा ||११८४||
इया अनन्यसिद्धा भक्ती| या आघवाचि दृश्यजातीं| मज आपणपेंया सुमती| द्रष्टयातें जाण ||११८५||
तिन्ही अवस्थांचेनि द्वारें| उपाध्युपहिताकारें| भावाभावरूप स्फुरे| दृश्य जें हें ||११८६||
तें हें आघवेंचि मी द्रष्टा| ऐसिया बोधाचा माजिवटा| अनुभवाचा सुभटा| धेंडा तो नाचे ||११८७||
रज्जु जालिया गोचरु| आभासतां तो व्याळाकारु| रज्जुचि ऐसा निर्धारु| होय जेवीं ||११८८||
भांगारापरतें कांहीं| लेणें गुंजहीभरी नाहीं| हें आटुनियां ठायीं| कीजे जैसे ||११८९||
उदका येकापरतें | तरंग नाहींचि हें निरुतें| जाणोनि तया आकारातें| न घेपे जेवीं ||११९०||
नातरी स्वप्नविकारां समस्तां| चेऊनियां उमाणें घेतां| तो आपणयापरौता| न दिसे जैसा ||११९१||
तैसें जें कांहीं आथी नाथी| येणें होय ज्ञेयस्फुर्ती| तें ज्ञाताचि मी हें प्रतीती| होऊनि भोगी ||११९२||
जाणे अजु मी अजरु| अक्षयो मी अक्षरु| अपूर्वु मी अपारु| आनंदु मी ||११९३||
अचळु मी अच्युतु| अनंतु मी अद्वैतु| आद्यु मी अव्यक्तु| व्यक्तुही मी ||११९४||
ईश्य मी ईश्वरु| अनादि मी अमरु| अभय मी आधारु| आधेय मी ||११९५||
स्वामी मी सदोदितु| सहजु मी सततु| सर्व मी सर्वगतु| सर्वातीतु मी ||११९६||
नवा मी पुराणु| शून्यु मी संपूर्णु| स्थुलु मी अणु| जें कांहीं तें मी ||११९७||
अक्रियु मी येकु| असंगु मी अशोकु| व्यापु मी व्यापकु| पुरुषोत्तमु मी ||११९८||
अशब्दु मी अश्रोत्रु| अरूपु मी अगोत्रु| समु मी स्वतंत्रु| ब्रह्म मी परु ||११९९||
ऐसें आत्मत्वें मज एकातें| इया अद्वयभक्ती जाणोनि निरुतें| आणि याही बोधा जाणतें| तेंही मीचि जाणें ||१२००||
पैं चेइलेयानंतरें| आपुलें एकपण उरे| तेंही तोंवरी स्फुरे| तयाशींचि जैसें ||१२०१||
कां प्रकाशतां अर्कु| तोचि होय प्रकाशकु| तयाही अभेदा द्योतकु| तोचि जैसा ||१२०२||
तैसा वेद्यांच्या विलयीं| केवळ वेएदकु उरे पाहीं| तेणें जाणवें तया तेंही| हेंही जो जाणे ||१२०३||
तया अद्वयपणा आपुलिया| जाणती ज्ञप्ती जे धनंजया| ते ईश्वरचि मी हे तया| बोधासि ये ||१२०४||
मग द्वैताद्वैतातीत| मीचि आत्मा एकु निभ्रांत| हें जाणोनि जाणणें जेथ| अनुभवीं रिघे ||१२०५||
तेथ चेइलियां येकपण| दिसे जे आपुलया आपण| तेंही जातां नेणों कोण| होईजे जेवीं ||१२०६||
कां डोळां देखतिये क्षणीं| सुवर्णपण सुवर्णीं| नाटितां होय आटणी| अळंकाराचीही ||१२०७||
नाना लवण तोय होये| मग क्षारता तोयत्वें राहे| तेही जिरतां जेवीं जाये| जालेपण तें ||१२०८||
तैसा मी तो हें जें असे | तें स्वानंदानुभवसमरसें| कालवूनिया प्रवेशे| मजचिमाजीं ||१२०९||
आणि तो हे भाष जेथ जाये| तेथे मी हें कोण्हासी आहे| ऐसा मी ना तो तिये सामाये| माझ्याचि रूपीं ||१२१०||
जेव्हां कापुर जळों सरे| तयाचि नाम अग्नि पुरेए| मग उभयतातीत उरे| आकाश जेवीं ||१२११||
का धाडलिया एका एकु| वाढे तो शून्य विशेखु| तैसा आहे नाहींचा शेखु| मीचि मग आथी ||१२१२||
तेथ ब्रह्मा आत्मा ईशु| यया बोला मोडे सौरसु| न बोलणें याही पैसु| नाहीं तेथ ||१२१३||
न बोलणेंही न बोलोनी| तें बोलिजे तोंड भरुनी| जाणिव नेणिव नेणोनी| जाणिजे तें ||१२१४||
तेथ बुझिजे बोधु बोधें| आनंंदु घेपे आनंदें| सुखावरी नुसधें| सुखचि भोगिजे ||१२१५||
तेथ लाभु जोडला लाभा| प्रभा आलिंगिली प्रभा| विस्मयो बुडाला उभा| विस्मयामाजीं ||१२१६||
शमु तेथ सामावला| विश्रामु विश्रांति आला| अनुभवु वेडावला| अनुभूतिपणें ||१२१७||
किंबहुना ऐसें निखळ| मीपण जोडे तया फळ| सेवूनि वेली वेल्हाळ| क्रमयोगाची ते ||१२१८||
पैं क्रमयोगिया किरीटी| चक्रवर्तीच्या मुकुटीं| मी चिद्रत्न तें साटोवाटीं| होय तो माझा ||१२१९||
कीं क्रमयोगप्रासादाचा| कळसु जो हा मोक्षाचा| तयावरील अवकाशाचा| उवावो जाला तो ||१२२०||
नाना संसार आडवीं| क्रमयोग वाट बरवी| जोडिली ते मदैक्यगांवीं| पैठी जालीसे ||१२२१||
हें असो क्रमयोगबोधें| तेणें भक्तिचिद्गांगें| मी स्वानंदोदधी वेगें| ठाकिला कीं गा ||१२२२||
हा ठायवरी सुवर्मा| क्रमयोगीं आहे महिमा| म्हणौनि वेळोवेळां तुम्हां| सांगतों आम्ही ||१२२३||
पैं देशें काळें पदार्थें| साधूनि घेइजे मातें| तैसा नव्हे मी आयतें| सर्वांचें सर्वही ||१२२४||
म्हणौनि माझ्या ठायीं| जाचावें न लगे कांहीं| मी लाभें इयें उपायीं| साचचि गा ||१२२५||
एक शिष्य एक गुरु| हा रूढला साच व्यवहारु| तो मत्प्राप्तिप्रकारु| जाणावया ||१२२६||
अगा वसुधेच्या पोटीं| निधान सिद्ध किरीटी| वन्हि सिद्ध काष्ठीं| वोहां दूध ||१२२७||
परी लाभे तें असतें| तया कीजे उपायातें| येर सिद्धचि तैसा तेथें| उपायीं मी ||१२२८||
हा फळहीवरी उपावो| कां पां प्रस्तावीतसे देवो| हे पुसतां परी अभिप्रावो| येथिंचा ऐसा ||१२२९||
जे गीतार्थाचें चांगावें| मोक्षोपायपर आघवें| आन शास्त्रोपाय कीं नव्हे| प्रमाणसिद्ध ||१२३०||
वारा आभाळचि फेडी| वांचूनि सूर्यातें न घडी| कां हातु बाबुळी धाडी| तोय न करी ||१२३१||
तैसा आत्मदर्शनीं आडळु| असे अविद्येचा जो मळु| तो शास्त्र नाशी येरु निर्मळु| मी प्रकाशें स्वयें ||१२३२||
म्हणौनि आघवींचि शास्त्रें| अविद्याविनाशाचीं पात्रें| वांचोनि न होतीं स्वतंत्रें| आत्मबोधीं ||१२३३||
तया अध्यात्मशास्त्रांसीं| जैं साचपणाची ये पुसी| तैं येइजे जया ठायासी| ते हे गीता ||१२३४||
भानुभूषिता प्राचिया| सतेजा दिशा आघविया| तैसी शास्त्रेश्वरा गीता या| सनाथें शास्त्रें ||१२३५||
हें असो येणें शास्त्रेश्वरें| मागां उपाय बहुवे विस्तारें| सांगितला जैसा करें| घेवों ये आत्मा ||१२३६||
परी प्रथमश्रवणासवें| अर्जुना विपायें हें फावे| हा भावो सकणवे| धरूनि श्रीहरी ||१२३७||
तेंचि प्रमेय एक वेळ| शिष्यीं होआवया अढळ| सांगतसे मुकुल| मुद्रा आतां ||१२३८||
आणि प्रसंगें गीता| ठावोही हा संपता| म्हणौनि दावी आद्यंता| एकार्थत्व ||१२३९||
जे ग्रंथाच्या मध्यभागीं| नाना अधिकारप्रसंगीं| निरूपण अनेगीं| सिद्धांतीं केलें ||१२४०||
तरी तेतुलेही सिद्धांत| इयें शास्त्रीं प्रस्तुत| हे पूर्वापर नेणत| कोण्ही जैं मानी ||१२४१||
तैं महासिद्धांताचा आवांका| सिद्धांतकक्षा अनेका| भिडऊनि आरंभु देखा| संपवीतु असे ||१२४२||
एथ अविद्यानाशु हें स्थळ| तेणें मोक्षोपादान फळ| या दोहीं केवळ| साधन ज्ञान ||१२४३||
हें इतुलेंचि नानापरी| निरूपिलें ग्रंथविस्तारीं| तें आतां दोहीं अक्षरीं| अनुवादावें ||१२४४||
म्हणौनि उपेयही हातीं| जालया उपायस्थिती| देव प्रवर्तले तें पुढती| येणेंचि भावें ||१२४५||

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः |
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ||५६||

मग म्हणे गा सुभटा| तो क्रमयोगिया निष्ठा| मी होउनी होय पैठा| माझ्या रूपीं ||१२४६||
स्वकर्माच्या चोखौळीं| मज पूजा करूनि भलीं| तेणें प्रसादें आकळी| ज्ञाननिष्ठेतें ||१२४७||
ते ज्ञाननिष्ठा जेथ हातवसे| तेथ भक्ति माझी उल्लासे| तिया भजन समरसें| सुखिया होय ||१२४८||
आणि विश्वप्रकाशितया| आत्मया मज आपुलिया| अनुसरे जो करूनियां| सर्वत्रता हे ||१२४९||
सांडूनि आपुला आडळ| लवण आश्रयी जळ| कां हिंडोनि राहे निश्चळ| वायु व्योमीं ||१२५०||
तैसा बुद्धी वाचा कायें| जो मातें आश्रऊनि ठाये| तो निषिद्धेंही विपायें| कर्में करूं ||१२५१||
परी गंगेच्या संबंधीं | बिदी आणि महानदी| येक तेवीं माझ्या बोधीं| शुभाशुभांसी ||१२५२||
कां बावनें आणि धुरें| हा निवाडु तंवचि सरे| जंव न घेपती वैश्वानरें| कवळूनि दोन्ही ||१२५३||
ना पांचिकें आणि सोळें| हें सोनया तंवचि आलें| जंव परिसु आंगमेळें| एकवटीना ||१२५४||
तैसें शुभाशुभ ऐसें| हें तंवचिवरी आभासे| जंव येकु न प्रकाशे| सर्वत्र मी ||१२५५||
अगा रात्री आणि दिवो| हा तंवचि द्वैतभावो| जंव न रिगिजे गांवो| गभस्तीचा ||१२५६||
म्हणौनि माझिया भेटी| तयाचीं सर्व कर्में किरीटी| जाऊनि बैसे तो पाटीं| सायुज्याच्या ||१२५७||
देशें काळें स्वभावें| वेंचु जया न संभवे| तें पद माझें पावे| अविनाश तो ||१२५८||
किंबहुना पंडुसुता| मज आत्मयाची प्रसन्नता| लाहे तेणें न पविजतां| लाभु कवणु असे ||१२५९||

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः |
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ||५७||

