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Sunday, October 28, 2012

जनता निदान एवं उपचार चाहती है?


व्यक्तिगत व सामाजिक रूप से नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। नैतिक मूल्यों में अब गिरावट आएगी तो उसका असर समाज के हर क्षेत्र में देखने को मिलेगा। संसद का काम यही है कि वह नियम कानूनों के मुताबिक देश का शासन चलाए। संविधान के मुताबिक शासन-प्रशासन में देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर प्राप्त हों, मगर व्यावहारिक धरातल पर क्या हो रहा है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो आम आदमी को व्यथित करता रहता है। शासन-प्रशासन का काम है कि वह कानून का भय सबके बीच बरकरार रखे। हर किसी को इस बात का अहसास रहे कि यदि वे कोई गलत काम करेंगे तो कानून की नजरों से बच नहीं सकेंगे किन्तु वर्तमान व्यवस्था में लोगों के मन में कानून का भय नहीं है। `अंधा बांटे रेवड़ी अपनो-अपनों को दे', वाली कहावत भलीभांति चरितार्थ हो रही है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत समाज में खूब चरितार्थ हो रही है।
यह तो सर्वविदित है कि लोग कानून से प्रेम भय के कराण ही करते हैं। मगर कुछ लोग ऐसा दिखाने का प्रयास करते हैं जैसे वे कानून से ऊपर हों। चुनावों में प्रत्याशी जब जनता के बीच आते हैं तो दावा करते हैं कि उनका काम सिर्प गरीब, मजबूर एवं आम आदमी की सेवा करना ही रहेगा। सिर्प इतना ही नहीं वे आम आदमी को स्वर्ग में भी बैठाने की बात कहते हैं, मगर चुनाव जीतने के बाद क्या करते हैं। उसके बाद तो सबसे पहले स्वयं अपने एवं अन् परिवार के हितों के लिए सोचने लगते हैं। यह बताने की कोशिश वे कभी नहीं करते कि आखिर आम जनता के लिए स्वर्ग जैसी स्थिति कैसे उत्पन्न कर देंगे? चुनाव जीतने के बाद लोग संविधान के मुताबिक काम करने की शपथ लेते हैं, मगर अपनी शपथ का निर्वाह किस प्रकार करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। राज्यों के पास जो पैसा आता है उससे उम्मीद की जाती है कि वह संविधान के मुताबिक खर्च करे। इसी प्रकार केंद्र सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तरीके से राष्ट्र एवं समाज के हित में किए मगर देखने  में आ रहा है कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट करने में लगी है। इस मामले में देखा जाए तो लगता है कि सभी पार्टियों का चरित्र लगभग एक जैसा हो गया है। जो लोग सत्ता में होते है, वे अपनी मर्जी से शासन चलाते हैं, जो पार्टी विपक्ष की भूमिका में होती है, वे भी अपना काम ठीक से नहीं करती है। विपक्ष में चाहे वह पार्टी कोई भी हो। हिन्दुस्तान में कानून का राज ठीक तरीके से नहीं चल पा रहा है, इसीलिए अराजकता की स्थिति पैदा हुई है। यूपीए-2 के शासन काल में जितने भी घोटाले सामने आए हैं सभी का सूत्रधार प्रधानमंत्री कार्यालय ही साबित हुआ है जबकि प्रधानमंत्री का कार्यालय न्याय का कार्यालय माना गया है। कोई मंत्री यदि गलत काम करता है तो उस पर प्रधानमंत्री की कड़ी नजर होती है, मगर यहां तो देखने में आ रहा है कि मंत्रियों पर प्रधानमंत्री का कोई नियंत्रण ही नहीं दिखता है। जब सभी कार्यों का स्रोत प्रधानमंत्री कार्यालय ही जाएगा तो बाकी लोग क्या करेंगे? भ्रष्टाचार के कारण जब जनता किसी दल की सरकार बदलती है तो आने वाली सरकार भी कमोबेश उसी रास्ते पर चलने लगती है। 
