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Friday, October 18, 2013

क्या मूल्य हैं इन मानवीय प्रयत्नों का?

देश विदेश के अनेक विद्वान् और विचारक मंच पर उपस्थित थे. उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किये, उनमे भिन्नता हो यह स्वाभाविक ही हैं. श्रोता विविध रसो के रूप में उनका आस्वादन करते हुए आनंदित हो रहे थे. कुछ भाषणों में कटु–तिक्त का आधिक्य था तो कुछ में मधुरता के बोल थे. फिर भी ऐसा लगा की कटु-तिक्त अधिक मुखर हो उठा हैं. उसमे आलोचना थी. प्रश्नचिन्ह थे और नैराश्य की अभिव्यक्ति थी. उसमे बढ़ते हुए भ्रष्टाचार पर चिंता थी. वे बाते उपयोगी और युक्तिसंगत थी. फिर भी मुझे ऐसा लगा की जीवन को देखने की यह दृष्टी अधूरी हैं. घोर निराशा उसी का परिणाम हैं.  इसमें कोई संदेह नही की हम विरोधाभासो से ग्रस्त है. एक ओर संत हैं, विचारक हैं, प्रचारक हैं और उनके विचार सुनने के लिए भीड़ उमड़ पडती हैं. धार्मिक ग्रंथो का प्रकाशन और उसके पाठको की संख्या भी कम नही हैं. पर इसका दूसरा पक्ष भी हैं. जीवन और व्यव्हार में अनैतिकता की वृद्धि हो रही हैं. समाज संघर्ष से संत्रस्त हैं. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही हैं की क्या इन ग्रंथो और महापुरुषो की कोई सार्थकता हैं? इस उमड़ती हुई भीड़ का कोई मूल्य हैं? झुंझलाहट भरे स्वर बोल उठते हैं यह सब बकवास हैं व्यर्थ हैं. पर मुझे यह यथार्थ प्रतीत नही होता. कभी कभी मेरे मन में यह प्रश्न भी उपस्थित होता हैं की भ्रष्टाचार के प्रति हमारा यह आक्रोश  यथार्थ भी हैं या नही? राजनैतिक सामाजिक धार्मिक मंचो से आक्रोश प्रगट करने वाले महानुभाव क्या सचमुच ही उतने व्यथित या चिंतित हैं जितने वे मंच पर भाषणों के माध्यम से प्रतीत होते हैं? वस्तुतः यह आक्रोश बौद्धिक ही होता हैं, जो बहुधा सभा मंच पर ही अधिक मुखर होता हैं. पर जिनमे यह आक्रोश यथार्थ है वे क्या करे? मैं चाहता हूँ की ऐसे महानुभाव पौराणिक काल की धारणा के सत्य को भी सामने रखे.


प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले काल में एकरसता की आशा करना व्यर्थ हैं. कोई भी मनःस्थिति या परिस्थिति, भले ही वह हमे कितनी भी प्रिय क्यों न हो, स्थिर नही रहती. यद्यपि उसे स्थिर रखने की आकांक्षा और प्रयत्न सर्वथा मानवोचित हैं. वस्तुतः कालगत सत्य और मानवीय प्रयत्नों के बीच एक विचित्र विरोधाभास हैं. अनादी काल से अगणित प्रयत्नों के बाद भी मानवीय समस्याओ का कोई शास्वत समाधान, जो सर्वथा मनः स्थितियों को और परिस्थितियों को अपरिवर्तित रख सके, प्राप्त नही हुआ. इससे व्यक्ति में कभी कभी घोर नैराश्य का जन्म हुआ हैं, उसे लगने लगता हैं की क्या मूल्य हैं इन मानवीय प्रयत्नों का? 

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क्या मूल्य हैं इन मानवीय प्रयत्नों का?

11:13:00 PM Reporter: Vishwajeet Singh 0 Responses
देश विदेश के अनेक विद्वान् और विचारक मंच पर उपस्थित थे. उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किये, उनमे भिन्नता हो यह स्वाभाविक ही हैं. श्रोता विविध रसो के रूप में उनका आस्वादन करते हुए आनंदित हो रहे थे. कुछ भाषणों में कटु–तिक्त का आधिक्य था तो कुछ में मधुरता के बोल थे. फिर भी ऐसा लगा की कटु-तिक्त अधिक मुखर हो उठा हैं. उसमे आलोचना थी. प्रश्नचिन्ह थे और नैराश्य की अभिव्यक्ति थी. उसमे बढ़ते हुए भ्रष्टाचार पर चिंता थी. वे बाते उपयोगी और युक्तिसंगत थी. फिर भी मुझे ऐसा लगा की जीवन को देखने की यह दृष्टी अधूरी हैं. घोर निराशा उसी का परिणाम हैं.  इसमें कोई संदेह नही की हम विरोधाभासो से ग्रस्त है. एक ओर संत हैं, विचारक हैं, प्रचारक हैं और उनके विचार सुनने के लिए भीड़ उमड़ पडती हैं. धार्मिक ग्रंथो का प्रकाशन और उसके पाठको की संख्या भी कम नही हैं. पर इसका दूसरा पक्ष भी हैं. जीवन और व्यव्हार में अनैतिकता की वृद्धि हो रही हैं. समाज संघर्ष से संत्रस्त हैं. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही हैं की क्या इन ग्रंथो और महापुरुषो की कोई सार्थकता हैं? इस उमड़ती हुई भीड़ का कोई मूल्य हैं? झुंझलाहट भरे स्वर बोल उठते हैं यह सब बकवास हैं व्यर्थ हैं. पर मुझे यह यथार्थ प्रतीत नही होता. कभी कभी मेरे मन में यह प्रश्न भी उपस्थित होता हैं की भ्रष्टाचार के प्रति हमारा यह आक्रोश  यथार्थ भी हैं या नही? राजनैतिक सामाजिक धार्मिक मंचो से आक्रोश प्रगट करने वाले महानुभाव क्या सचमुच ही उतने व्यथित या चिंतित हैं जितने वे मंच पर भाषणों के माध्यम से प्रतीत होते हैं? वस्तुतः यह आक्रोश बौद्धिक ही होता हैं, जो बहुधा सभा मंच पर ही अधिक मुखर होता हैं. पर जिनमे यह आक्रोश यथार्थ है वे क्या करे? मैं चाहता हूँ की ऐसे महानुभाव पौराणिक काल की धारणा के सत्य को भी सामने रखे.


प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले काल में एकरसता की आशा करना व्यर्थ हैं. कोई भी मनःस्थिति या परिस्थिति, भले ही वह हमे कितनी भी प्रिय क्यों न हो, स्थिर नही रहती. यद्यपि उसे स्थिर रखने की आकांक्षा और प्रयत्न सर्वथा मानवोचित हैं. वस्तुतः कालगत सत्य और मानवीय प्रयत्नों के बीच एक विचित्र विरोधाभास हैं. अनादी काल से अगणित प्रयत्नों के बाद भी मानवीय समस्याओ का कोई शास्वत समाधान, जो सर्वथा मनः स्थितियों को और परिस्थितियों को अपरिवर्तित रख सके, प्राप्त नही हुआ. इससे व्यक्ति में कभी कभी घोर नैराश्य का जन्म हुआ हैं, उसे लगने लगता हैं की क्या मूल्य हैं इन मानवीय प्रयत्नों का? 

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