याकारणें गा तुवां इया| सर्व कर्मा आपुलिया| माझ्या स्वरूपीं धनंजया| संन्यासु कीजे ||१२६०||
परी तोचि संन्यासु वीरा| करणीयेचा झणें करा| आत्मविवेकीं धरा| चित्तवृत्ति हे ||१२६१||
मग तेणें विवेकबळें| आपणपें कर्मावेगळें| माझ्या स्वरूपीं निर्मळें| देखिजेल ||१२६२||
आणि कर्माचि जन्मभोये| प्रकृति जे का आहे| ते आपणयाहूनि बहुवे| देखसी दूरी ||१२६३||
तेथ प्रकृति आपणयां| वेगळी नुरे धनंजया| रूपेंवीण का छाया| जियापरी ||१२६४||
ऐसेनि प्रकृतिनाशु| जालया कर्मसंन्यासु| निफजेल अनायासु| सकारणु ||१२६५||
मग कर्मजात गेलया| मी आत्मा उरें आपणपयां| तेथ बुद्धि घापे करूनियां| पतिव्रता ||१२६६||
बुद्धि अनन्य येणें योगें| मजमाजीं जैं रिगे| तैं चित्त चैत्यत्यागें| मातेंचि भजे ||१२६७||
ऐसें चैत्यजातें सांडिलें| चित्त माझ्या ठायीं जडलें| ठाके तैसें वहिलें| सर्वदा करी ||१२६८||

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||५८||

मग अभिन्ना इया सेवा| चित्त मियांचि भरेल जेधवां| माझा प्रसादु जाण तेधवां| संपूर्ण जाहला ||१२६९||
तेथ सकळ दुःखधामें| भुंजीजती जियें मृत्युजन्में| तियें दुर्गमेंचि सुगमें| होती तुज ||१२७०||
सूर्याचेनि सावायें| डोळा सावाइला होये| तैं अंधाराचा आहे| पाडु तया ? ||१२७१||
तैसा माझेनि प्रसादें| जीवकणु जयाचा उपमर्दे| तो संसराचेनी बाधे| बागुलें केवीं ? ||१२७२||
म्हणौनि धनंजया| तूं संसारदुर्गती यया| तरसील माझिया| प्रसादास्तव ||१२७३||
अथवा हन अहंभावें| माझें बोलणें हें आघवें| कानामनाचिये शिंवे| नेदिसी टेंकों ||१२७४||
तरी नित्य मुक्त अव्ययो| तूं आहासि तें होऊनि वावो| देहसंबंधाचा घावो| वाजेल आंगीं ||१२७५||
जया देहसंबंधा आंतु| प्रतिपदीं आत्मघातु| भुंजतां उसंतु| कहींचि नाहीं ||१२७६||
येवढेनि दारुणें| निमणेनवीण निमणें| पडेल जरी बोलणें| नेघसी माझें ||१२७७||

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||५९||

पथ्यद्वेषिया पोषी ज्वरु| कां दीपद्वेषिया अंधकारु| विवेकद्वेषें अहंकारु| पोषूनि तैसा ||१२७८||
स्वदेहा नाम अर्जुनु| परदेहा नाम स्वजनु| संग्रामा नाम मलिनु| पापाचारु ||१२७९||
इया मती आपुलिया| तिघां तीन नामें ययां| ठेऊनियां धनंजया| न झुंजें ऐसा ||१२८०||
जीवामाजीं निष्टंकु| करिसी जो आत्यंतिकु| तो वायां धाडील नैसर्गिकु| स्वभावोचि तुझा ||१२८१||
आणि मी अर्जुन हे आत्मिक| ययां वधु करणें हें पातक| हे मायावांचूनि तात्त्विक| कांहीं आहे ? ||१२८२||
आधीं जुंझार तुवां होआवें| मग झुंजावया शस्त्र घेयावें| कां न जुंझावया करावें| देवांगण ||१२८३||
म्हणौनि न झुंजणें| म्हणसी तें वायाणें| ना मानूं लोकपणें| लोकदृष्टीही ||१२८४||
तऱ्ही न झुंजें ऐसें| निष्टंकीसी जें मानसें| तें प्रकृति अनारिसें| करवीलचि ||१२८५||

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ||६०||

पैं पूर्वे वाहतां पाणी| पव्हिजे पश्चिमेचे वाहणीं| तरी आग्रहोचि उरे तें आणी| आपुलिया लेखा ||१२८६||
कां साळीचा कणु म्हणे| मी नुगवें साळीपणें| तरी आहे आन करणें| स्वभावासी ? ||१२८७||
तैसा क्षात्रंस्कारसिद्धा| प्रकृती घडिलासी प्रबुद्धा| आता नुठी म्हणसी हा धांदा| परी उठवीजसीचि तूं ||१२८८||
पैं शौर्य तेज दक्षता| एवमादिक पंडुसुता | गुण दिधले जन्मतां| प्रकृती तुज ||१२८९||
तरी तयाचिया समवाया- | अनुरूप धनंजया| न करितां उगलियां| नयेल असों ||१२९०||
म्हणौनियां तिहीं गुणीं| बांधिलासि तूं कोदंडपाणी| त्रिशुद्धी निघसी वाहणीं| क्षात्राचिया ||१२९१||
ना हें आपुलें जन्ममूळ| न विचारीतचि केवळ| न झुंजें ऐसें अढळ| व्रत जरी घेसी ||१२९२||
तरी बांधोनि हात पाये| जो रथीं घातला होये| तो न चाले तरी जाये| दिगंता जेवीं ||१२९३||
तैसा तूं आपुलियाकडुनी| मीं कांहींच न करीं म्हणौनि| ठासी परी भरंवसेनि| तूंचि करिसी ||१२९४||
उत्तरु वैराटींचा राजा| पळतां तूं कां निघालासी झुंजा ? | हा क्षात्रस्वभावो तुझा| झुंजवील तुज ||१२९५||
महावीर अकरा अक्षौहिणी| तुवां येकें नागविले रणांगणीं| तो स्वभावो कोदंडपाणी| झुंजवील तूंतें ||१२९६||
हां गा रोगु कायी रोगिया| आवडे दरिद्र दरिद्रिया ? | परी भोगविजे बळिया| अदृष्टें जेणें ||१२९७||
तें अदृष्ट अनारिसें| न करील ईश्वरवशें| तो ईश्वरुही असे | हृदयीं तुझ्या ||१२९८||

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||६१||

सर्व भूतांच्या अंतरीं| हृदय महाअंबरीं| चिद्वृत्तीच्या सहस्त्रकरीं| उदयला असे जो ||१२९९||
अवस्थात्रय तिन्हीं लोक| प्रकाशूनि अशेख| अन्यथादृष्टि पांथिक| चेवविले ||१३००||
वेद्योदकाच्या सरोवरीं| फांकतां विषयकल्हारीं| इंद्रियषट्पदा चारी| जीवभ्रमरातें ||१३०१||
असो रूपक हें तो ईश्वरु| सकल भूतांचा अहंकारु| पांघरोनि निरंतरु| उल्हासत असे ||१३०२||
स्वमायेचें आडवस्त्र| लावूनि एकला खेळवी सूत्र| बाहेरी नटी छायाचित्र| चौऱ्याशीं लक्ष ||१३०३||
तया ब्रह्मादिकीटांता| अशेषांही भूतजातां| देहाकार योग्यता| पाहोनि दावी ||१३०४||
तेथ जें देह जयापुढें| अनुरूपपणें मांडे| तें भूत तया आरूढे| हें मी म्हणौनि ||१३०५||
सूत सूतें गुंतलें| तृण तृणचि बांधलें| कां आत्मबिंबा घेतलें| बाळकें जळीं ||१३०६||
तयापरी देहाकारें| आपणपेंचि दुसरें| देखोनि जीव आविष्करें| आत्मबुद्धि ||१३०७||
ऐसेनि शरीराकारीं| यंत्रीं भूतें अवधारीं| वाहूनि हालवी दोरी| प्राचीनाची ||१३०८||
तेथ जया जें कर्मसूत्र| मांडूनि ठेविलें स्वतंत्र| तें तिये गती पात्र| होंचि लागे ||१३०९||
किंबहुना धनुर्धरा| भूतांतें स्वर्गसंसारा | - माजीं भोवंडी तृणें वारा| आकाशीं जैसा ||१३१०||
भ्रामकाचेनि संगें| जैसें लोहो वेढा रिगे| तैसीं ईश्वरसत्तायोगें| चेष्टती भूतें ||१३११||
जैसे चेष्टा आपुलिया| समुद्रादिक धनंजया| चेष्टती चंद्राचिया| सन्निधी येकीं ||१३१२||
तया सिंधू भरितें दाटें| सोमकांता पाझरु फुटे| कुमुदांचकोरांचा फिटे| संकोचु तो ||१३१३||
तैसीं बीजप्रकृतिवशें| अनेकें भूतें येकें ईशें| चेष्टवीजती तो असे | तुझ्या हृदयीं ||१३१४||
अर्जुनपण न घेतां| मी ऐसें जें पंडुसुता| उठतसे तें तत्वता| तयाचें रूप ||१३१५||
यालागीं तो प्रकृतीतें| प्रवर्तवील हें निरुतें| आणि तें झुंजवील तूंतें| न झुंजशी जऱ्ही ||१३१६||
म्हणौनि ईश्वर गोसावी| तेणें प्रकृती हे नेमावी| तिया सुखें राबवावीं| इंद्रियें आपुलीं ||१३१७||
तूं करणें न करणें दोन्हीं| लाऊनि प्रकृतीच्या मानीं| प्रकृतीही कां अधीनी| हृदयस्था जया ||१३१८||

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||६२||

तया अहं वाचा चित्त आंग| देऊनिया शरण रिग| महोदधी कां गांग| रिगालें जैसें ||१३१९||
मग तयाचेनि प्रसादें| सर्वोपशांतिप्रमदे| कांतु होऊनिया स्वानंदें| स्वरूपींचि रमसी ||१३२०||
संभूति जेणें संभवे| विश्रांति जेथें विसंवे| अनुभूतिही अनुभवे| अनुभवा जया ||१३२१||
तिये निजात्मपदींचा रावो| होऊनि ठाकसी अव्यवो| म्हणे लक्ष्मीनाहो| पार्था तूं गा ||१३२२||

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ||६३||

हें गीता नाम विख्यात| सर्ववाङ्गमयाचें मथित| आत्मा जेणें हस्तगत| रत्न होय ||१३२३||
ज्ञान ऐसिया रूढी| वेदांतीं जयाची प्रौढी| वानितां कीर्ति चोखडी| पातली जगीं ||१३२४||
बुद्ध्यादिकें डोळसें| हें जयाचें कां कडवसें| मी सर्वद्रष्टाही दिसें| पाहला जया ||१३२५||
तें हें गा आत्मज्ञान| मज गोप्याचेंही गुप्त धन| परी तूं म्हणौनि आन| केवीं करूं ? ||१३२६||
याकारणें गा पांडवा| आम्हीं आपुला हा गुह्य ठेवा| तुज दिधला कणवा| जाकळिलेपणें ||१३२७||
जैसी भुलली वोरसें| माय बोले बाळा दोषें| प्रीति ही परी तैसें| न करूंचि हो ||१३२८||
येथ आकाश आणि गाळिजे| अमृताही साली फेडिजे| कां दिव्याकरवीं करविजे| दिव्य जैसे ||१३२९||
जयाचेनि अंगप्रकाशें| पाताळींचा परमाणु दिसे| तया सूर्याहि का जैसे| अंजन सूदलें ||१३३०||
तैसें सर्वज्ञेंही मियां| सर्वही निर्धारूनियां| निकें होय तें धनंजया| सांगितलें तुज ||१३३१||
आतां तूं ययावरी| निकें हें निर्धारीं| निर्धारूनि करीं| आवडे तैसें ||१३३२||
यया देवाचिया बोला| अर्जुनु उगाचि ठेला| तेथ देवो म्हणती भला| अवंचकु होसी ||१३३३||
वाढतयापुढें भुकेला| उपरोधें म्हणे मी धाला| तैं तोचि पीडे आपुला| आणि दोषुही तया ||१३३४||
तैसा सर्वज्ञु श्रीगुरु| भेटलिया आत्मनिर्धारु| न पुसिजे जैं आभारु| धरूनियां ||१३३५||
तैं आपणपेंचि वंचे| आणि पापही वंचनाचें| आपणयाचि साचें| चुकविलें तेणें ||१३३६||
पैं उगेपणा तुझिया| हा अभिप्रावो कीं धनंजया| जें एकवेळ आवांकुनियां| सांगावें ज्ञान ||१३३७||
तेथ पार्थु म्हणे दातारा| भलें जाणसी माझिया अंतरा| हें म्हणों तरी दुसरा| जाणता असे काई ? ||१३३८||
येर ज्ञेय हें जी आघवें| तूं ज्ञाता एकचि स्वभावें| मा सूर्यु म्हणौनि वानावें| सूर्यातें काई ? ||१३३९||
या बोला श्रीकृष्णें| म्हणितलें काय येणें| हेंचि थोडें गा वानणें| जें बुझतासि तूं ||१३४०||

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः |
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ||६४||