  भ्रष्टाचार देश के लिए बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है। जनता इसका निदान एवं उपचार चाहती है। ऐसा भी नहीं है कि घोटाले सिर्प किसी विशेष क्षेत्र के लोग कर रहे हैं बल्कि सभी क्षेत्रों में हो रहे हैं। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोगों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब वे कोई मामला उठाते हैं तो पहले वे पूरी तरह उसकी तहकीकात कर लें। अभी अरविंद केजरीवाल एवं उनकी सहयोगी अंजलि दमानिया ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ जो आरोप लगाया है उसमें उनका अधकचरा आरोप साबित हुआ है। अभी तो ये लोग सामाजिक रूप से आंदोलन कर रहे थे तो अलग बात थी मगर जब ये लोग राजनीतिक मंच पर आकर काम करेंगे तो मुझे नहीं लगता कि ये लोग अपने मकसद में बहुत अधिक कामयाब होंगे? शायद जल्द ही अलग हो जायेंगेl राजनीतिक पार्टी बनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई तो लड़ी जा सकती है किन्तु उसे सामाजिक आंदोलन का रुतबा हासिल नहीं हो सकता है। क्योंकि सामाजिक आंदोलन राजनीतिक आंदोलन से बहुत ऊपर की चीज है।
राजनीतिक पार्टी का रुख अख्तियार करते ही कांग्रेस में तमाम कमियां आनी शुरू हो गईं। सच तो यह है कि भारतीय समाज भ्रष्टाचार से इतना तंग आ चुका है क विह इसका निदान एवं उपचार चाहता है। चूंकि, भारतीय समाज बहुत गहराई से धार्मिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है, अन्यथा जिस प्रकार के हालात है, स्थितियां काफी जटिल हो गई होतीं। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था एक सड़ी लाश की तरह है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोग यदि सबकी पोल खोलना चाहते हैं तो भाजपा, कांग्रेस एवं अन्य क्षेत्रीय दलों की जो राज्य सरकारें हैं, उनके घोटालों पर प्रहार किया जा सकता है। मगर जो कुछ भी उठाएं पूरी छानबीन के आधार पर उठाएं। अन्यथा विश्वसनीयता का संकट पैदा हो सकता है। सार्वजनिक जीवन में विश्वसनीयता ही सब कुछ है

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व्यक्तिगत व सामाजिक रूप से नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। नैतिक मूल्यों में अब गिरावट आएगी तो उसका असर समाज के हर क्षेत्र में देखने को मिलेगा। संसद का काम यही है कि वह नियम कानूनों के मुताबिक देश का शासन चलाए। संविधान के मुताबिक शासन-प्रशासन में देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर प्राप्त हों, मगर व्यावहारिक धरातल पर क्या हो रहा है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो आम आदमी को व्यथित करता रहता है। शासन-प्रशासन का काम है कि वह कानून का भय सबके बीच बरकरार रखे। हर किसी को इस बात का अहसास रहे कि यदि वे कोई गलत काम करेंगे तो कानून की नजरों से बच नहीं सकेंगे किन्तु वर्तमान व्यवस्था में लोगों के मन में कानून का भय नहीं है। `अंधा बांटे रेवड़ी अपनो-अपनों को दे', वाली कहावत भलीभांति चरितार्थ हो रही है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत समाज में खूब चरितार्थ हो रही है।
यह तो सर्वविदित है कि लोग कानून से प्रेम भय के कराण ही करते हैं। मगर कुछ लोग ऐसा दिखाने का प्रयास करते हैं जैसे वे कानून से ऊपर हों। चुनावों में प्रत्याशी जब जनता के बीच आते हैं तो दावा करते हैं कि उनका काम सिर्प गरीब, मजबूर एवं आम आदमी की सेवा करना ही रहेगा। सिर्प इतना ही नहीं वे आम आदमी को स्वर्ग में भी बैठाने की बात कहते हैं, मगर चुनाव जीतने के बाद क्या करते हैं। उसके बाद तो सबसे पहले स्वयं अपने एवं अन् परिवार के हितों के लिए सोचने लगते हैं। यह बताने की कोशिश वे कभी नहीं करते कि आखिर आम जनता के लिए स्वर्ग जैसी स्थिति कैसे उत्पन्न कर देंगे? चुनाव जीतने के बाद लोग संविधान के मुताबिक काम करने की शपथ लेते