तरी अवधान पघळ| करूनियाम् आणिक येक वेळ| वाक्य माझें निर्मळ| अवधारीं पां ||१३४१||
हें वाच्य म्हणौनि बोलिजे| कां श्राव्य मग आयिकिजे| तैसें नव्हें परी तुझें| भाग्य बरवें ||१३४२||
कूर्मीचिया पिलियां| दिठी पान्हा ये धनंजया| कां आकाश वाहे बापिया| घरींचें पाणी ||१३४३||
जो व्यवहारु जेथ न घडे| तयाचें फळचि तेथ जोडे| काय दैवें न सांपडे| सानुकूळें ? ||१३४४||
येऱ्हवीं द्वैताची वारी| सारूनि ऐक्याच्या परीवरीं| भोगिजे तें अवधारीं| रहस्य हें ||१३४५||
आणि निरुपचारा प्रेमा| विषय होय जें प्रियोत्तमा| तें दुजें नव्हे कीं आत्मा| ऐसेंचि जाणावें ||१३४६||
आरिसाचिया देखिलया| गोमटें कीजे धनंजया| तें तया नोहे आपणयां| लागीं जैसें ||१३४७||
तैसें पार्था तुझेनि मिषें| मी बोलें आपणयाचि उद्देशें| माझ्या तुझ्या ठाईं असे | मीतूंपण गा ||१३४८||
म्हणौनि जिव्हारींचें गुज| सांगतसे जीवासी तुज| हें अनन्यगतीचें मज| आथी व्यसन ||१३४९||
पैम् जळा आपणपें देतां| लवण भुललें पंडुसुता| कीं आघवें तयाचें होतां| न लजेचि तें ||१३५०||
तैसा तूं माझ्या ठाईं| राखों नेणसीचि कांहीं| तरी आतां तुज काई| गोप्य मी करूं ? ||१३५१||
म्हणौनि आघवींचि गूढें| जें पाऊनि अति उघडें| तें गोप्य माझें चोखडें| वाक्य आइक ||१३५२||

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||६५||

तरी बाह्य आणि अंतरा| आपुलिया सर्व व्यापारा| मज व्यापकातें वीरा| विषयो करीं ||१३५३||
आघवा आंगीं जैसा| वायु मिळोनि आहे आकाशा| तूं सर्व कर्मीं तैसा| मजसींचि आस ||१३५४||
किंबहुना आपुलें मन| करीं माझें एकायतन| माझेनि श्रवणें कान| भरूनि घालीं ||१३५५||
आत्मज्ञानें चोखडीं| संत जे माझीं रूपडीं| तेथ दृष्टि पडो आवडी| कामिनी जैसी ||१३५६||
मीं सर्व वस्तीचें वसौटें| माझीं नामें जियें चोखटें| तियें जियावया वाटे| वाचेचिये लावीं ||१३५७||
हातांचें करणें| कां पायांचें चालणें| तें होय मजकारणें| तैसें करीं ||१३५८||
आपुला अथवा परावा| ठायीं उपकरसी पांडवा| तेणें यज्ञें होईं बरवा| याज्ञिकु माझा ||१३५९||
हें एकैक शिकऊं काई| पैं सेवकें आपुल्या ठाईं| उरूनि येर सर्वही| मी सेव्यचि करीं ||१३६०||
तेथ जाऊनिया भूतद्वेषु| सर्वत्र नमवैन मीचि एकु| ऐसेनि आश्रयो आत्यंतिकु| लाहसी तूं माझा ||१३६१||
मग भरलेया जगाआंतु| जाऊनि तिजयाची मातु| होऊनि ठायील एकांतु| आम्हां तुम्हां ||१३६२||
तेव्हां भलतिये आवस्थे| मी तूतें तूं मातें| भोगिसी ऐसें आइतें| वाढेल सुख ||१३६३||
आणि तिजें आडळ करितें| निमालें अर्जुना जेथें| तें मीचि म्हणौनि तूं मातें| पावसी शेखीं ||१३६४||
जैसी जळींची प्रतिभा| जळनाशीं बिंबा| येतां गाभागोभा| कांहीं आहे ? ||१३६५||
पैं पवनु अंबरा| कां कल्लोळु सागरा| मिळतां आडवारा| कोणाचा गा ? ||१३६६||
म्हणौनि तूं आणि आम्हीं| हें दिसताहे देहधर्मीं| मग ययाच्या विरामीं| मीचि होसी ||१३६७||
यया बोलामाझारीं| होय नव्हे झणें करीं| येथ आन आथी तरी| तुझीचि आण ||१३६८||
पैं तुझी आण वाहणें| हें आत्मलिंगातें शिवणें| प्रीतीची जाति लाजणें| आठवों नेदी ||१३६९||
येऱ्हवीं वेद्यु निष्प्रपंचु| जेणें विश्वाभासु हा साचु| आज्ञेचा नटनाचु| काळातें जिणें ||१३७०||
तो देवो मी सत्यसंकल्पु| आणि जगाच्या हितीं बापु| मा आणेचा आक्षेपु| कां करावा ? ||१३७१||
परी अर्जुना तुझेनि वेधें| मियां देवपणाचीं बिरुदें| सांडिलीं गा मी हे आधें | सगळेनि तुवां ||१३७२||
पैं काजा आपुलिया| रावो आपुली आपणया| आण वाहे धनंजया| तैसें हें कीं ||१३७३||
तेथ अर्जुनु म्हणे देवें| अचाट हें न बोलावें| जे आमचें काज नांवें| तुझेनि एके ||१३७४||
यावरी सांगों बैससी | कां सांगतां भाषही देसी| या तुझिया विनोदासी| पारु आहे जी ? ||१३७५||
कमळवना विकाशु| करी रवीचा एक अंशु | तेथ आघवाचि प्रकाशु| नित्य दे तो ||१३७६||
पृथ्वी निवऊनि सागर| भरीजती येवढें थोर| वर्षे तेथ मिषांतर| चातकु कीं ||१३७७||
म्हणौनि औदार्या तुझेया| मज निमित्त ना म्हणावया| प्राप्ति असे दानीराया| कृपानिधी ||१३७८||
तंव देवो म्हणती राहें| या बोलाचा प्रस्तावो नोहे| पैं मातें पावसी उपायें | साचचि येणें ||१३७९||
सैंधव सिंधू पडलिया| जो क्षणु धनंजया| तेणें विरेचि कीं उरावया| कारण कायी ? ||१३८०||
तैसें सर्वत्र मातें भजतां| सर्व मी होतां अहंता| निःशेष जाऊनि तत्वता| मीचि होसी ||१३८१||
एवं माझिये प्राप्तीवरी| कर्मालागोनि अवधारीं| दाविली तुज उजरी| उपायांची ||१३८२||
जे आधीं तंव पंडुसुता| सर्व कर्में मज अर्पितां| सर्वत्र प्रसन्नता| लाहिजे माझी ||१३८३||
पाठीं माझ्या इये प्रसादीं| माझें ज्ञान जाय सिद्धी| तेणें मिसळिजे त्रिशुद्धी| स्वरूपीं माझ्या ||१३८४||
मग पार्था तिये ठायीं| साध्य साधन होय नाहीं| किंबहुना तुज कांहीं| उरेचि ना ||१३८५||
तरी सर्व कर्में आपलीं| तुवां सर्वदा मज अर्पिलीं| तेणें प्रसन्नता लाधली| आजि हे माझी ||१३८६||
म्हणौनि येणें प्रसादबळें| नव्हे झुंजाचेनि आडळें| न ठाकेचि येकवेळे| भाळलों तुज ||१३८७||
जेणें सप्रपंच अज्ञान जाये| एकु मी गोचरु होये| तें उपपत्तीचेनि उपायें| गीतारूप हें ||१३८८||
मियां ज्ञान तुज आपुलें| नानापरी उपदेशिलें| येणें अज्ञानजात सांडी वियालें| धर्माधर्म जें ||१३८९||

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः ||६६||

आशा जैसी दुःखातें| व्यालीं निंदा दुरितें| हे असो जैसें दैन्यातें| दुर्भगत्व ||१३९०||
तैसें स्वर्गनरकसूचक| अज्ञान व्यालें धर्मादिक| तें सांडूनि घालीं अशेख| ज्ञानें येणें ||१३९१||
हातीं घेऊन तो दोरु| सांडिजे जैसा सर्पाकारु| कां निद्रात्यागें घराचारु| स्वप्नींचा जैसा ||१३९२||
नाना सांडिलेनि कवळें| चंद्रींचें धुये पिंवळें| व्याधित्यागें कडुवाळें- | पण मुखाचें ||१३९३||
अगा दिवसा पाठीं देउनी| मृगजळ घापे त्यजुनी| कां काष्ठत्यागें वन्ही| त्यजिजे जैसा ||१३९४||
तैसें धर्माधर्माचें टवाळ| दावी अज्ञान जें कां मूळ| तें त्यजूनि त्यजीं सकळ| धर्मजात ||१३९५||
मग अज्ञान निमालिया| मीचि येकु असे अपैसया| सनिद्र स्वप्न गेलया| आपणपें जैसें ||१३९६||
तैसा मी एकवांचूनि कांहीं| मग भिन्नाभिन्न आन नाहीं| सोऽहंबोधें तयाच्या ठायीं| अनन्यु होय ||१३९७||
पैंं आपुलेनि भेदेंविण| माझें जाणिजे जें एकपण| तयाचि नांव शरण| मज येएणें गा ||१३९८||
जैसें घटाचेनि नाशें| गगनीं गगन प्रवेशे| मज शरण येणें तैसें| ऐक्य करी ||१३९९||
सुवर्णमणि सोनया| ये कल्लोळु जैसा पाणिया| तैसा मज धनंजया| शरण ये तूं ||१४००||
वांचूनि सागराच्या पोटीं| वडवानळु शरण आला किरीटी| जाळूनि ठाके तया गोठी| वाळूनि दे पां ||१४०१||
मजही शरण रिघिजे| आणि जीवत्वेंचि असिजे| धिग् बोली यिया न लजे| प्रज्ञा केवीं ||१४०२||
अगा प्राकृताही राया| आंगीं पडे जें धनंजया| तें दासिरूंहि कीं तया| समान होय ||१४०३||
मा मी विश्वेश्वरु भेटे| आणि जीवग्रंथी न सुटे| हे बोल नको वोखटें| कानीं ल्ॐ ||१४०४||
म्हणौनि मी होऊनि मातें| सेवणें आहे आयितें| तें करीं हातां येतें| ज्ञानें येणें ||१४०५||
मग ताकौनियां काढिलें| लोणी मागौतें ताकीं घातलें| परी न घेपेचि कांहींं केलें| तेणें जेवीं ||१४०६||
तैसें अद्वयत्वें मज| शरण रिघालिया तुज| धर्माधर्म हे सहज| लागतील ना ||१४०७||
लोह उभें खाय माती| तें परीसाचिये संगतीं| सोनें जालया पुढती| न शिविजे मळें ||१४०८||
हें असो काष्ठापासोनि| मथूनि घेतलिया वन्ही| मग काष्ठेंही कोंडोनी| न ठके जैसा ||१४०९||
अर्जुना काय दिनकरु| देखत आहे अंधारु| कीं प्रबोधीं होय गोचरु| स्वप्नभ्रमु ||१४१०||
तैसें मजसी येकवटलेया| मी सर्वरूप वांचूनियां| आन कांहीं उरावया| कारण असे ? ||१४११||
म्हणौनि तयाचें कांहीं| चिंतीं न आपुल्या ठायीं| तुझें पापपुण्य पाहीं| मीचि होईन ||१४१२||
तेथ सर्वबंधलक्षणें| पापें उरावें दुजेपणें| तें माझ्या बोधीं वायाणें| होऊनि जाईल ||१४१३||
जळीं पडिलिया लवणा| सर्वही जळ होईल विचक्षणा| तुज मी अनन्यशरणा| होईन तैसा ||१४१४||
येतुलेनि आपैसया| सुटलाचि आहसी धनंजया| घेईं मज प्रकाशोनियां| सोडवीन तूंतें ||१४१५||
याकारणें पुढती| हे आधी न वाहे चित्तीं| मज एकासि ये सुमती| जाणोनि शरण ||१४१६||
ऐसें सर्वरूपरूपसें| सर्वदृष्टिडोळसें| सर्वदेशनिवासें| बोलिलें श्रीकृष्णें ||१४१७||
मग सांवळा सकंकणु| बाहु पसरोनि दक्षिणु| आलिंगिला स्वशरणु| भक्तराजु तो ||१४१८||
न पवतां जयातें| काखे सूनि बुद्धीतें| बोंलणें मागौतें| वोसरलें ||१४१९||
ऐसें जें कांहीं येक| बोला बुद्धीसिही अटक| तें द्यावया मिष| खेवाचें केलें ||१४२०||
हृदया हृदय येक जाले| ये हृदयींचें ते हृदयीं घातलें| द्वैत न मोडितां केलें | आपणाऐसें अर्जुना ||१४२१||
दीपें दीप लाविला| तैसा परीष्वंगु तो जाला| द्वैत न मोडितां केला| आपणपें पार्थुं ||१४२२||
तेव्हां सुखाचा मग तया| पूरु आला जो धनंजया| तेथ वाडु तऱ्हीं बुडोनियां| ठेला देवो ||१४२३||
सिंधु सिंधूतें पावों जाये| तें पावणें ठाके दुणा होये| वरी रिगे पुरवणिये| आकाशही ||१४२४||
तैसें तयां दोघांचें मिळणें| दोघां नावरे जाणावें कवणें| किंबहुना श्रीनारायणें| विश्व कोंदलें ||१४२५||
एवं वेदाचें मूळसूत्र| सर्वाधिकारैकपवित्र| श्रीकृष्णें गीताशास्त्र| प्रकट केलें ||१४२६||
येथ गीता मूळ वेदां| ऐसें केवीं पां आलें बोधा| हें म्हणाल तरी प्रसिद्धा| उपपत्ति सांगों ||१४२७||
तरी जयाच्या निःश्वासीं| जन्म झाले वेदराशी| तो सत्यप्रतिज्ञ पैजेसीं| बोलला स्वमुखें ||१४२८||
म्हणौनि वेदां मूळभूत| गीता म्हणों हें होय उचित| आणिकही येकी येथ| उपपत्ति असे ||१४२९||
जें न नशतु स्वरूपें| जयाचा विस्तारु जेथ लपे| तें तयांचें म्हणिपे| बीज जगीं ||१४३०||
तरी कांडत्रयात्मकु| शब्दराशी अशेखु| गीतेमाजीं असे रुखु| बीजीं जैसा ||१४३१||
म्हणौनि वेदांचें बीज| श्रीगीता होय हें मज| गमे आणि सहज| दिसतही आहे ||१४३२||
जे वेदांचे तिन्ही भाग| गीते उमटले असती चांग| भूषणरत्नीं सर्वांग| शोभलें जैसें ||१४३३||
तियेचि कर्मादिकें तिन्ही| कांडें कोणकोणे स्थानीं| गीते आहाति तें नयनीं| दाखऊं आईक ||१४३४||
तरी पहिला जो अध्यावो| तो शास्त्रप्रवृत्तिप्रस्तावो| द्वितीयीं साङ्ख्यसद्भावो| प्रकाशिला ||१४३५||
मोक्षदानीं स्वतंत्र| ज्ञानप्रधान हें शास्त्र| येतुलालें दुजीं सूत्र| उभारिलें ||१४३६||
मग अज्ञानें बांधलेयां| मोक्षपदीं बैसावया| साधनारंभु तो तृतीया- | ध्यायीं बोलिला ||. १४३७||
जे देहाभिमान बंधें| सांडूनि काम्यनिषिद्धें| विहित परी अप्रमादें| अनुष्ठावें ||१४३८||
ऐसेनि सद्भावें कर्म करावें| हा तिजा अध्यावो जो देवें| निर्णय केला तें जाणावें| कर्मकांड येथ ||१४३९||
आणि तेंचि नित्यादिक| अज्ञानाचें आवश्यक| आचरतां मोंचक| केवीं होय पां ||१४४०||
ऐसी अपेक्षा जालिया| बद्ध मुमुक्षुते आलिया| देवें ब्रह्मार्पणत्वें क्रिया| सांगितली ||१४४१||
जे देहवाचामानसें| विहित निपजे जें जैसें| तें एक ईश्वरोद्देशें| कीजे म्हणितलें ||१४४२||
हेंचि ईश्वरीं कर्मयोगें| भजनकथनाचें खागें| आदरिलें शेषभागें | चतुर्थाचेनी ||१४४३||
तें विश्वरूप अकरावा| अध्यावो संपे जंव आघवा. तंव कर्में ईशु भजावा| हें जें बोलिलें ||१४४४||
तें अष्टाध्यायीं उघड| जाण येथें देवताकांड| शास्त्र सांगतसे आड| मोडूनि बोलें ||१४४५||
आणि तेणेंचि ईशप्रसादें| श्रीगुरुसंप्रदायलब्धें| साच ज्ञान उद्बोधे| कोंवळें जें ||१४४६||
तें अद्वेष्टादिप्रभृतिकीं| अथवा अमानित्वादिकीं| वाढविजे म्हणौनि लेखी| बारावा गणूं ||१४४७||
तो बारावा अध्याय आदी| आणि पंधरावा अवधी| ज्ञानफळपाकसिद्धी| निरूपणासीं ||१४४८||
म्हणौनि चहूंही इहीं| ऊर्ध्वमूळांतीं अध्यायीं| ज्ञानकांड ये ठायीं| निरूपिजे ||१४४९||
एवं कांडत्रयनिरूपणी| श्रुतीचि हे कोडिसवाणी| गीतापद्यरत्नांचीं लेणीं| लेयिली आहे ||१४५०||
हें असो कांडत्रयात्मक| श्रुति मोक्षरूप फळ येक| बोभावे जें आवश्यक| ठाकावें म्हणौनि ||१४५१||
तयाचेनि साधन ज्ञानेंसीं| वैर करी जो प्रतिदिवशीं| तो अज्ञानवर्ग षोडशीं| प्रतिपादिजे ||१४५२||
तोचि शास्त्राचा बोळावा| घेवोनि वैरी जिणावा| हा निरोपु तो सतरावा| अध्याय येथ ||१४५३||
ऐसा प्रथमालागोनि| सतरावा लाणी करूनी| आत्मनिश्वास विवरूनी| दाविला देवें ||१४५४||
तया अर्थजातां अशेषां| केला तात्पर्याचा आवांका| तो हा अठरावा देखा| कलशाध्यायो ||१४५५||
एवं सकळसंख्यासिद्धु| श्रीभागवद्गीता प्रबंधु| हा औदार्यें आगळा वेदु| मूर्तु जाण ||१४५६||
वेदु संपन्नु होय ठाईं| परी कृपणु ऐसा आनु नाहीं| जे कानीं लागला तिहीं| वर्णांच्याचि ||१४५७||
येरां भवव्याथा ठेलियां| स्त्रीशूद्रादिकां प्राणियां| अनवसरू मांडूनियां| राहिला आहे ||१४५८||
तरी मज पाहतां तें मागील उणें| फेडावया गीतापणें| वेदु वेठला भलतेणें| सेव्य होआवया ||१४५९||
ना हे अर्थु रिगोनि मनीं| श्रवणें लागोनि कानीं| जपमिषें वदनीं| वसोनियां ||१४६०||
ये गीतेचा पाठु जो जाणे| तयाचेनि सांगातीपणें| गीता लिहोनि वाहाणें| पुस्तकमिषें ||१४६१||
ऐसैसा मिसकटां| संसाराचा चोहटा| गवादी घालीत चोखटा| मोक्षसुखाची ||१४६२||
परी आकाशीं वसावया| पृथ्वीवरी बैसावया| रविदीप्ति राहाटावया| आवारु नभ ||१४६३||
तेवीं उत्तम अधम ऐसें| सेवितां कवणातेंही न पुसे| कैवल्यदानें सरिसें| निववीत जगा ||१४६४||
यालागीं मागिली कुटी| भ्याला वेदु गीतेच्या पोटीं| रिगाला आतां गोमटी| कीर्ति पातला ||१४६५||
म्हणौनि वेदाची सुसेव्यता| ते हे मूर्त जाण श्रीगीता| श्रीकृष्णें पंडुसुता| उपदेशिली ||१४६६||
परी वत्साचेनि वोरसें| दुभतें होय घरोद्देशें| जालें पांडवाचेनि मिषें| जगदुद्धरण ||१४६७||
चातकाचियें कणवें| मेघु पाणियेसिं धांवे| तेथ चराचर आघवें| निवालें जेवीं ||१४६८||
कां अनन्यगतिकमळा- | लागीं सूर्य ये वेळोवेळां| कीं सुखिया होईजे डोळां| त्रिभुवनींचा ||१४६९||
तैसें अर्जुनाचेनि व्याजें| गीता प्रकाशूनि श्रीराजें| संसारायेवढें थोर ओझें| फेडिलें जगाचें ||१४७०||
सर्वशास्त्ररत्नदीप्ती| उजळिता हा त्रिजगतीं| सूर्यु नव्हें लक्ष्मीपती| वक्त्राकाशींचा ||१४७१||
बाप कुळ तें पवित्र| जेथिंचा पार्थु या ज्ञाना पात्र| जेणें गीता केलें शास्त्र| आवारु जगा ||१४७२||
हें असो मग तेणें| सद्गुरु श्रीकृष्णें| पार्थाचें मिसळणें| आणिलें द्वैता ||१४७३||
पाठीं म्हणतसे पांडवा| शास्त्र हें मानलें कीं जीवा| तेथ येरु म्हणे देवा| आपुलिया कृपा ||१४७४||
तरी निधान जोडावया| भाग्य घडे गा धनंजया| परी जोडिलें भोगावया | विपायें होय ||१४७५||
पैं क्षीरसागरायेवढें| अविरजी दुधाचें भांडें| सुरां असुरां केवढें| मथितां जालें ||१४७६||
तें सायासही फळा आलें| जें अमृतही डोळां देखिलें| परी वरिचिली चुकलें| जतनेतें ||१४७७||
तेथ अमरत्वा वोगरिलें| तें मरणाचिलागीं जालें| भोगों नेणतां जोडलें| ऐसें आहे ||१४७८||
नहुषु स्वर्गाधिपति जाहला| परी राहाटीं भांबावला| तो भुजंगत्व पावला| नेणसी कायी ? ||१४७९||
म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां| केलें तेणें धनंजया| आजि शास्त्रराजा इया| जालासि विषयो ||१४८०||
तरी ययाचि शास्त्राचेनि| संप्रदायें पांघुरौनि| शास्त्रार्थ हा निकेनि| अनुष्ठीं हो ||१४८१||
येऱ्हवीं अमृतमंथना- | सारिखें होईल अर्जुना| जरी रिघसी अनुष्ठाना| संप्रदायेंवीण ||१४८२||
गाय धड जोडे गोमटी| ते तैंचि पिवों ये किरीटी| जैं जाणिजे हातवटी| सांजवणीची ||१४८३||
तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये| शिष्य विद्याही कीर लाहे| परी ते फळे संप्रदायें| उपासिलिया ||१४८४||
म्हणौनि शास्त्रीं जो इये| उचितु संप्रदायो आहे| तो ऐक आतां बहुवें| आदरेंसीं ||१४८५||

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||६७||

तरी तुवां हें जें पार्था| गीताशास्त्र लाधलें आस्था| तें तपोहीना सर्वथा| सांगावें ना हो ||. १४८६||
अथवा तापसुही जाला | परी गुरूभक्तीं जो ढिला| तो वेदीं अंत्यजु वाळिळा| तैसा वाळीं ||१४८७||
नातरी पुरोडाशु जैसा| न घापे वृद्ध तरी वायसा| गीता नेदी तैसी तापसा| गुरुभक्तिहीना ||१४८८||
कां तपही जोडे देहीं| भजे गुरुदेवांच्या ठायीं| परी आकर्णनीं नाहीं| चाड जरी ||१४८९||
तरी मागील दोन्हीं आंगीं| उत्तम होय कीर जगीं| परी या श्रवणालागीं| योग्यु नोहे ||१४९०||
मुक्ताफळ भलतैसें| हो परी मुख नसे| तंव गुण प्रवेशे| तेथ कायी ? ||१४९१||
सागरु गंभीरु होये| हें कोण ना म्हणत आहे| परी वृष्टि वायां जाये| जाली तेथ ||१४९२||
धालिया दिव्यान्न सुवावें| मग जें वायां धाडावें| तें आर्तीं कां न करावें| उदारपण ||१४९३||
म्हणौनि योग्य भलतैसें| होतु परी चाड नसे| तरी झणें वानिवसें| देसी हें तयां ||१४९४||
रूपाचा सुजाणु डोळा| वोढवूं ये कायि परिमळा ? | जेथ जें माने ते फळा| तेथचि ते गा ||१४९५||
म्हणौनि तपी भक्ति| पाहावे ते सुभद्रापती| परी शास्त्रश्रवणीं अनासक्ती| वाळावेचि ते ||१४९६||
नातरी तपभक्ति| होऊनि श्रवणीं आर्ति| आथी ऐसीही आयती| देखसी जरी ||१४९७||
तरी गीताशास्त्रनिर्मिता| जो मी सकळलोकशास्ता| तया मातें सामान्यता| बोलेल जो ||१४९८||
माझ्या सज्जनेंसिं मातें| पैशुन्याचेनि हातें| येक आहाती तयांतें| योग्य न म्हण ||१४९९||
तयांची येर आघवी| सामग्री ऐसी जाणावी| दीपेंवीण ठाणदिवी| रात्रीची जैसी ||१५००||
अंग गोरें आणि तरुणें| वरी लेईलें आहे लेणें| परी येकलेनि प्राणें| सांडिलें जेवीं ||१५०१||
सोनयाचें सुंदर| निर्वाळिलें होय घर| परी सर्पांगना द्वार| रुंधलें आहे ||१५०२||
निपजे दिव्यान्न चोखट| परी माजीं काळकूट| असो मैत्री कपट- | गर्भिणी जैसी ||१५०३||
तैसी तपभक्तिमेधा| तयाची जाण प्रबुद्धा| जो माझयांची कां निंदा| माझीचि करी ||१५०४||
याकारणें धनंजया| तो भक्तु मेधावीं तपिया| तरी नको बापा इया| शास्त्रा आतळों देवों ||१५०५||
काय बहु बोलों निंदका| योग्य स्रष्टयाहीसारिखा| गीता हे कवतिका- | लागींही नेदीं ||१५०६||
म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा| तळीं दाटोनि गाडोरा| वरी गुरुभक्तीचा पुरा| प्रासादु जो जाला ||१५०७||
आणि श्रवणेच्छेचा पुढां| दारवंटा सदा उघडा| वरी कलशु चोखडा| अनिंदारत्नांचा ||१५०८||