हैं, मगर अपनी शपथ का निर्वाह किस प्रकार करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। राज्यों के पास जो पैसा आता है उससे उम्मीद की जाती है कि वह संविधान के मुताबिक खर्च करे। इसी प्रकार केंद्र सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तरीके से राष्ट्र एवं समाज के हित में किए मगर देखने  में आ रहा है कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट करने में लगी है। इस मामले में देखा जाए तो लगता है कि सभी पार्टियों का चरित्र लगभग एक जैसा हो गया है। जो लोग सत्ता में होते है, वे अपनी मर्जी से शासन चलाते हैं, जो पार्टी विपक्ष की भूमिका में होती है, वे भी अपना काम ठीक से नहीं करती है। विपक्ष में चाहे वह पार्टी कोई भी हो। हिन्दुस्तान में कानून का राज ठीक तरीके से नहीं चल पा रहा है, इसीलिए अराजकता की स्थिति पैदा हुई है। यूपीए-2 के शासन काल में जितने भी घोटाले सामने आए हैं सभी का सूत्रधार प्रधानमंत्री कार्यालय ही साबित हुआ है जबकि प्रधानमंत्री का कार्यालय न्याय का कार्यालय माना गया है। कोई मंत्री यदि गलत काम करता है तो उस पर प्रधानमंत्री की कड़ी नजर होती है, मगर यहां तो देखने में आ रहा है कि मंत्रियों पर प्रधानमंत्री का कोई नियंत्रण ही नहीं दिखता है। जब सभी कार्यों का स्रोत प्रधानमंत्री कार्यालय ही जाएगा तो बाकी लोग क्या करेंगे? भ्रष्टाचार के कारण जब जनता किसी दल की सरकार बदलती है तो आने वाली सरकार भी कमोबेश उसी रास्ते पर चलने लगती है। 
  भ्रष्टाचार देश के लिए बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है। जनता इसका निदान एवं उपचार चाहती है। ऐसा भी नहीं है कि घोटाले सिर्प किसी विशेष क्षेत्र के लोग कर रहे हैं बल्कि सभी क्षेत्रों में हो रहे हैं। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोगों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब वे कोई मामला उठाते हैं तो पहले वे पूरी तरह उसकी तहकीकात कर लें। अभी अरविंद केजरीवाल एवं उनकी सहयोगी अंजलि दमानिया ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ जो आरोप लगाया है उसमें उनका अधकचरा आरोप साबित हुआ है। अभी तो ये लोग सामाजिक रूप से आंदोलन कर रहे थे तो अलग बात थी मगर जब ये लोग राजनीतिक मंच पर आकर काम करेंगे तो मुझे नहीं लगता कि ये लोग अपने मकसद में बहुत अधिक कामयाब होंगे? शायद जल्द ही अलग हो जायेंगेl राजनीतिक पार्टी बनाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई तो लड़ी जा सकती है किन्तु उसे सामाजिक आंदोलन का रुतबा हासिल नहीं हो सकता है। क्योंकि सामाजिक आंदोलन राजनीतिक आंदोलन से बहुत ऊपर की चीज है।
राजनीतिक पार्टी का रुख अख्तियार करते ही कांग्रेस में तमाम कमियां आनी शुरू हो गईं। सच तो यह है कि भारतीय समाज भ्रष्टाचार से इतना तंग आ चुका है क विह इसका निदान एवं उपचार चाहता है। चूंकि, भारतीय समाज बहुत गहराई से धार्मिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है, अन्यथा जिस प्रकार के हालात है, स्थितियां काफी जटिल हो गई होतीं। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था एक सड़ी लाश की तरह है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोग यदि सबकी पोल खोलना चाहते हैं तो भाजपा, कांग्रेस एवं अन्य क्षेत्रीय दलों की जो राज्य सरकारें हैं, उनके घोटालों पर प्रहार किया जा सकता है। मगर जो कुछ भी उठाएं पूरी छानबीन के आधार पर उठाएं। अन्यथा विश्वसनीयता का संकट पैदा हो सकता है। सार्वजनिक जीवन में विश्वसनीयता ही सब कुछ है
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