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ||६८||

ऐशा भक्तालयीं चोखटीं| गीतारत्नेश्वरु हा प्रतिष्ठीं| मग माझिया संवसाटी| तुकसी जगीं ||१५०९||
कां जे एकाक्षरपणेंसीं| त्रिमात्रकेचिये कुशीं| प्रणवु होतां गर्भवासीं| सांकडला ||१५१०||
तो गीतेचिया बाहाळींं| वेदबीज गेलें पाहाळीँ| कीं गायत्री फुलींफळीं| श्लोकांच्या आली ||१५११||
ते हे मंत्ररहय गीता| मेळवी जो माझिया भक्ता| अनन्यजीवना माता| बाळका जैसी ||१५१२||
तैसी भक्तां गीतेसीं| भेटी करी जो आदरेंसीं| तो देहापाठीं मजसीं| येकचि होय ||१५१३||

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||६९||

आणि देहाचेंही लेणें| लेऊनि वेगळेपणें| असे तंव जीवेंप्राणें| तोचि पढिये ||१५१४||
ज्ञानियां कर्मठां तापसां| यया खुणेचिया माणुसां- | माजीं तो येकु गा जैसा| पढिये मज ||१५१५||
तैसा भूतळीं आघवा| आन न देखे पांडवा| जो गीता सांगें मेळावा| भक्तजनांचा ||१५१६||
मज ईश्वराचेनि लोभें| हे गीता पढतां अक्षोभें| जो मंडन होय सभे| संतांचिये ||१५१७||
नेत्रपल्लवीं रोमांचितु| मंदानिळें कांपवितु| आमोदजळें वोलवितु| फुलांचे डोळें ||१५१८||
कोकिळा कलरवाचेनि मिषें| सद्गद बोलवीत जैसें| वसंत का प्रवेशे| मद्भक्त आरामीं ||१५१९||
कां जन्माचें फळ चकोरां| होत जैं चंद्र ये अंबरा| नाना नवघन मयूरां| वो देत पावे ||१५२०||
तैसा सज्जनांच्या मेळापीं| गीतापद्यरत्नीं उमपीं| वर्षे जो माझ्या रूपीं| हेतु ठेऊनि ||१५२१||
मग तयाचेनि पाडें| पढियंतें मज फुडें| नाहींचि गा मागेंपुढें| न्याहाळितां ||१५२२||
अर्जुना हा ठायवरी| मी तयातें सूयें जिव्हारीं| जो गीतार्थाचें करी| परगुणें संतां ||१५२३||

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ||७०||

पैं माझिया तुझिया मिळणीं| वाढिनली जे हे कहाणी| मोक्षधर्म का जिणीं| आलासे जेथें ||१५२४||
तो हा सकळार्थप्रबोधु| आम्हां दोघांचा संवादु| न करितां पदभेदु| पाठेंचि जो पढे ||१५२५||
तेणें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं| मूळ अविद्येचिया आहुती| तोषविला होय सुमती| परमात्मा मी ||१५२६||
घेऊनि गीतार्थ उगाणा| ज्ञानिये जें विचक्षणा| ठाकती तें गाणावाणा| गीतेचा तो लाहे ||१५२७||
गीता पाठकासि असे | फळ अर्थज्ञाचि सरिसें| गीता माउलियेसि नसे| जाणें तान्हें ||१५२८||

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः |
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ||७१||

आणि सर्वमार्गीं निंदा| सांडूनि आस्था पैं शुद्धा| गीताश्रवणीं श्रद्धा| उभारी जो ||१५२९||
तयाच्या श्रवणपुटीं| गीतेचीं अक्षरें जंव पैठीं| होतीना तंव उठाउठीं| पळेचि पाप ||१५३०||
अटवियेमाजीं जैसा| वन्हि रिघतां सहसा| लंघिती का दिशा| वनौकें तियें ||१५३१||
कां उदयाचळकुळीं| झळकतां अंशुमाळी| तिमिरें अंतराळीं| हारपती ||१५३२||
तैसा कानाच्या महाद्वारीं| गीता गजर जेथ करी| तेथ सृष्टीचिये आदिवरी| जायचि पाप ||१५३३||
ऐसी जन्मवेली धुवट| होय पुण्यरूप चोखट| याहीवरी अचाट| लाहे फळ ||१५३४||
जें इये गीतेचीं अक्षरें| जेतुलीं कां कर्णद्वारें| रिघती तेतुले होती पुरे| अश्वमेध कीं ||१५३५||
म्हणौनि श्रवणें पापें जाती| आणि धर्म धरी उन्नती| तेणें स्वर्गराज संपत्ती| लाहेचि शेखीं ||१५३६||
तो पैं मज यावयालागीं| पहिलें पेणें करी स्वर्गीं| मग आवडे तंव भोगी| पाठीं मजचि मिळे ||१५३७||
ऐसी गीता धनंजया| ऐकतया आणि पढतया| फळे महानंदें मियां| बहु काय बोलों ||१५३८||
याकारणें हें असो| परी जयालागीं शास्त्रातिसो| केला तें तंव तुज पुसों| काज तुझें ||१५३९||

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ||७२||

तरी सांग पां पांडवा| हा शास्त्रसिद्धांतु आघवा| तुज एकचित्तें फावा| गेला आहे ? ||१५४०||
आम्हीं जैसें जया रीतीं| उगाणिलें कानांच्या हातीं| येरीं तैसेंचि तुझ्या चित्तीं | पेठें केलें कीं ? ||१५४१||
अथवा माझारीं| गेलें सांडीविखुरी| किंवा उपेक्षेवरी| वाळूनि सांडिलें ||१५४२||
जैसें आम्हीं सांगितलें| तैसेंचि हृदयीं फावलें| तरी सांग पां वहिलें| पुसेन तें मी ||१५४३||
तरी स्वाज्ञानजनितें| मागिलें मोहें तूतें| भुलविलें तो येथें| असे कीं नाहीं ? ||१५४४||
हें बहु पुसों काई| सांगें तूं आपल्या ठायीं| कर्माकर्म कांहीं| देखतासी ? ||१५४५||
पार्थु स्वानंदैकरसें| विरेल ऐसा भेददशे| आणिला येणें मिषें| प्रश्नाचेनि ||१५४६||
पूर्णब्रह्म जाला पार्थु| तरी पुढील साधावया कार्यार्थु| मर्यादा श्रीकृष्णनाथु| उल्लंघों नेदी ||१५४७||
येऱ्हवीं आपुलें करणें| सर्वज्ञ काय तो नेणें ? | परी केलें पुसणें| याचि लागीं ||१५४८||
एवं करोनियां प्रश्न| नसतेंचि अर्जुनपण| आणूनियां जालें पूर्णपण| तें बोलवी स्वयें ||१५४९||
मग क्षीराब्धीतें सांडितु| गगनीं पुंजु मंडितु| निवडे जैसा न निवडितु| पूर्णचंद्रु ||१५५०||
तैसा ब्रह्म मी हें विसरे| तेथ जगचि ब्रह्मत्वें भरे| हेंही सांडी तरी विरे| ब्रह्मपणही ||१५५१||
ऐसा मोडतु मांडतु ब्रह्में| तो दुःखें देहाचिये सीमे| मी अर्जुन येणें नामें| उभा ठेला ||१५५२||
मग कांपतां करतळीं| दडपूनि रोमावळी| पुलिका स्वेदजळीं| जिरऊनियां ||१५५३||
प्राणक्षोभें डोलतया| आंगा आंगचि टेंकया| सूनि स्तंभु चाळया| भुलौनियां ||१५५४||
नेत्रयुगुळाचेनि वोतें| आनंदामृताचें भरितें| वोसंडत तें मागुतें| काढूनियां ||१५५५||
विविधा औत्सुक्यांची दाटी| चीप दाटत होती कंठीं| ते करूनियां पैठी| हृदयामाजीं ||१५५६||
वाचेचें वितुळणें| सांवरूनि प्राणें| अक्रमाचें श्वसणें| ठेऊनि ठायीं ||१५५७||

अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||७३||

मग अर्जुन म्हणे काय देवो| | पुसताति आवडे मोहो| तरी तो सकुटुंब गेला जी ठावो| घेऊनि आपला ||१५५८||
पासीं येऊनि दिनकरें| डोळ्यातें अंधारें| पुसिजे हें कायि सरे| कोणे गांवीं ? ||१५५९||
तैसा तूं श्रीकृष्णराया| आमुचिया डोळयां| गोचर हेंचि कायिसया| न पुरे तंव ||१५६०||
वरी लोभें मायेपासूनी| तें सांगसी तोंड भरूनी| जें कायिसेनिही करूनी| जाणूं नये ||१५६१||
आतां मोह असे कीं नाहीं| हें ऐसें जी पुससी काई| कृतकृत्य जाहलों पाहीं| तुझेपणें ||१५६२||
गुंतलों होतों अर्जुनगुणें| तो मुक्त जालों तुझेपणें| आतां पुसणें सांगणें| दोन्ही नाहीं ||१५६३||
मी तुझेनि प्रसादें| लाधलेनि आत्मबोधें| मोहाचे तया कांदे| नेदीच उरों ||१५६४||
आतां करणें कां न करणें| हें जेणें उठी दुजेपणें| तें तूं वांचूनि नेणें| सर्वत्र गा ||१५६५||
ये विषयीं माझ्या ठायीं| संदेहाचे नुरेचि कांहीं| त्रिशुद्धि कर्म जेथ नाहीं| तें मी जालों ||१५६६||
तुझेनि मज मी पावोनी| कर्तव्य गेलें निपटूनी| परी आज्ञा तुझी वांचोनि| आन नाहीं प्रभो ||१५६७||
कां जें दृश्य दृश्यातें नाशी| जें दुजें द्वैतातें ग्रासी| जें एक परी सर्वदेशीं| वसवी सदा ||१५६८||
जयाचेनि संबंधें बंधु फिटे| जयाचिया आशा आस तुटे| जें भेटलया सर्व भेटे| आपणपांचि ||१५६९||
तें तूं गुरुलिंग जी माझें| जें येकलेपणींचें विरजें| जयालागीं वोलांडिजे| अद्वैतबोधु ||१५७०||
आपणचि होऊनि ब्रह्म| सारिजे कृत्याकृत्यांचें काम| मग कीजे का निःसीम| सेवा जयाची ||१५७१||
गंगा सिंधू सेवूं गेली| पावतांचि समुद्र जाली| तेवीं भक्तां सेल दिधली| निजपदाची ||१५७२||
तो तूं माझा जी निरुपचारु| श्रीकृष्णा सेव्य सद्गुरु| मा ब्रह्मतेचा उपकारु| हाचि मानीं ||१५७३||
जें मज तुम्हां आड| होतें भेदाचें कवाड| तें फेडोनि केलें गोड| सेवासुख ||१५७४||
तरी आतां तुझी आज्ञा| सकळ देवाधिदेवराज्ञा| करीन देईं अनुज्ञा| भलतियेविषयीं ||१५७५||
यया अर्जुनाचिया बोला| देवो नाचे सुखें भुलला| म्हणे विश्वफळा जाला| फळ हा मज ||१५७६||
उणेनि उमचला सुधाकरु| देखुनी आपला कुमरु| मर्यादा क्षीरसागरु| विसरेचिना ? ||१५७७||
ऐसे संवादाचिया बहुलां| लग्न दोघांचियां आंतुला| लागलें देखोनि जाला| निर्भरु संजयो ||१५७८||
तेणें म्हणतसे संजयो | बाप कृपानिधी रावो | तो आपुला मनोभावो | अर्जुनेंसी केला ||१५७९ ||
तेणें उचंबळलेपणें| संजय धृतराष्ट्रातें म्हणे| जी कैसे बादरायणें| रक्षिलों दोघे ? ||१५८०||
आजि तुमतें अवधारा| नाहीं चर्मचक्षूही संसारा| कीं ज्ञानदृष्टिव्यवहारा आणिलेती ||१५८१||
आणि रथींचिये राहाटी| घेई जो घोडेयासाठीं| तया आम्हां या गोष्टी| गोचरा होती ||१५८२||
वरी जुंझाचें निर्वाण| मांडलें असे दारुण| दोहीं हारीं आपण| हारपिजे जैसें ||१५८३||
येवढा जिये सांकडां| कैसा अनुग्रहो पैं गाढा| जे ब्रह्मानंदु उघडा| भोगवीतसे ||१५८४||
ऐसें संजय बोलिला| परी न द्रवे येरु उगला| चंद्रकिरणीं शिवतला| पाषाणु जैसा ||१५८५||
हे देखोनि तयाची दशा| मग करीचिना सरिसा| परी सुखें जाला पिसा| बोलतसे ||१५८६||
भुलविला हर्षवेगें| म्हणौनि धृतराष्ट्रा सांगे| येऱ्हवीं नव्हे तयाजोगें| हें कीर जाणें ||१५८७||

सञ्जय उवाच |
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः |
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ||७४||

मग म्हणे पैं कुरुराजा| ऐसा बंधुपुत्र तो तुझा| बोलिला तें अधोक्षजा| गोड जालें ||१५८८||
अगा पूर्वापर सागर| ययां नामसीचि सिनार| येर आघवें तें नीर| एक जैसें ||१५८९||
तैसा श्रीकृष्ण पार्थ ऐसें| हें आंगाचिपासीं दिसे| मग संवादीं जी नसे| कांहींचि भेदु ||१५९० ||
पैं दर्पणाहूनि चोखें| दोन्ही होती सन्मुखें| तेथ येरी येर देखे| आपणपें जैसें ||१५९१||
तैसा देवेसीं पंडुसुतु| आपणपें देवीं देखतु| पांडवेंसीं देखे अनंतु| आपणपें पार्थीं ||१५९२||
देव देवो भक्तालागीं| जिये विवरूनि देखे आंगीं| येरु तियेचेही भागीं| दोन्ही देखे ||१५९३||
आणिक कांहींच नाहीं| म्हणौनि करिती काई| दोघे येकपणें पाहीं| नांदताती ||१५९४||
आतां भेदु जरी मोडे| तरी प्रश्नोत्तर कां घडे ? | ना भेदुचि तरी जोडे| संवादसुख कां ? ||१५९५||
ऐसें बोलतां दुजेपणें| संवादीं द्वैत गिळणें| तें ऐकिलें बोलणें| दोघांचें मियां ||१५९६||
उटूनि दोन्ही आरिसे| वोडविलीया सरिसे| कोण कोणा पाहातसे| कल्पावें पां ? ||१५९७||
कां दीपासन्मुखु| ठेविलया दीपकु| कोण कोणा अर्थिकु| कोण जाणें ||१५९८||
नाना अर्कापुढें अर्कु| उदयलिया आणिकु| कोण म्हणे प्रकाशकु| प्रकाश्य कवण ? ||१५९९||
हें निर्धारूं जातां फुडें| निर्धारासि ठक पडे| ते दोघे जाले एवढे| संवादें सरिसे ||१६००||
जी मिळतां दोन्ही उदकें | माजी लवण वारूं ठाके| कीं तयासींही निमिखें| तेंचि होय ||१६०१||
तैसे श्रीकृष्ण अर्जुन दोन्ही| संवादले तें मनीं| धरितां मजही वानी| तेंचि होतसे ||१६०२||
ऐसें म्हणे ना मोटकें | तंव हिरोनि सात्विकें| आठव नेला नेणों कें| संजयपणाचा ||१६०३||
रोमांच जंव फरके| तंव तंव आंग सुरके| स्तंभ स्वेदांतें जिंके| एकला कंपु ||१६०४||
अद्वयानंदस्पर्शें| दिठी रसमय जाली असे | ते अश्रु नव्हती जैसें| द्रवत्वचि ||१६०५||
नेणों काय न माय पोटीं| नेणों काय गुंफे कंठीं| वागर्था पडत मिठी| उससांचिया ||१६०६||
किंबहुना सात्विकां आठां| चाचरु मांडतां उमेठा| संजयो जालासे चोहटां| संवादसुखाचा ||१६०७||
तया सुखाची ऐसी जाती| जे आपणचि धरी शांती| मग पुढती देहस्मृती| लाधली तेणें ||१६०८||

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||७५||

तेव्हां बैसतेनि आनंदें| म्हणे जी जें उपनिषदें| नेणती तें व्यासप्रसादें| ऐकिलें मियां ||१६०९||
ऐकतांचि ते गोठी| ब्रह्मत्वाची पडिली मिठी| मीतूंपणेंसीं दृष्टी| विरोनि गेली ||१६१०||
हे आघवेचि का योग| जया ठाया येती मार्ग| तयाचें वाक्य सवंग| केलें मज व्यासें ||१६११||
अहो अर्जुनाचेनि मिषें| आपणपेंचि दुजें ऐसें| नटोनि आपणया उद्देशें| बोलिलें जें देव ||१६१२||
तेथ कीं माझें श्रोत्र| पाटाचें जालें जी पात्र| काय वानूं स्वतंत्र| सामर्थ्य श्रीगुरुचें ||१६१३||

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् |
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ||७६||

राया हें बोलतां विस्मित होये| तेणेंचि मोडावला ठाये| रत्नीं कीं रत्नकिळा ये| झांकोळित जैसी ||१६१४||
हिमवंतींचीं सरोवरें| चंद्रोदयीं होती काश्मीरें| मग सूर्यागमीं माघारें| द्रवत्व ये ||१६१५||
तैसा शरीराचिया स्मृती| तो संवादु संजय चित्तीं| धरी आणि पुढती| तेंचि होय ||१६१६||

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः |
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ||७७||

मग उठोनि म्हणे नृपा| श्रीहरीचिया विश्वरूपा| देखिलया उगा कां पां| असों लाहसी ? ||१६१७||
न देखणेनि जें दिसे| नाहींपणेंचि जें असे | विसरें आठवे तें कैसें| चुकऊं आतां ||१६१८||
देखोनि चमत्कारु| कीजे तो नाहीं पैसारु| मजहीसकट महापूरु| नेत आहे ||१६१९||
ऐसा श्रीकृष्णार्जुन- | संवाद संगमीं स्नान| करूनि देतसे तिळदान| अहंतेचें ||१६२०||
तेथ असंवरें आनंदें| अलौकिकही कांहीं स्फुंदे| श्रीकृष्ण म्हणे सद्गदें| वेळोवेळां ||१६२१||
या अवस्थांची कांहीं| कौरवांतें परी नाहीं| म्हणौनि रायें तें कांहीं| कल्पावें जंव ||१६२२||
तंव जाला सुखलाभु| आपणया करूनि स्वयंभु| बुझाविला अवष्टंभु| संजयें तेणें ||१६२३||
तेथ कोणी येकी अवसरी| होआवी ते करूनि दुरी| रावो म्हणे संजया परी| कैसी तुझी गा ? ||१६२४||
तेणें तूंतें येथें व्यासें| बैसविलें कासया उद्देशें| अप्रसंगामाजीं ऐसें| बोलसी काई ? ||१६२५||
रानींचें राउळा नेलिया| दाही दिशा मानी सुनिया| कां रात्री होय पाहलया| निशाचरां ||१६२६||
जो जेथिंचें गौरव नेणें| तयासि तें भिंगुळवाणें| म्हणौनि अप्रसंगु तेणें| म्हणावा कीं तो ||१६२७||
मग म्हणे सांगें प्रस्तुत| उदयलेंसे जें उत्कळित| तें कोणासि बा रे जैत| देईल शेखीं ? ||१६२८||
येऱ्हवीं विशेषें बहुतेक| आमुचें ऐसें मानसिक| जे दुर्योधनाचे अधिक| प्रताप सदा ||१६२९||
आणि येरांचेनि पाडें| दळही याचें देव्हडें| म्हणौनि जैत फुडें| आणील ना तें ? ||१६३०||
आम्हां तंव गमे ऐसें| मा तुझें ज्योतिष कैसें| तें नेणों संजया असे | तैसें सांग पां ||१६३१||

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||७८||

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ||१८अ ||

यया बोला संजयो म्हणे| जी येरयेरांचें मी नेणें| परी आयुष्य तेथें जिणें| हें फुडें कीं गा ||१६३२||
चंद्रु तेथें चंद्रिका| शंभु तेथें अंबिका| संत तेथें विवेका| असणें कीं जी ||१६३३||
रावो तेथें कटक| सौजन्य तेथें सोयरीक| वन्हि तेथें दाहक| सामर्थ्य कीं ||१६३४||
दया तेथें धर्मु| धर्मु तेथें सुखागमु| सुखीं पुरुषोत्तमु| असे जैसा ||१६३५||
वसंत तेथें वनें| वन तेथें सुमनें| सुमनीं पालिंगनें| सारंगांचीं ||१६३६||
गुरु तेथ ज्ञान| ज्ञानीं आत्मदर्शन| दर्शनीं समाधान| आथी जैसें ||१६३७||
भाग्य तेथ विलासु| सुख तेथ उल्लासु| हें असो तेथ प्रकाशु| सूर्य जेथें ||१६३८||
तैसे सकल पुरुषार्थ| जेणें स्वामी कां सनाथ| तो श्रीकृष्ण रावो जेथ| तेथ लक्ष्मी ||१६३९||
आणि आपुलेनि कांतेंसीं| ते जगदंबा जयापासीं| अणिमादिकीं काय दासी| नव्हती तयातें ? ||१६४०||
कृष्ण विजयस्वरूप निजांगें| तो राहिला असे जेणें भागें| तैं जयो लागवेगें| तेथेंचि आहे ||१६४१||
विजयो नामें अर्जुन विख्यातु| विजयस्वरूप श्रीकृष्णनाथु| श्रियेसीं विजय निश्चितु| तेथेंचि असे ||१६४२||
तयाचिये देशींच्या झाडीं| कल्पतरूतें होडी| न जिणावें कां येवढीं| मायबापें असतां ? ||१६४३||
ते पाषाणही आघवें| चिंतारत्नें कां नोहावे ? | तिये भूमिके कां न यावें| सुवर्णत्व ? ||१६४४||
तयाचिया गांवींचिया| नदी अमृतें वाहाविया| नवल कायि राया| विचारीं पां ||१६४५||
तयाचे बिसाट शब्द| सुखें म्हणों येती वेद| सदेह सच्चिदानंद| कां न व्हावे ते ? ||१६४६||
पैं स्वर्गापवर्ग दोन्ही| इयें पदें जया अधीनीं| तो श्रीकृष्ण बाप जननी| कमळा जया ||१६४७||
म्हणौनि जिया बाहीं उभा| तो लक्ष्मीयेचा वल्लभा| तेथें सर्वसिद्धी स्वयंभा| येर मी नेणें ||१६४८||
आणि समुद्राचा मेघु| उपयोगें तयाहूनि चांगु| तैसा पार्थीं आजि लागु| आहे तये ||१६४९||
कनकत्वदीक्षागुरू| लोहा परिसु होय कीरू| परी जगा पोसिता व्यवहारु| तेंचि जाणें ||१६५०||
येथ गुरुत्वा येतसे उणें| ऐसें झणें कोण्ही म्हणे| वन्हि प्रकाश दीपपणें| प्रकाशी आपुला ||१६५१||
तैसा देवाचिया शक्ती| पार्थु देवासीचि बहुती| परी माने इये स्तुती| गौरव असे ||१६५२||
आणि पुत्रें मी सर्व गुणीं| जिणावा हे बापा शिराणी| तरी ते शारङ्गपाणी| फळा आली ||१६५३||
किंबहुना ऐसा नृपा| पार्थु जालासे कृष्णकृपा| तो जयाकडे साक्षेपा| रीति आहे ||१६५४||
तोचि गा विजयासि ठावो| येथ तुज कोण संदेहो ? | तेथ न ये तरी वावो| विजयोचि होय ||१६५५||
म्हणौनि जेथ श्री तेथें श्रीमंतु| जेथ तो पंडूचा सुतु| तेथ विजय समस्तु| अभ्युदयो तेथ ||१६५६||
जरी व्यासाचेनि साचें| धिरे मन तुमचें| तरी या बोलाचें| ध्रुवचि माना ||१६५७||
जेथ तो श्रीवल्लभु| जेथ भक्तकदंबु| तेथ सुख आणि लाभु| मंगळाचा ||१६५८||
या बोला आन होये| तरी व्यासाचा अंकु न वाहे| ऐसें गाजोनि बाहें| उभिली तेणें ||१६५९||
एवं भारताचा आवांका| आणूनि श्लोका येका| संजयें कुरुनायका| दिधला हातीं ||१६६०||
जैसा नेणों केवढा वन्ही| परी गुणाग्रीं ठेऊनी| आणिजे सूर्याची हानी| निस्तरावया ||१६६१||
तैसें शब्दब्रह्म अनंत| जालें सवालक्ष भारत| भारताचें शतें सात| सर्वस्व गीता ||१६६२||
तयांही सातां शतांचा| इत्यर्थु हा श्लोक शेषींचा| व्यासशिष्य संजयाचा| पूर्णोद्गारु जो ||१६६३||
येणें येकेंचि श्लोकें| राहे तेणें असकें| अविद्याजाताचें निकें| जिंतलें होय ||१६६४||
ऐसें श्लोक शतें सात| गीतेचीं पदें आंगें वाहत| पदें म्हणों कीं परमामृत| गीताकाशींचें ||१६६५||
कीं आत्मराजाचिये सभे| गीते वोडवले हे खांबे| मज श्लोक प्रतिभे| ऐसे येत ||१६६६||
कीं गीता हे सप्तशती| मंत्रप्रतिपाद्य भगवती| मोहमहिषा मुक्ति| आनंदली असे ||१६६७||
म्हणौनि मनें कायें वाचा| जो सेवकु होईल इयेचा| तो स्वानंदासाम्राज्याचा| चक्रवर्ती करी ||१६६८||
कीं अविद्यातिमिररोंखें| श्लोक सूर्यातें पैजा जिंकें| ऐसे प्रकाशिले गीतामिषें| रायें श्रीकृष्णें ||१६६९||
कीं श्लोकाक्षरद्राक्षलता| मांडव जाली आहे गीता| संसारपथश्रांता| विसंवावया ||१६७०||
कीं सभाग्यसंतीं भ्रमरीं| केले ते श्लोककल्हारीं| श्रीकृष्णाख्यसरोवरीं| सासिन्नली हे ||१६७१||
कीं श्लोक नव्हती आन| गमे गीतेचें महिमान| वाखाणिते बंदीजन| उदंड जैसे ||१६७२||
कीं श्लोकांचिया आवारा| सात शतें करूनि सुंदरा| सर्वागम गीतापुरा| वसों आले ||१६७३||
कीं निजकांता आत्मया| आवडी गीता मिळावया| श्लोक नव्हती बाह्या| पसरु का जो ||१६७४||
कीं गीताकमळींचे भृंग| कीं हे गीतासागरतरंग| कीं हरीचे हे तुरंग| गीतारथींचे ||१६७५||
कीं श्लोक सर्वतीर्थ संघातु| आला श्रीगीतेगंगे आंतु| जे अर्जुन नर सिंहस्थु| जाला म्हणौनि ||१६७६||
कीं नोहे हे श्लोकश्रेणी| अचिंत्यचित्तचिंतामणी| कीं निर्विकल्पां लावणी| कल्पतरूंची ||१६७७||
ऐसिया शतें सात श्लोकां| परी आगळा येकयेका| आतां कोण वेगळिका| वानावां पां ||१६७८||
तान्ही आणि पारठी| इया कामधेनूतें दिठी| सूनि जैसिया गोठी| कीजती ना ||१६७९||
दीपा आगिलु मागिलु| सूर्यु धाकुटा वडीलु| अमृतसिंधु खोलु| उथळु कायसा ||१६८०||
तैसे पहिले सरते| श्लोक न म्हणावे गीते| जुनीं नवीं पारिजातें| आहाती काई ? ||१६८१||
आणि श्लोका पाडु नाहीं| हें कीर समर्थु काई| येथ वाच्य वाचकही| भागु न धरी ||१६८२||
जे इये शास्त्रीं येकु| श्रीकृष्णचि वाच्य वाचकु| हें प्रसिद्ध जाणे लोकु| भलताही ||१६८३||
येथें अर्थें तेंचि पाठें| जोडे येवढेनि धटें| वाच्यवाचक येकवटें| साधितें शास्त्र ||१६८४||
म्हणौनि मज कांहीं| समर्थनीं आतां विषय नाहीं| गीता जाणा हे वाङ्ग्मयी| श्रीमूर्ति प्रभूचि ||१६८५||
शास्त्र वाच्यें अर्थें फळे| मग आपण मावळे| तैसें नव्हें हें सगळें| परब्रह्मचि ||१६८६||
कैसा विश्वाचिया कृपा| करूनि महानंद सोपा| अर्जुनव्याजें रूपा| आणिला देवें ||१६८७||
चकोराचेनि निमित्तें| तिन्ही भुवनें संतप्तें| निवविलीं कळांवतें| चंद्रें जेवीं ||१६८८||
कां गौतमाचेनि मिषें| कळिकाळज्वरीतोद्देशें| पाणिढाळु गिरीशें| गंगेंचा केला ||१६८९||
तैसें गीतेचें हें दुभतें| वत्स करूनि पार्थातें| दुभिन्नली जगापुरतें| श्रीकृष्ण गाय ||१६९०||
येथे जीवें जरी नाहाल| तरी हेंचि कीर होआल| नातरी पाठमिषें तिंबाल| जीभचि जरी ||१६९१||
तरी लोह एकें अंशें| झगटलिया परीसें| येरीकडे अपैसें| सुवर्ण होय ||१६९२||
तैसी पाठाची ते वाटी| श्लोकपाद लावा ना जंव वोठीं| तंव ब्रह्मतेची पुष्टी| येईल आंगा ||१६९३||
ना येणेसीं मुख वांकडें| करूनि ठाकाल कानवडें| तरी कानींही घेतां पडे| तेचि लेख ||१६९४||
जे हे श्रवणें पाठें अर्थें| गीता नेदी मोक्षाआरौतें| जैसा समर्थु दाता कोण्हातें| नास्ति न म्हणे ||१६९५||
म्हणौनि जाणतया सवा| गीताचि येकी सेवा| काय कराल आघवां| शास्त्रीं येरीं ||१६९६||
आणि कृष्णार्जुनीं मोकळी| गोठी चावळिली जे निराळी| ते श्रीव्यासें केली करतळीं| घेवों ये ऐसी ||१६९७||
बाळकातें वोरसें| माय जैं जेवऊं बैसे| तैं तया ठाकती तैसे| घांस करी ||१६९८||
कां अफाटा समीरणा| आपैतेंपण शाहाणा| केलें जैसें विंजणा| निर्मूनियां ||१६९९||
तैसें शब्दें जें न लभे| तें घडूनिया अनुष्टुभें| स्त्रीशूद्रादि प्रतिभे| सामाविलें ||१७००||
स्वातीचेनि पाणियें| न होती जरी मोतियें| तरी अंगीं सुंदरांचिये| कां शोभिती तियें ? ||१७०१||
नादु वाद्या न येतां| तरी कां गोचरु होता| | फुलें न होतां घेपता| आमोदु केवीं ? ||१७०२||
गोडीं न होती पक्वान्नें| तरी कां फावती रसनें ? | दर्पणावीण नयनें| नयनु कां दिसे ? ||१७०३||
द्रष्टा श्रीगुरुमूर्ती| न रिगता दृश्यपंथीं| तरी कां ह्या उपास्ती| आकळता तो ? ||१७०४||
तैसें वस्तु जें असंख्यात| तया संख्या शतें सात| न होती तरी कोणा येथ| फावों शकतें ? ||१७०५||
मेघ सिंधूचें पाणी वाहे| तरी जग तयातेंचि पाहे| कां जे उमप ते नोहें| ठाकतें कोण्हा ||१७०६||
आणि वाचा जें न पवे| तें हे श्लोक न होते बरवे| तरी कानें मुखें फावे| ऐसें कां होतें ? ||१७०७||
म्हणौनि श्रीव्यासाचा हा थोरु| विश्वा जाला उपकारु| जे श्रीकृष्ण उक्ती आकारु| ग्रंथाचा केला ||१७०८||
आणि तोचि हा मी आतां| श्रीव्यासाचीं पदें पाहतां पाहतां| आणिला श्रवणपथा| मऱ्हाठिया ||१७०९||
व्यासादिकांचे उन्मेख| राहाटती जेथ साशंक| तेथ मीही रंक येक| चावळी करीं ||१७१०||
परी गीता ईश्वरु भोळा| ले व्यासोक्तिकुसुममाळा| तरी माझिया दुर्वादळा| ना न म्हणे कीं ||१७११||
आणि क्षीरसिंधूचिया तटा| पाणिया येती गजघटा| तेथ काय मुरकुटा| वारिजत असे ? ||१७१२||
पांख फुटे पांखिरूं| नुडे तरी नभींच स्थिरू| गगन आक्रमी सत्वरू| तो गरुडही तेथ ||१७१३||
राजहंसाचें चालणें| भूतळीं जालिया शाहाणें| आणिकें काय कोणें| चालावेचिना ? ||१७१४||
जी आपुलेनि अवकाशें| अगाध जळ घेपे कलशें| चुळीं चूळपण ऐसें| भरूनि न निघे ? ||१७१५||
दिवटीच्या आंगीं थोरी| तरी ते बहु तेज धरी| वाती आपुलिया परी| आणीच कीं ना ? ||१७१६||
जी समुद्राचेनि पैसें| समुद्रीं आकाश आभासे| थिल्लरीं थिल्लराऐसें| बिंबेचि पैं ||१७१७||
तेवीं व्यासादिक महामती| वावरों येती इये ग्रंथीं| मा आम्ही ठाकों हे युक्ति| न मिळे कीर ? ||१७१८||
जिये सागरीं जळचरें| संचरती मंदराकारें| तेथ देखोनि शफरें येरें| पोहों न लाहती ? ||१७१९||
अरुण आंगाजवळिके| म्हणौनि सूर्यातें देखें| मा भूतळींची न देखे| मुंगी काई ? ||१७२०||
यालागीं आम्हां प्राकृतां| देशिकारें बंधें गीता| म्हणणें हें अनुचिता| कारण नोहे ||१७२१||
आणि बापु पुढां जाये| ते घेत पाउलाची सोये| बाळ ये तरी न लाहे| पावों कायी ? ||१७२२||
तैसा व्यासाचा मागोवा घेतु| भाष्यकारातें वाट पुसतु| अयोग्यही मी न पवतु| कें जाईन ? ||१७२३||
आणि पृथ्वी जयाचिया क्षमा| नुबगे स्थावर जंगमा| जयाचेनि अमृतें चंद्रमा| निववी जग ||१७२४||
जयाचें आंगिक असिकें| तेज लाहोनि अर्कें| आंधाराचें सावाइकें| लोटिजत आहे ||१७२५||
समुद्रा जयाचें तोय| तोया जयाचें माधुर्य| माधुर्या सौंदर्य| जयाचेनि ||१७२६||
पवना जयाचें बळ| आकाश जेणें पघळ| ज्ञान जेणें उज्वळ| चक्रवर्ती ||१७२७||
वेद जेणें सुभाष| सुख जेणें सोल्लास| हें असो रूपस| विश्व जेणें ||१७२८||
तो सर्वोपकारी समर्थु| सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथु| राहाटत असे मजही आंतु| रिघोनियां ||१७२९||
आतां आयती गीता जगीं| मी सांगें मऱ्हाठिया भंगीं| येथ कें विस्मयालागीं| ठावो आहे ||१७३०||
श्रीगुरुचेनि नांवें माती| डोंगरीं जयापासीं होती| तेणें कोळियें त्रिजगतीं| येकवद केली ||१७३१||
चंदनें वेधलीं झाडें| जालीं चंदनाचेनि पाडें| वसिष्ठें मांनिली कीं भांडे| भानूसीं शाटी ||१७३२||
मा मी तव चित्ताथिला| आणि श्रीगुरु ऐसा दादुला| जो दिठीवेनि आपुला| बैसवी पदीं ||१७३३||
आधींचि देखणी दिठी| वरी सूर्य पुरवी पाठी| तैं न दिसे ऐसी गोठी| केंही आहे ? ||१७३४||
म्हणौनि माझें नित्य नवे| श्वासोश्वासही प्रबंध होआवे| श्रीगुरुकृपा काय नोहे| ज्ञानदेवो म्हणे ||१७३५||
याकारणें मियां| श्रीगीतार्थु मऱ्हाठिया| केला लोकां यया| दिठीचा विषो ||१७३६||
परी मऱ्हाठे बोलरंगें| कवळितां पैं गीतांगें| तैं गातयाचेनि पांगें| येकाढतां नोहे ||१७३७||
म्हणौनि गीता गावों म्हणे| तें गाणिवें होती लेणें| ना मोकळे तरी उणें| गीताही आणित ||१७३८||
सुंदर आंगीं लेणें न सूये| तैं तो मोकळा शृंगारु होये| ना लेइलें तरी आहे| तैसें कें उचित ? ||१७३९||
कां मोतियांची जैसी जाती| सोनयाही मान देती| नातरी मानविती| अंगेंचि सडीं ||१७४०||
नाना गुंफिलीं कां मोकळीं| उणीं न होती परीमळीं| वसंतागमींचीं वाटोळीं| मोगरीं जैसीं ||१७४१||
तैसा गाणिवेतें मिरवी| गीतेवीणही रंगु दावीं| तो लाभाचा प्रबंधु ओंवी| केला मियां ||१७४२||
तेणें आबालसुबोधें| ओवीयेचेनि प्रबंधें| ब्रह्मरससुस्वादें| अक्षरें गुंथिलीं ||१७४३||
आतां चंदनाच्या तरुवरीं| परीमळालागीं फुलवरीं| पारुखणें जियापरी| लागेना कीं ||१७४४||
तैसा प्रबंधु हा श्रवणीं| लागतखेंवो समाधि आणी| ऐकिलियाही वाखाणी| काय व्यसन न लवी ? ||१७४५||
पाठ करितां व्याजें| पांडित्यें येती वेषजे| तैं अमृतातें नेणिजे| फावलिया ||१७४६||
तैसेंनि आइतेपणें| कवित्व जालें हें उपेणें| मनन निदिध्यास श्रवणें| जिंतिलें आतां ||१७४७||
हे स्वानंदभोगाची सेल| भलतयसीचि देईल| सर्वेंद्रियां पोषवील| श्रवणाकरवीं ||१७४८||
चंद्रातें आंगवणें| भोगूनि चकोर शाहाणे| परी फावे जैसें चांदिणें| भलतयाही ||१७४९||
तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये| अंतरंगचि अधिकारिये| परी लोकु वाक्चातुर्यें| होईल सुखिया ||१७५०||
ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें| गौरव आहे जी साचें| ग्रंथु नोहे हें कृपेचें| वैभव तिये ||१७५१||
क्षीरसिंधु परिसरीं| शक्तीच्या कर्णकुहरीं| नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं| सांगितलें जें ||१७५२||
तें क्षीरकल्लोळाआंतु| मकरोदरीं गुप्तु| होता तयाचा हातु| पैठें जालें ||१७५३||
तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं| भग्नावयवा चौरंगी| भेटला कीं तो सर्वांगीं| संपूर्ण जाला ||१७५४||
मग समाधि अव्युत्थया| भोगावी वासना यया| ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया| दिधली मीनीं ||१७५५||
तेणें योगाब्जिनीसरोवरु| विषयविध्वंसैकवीरु| तिये पदीं कां सर्वेश्वरु| अभिषेकिला ||१७५६||
मग तिहीं तें शांभव| अद्वयानंदवैभव| संपादिलें सप्रभव| श्रीगहिनीनाथा ||१७५७||
तेणें कळिकळितु भूतां| आला देखोनि निरुता| ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा| दिधली ऐसी ||१७५८||
ना आदिगुरु शंकरा- | लागोनि शिष्यपरंपरा| बोधाचा हा संसरा| जाला जो आमुतें ||१७५९||
तो हा तूं घेऊनि आघवा| कळीं गिळितयां जीवां| सर्व प्रकारीं धांवा| करीं पां वेगीं ||१७६०||
आधींच तंव तो कृपाळु| वरी गुरुआज्ञेचा बोलू| जाला जैसा वर्षाकाळू| खवळणें मेघां ||१७६१||
मग आर्ताचेनि वोरसें| गीतार्थग्रंथनमिसें| वर्षला शांतरसें| तो हा ग्रंथु ||१७६२||
तेथ पुढां मी बापिया| मांडला आर्ती आपुलिया| कीं यासाठीं येवढिया| आणिलों यशा ||१७६३||
एवं गुरुक्रमें लाधलें| समाधिधन जें आपुलें| तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें| गोसावी मज ||१७६४||
वांचूनि पढे ना वाची| ना सेवाही जाणें स्वामीची| ऐशिया मज ग्रंथाची| योग्यता कें असे ? ||१७६५||
परी साचचि गुरुनाथें| निमित्त करूनि मातें| प्रबंधव्याजें जगातें| रक्षिलें जाणा ||१७६६||
तऱ्ही पुरोहितगुणें| मी बोलिलों पुरें उणें| तें तुम्हीं माउलीपणें| उपसाहिजो जी ||१७६७||
शब्द कैसा घडिजे| प्रमेयीं कैसें पां चढिजें| अळंकारु म्हणिजे| काय तें नेणें ||१७६८||
सायिखडेयाचें बाहुलें| चालवित्या सूत्राचेनि चाले| तैसा मातें दावीत बोले| स्वामी तो माझा ||१७६९||
यालागीं मी गुणदोष- | विषीं क्षमाविना विशेष| जे मी संजात ग्रंथलों देख| आचार्यें कीं ||१७७०||
आणि तुम्हां संतांचिये सभे| जें उणीवेंसी ठाके उभें| तें पूर्ण नोहे तरी तैं लोभें| तुम्हांसीचि कोपें ||१७७१||
सिवतलियाही परीसें| लोहत्वाचिये अवदसे| न मुकिजे आयसें| तैं कवणा बोलु ||१७७२||
वोहळें हेंचि करावें| जे गंगेचें आंग ठाकावें| मगही गंगा जरी नोहावें| तैं तो काय करी ? ||१७७३||
म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें| तुम्हां संतांचें मी पाये| पातलों आतां कें लाहे| उणें जगीं ||१७७४||
अहो जी माझेनि स्वामी| मज संत जोडुनि तुम्हीं| दिधलेति तेणें सर्वकामीं| परीपूर्ण जालों ||१७७५||
पाहा पां मातें तुम्हां सांगडें| माहेर तेणें सुरवाडें| ग्रंथाचें आळियाडें| सिद्धी गेलें ||१७७६||
जी कनकाचें निखळ| वोतूं येईल भूमंडळ| चिंतारत्नीं कुळाचळ| निर्मूं येती ||१७७७||
सातांही हो सागरांतें| सोपें भरितां अमृतें| दुवाड नोहे तारांतें| चंद्र करितां ||१७७८||
कल्पतरूचे आराम| लावितां नाहीं विषम| परी गीतार्थाचें वर्म| निवडूं न ये ||१७७९||
तो मी येकु सर्व मुका| बोलोनि मऱ्हाठिया भाखा| करी डोळेवरी लोकां| घेवों ये ऐसें जें ||१७८०||
हा ग्रंथसागरु येव्हढा| उतरोनि पैलीकडा| कीर्तिविजयाचा धेंडा| नाचे जो कां ||१७८१||
गीतार्थाचा आवारु| कलशेंसीं महामेरु| रचूनि माजीं श्रीगुरु- | लिंग जें पूजीं ||१७८२||
गीता निष्कपट माय| चुकोनि तान्हें हिंडे जें वाय| तें मायपूता भेटी होय| हा धर्म तुमचा ||१७८३||
तुम्हां सज्जनांचें केलें| आकळुनी जी मी बोलें| ज्ञानदेव म्हणे थेंकुलें| तैसें नोहें ||१७८४||
काय बहु बोलों सकळां| मेळविलों जन्मफळा| ग्रंथसिद्धीचा सोहळा| दाविला जो हा ||१७८५||
मियां जैसजैसिया आशा| केला तुमचा भरंवसा| ते पुरवूनि जी बहुवसा| आणिलों सुखा ||१७८६||
मजलागीं ग्रंथाची स्वामी| दुजीं सृष्टी जे हे केली तुम्ही| तें पाहोनि हांसों आम्हीं| विश्वामित्रातेंही ||१७८७||
जे असोनि त्रिशंकुदोषें| धातयाही आणावें वोसें| तें नासतें कीजे कीं ऐसें| निर्मावें नाहीं ||१७८८||
शंभू उपमन्युचेनि मोहें| क्षीरसागरूही केला आहे| येथ तोही उपमे सरी नोहे| जे विषगर्भ कीं ||१७८९||
अंधकारु निशाचरां| गिळितां सूर्यें चराचरां| धांवा केला तरी खरा| ताउनी कीं तो ||१७९०||
तातलियाही जगाकारणें| चंद्रें वेंचिलें चांदणें| तया सदोषा केवीं म्हणे| सारिखें हें ||१७९१||
म्हणौनि तुम्हीं मज संतीं| ग्रंथरूप जो हा त्रिजगतीं| उपयोग केला तो पुढती| निरुपम जी ||१७९२||
किंबहुना तुमचें केलें| धर्मकीर्तन हें सिद्धी नेलें| येथ माझें जी उरलें| पाईकपण ||१७९३||
आतां विश्वात्मकें देवें| येणें वाग्यज्ञें तोषावें| तोषोनि मज द्यावें| पसायदान हें ||१७९४||
जे खळांची व्यंकटी सांडो| तयां सत्कर्मीं रती वाढो| भूतां परस्परें पडो| मैत्र जीवाचें ||१७९५||
दुरिताचें तिमिर जावो| विश्व स्वधर्मसूर्यें पाहो| जो जें वांछील तो तें लाहो| प्राणिजात ||१७९६||
वर्षत सकळमंगळीं| ईश्वर निष्ठांची मांदियाळी| अनवरत भूमंडळीं| भेटतु या भूतां ||१७९७||
चलां कल्पतरूंचे अरव| चेतना चिंतामणीचें गांव| बोलते जे अर्णव| पीयूषाचे ||१७९८||
चंद्रमे जे अलांछन| मार्तंड जे तापहीन| ते सर्वांही सदा सज्जन| सोयरे होतु ||१७९९||
किंबहुना सर्वसुखीं| पूर्ण होऊनि तिहीं लोकीं| भजिजो आदिपुरुखीं| अखंडित ||१८००||
आणि ग्रंथोपजीविये| विशेषीं लोकीं इयें| दृष्टादृष्ट विजयें| होआवें जी ||१८०१||
तेथ म्हणे श्रीविश्वेशरावो| हा होईल दानपसावो| येणें वरें ज्ञानदेवो| सुखिया झाला ||१८०२||
ऐसें युगीं परी कळीं| आणि महाराष्ट्रमंडळीं| श्रीगोदावरीच्या कूलीं| दक्षिणलिंगीं ||१८०३||
त्रिभुवनैकपवित्र| अनादि पंचक्रोश क्षेत्र| जेथ जगाचें जीवनसूत्र| श्रीमहालया असे ||१८०४||
तेथ यदुवंशविलासु| जो सकळकळानिवासु| न्यायातें पोषी क्षितीशु| श्रीरामचंद्रु ||१८०५||
तेथ महेशान्वयसंभूतें| श्रीनिवृत्तिनाथसुतें| केलें ज्ञानदेवें गीते| देशीकार लेणें ||१८०६||
एवं भारताच्या गांवीं| भीष्मनाम प्रसिद्ध पर्वीं| श्रीकृष्णार्जुनीं बरवी| गोठी जे केली ||१८०७||
जें उपनिषदांचें सार| सर्व शास्त्रांचें माहेर| परमहंसीं सरोवर| सेविजे जें ||१८०८||
तियें गीतेचा कलशु| संपूर्ण हा अष्टादशु| म्हणे निवृत्तिदासु| ज्ञानदेवो ||१८०९||
पुढती पुढती पुढती| इया ग्रंथपुण्यसंपत्ती| सर्वसुखीं सर्वभूतीं| संपूर्ण होईजे ||१८१०||
शके बाराशतें बारोत्तरें| तैं टीका केली ज्ञानेश्वरें| सच्चिदानंदबाबा आदरें| लेखकु जाहला ||१८११||
इति श्री ज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां अष्टादशोध्यायः ||

श्रीशके पंधराशें साहोत्तरीं| तारणनामसंवत्सरीं| एकाजनार्दनें अत्यादरीं| गीता- ज्ञानेश्वरी प्रतिशुद्ध केली ||१||
ग्रंथ पूर्वींच अतिशुद्ध| परी पाठांतरीं शुद्ध अबद्ध| तो शोधूनियां एवंविध| प्रतिशुद्ध सिद्धज्ञानेश्वरी ||२||
नमो ज्ञानेश्वरा निष्कलंका| जयाची गीतेची वाचितां टीका| ज्ञान होय लोकां| अतिभाविकां ग्रंथार्थियां ||३||
बहुकाळपर्वणी गोमटी| भाद्रपदमास कपिलाषष्ठी| प्रतिष्ठानीं गोदातटीं| लेखनकामाठी संपूर्ण जाली ||४||
ज्ञानेश्वरीपाठीं| जो ओंवी करील मऱ्हाटी| तेणें अमृताचे ताटीं| जाण नरोटी ठेविली ||५||
||श्रीकृष्णार्पणमस्तु ||
||शुभं भवतु ||
||श्री परमात्मने नमः ||
||तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु |

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